समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन) (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)
‘सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन’समाज शब्द सम् उपसर्गपूर्व गत्यर्थक ‘अज्’ धातु से ‘ध’ प्रत्यय होकर व्युत्पन्न होता है। “तात्पर्य-बीतिः गतिः उन्नतिः सम्यग्रेपेण क्रियते जनैर्यास्मिन् ससमाजः” अर्थात् जिसमें रहकर मनुष्य सम्यक रूप से अपनी प्रगति अर्थात् उन्नति करते हैं, उसे समाज कहते हैं। लगभग इस अर्थ में ‘समुदाय’ शब्द का भी प्रयोग कर सकते हैं। यह ‘सम्’ और उत् उपसर्ग पूर्वक गत्यर्धक ‘इन्’ धातु से ‘घ’ प्रत्यय होकर व्युत्पन्न होता है, उपर्युक्त व्युत्पति से समुदाय शब्द का अर्थ हुआ, ऊपर उठने का साधन।
समाजशास्त्रीय तथा वैज्ञानिक प्रयोग से समाज का अर्थ व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह से न होकर व्यक्ति के परस्पर संबंधों से होता है। कुछ प्रसिद्ध विद्वानों की समाज सम्बन्धी परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं -
‘मेकाइवर’ और ‘पेज’ के अनुसार “समूह से हमारा तात्पर्य व्यक्तियों के किसी भी ऐसे संग्रह से है जो सामाजिक संबंधों के कारण एक दूसरे के समीप हों।”
‘आगबर्न’ और ‘निमकाफ’ के अनुसार - “जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एकत्रित होकर एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं, तब वे एक समूह का निर्माण करते हैं।”
‘आर.एम.विलियम्स’ के अनुसार - “एक सामाजिक समूह मनुष्यों के उस निश्चित संग्रह को कहा जाता है, जो पारस्परिक अन्तक्रियाएँ करते हैं और उस अन्तक्रिर्या को इकाई रूप में ही दूसरों के द्वारा मान्य होते हैं।”
‘सैण्डरसन’ के अनुसार - “समूह दो या दो से अधिक उन व्यक्तियों का संग्रह है, जिनके बीच मनोवैज्ञानिक अन्तक्रियाओं के निश्चित प्रतिमान पाये जाते हैं। यह अपने सदस्यों और अन्य व्यक्तियों के द्वारा एक सत्ता के रूप में मान्य होता है क्योंकि यह सामूहिक व्यवहार का ही एक विशेष स्वरूप है।”
‘मिशेल’ के अनुसार - “समूह का अर्थ व्यक्तियों की किसी भी उस छोटी अथवा बड़ी संस्था से है, जिनके बीच इस प्रकार के संबंध विद्यमान हों कि उन्हें एक सम्बद्ध इकाई के रूप में देखा जाने लगे।”
इस तरह हम देखते हैं कि - ‘समाज रीतियों और कार्य प्रणालियों, प्रभुत्व और पारस्परिक सहायता, विविध समूहों और श्रेणियों, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों और स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है। इन सामाजिक व्यवस्थायों, रीतियों, कार्य प्रणालियों, प्रभुत्व और पारस्परिक सहायता, समूहों और श्रेणियों तथा मानव व्यवहार के नियन्त्रणों व स्वतन्त्रताओं का रूप निरन्तर बदलता रहा है। इन परिभाषाओं के आधार पर समाज के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं -
(1) समाज का प्रमुख आधार चलन या रीतियाँ - रीतियाँ या चलन या प्रथाएँ समाज की वे स्वीकृत पद्धतियाँ है, जिनको समाज व्यवहार के क्षेत्र में उचित समझता है।
(2) कार्य प्रणालियाँ - एक बड़ी सीमा तक ऐसी विधियाँ हैं, जिनसे व्यक्ति की आवश्यकताओं की सरलतापूर्वक अधिक से अधिक पूर्ति की जा सके और जिससे संस्कृति के विकास को प्रोत्साहन मिल सके। समाज में विवाह, उत्तराधिकार, शिक्षा, धार्मिक विश्वासों, राजनीतिक दलों आदि की कार्य प्रणालियों का महत्वपूर्ण भाग है।
(3)प्रभुत्व या अधिकार सत्ता - एक प्रकार के संबंध का परिचायक है, जिसमें संबंधित व्यक्तियों या वर्गों में, प्रत्येक दूसरों को नियन्त्रित करते हैं और दूसरा पहले के प्रति अनुसरण या अधीनता का भाव रखता है। यथा राज्य में राजा, परिवार में कर्ता तथा संस्थाओं में प्रधान व्यक्ति अधिकार प्राप्त करके व्यवस्था बनाये रखने का प्रयास करते हैं।
(4) परस्पर सहयोग - चतुर्थ मूल तत्व हैं परस्पर सहयोग । इसके अभाव में किसी प्रकार के समाज के संगठन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके बढ़ने से समाज का विकास होता है और घटने से समाज छिन्न-भिन्न होने लगता है।
(5) अनेक समूह श्रेणियाँ या विभाग - से तात्पर्य उन समस्त संस्थाओं, समितियों समूहों और संगठनों से है, जो आपस में सम्बद्ध होकर समाज को एक निश्चित रूप प्रदान करते हैं। समाज के अन्तर्गत परिवार, पडौस, गाँव, कस्बा, नगर, प्रान्त विविध सँस्थाएँ और समितियाँ आदि विभिन्न सामाजिक विभाग होते हैं, जिनमें से प्रत्येक हमारे संबंधों को किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित करते हैं। सँस्थाएँ मानव विकास का मूल स्रोत है। विविध, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक सँस्थाएँ हमारे सामने विभिन्न परिस्थितियाँ प्रस्तुत करती हैं।
(6) मानव व्यवहार के नियन्त्रण - मानवीय व्यवहार का नियन्त्रण परम्पराओं, रूढ़यों, जनरीतियों, निषेधों, विधि आदि के द्वारा किया जाता है। मनुष्य को इनके अनुसार ही व्यवहार करना पड़ता है, अन्यथा उसकी निन्दा होती है। दण्ड भी मिलता है। नियन्त्रण के साधन कुछ भी हों, लेकिन समाज को व्यवस्थित रखने के लिए उनका क्रियाशील होना अत्यधिक आवश्यक है।
(7) अन्तिम आधार है स्वतन्त्रता - यदि नियन्त्रणों के साथ स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था न हो तो समाज की उन्नति नहीं हो सकती और न ही मनुष्य का समुचित विकास हो सकता है। प्रत्येक सभ्य समाज में मनुष्य को शिक्षा प्राप्ति, व्यवसाय चुनने की, विवाह की, सन्तानोत्पत्ति, स्वतन्त्र विचार रखने व व्यक्त करने की स्वतन्त्रता होती है।
संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति -यह शब्द ‘सम्’ उपर्सपूर्वक ‘स्कृत’ शब्द के योग से बना है। ‘कृत’ शब्द ‘कृ’ धातु से (क्त) निष्ठा प्रत्यय लगकर बना है। यहाँ ‘स्कृत’ सुट् है अर्थात् उसके पूर्व ‘स’ लगा हुआ है। अतः ‘समः सुटि’ इस सूत्र से ‘सुट्’ के पूर्व ‘सम्’ के ‘म्’ को ‘रु’ आदेश हो जाता है। अतएव रूप हुआ - स + रु (र) + स्कृत।
तदनन्तर “अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु वा” सूत्र से ‘रु’ से पूर्व वर्ण को विकल्प से अनुनासिक आदेश हुआ। अब रूप बना - सं + रू (र्) + स्कृत।
“खरावसानयो विसर्जनीयः” सूत्र से ‘खर्’ प्रत्यहार का वर्ण ‘स्’ परे रहते हुए ‘रु (र)’ को विसर्गादेश हुआ। अतएव रूप हुआ - सः + स्कृत।
तदनन्तर “विसर्जनीय यख्य सः” सूत्र से “खर्” प्रत्याहार का वर्ण ‘स’ परे रहते, विसर्गो को ‘स’ आदेश। अतः रूप हुआ - संस् + स्कृत। = संस्कृत।
प्रसिद्ध वैयाकरण पतंजली के अनुसार “समो वा लोपः” सूत्र से ‘सकार’ का लोप विकल्प से होता है। अतः ‘संस्’ के ‘स्’ का लोप होकर शब्द बना - ‘सँस्कृत’। ‘संस्कृति’ शब्द में ‘ई’ स्त्रीलिंग प्रत्यय लगा है।
संस्कृति शब्द का अर्थ है - परिमार्जित, परिष्कृत। इसी प्रकार संस्कृति शब्द का अर्थ भी इससे मिलता-जुलता है लेकिन पहले शब्द का आधार जहाँ ‘भाषा’ है वहाँ दूसरे शब्द का आधार ‘मानव’ है। विद्वान इस शब्द का प्रयोग मानव विकास के चिन्तन, सुन्दर, शालीन सूक्ष्म तत्वों तथा सामाजिक जीवन की ओर, मानव की ओर मानव की प्रगति की सत्यं, शिवं, सुन्दरं तथा रुचिर परम्परा के अर्थ में करते रहे हैं।
विद्वानों ने इस शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थो में किया है - प्रमुख विद्वानों के अनुसार संस्कृति के विभिन्न अर्थ तथा परिभाषाएँ विभिन्न हैं;यथा ‘टायलर’ के अनुसार - “संस्कृति एक मिश्रित किन्तु पूर्ण व्यवस्था है, जिसमें वे सभी ज्ञान, विश्वास, नैतिकता के सिद्धान्त विधि-विधान, प्रथाएँ, ऐसी अन्य योग्यताएँ सम्मिलित हैं, जिन्हें व्यक्ति समाज के सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।
‘मैथ्यू आरनाल्ड’ के अनुसार - “संस्कृति सम्पूर्णता, सुव्यवस्थित सम्पूर्णता का अध्ययन है।”
‘मैलिनीवस्की’ के अनुसार - “संस्कृति मानव का हस्त उद्योग है और वह साधन है, जिससे वह अपने साध्यों को प्राप्त करता है”।
‘सी.सी.नार्थ’ के अनुसार - “मानव की निजी अवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए सहायक सिद्ध होने के लिए, उसके द्वारा निर्मित साधनों में संस्कृति निहित होती है।”
‘आरनाल्ड.डब्लू.ग्रीन’ के अनुसार - “संस्कृति सामाजिक रूप से प्रेषित ज्ञान, अभ्यास और विश्वास के आदर्श पकारों की वह व्यवस्था है, जो उचित समय पर परिवर्तित हो जाती है।
‘गिलिन’ के अनुसार - “व्यक्तियों की समान संस्कृति ही समाज के सदस्यों को समूह के प्रति एकता का भाव देती है, उनकी अव्यवस्था तथा अवरोध रहित एक साथ रहने और काम करने की सामर्थ्य देती है।
‘श्यामचरण दुबे’ के अनुसार - “सीखे हुए व्यवहार प्रकारों को, उस समग्रता को, जो किसी समूह को वैशिष्ट्य प्रदान करती है, संस्कृति की संज्ञा दी जा सकती है।”
‘मेकाइवर और पेज’ संस्कृति को व्यक्ति के दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द में पाये जाने वाले रहन-सहन और विचार के तरीकों से व्यक्ति की प्रकृति की अभिव्यक्ति मानते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृति का संबंध मुख्य रूपेण मानव आचरण से हैं, जिसे वह अपने पूर्वजों, माता-पिता, शिक्षकों तथा दिन-रात सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों से अपनाता है। व्यक्ति का जो आचरण जन्म से है, जैसे - दूध पीना, साँस लेना, रोना-हँसना आदि संस्कृति के अन्तर्गत नहीं आता। अतः ‘संस्कृति’ कम से कम शब्दों में इस प्रकार परिभाषित की जा सकती है कि - “जन्म के बाद व्यक्ति को सामाजिक रूप से प्राप्त ‘आचरण’ ही संस्कृति है।”
संस्कृति की उपर्युक्त परिभाषाओं को देखते हुए तथा विद्वानों के कथनानुसार संस्कृति की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं -
(1) संस्कृति संचरणशील होती है। प्राचीनकाल से मनुष्य अपनी भाषा व प्रतीकों द्वारा अपने विचारों व अनुभवों को दूसरों तक, नई पीढ़ियों तक पहुँचा कर अपनी संस्कृति का प्रसार करता रहा है। प्रत्येक नई पीढ़ी का आचरण अपने पूर्वजों के आचरण से किसी न किसी रूप में संबंधित होता है। यह संचरणशीलता का गुण ही संस्कृति के विकास, परिवर्धन व परिमार्जन में सहायक होता है।
(2) संस्कृति सामाजिक होती है, निस्सन्देह समाज की व्यवस्था ही संस्कृति को जीवित रखती है। मनुष्य समाज से बाहर रहकर किसी प्रकार की संस्कृति की सृष्टि नहीं करता। संस्कृति किसी भी समूह के सदस्यों की वे सामान्य अपेक्षाएँ हैं, जो आदर्श गुण बन जाती हैं।
(3) संस्कृति में सीखे हुए आचरण संगठित प्रतिमानों के रूप में होते हैं। यथार्थ में, व्यक्ति के सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों के सम्पूर्ण योग को ही संस्कृति कहते हैं - यथा - व्यक्ति का गीत गाने का कार्य, कारण, गायन के प्रति गाने वाले की भावना और मनोवृत्ति, अनेक बातें परस्पर इस तरह संबंधित हैं कि उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। इससे अतिरिक्त भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के आचरण भी एक दूसरे के आचरणों से जुड़े होते हैं। जैसे - पति-पत्नी, पिता-पुत्र, स्वामी-सेवक, मालिक-मजदूर आदि।
(4) संस्कृति में एकभूत होने का गुण है। संस्कृति के अनेक खण्ड व भाग है। परन्तु सब परस्पर सम्बद्ध एवं व्यवस्थित है। इसी हेतु संस्कृति सन्तुलित और संगठित होती है।
(5) संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। वास्तव में वहीं संस्कृति जीवित रहती है, जो समाज के सदस्यों की महत्वपूर्ण शारीरिक, सामाजिक व मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है तथा जिस संस्कृति में यह सामर्थ्य नहीं होती है, वह शनैः शनैः एक दिन पूर्णतया समाप्त हो जाती है।
इस प्रकार संस्कृति मनुष्य की ही सृष्टि है तथा इसका स्थायित्व, व्यक्तियों द्वारा अतीत की विरासत के प्रतीकात्मक संचार पर निर्भर है। यह दिन प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है। क्योंकि इसका आधर, जन्मदाता मनुष्य ही स्वयं परिवर्तनशील है। नए विचार, नए व्यवहार, नए अविष्कार मनुष्यों के साथ-साथ उसकी संस्कृति को प्रभावित करते हैं अतएव संस्कृति अस्थिर होती है। किन्तु तब भी यह व्यवस्थित होती है क्योंकि इसके एक तत्व में परिवर्तन आने पर, दूसरा तत्व स्वतः ही परिवर्तित हो जाता है जो अव्यवस्था को जन्म नहीं देता।
‘अमृतलाल नागर के उपन्यासों में सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन का चित्रण’
‘महाकाल’ - निस्सन्देह संस्कृति सामाजिक होती है, इसी कारण समाज द्वारा डोम बाग्दियों आदि की जाति को हेय दृष्टि से देखे जाने की परम्परा के अनुसार पाँचू जैसे शिक्षित व्यक्ति का संस्कार भी एक बार के लिए जाग्रत हो जाता है और वह संस्कारवश नीच जाति के बच्चों को पढ़ाने में संकोच अनुभव करता है - “........... गाँव के डोम बाग्दियों में भी अब इतनी समझ आ गई है। यह समझते हुए भी पाँचू के संस्कारी मन को डोम बाग्दियों का अंग्रेजी शिक्षक बनने में संकोच हुआ।”
समाज का प्रमुख आधार रीति-रिवाज व चलन हैं। ये रीति-रिवाज वे पद्धतियाँ हैं, जिन्हें व्यक्ति समान व्यवहार के क्षेत्र में उचित समझता है, जैसे महाकाल में कानाई घटक के पिता की मृत्यु हो जाने पर, वह उस अकाल से उत्पन्न गरीबी में भी आबरू की रक्षा के लिए श्राद्ध करना आवश्यक समझता है जिसके लिए वह श्राद्ध हेतु रुपये प्राप्त करने के लिए अपनी पत्नी को वेश्या बनने के लिए विवश करता है।
भारतीय समाज में प्राचीनकाल से नारी के सलज्ज, सुशील व विनम्र रूप की कल्पना प्रधान रही है, जबकि पुरुष सबल व नारी पर शासन करता रहा है। नारी-पुरुष के इसी रूप का नागर जी इस प्रकार चित्रण करते हैं - “तुलसी बोष्टम अपनी पत्नी की फटी हुई धोती खींचता हुआ कहता है कि अपनी धोती दे दे तो मैं इसके बदले मोनाई से चावल ले आऊँगा। उसकी पत्नी अपनी लाज बचाने हेतु हजार जगह से फटी उस धोती को तन से चिपकाए रखती है और तुलसी से उसकी अपनी धोती बेच देने को कहती है। जबकि तुलसी का कहना था कि मैं मरद हूँ, दस बार बाहर भीतर दौड़ धूप करूँगा तो खाना मिल भी सकेगा, तू औरत बानी, तेरा क्या, दरवाजा बन्द करके कोठरी में पड़ी भी रह सकती है।” और अन्त में नारी को पुरुष के आगे झुकना ही पड़ा। पुरुष शक्ति के आगे अन्त में स्त्री की ही हार हुई।
नारी की दयनीय दशा का चित्रण करते हुए लेखक ने उनकी अकाल से उत्पन्न अनेक यातनाओं और पीड़ाओं का हृदयस्पर्शी वर्णन किया है - “पुरुषों ने उजड़े हुए घरों में रहना ही छोड़ दिया था। स्त्रियों को मजबूर होकर चार दीवारी के अन्दर बंद होकर बैठना पड़ा। वह घर से बाहर नहीं निकल सकती।”
भूख से बिलबिलाते अपने बच्चों की पीड़ा न देख पाने पर मन्दिर का पुजारी उन्माद में अपनी गाय को गंडासे से काट डालता है, अपने बच्चों का पेट भरने के लिये। लेकिन तभी सहसा उसके संस्कार उभर आते हैं और उसे अपने कुकृत्य का ज्ञान होता है। चेतना जाग्रत होते ही पश्चाताप के कारण उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह चलती है और वह अपनी गर्दन उसी गंडासे से काट डालना चाहता है - पश्चाताप की ग्लानि से भरा हुआ वह कहता है - “माता (गाय) मुझे क्षमा कर, भगवान मुझे क्षमा कर। नहीं, पाप क्षमा नहीं किया जाता। उसका प्रायश्चित करना पड़ता है। मैं प्रायश्चित करूँगा। इसी गंडासे से अपनी गर्दन काटूँगा।” स्त्री के दासी रूप के प्रति आक्रोश से भरा पाँचू का चिन्तन उस काल के नारी रूप का सही चित्र खींचता है - “हमें सबका समान अधिकार स्वीकार करना ही होगा, जब तक एक भी स्त्री दासी रहेगी, उसके गर्भ से दास ही उत्पन्न होंगे। दासता जीवन को मृत्यु की जड़ता में बाँध देती है। यह अकाल हमारी दासता का परिणाम है। यह अकाल मनुष्य की दासता का परिणाम है।” नारी आरम्भ से पुरुष के हाथ की कठपुतली रही है। सदैव उसका दुरुपयोग ही हुआ है पुरुष द्वारा, कृपादृष्टि कभी भूले से हो गई तो उसके एहसान के बोझ से नारी ऐसी दबी कि कभी ऊपर न उठ सकी - “अपने पेट की आग को बुझाने के लिए पुरुषों ने स्त्रियों के तन के कपड़े बेच दिए, उनका तन भी बेच दिया था - फिर नारी की कौन सी लाज मिट जाने के भय से पुरुष इस समय त्रस्त है।”
भारतीय रीति-रिवाजों व संस्कारों के अनुसार बहू-बेटियों के खाली हाथ पैर अशुभ माने जाते हैं, उसी का चित्रण लेखक ने उपन्यास में इस प्रकार किया है कि पाँचू की माँ पार्वती घर में खाना न बनने की मनहूसियत को अर्थहीन करने के लिए अपनी बहू-बेटियों को एक दो गहने पहना देती है। वे सब अपने को किसी न किसी कार्य में लगाए रखती हैं, जिससे वे जीवन की सहजता के प्रति मानों पूर्ण निश्चिन्त है - “आज चार दिन से, जब से इस घर में अकाल आया है, पार्वती माँ ने बचे खुचे एक-एक, दो-दो गहने सब लड़की, बहुओं को पहना दिये हैं। रसोई घर में भी जरूरत से ज्यादा बर्तन खनकते हैं।”
संस्कारों की धनी पार्वती माँ का सिद्धान्त है कि चाहे भूखों मर जाए इन्सान, पर अपनी इज्जत-आबरू न छोड़े, तभी तो पाँचू के माँ से आबरू के झूठे बन्धन तोड़ देने के लिए कहने पर, पार्वती माँ एकदम विरोध करती हुई कहती है - “तेरा मत तो सारी दुनिया से निराला है। भला आबरू के बंधन भी कहीं छूटते हैं? कुलीनों की आबरू तो चिता तक साथ जाती है बेटा।”
नारी का ममतामय रूप बड़ी बहू के इस चिंतन में स्पष्ट झलकता है - “ये बच्चे सलामत रहें। सब आदमी सलामत रहें। मुसीबत तो आती जाती रहती है। राम करे सबकी मौत मुझे ................”
लेखक ने समाज के दोनों ही तरह के पुरुषों का यथार्थ चित्र खींचा है। जहाँ एक और विलासिता में आकण्ठ डूबा दयाल जमींदार, मुनीर बढ़ई की विधवा को अपनी शारीरिक आवश्यकतापूर्ति हेतु स्वीकारता है, वहाँ पाँचू उसे दयाल के घर देखकर नारी के प्रति दया भाव से भर उसकी असहाय अवस्था पर पीड़ित हो उठता है। उसे अपने घर वालों का विशेष तौर से बौदी से तुलसी, पत्नी मंगला तक का ध्यान आ जाता है कि कल पेट न भरने पर तथा उसके मर जाने पर उसके घर की बहू बेटियाँ भी इसी तरह विवश होकर वेश्या बनेंगी - सहसा ही उसे अपने से घृणा सी होती है - “सारा संसार मुझसे बड़ा है। हर शख्स मुझसे बड़ा है। दुनिया की हर चीज मुझसे बड़ी है। मुझे किसी को भी छोटा समझने का अधिकार नहीं - कोई नीच नहीं, कोई बुरा नहीं। सारी बुराइयाँ मुझे में हैं। मैं सबसे बुरा हूँ। मैं ही बुरा हूँ।”
‘सेठ बाँके मल’ - सेठ जी भी रीति-रिवाजों में बँधे एक सच्चे भारतीय हैं। अपनी पत्नी के मर जाने पर उसकी क्रिया करम में ही उनका सारा धन समाप्त प्रायः हो जाता है, जिससे यह पता चलता है कि भारत में जन्म, मरण, विवाह आदि अवसरों पर कितना अधिक व्यय करने की प्रथा है और न करों तो समाज में निन्दा होती है। अतः मनुष्य निन्दा के भय से रिवाजों व मान्यताओं को, सभी रीतियों को पूर्ण करता ही है।
सेठ जी का सामाजिक संस्कारों को मान्यता देने वाला मन मदिरापान को पाप मानता था लेकिन जब उनके मित्र चौबे ने विलायती शराब लाने का हुक्म दिया तो वे किंकर्तव्यविमूढ से हो गए, मदिरा लाकर दें तो पाप और न दे तो ब्राह्मण का रोया दुखने पर न दीन के रहे न दुनिया के इस बात का भय - “बोला, मैं ऐसा पाप नहीं करुँगा। चौबे जी मेरी बाँह पकड़ कर बोले, अबे खुसकैट, मैं ठहरा ब्राह्मन मेरा हुकम न मानेगा तो, तुझे साले, डबल पाप होगा डबल।”
नारी के अबला रूप का चित्रण करते हुए सेठ जी अपने भतीजे रद्धू से कहते हैं “पर भैयो, औरत जात तो बिचारी अबला होवे है, जैसा चाहे उँगलियों पर नचा लो”।
संस्कारवश तथा तत्कालीन समाज के नियम बन्धनों के अनुसार सेठ जो हर पल पाप पुण्य की भावना से ग्रस्त रहते हैं, सेठ जी ही नहीं वरन् ग्रामवासी भी इस भय से त्रस्त होते हैं, जब एक बार गाँव वाले धोखे से चौबे जी पर हाथ उठाते हैं, तो बाद में यह जानकर बहुत पछताते हैं कि चौबे जी ब्राह्मण हैं और उन्होंने एक ब्राह्मण को पीटा है। तो वे सब चौबे जी से क्षमा माँगते हुए कहते हैं - “धोखे में खता हो गई गुरुजी, माफ करना। नहीं तो ब्राम्हन पे हाथ उठाके सारा गाम का गाम नरक को जाता। हाय, जो कई बरम हत्या हो जाती, तो कैसे होती।”
तत्कालीन समाज के, जब हमारे देश में अँग्रजी राज्य था, रहन-सहन, रीति-रिवाजों, मान्यताओं का वर्णन लेखक, सेठ जी के माध्यम से इस प्रकार करता है - “भइयों हमारे जमाने की बात है। दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह में ससुरे खाने भ हों, पीने भी हों, गौने-गांठे, सादी-ब्याह, सभी कुछ होवें थे। पैसे में बरकत थी......... तो बात यों थी भइयों, घर-बार सम्हालने वालियाँ सब अपनी सी समझे थी। अब चौबे जी की घरवाली को देख लें, साल में चार धोतियाँ बँधी थी।”
‘बूँद और समुद्र’ - इस उपन्यास में ‘डा.रामविलास शर्मा’ के शब्दों में - “एक मुहल्ले के चित्र में लेखक ने भारतीय समाज के बहुत से रूपों के दर्शन करा दिए हैं। वैसे तो भारतीय समाज हिन्द महासागर है और उसका चित्रण करने के लिए यह समुद्र भी छोटा है।”
‘शिवनारायण श्रीवास्तव’ के अनुसार भी - “वास्तव में यह (बूँद और समुद्र) विभिन्न मानसिक एवं सामाजिक अवस्था के स्त्री-पुरुषों के बोलचाल, रहन-सहन, आचार, व्यवहार तथा कार्यकालाप आदि के वर्णन को लक्ष्य बनाकर लिखा गया है।”
कलयुग में बिगड़े संस्कारों की आलोचना करती हुई, मुहल्ले पड़ोस में जादू-टोने के लिए प्रसिद्ध झगड़ालू ताई कहती है - “सिंसकार तो होवे ही है जो कुछ भी होवे है। आजकल के मरे सिंसकार ही बिगड़ गए हैं दुनिया में। देखो न मरी पन्नों की लौंडिया बीए, एमे पढ़के दफ्तर में नौकरी करने जावे हैं। बैसिकल ली है, उसने।” उसकी बात में बात मिलाती हुई भभूती सुनार की पति द्वारा परित्यक्ता पुत्री नन्दो भी कलयुग का बखान करती हुई कहती है - “अरे पूछो न ताई - चारों चरन टेक के कलजुग खड़ा है आजकल। कोई किसी की कहन लायक नहीं रह गया। हमरे घर में ही क्या कम चलित्तर उछलतें हैं। संकर, संकर की बहू आठ बजे तो पलंग छोड़ते हैं। इस्टोप लायें हैं संकर, सो उसे सुलगाय के चाह और अंडा-मछली और पावरोटी जाने क्या-क्या बनाउत हैंगी उनकी बहू, फिर आप भतार संग बैठके सब खउती-पीती हैंगी, ऐसे तो सिंसकार बिगड़े हैं। मनिया की बहू है सो वो भी छोटी के साथ छिप-छिफ सब खान-पियन लगी है। ई दोनों हैं, और उनकी गुरु वो हैं तुमरी नई किरायेदारिन - क्या कहें। - बस।”
तारा और मि. वर्मा ने अन्तर्जातीय विवाह किया है और वे ताई के किराएदार है। उनके अन्तर्जातीय विवाह को पाप समझती हुई तथा अपनी भाभियों की उनके साथ उठने-बैठने से मति भ्रष्ट हो जाने की कल्पना करती हुई नन्दो कहती है। “अब गुरु-गुरुआइन मुहल्ले में आये है, तो यहाँ भी गुल खिलेंगे - खत्री-बाम्हन-बनिया सब एकमेक करवाय के छोड़ेंगे ये लोग देख लेना? भला बताओं, ऐसे धरम-भिरष्टन के साथ संकर-मनिया की बहुएँ, उठत-बैठत, खात-पियत हैंगी। तभी तो मतें बिगड गई हैं।
ताई का दूसरा किराएदार सज्जन जो चित्रकार है और एक भावुक व चिन्तनशील युवक है, समाज की अगति, सांस्कृतिक खोखलेपन, चारों ओर से अवरुद्ध जीवन के बारे में सोचता है - “अपने देश के प्राचीन वैभव - साहित्य, शिल्प, चित्रकला, नृत्य, संगीत आदि को देखकर सज्जन जितना ही अधिक प्रभावित हुआ है, उतना ही वह आज के सामाजिक जीवन में सांस्कृतिक दिवालियेपन का कारण जानने के लिये व्यग्र हो उठा है।”
आज से 20-25 वर्ष पहले चित्रकार, कलाकार आदि इस वर्ग के व्यक्ति सामान्यतः चरित्रहीन समझे जाते थे। इसी हेतु सज्जन जब ताई का किराएदार बनकर उस मुहल्ले में आया तो, समाज के वास्तविक जन-जीवन के चित्रण के महान उद्देश्य को, कुछ बेपढ़े रुढ़िवादी व्यक्तियों ने गलत समझा, कुछ के दिल में यह बात घर कर गईं कि कलाकार वास्तव में चरित्रहीन होता है और वह मुहल्ले की बहू बेटियों के चित्र बनाने आया है। मसालाफरोश व दो एक व्यक्ति मिलकर शहर के दैनिक समाचार पत्रों में अपने शिकायती पत्र प्रकाशित करा देते हैं।
प्राचीन काल से समाज में जादू-टोने, तंत्र-मंत्र बहुत प्रचलित रहे हैं। उनकी शक्ति में स्त्रियाँ बहुत विश्वास करती रही हैं; जैसे नन्दो ताई द्वारा आसपड़ोस वालों पर यदा-कदा तरह-तरह के टोटके करवाती रहती है - “नंदो ने लाले दलाल और उसकी घरवाली को मारने के लिए ताई से टोटका करवाया था। छः बरस पहले मनिया के ब्याह की तैयारी के दिनों में भभूती सुनार के घर गहनों की चोरी हुई थी। * * * ताई जोश के साथ नंदो का कार्य सिद्ध करने बैठ गई। लाले और उसकी बहू का मारक सिद्ध किया, मिस्टर और मिसेज वर्मा में लड़ाई के काँटे बोने के लिए स्याही का काँटा निकाला।
दोनों मित्र सज्जन और महिपाल आपस में धर्म, संस्कृति और समाज की चर्चा करते हुए जन्म के रहस्य और मृत्यु के भय को ही मानवी संस्कृति का कारण मानते हैं। अपने देश की बलिदान प्रथा, नरमेध, गोमेध, अश्वमेध इन धार्मिक कृत्यों की आलोचना करते हुए कहते हैं - “हमारे देश में यह बलिदान का रिवाज बहुत ही बुरा आया। यह इसी देश का रिवाज नहीं, आदिम जातियों में सब जगह पनपा। मगर यह बलिप्रथा गलत थी या सही, इस पर अपनी आज की विकसित बुद्धि से टीका-टिप्पणी करना, या अपने आदिम पुरखों की निंदा-प्रशंसा के चक्कर में पड़ना गलत है।”
इसी प्रकार भूत-भ्रम की उत्पत्ति का कारण वे मरों हुओं के प्रति प्रेम व भय का अतिरेक मानते हैं। उससे पता चलता है कि भारतीय समाज में अति प्राचीनकाल से भूत प्रेतों को माना जाता रहा है। हालाँकि आज भी बहुत से लोग इनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं।
प्राचीनकाल से चली आई सती प्रथा का इतिहास खोजते हुए दोनों मित्र इस निर्णय पर आते हैं - “परलोक में मृत व्यक्ति की सुख-सुविधा के लिए पशुओं, स्त्रियों की बलि भी की जाती थी। यही प्रथा आगे चलकर शायद सती-प्रथा बन गई। कामनापूर्ति के लिए भी प्रिय और पवित्र वस्तु की बलि दी जाती थी। बलि देना इस तरह पूजा की प्रमुख विधि बन गया। यही सब चीजें उनकी धार्मिक संस्कृति में शामिल थीं।”
समाज के खोखलेपन, उथलेपन की कटु आलोचना करता हुआ महिपाल सज्जन से कहता है - “ऐ भाड़ में गया सोशल होना। क्या जिन पतंगों की तुम डोर बने घूमते हो वही सोसायटी है? इतने दिनों से मुहल्ले में ‘प्रयोग’ करने आये हो - अखबार में भले ही मुहल्लों के मसीहा और नये जमाने के अग्रदूत बन गये - मगर वहाँ कितनों से सोशल हो सके जी? जरा सा विरोध होने पर राजा साहब की मदद माँगने दौडे, लागें का मन जीतने के लिए तुम्हें अपने व्यक्तित्व पर आस्था न हुई - क्यों?”
सज्जन मुहल्ले के जादू-टोने के पेंचों से समाज के कुसंस्कारों के प्रति चिन्तित हो उठता है और वह समाज का ढाँचा बदल देने का निश्चय करता है - “हमें असंस्कारों या कुसंस्कारों से जूझना है, उन्हें समझना-सुलझाना है। हमें इस समाज की रूपरेखा बदलकर उसे नई दिशा देनी है।”
वनकन्या के पिता जगदम्बा सहाय अपने एक कुकृत्य के कारण सारे शहर में चर्चा का विषय बन जाते हैं। समाज के उस घिनौने रूप पर सभी खेद प्रकट करते हैं। सब सहाय जी का प्रसंग उठाकर समाज को कोसते हैं।
अपने देश की कला संबंधी ज्ञान की अनभिज्ञता को बताता हुआ सज्जन कहता है - “आर्ट का तो सैन्स ही नहीं पनपा अभी हमारे देश में। जी नहीं, यह कहिये कि पूरी तौर पर पनप चुकने के बाद विकृत हो गया। ये देखिये, ये कोठी कितनी सादी और खूबसूरत है।”
भारतीय समाज की विचारधारा आरम्भ से ही ऐसी रही है कि बहू को बहू न समझकर दासी और नौकरानी समझा जाता है। बहुत से घरों में तो बहू के आते ही महरी, नौकर सब हटा दिए जाते हैं। हृदय से आधुनिक पर मस्तिष्क से संकीर्ण घर-घर की यही कथा है। समाज की इस विचारधारा का चित्रण नागर जी ने स्वयं भभूती सुनार की बहुओं और लड़की के माध्यम से किया है - “बड़ी बहू कहती है - हम तो कहते हैं दुनिया से शादी की रसम ही उठा दी जाए। इससे हम औरतों का ही नुकसान होता है। धंधा पीटें, बच्चे जनें, मार खाएँ, सबके बोल-कुबोल सहें और फिर भी हमारी निगोड़ी कोई कदर ही नहीं।”
तत्कालीन समाज में स्त्री पुरुषों का साथ उठना-बैठना बातें करना इतना प्रचलित नहीं था जितना कि आजकल है। अतएव स्त्रियाँ भी पुरुषों से दूर-दूर रहतीं और पास बैठकर बातें करने में संकोचानुभव करती थीं। जब पडोसन तारा के घर भभूती सुनार की बहुएँ, मि. वर्मा और छोटी के पति शंकर साथ-साथ बैठकर चाय पीते हैं तो उस छोटी सी बैठक से उत्पन्न सुखानुभूति बड़ी को ताजा बना देती है। “स्त्री-पुरुषों के सम्मिलित समाज में बैठकर चाय पीने का यह मौका बड़ी को बरसों बाद दूसरी बार मिला था।”
शंकरलाल भी समाज की रुढ़ियों और दकियानूसी विचारों को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखते हुए कहता है - “हमारे यहाँ की पब्लिक निहायत ही बैकवर्ड है जनाब। बतलाइये भला, इतना बड़ा आर्टिस्ट हमारी लाइफ स्टडी करने आया है। क्या इम्प्रेशन लेकर जायेगा हमारे मोहल्ले से?”
सज्जन जब जगदम्बा सहाय की कलंक कथा महिपाल और शीला को सुनाता है, तो इस अपराध का कारण सज्जन समाज में शिक्षा की कमी मानता है। तभी शीला कहती है - “शिक्षा, व्हाट? कैसी शिक्षा? समाज को आखिर क्या सिखाया जाय जिससे कि ऐसे क्राइम्स एकदम से बंद हो जाएँ “गवर्मेंट टीचर्स अप्वाइन्ट करे, आर्ट और कल्चरल फंक्शन्स कराये, कुछ ऐसे स्त्री-पुरुष भी रखे जाएँ, जो घर-घर जाकर लोगों को सफाई, रहन-सहन के कायदे समझायें, उनकी दिमागी सतह को उँचा उठायें।”
नारी की असहाय दशा का चित्रण महिपाल के इस कथन से स्पष्ट ही मिलता है - “सौ में मुश्किल से दस-पाँच घर छोड़ दो, बाकी हिन्दुस्तान का हर घर औरतों के लिये कसाईखाना है।”
समाज के व्यभिचार का कारण महिपाल के अनुसार बेमेल असफल विवाह है। जबकि शीला स्त्रियों की आर्थिक परतन्त्रता को इस कमजोरी का कारण बताती है। तब महिपाल कहता है - “मेरी शादी असफल रही, जैसे माता-पिता द्वारा तय हो गई शादियाँ आम तौर पर होती हैं। हमारे अस्सी फीसदी घरों में ऐसी शादियाँ जीवन भर के कर्ज की तरह निभाई जाती हैं। नतीजा यह होता है कि कहीं पति, कहीं पत्नी और कहीं पति-पत्नी दोनों ही एक दूसरे के पीठ-पीछे व्यभिचार करते हैं।”
सज्जन समाज के वैवाहिक नियम का विरोध करते हुए कहता है- “शादी और उसका मारल कोड समाज को उठाने के बजाय गिराते हैं। इन्हें खत्म कर देना चाहिए।”
शीला एक खुले मस्तिष्क की नारी है वह सतीत्व, पतिव्रत आदि को नहीं मानती - “मैं सतीत्व और पतिव्रत कुछ भी नहीं मानती, पर यह मेरा अनुभव है कि दिल का साथी एक होता है। मेरा यह दावा है कि जो मर्द या औरत पाँच-पाँच मिनट के प्रेम में इधर-उधर बहकते फिरते हैं, उनका दिल - उनकी फीलिंग्ज रफ्ता-रफ्ता मर जाती है।”
महिपाल एक ऐसा सम्वेदनशील भावुक पुरुष है, जो अपने वैवाहिक जीवन से किंचित मात्र भी सुखी नहीं है और इसी कारण डा. शीला से उसकी मित्रता होती है, जो उसकी भावनाओं को पूर्ण रुपेण समझती है। महिपाल शीला से कहता है - “अगर मैं चित्रकार होता तो अपनी तस्वीर मटमैले रंग से रंगता, बस दिल की घडकनें उजली हैं ... दिमाग - हाँ, दिमाग भी उजला है सही, मगर उलझनों के चलते चक्कर से घिरा हुआ।... तुम मेरी थकान की साथी हो, कल्याणी मेरी जीवन की निष्ठा है। मैं तुम दोनों से उऋण नहीं हो सकता, सच कहता हूँ।"
संस्कृति कैसे विकसित और वर्द्धित होती जाती है, उसका कैसे सहज ही प्रसार हो जाता है; पत्नी के हाथ का हलुवा खाते हुए महिपाल सोचता है - “हलुवा परदेसी चीज है। फिर भी आज हमारे देशी भोजन का महत्वपूर्ण अंग बन गया है। इस तरह खाने-पीने, पहनने ओढने की चीजें, शब्द, रीति-रिवाज की बहुत सी विशेषताएँ एक से दूसरे के द्वारा अपनाई जाकर लोक व्यापी जन-जीवन में समा जाती हैं।"
समाज के शादी-ब्याह, जन-मरण आदि के रीति-रिवाज, चाल-चलन सब मिलकर गरीब लेखक महिपाल के सुख-चैन को समाप्त कर डालते हैं। जिस भाई को परिश्रम करके उसने डाक्टर बनाया, वह आर्थिक रूप से समर्थ होने पर अपने भाई का साथ छोड़ देता है। इन सब से पीड़ित महिपाल समाज और उसकी मान्यताओं को कोसता है - “आज तो समाज का शासन बेईमानी और लुटेरों के हाथ में है। लोक-जीवन की मान्यताएँ वही हैं, जो वे चलाते हैं।... जो इस - इस धाँधलेबाजी को समाज की सौभाग्य चमक बनाकर अपना खोटा सिक्का चला रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि करोड़ों बीमार भूखे और नंगे उनके पीछे “मरता क्या न करता” वाली स्पिरिट लेकर पागल जोश के साथ बढे चले आ रहे हैं।”
कल्याणी में उस नारी रूप के दर्शन होते हैं, जो अपनी दुर्बलता, मूर्खता, हठ आदि के कारण सहज ही पुरुष द्वारा शासित होती रही है - जिसका कारण एकमात्र शिक्षा की कमी, आत्मनिर्भरता का अभाव है।
नारी को लेकर महिपाल एक अजीब उलझन में पड़ जाता है। पत्नी की अपनी भान्जी के विवाह हेतु हठ, रुपये की माँग उसे चिन्ता ग्रस्त बना देती है।
समाज में ज्योतिष विद्या पर भी लोग विश्वास करते थे। इसका पता कर्नल के इस कथन से चलता है - “भई कुछ भी कहो ज्योतिष विद्या बड़ी सच्ची चीज है।... हम तो आज शास्त्री जी के भक्त हो गए।”
समाज में फैली बुराईयों और दिन प्रतिदिन होने वाली घृणित घटनाओं का लेखक ने सजीव चित्र खींचा है। शहर में किसी युवती की जमीन में गडी हुई लाश मिलती है और कई दिन बाद भी पुलिस उस युवती का पता नहीं लगा पाती कि वह हिन्दू थी या मुसलमान। इधर-उधर कत्ल, लूट, बलात्कार कांड, समाज की आम घटनाओं का लेखक ने अनेक स्थानों पर जिक्र किया है - समाज की संस्कृति पर बहस करते हुए कन्या और सज्जन कहते हैं - “कल्चर पैट्रोल की तरह जरूरी है, जिसके बिना गाड़ी ही नहीं चल सकती, मगर इससे, स्टीयरिंग व्हील का महत्व तो आप कम कर नहीं सकते। जब तक समाज इतना सुसंस्कृत और सभ्य नहीं हो जाता कि बगैर सेक्रेटेरियट पुलिस और मिनिस्टरों के भी आसानी से चल सके, तब तक राजनीति का महत्व इतना ही जोरदार रहेगा।”
शहरी संस्कृति का निर्माण लेखक के अनुसार व्यापार के कारण पारस्परिक संबंध जुडने से बहुत सी रस्मों के आदन-प्रदान से होता है। विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों की विशेषताओं को लेकर नगर की सामाजिक मर्यादा बनती है, लेन-देन, व्यवहार का चलन चलता है। “इस तरह अलग-अलग सांस्कृतिक क्षेत्रों के लोग नगर में व्यापार के लिये इकट्ठे होकर अपनी-अपनी विशेषताओं से नागरी संस्कृति का निर्माण करते हैं।”
महिपाल, क्रोध और कटुता के रहते हुए भी अपनी पत्नी कल्याणी के रूप का ध्यान आते ही आदर और प्यार की भावना से भर जाता है। उसके अनुसार कल्याणी महान है। यह उसकी महानता है, एक परम्परा की सिद्धि है जिसमें लेखक के अनुसार इस देश की नारी का मानस ढला है। यही इस देश की सबसे बड़ी सांस्कृतिक विजय है।
कन्या एक अहंकारिणी स्त्री है, जिसके अहंकार का पोषण उसके नैतिक बल से होता है। उसका बड़ा भाई किसी कारणवश मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। दूसरी ओर पिता के कुकर्म से लज्जित कन्या अपनी नैतिक उन्नति के प्रति और अधिक सतर्क हो उठती है तथा अन्दर ही अन्दर एक विद्रोह भावना से भर जाती है। वह खुले रूप से बड़ों के कुकृत्यों की निन्दा करती है। उसकी विद्रोहात्मक प्रवृत्ति को कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बनने पर सर्वाधिक बल मिलता है। इस तरह वह एक प्रगतिशील और क्रान्तिकारी विचारों की उच्च चरित्र वाली अहंकारिणी नारी के रूप में पाठक के समक्ष आती है जिसकी नैतिकता के आगे सज्जन भी अपने को छोटा अनुभव करता है। विवाह पूर्व, स्त्री पुरुष के मिलन को कन्या अपवित्र मानती है। इसलिए वह सज्जन और अपने मध्य एक लक्ष्मण रेखा खींचे रहती है जिसे बहुत चाहते हुए भी सज्जन लांघ नहीं पाता और इसपर वह झुँझला उठता है। “कन्या का नारी मन सज्जन के रूप में पुरुष जाति के प्रति अविश्वास से भर उठता है और उसे भय होता है कि वह दुष्यन्त की तरह भूल जाए तो।”
जब सज्जन कन्या से पाप और पुण्य पर बहस करते हुए नारी को नरक का द्वार कहता है, सब बुराईयों की जड़ बताता है तो कन्या बड़ा सुन्दर तर्क प्रस्तुत करती है - “बुद्ध और शंकराचार्य अगर स्त्री होते तो लिखते कि पुरुष साक्षत् नरक है और नारी उस नरक की चहारदीवारी बनकर, प्रकृति के और जीवों को उस गन्दगी से अलग रखती है।... आदिम दिनों का वह मातृसत्ता काल वाकई बहुत अच्छा रहा होगा जबकि पुरुष आज की नारियों की तरह दबकर रहते थे।”
मि. वर्मा की पत्नी तारा के पुत्र होने पर ताई मि. वर्मा से कहती है - “खड़ा क्या है रे, थाली बजा थाली,” इस कथन के द्वारा लेखक ने भारतीय प्रथा का ही चित्रण किया है कि पुत्रोत्पत्ति पर थाली बजाई जाती है।
भारतीय संस्कृति का चित्रण एक अन्य स्थान पर लेखक ने तब किया है जब एक भोज में बैठा महिपाल, भोज में आए गर्वनरों से लेकर करोड़पतियों पर तरह-तरह के व्यंग करता है। तब सज्जन उससे चुप रहने के लिए कहता है, लेकिन महिपाल वास्तविक संस्कृति का पालनकर्ता होने के कारण उत्तर देता है - “तू भारतीय पद्धति की दावत खाना क्या जानें? चिनौतियाँ, फब्तियाँ हमारे यहाँ ज्योनारों के समय ही कसी जाती थीं। यहाँ तक मामला गरमा उठता था कि लोगबाग थालियाँ छोड़कर उठ खड़े होते थे।”
इस उपन्यास की एक अन्य पात्र है ‘चित्रा’, जो एक स्वच्छन्द एवं कुण्ठाहीन नारी का प्रतीक है, वह स्वच्छन्द विचरण में विश्वास करती है। उसे समाज से शिकायत है कि उसने सदा पत्नी बनना चाहा तथा मित्रों, शुभचिन्तकों ने उसे सदा वेश्या बनाया।
डा. शीला उस स्वतन्त्र नारी का प्रतीक है जो धन, सम्पत्ति, मान, सम्मान अर्जित करने पर भी महिपाल के अभाव में स्वयं को असहाय और बूढ़ा अनुभव करती है। उसका बचपन अभावों में बीता है। वह गरीबी से विद्रोह करती है। वह आरंभ से ही विद्रोहिणी और फिजूलखर्च थी। उसके पिता एक मिशन स्कूल में हैडमास्टर थे। छः भाई बहिनों के परिवार में वह तीसरी सन्तान थी। पढ़ने में शुरु से ही तेज थी इसलिए अभिमानी थी। बड़े होने पर वह सामाजिक आन्दोलनों में भाग लिया करती थी। आरंभ से ही निर्भीक थी। इसी विद्रोही प्रकृति के कारण उसने विलायती मिशन की नौकरी न करने का निश्चय किया। प्रबल इच्छा शक्ति के बल पर वह एम.बी.बी.एस. डाक्टर बनी। घर से शीघ्र स्वतन्त्र होने की इच्छा से वह सरकारी मैडिकल सर्विस में दाखिला लेकर क्रमशः उन्नति करती गई। कुछ समय बाद ही पूर्ण रूपेण स्वतन्त्र और समृद्ध होकर प्रैक्टिस जमाने में समर्थ हुई। महिपाल उसके सूने जीवन का साथी बनकर आया था। लेकिन धीरे-धीरे उसकी भावुकता, बुद्धिमत्ता और कलाकार हृदय से प्रभावित होकर शीला विशुद्ध भारतीय भावना से उसे समर्पित हो गई। महिपाल को वह सदैव एक अच्छे मित्र की तरह, कल्याणी के प्रति सदय और नम्र रहने की प्रेरण देती रहती है। उसका चरित्र महान है। वह सच्चे अर्थो में महिपाल की मित्र और प्रेमिका है। ‘श्री सत्यपाल चुघ’ के शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘बूँद और समुद्र’ में इतना प्रसंग वैविध्य है कि पाठक को अनेक भाव रसों के आस्वादन का अवसर रहता है। ताई के प्रसंग वात्सल्य, अद्भुत, वीभत्स और भयानक भाव-रसों से सिक्त हैं। कल्याणी, वनकन्या, बड़ी, ताई और महिपाल से संबंधित प्रसंग करुणोत्पादक हैं। सज्जन एवं वनकन्या के प्रसंग श्ाृंगार रस का उद्रेक करते हैं।”
‘शतरंज के मोहरें ’ - ‘शतरंज के मोहरे’ का कथानक ऐतिहासिक है और इसमें उस काल के समाज और उसकी संस्कृति का स्पष्ट चित्रण मिलता है। गाजीउद्दीन के पुत्र नसीरुद्दीन के पिता न बनने पर राजमाता अपने विश्वास के अनुसार पुत्रोत्पत्ति के लिए तन्त्र-मन्त्र, ताबीज आदि का सहारा लेती है क्योंकि तत्कालीन समाज में तन्त्र-मन्त्र में व्यक्तियों का गहरा विश्वास था।
बादशाह बेगम एक धार्मिक स्त्री थी। वे कट्टर शिया थी। वे श्रीकृष्ण की छठी के समान ही इमाम मेहंदी की छठी मनाया करती थीं। “शाही खानदान की तमाम औरतें आतीं, झाँकी सजाती। नाच-गाना होता। खैरातें बटतीं। बड़ा जश्न होता।”
इस उपन्यास से पता चलता है कि तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति बड़ी ही दयनीय थी। साईस रुस्तम अली की पत्नी दुलारी हिन्दू होते हुए भी मुसलमानों द्वारा अपहृत की जाती है। यद्यपि दुलारी परिस्थितिवश पति से दूर रहने के कारण अपने देवरों की प्रणयपात्री व नईम की प्रेयसी बनती है किन्तु पति रुस्तम के आने पर वह मर्यादा और नियमानुसार उसकी आवभगत करना नहीं भूलती। वह एक सुन्दरी नवयुवती है। आयु की कम है तदहेतु दुनियादारी से अनभिज्ञ है। अविकसित बुद्धि होने के कारण नईम और अपने देवरों द्वारा फुसलाली जाती है। किन्तु आगे चलकर यही अबला, सबला बनकर अवध की ‘मलिकाए जमानिया’ का पद प्राप्त करती है तथा अवध राज्य में वह नए-नए चमत्कार कर दिखाती है जिससे सब चकित रह जाते हैं।
गाजीउद्दीन की पत्नी व नसीरुद्दीन की माँ ‘बादशाह बेगम’ एक ऐसी अहंकारिणी, बुद्धिमती व धार्मिक स्त्री है,जो सदैव निर्बल व्यक्तित्व पति गाजीउद्दीन पर शासन करती है।
बेगम कुदसिया के रूप में एक वफादार, निष्ठावान, तेजस्वी, सहृदय, भावुक व विचारशील युवती का रूप उभरा है, जो सच्चे अर्थो में दुःखी दीन, हीन नसरुद्दीन को अपना सहारा देकर कुण्ठाओं से उबार लेने हेतु आतुर परिलक्षित होती है।
गाजीउद्दीन और नसीरुद्दीन के रुप में उन मुगलकालीन राजाओं के चित्र उभरे हैं, जो अहर्निश विलासिता में डूबे रहने के कारण अपना पुंसत्व खो बैठते थे तथा सन्तान सुख से वंचित रहते थे। नसीरुद्दीन ऐसा ही व्यक्तित्व है। वह अपनी अकर्मण्यता और ऐश्वर्यभोग के चक्कर में राजपाट खो देता है। अ्त में अपनी विश्वासपात्री दासी धनिया द्वारा मृत्यु को प्राप्त होता है। राजाओं की पुसंत्वहीनता के कारण बेगमें दासी पुत्रों को ही अपना पुत्र घोषित किया करती थी।
यह उपन्यास उस काल का है, जब मुगल काल का पतन हो रहा था। और अँग्रेज शनैः शनैः भारतीय राज्यों को अपने अधिकार में लेते जा रहे थे। अँग्रेज ईसाई धर्म को मानने वाले थे। उनके समाज में पुत्र जन्मोत्सव पर ईश्वर पूजा का विधान था, जो उनके धार्मिक संस्कारों का परिचायक था। “कारखाने और बड़े साहब की कोठी की मध्य दूरी पर एक छोटा सा गिरजाघर बना था। पादरी के अभाव में बड़े मालिक सैण्ड साहब स्वयं ही प्रार्थना-पाठ-प्रवचन आदि के पुरोहित थे। पोते के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में प्रभु को धन्यवाद देने के लिए लगभग 20-25 विलायती लोग-लुगाइयों का दल गिरजाघर की ओर जा रहा था।”
दुलारी का प्रेमी एक ऐसा नेक युवक था,जिसमें कम उम्र होने पर भी छिछोरापन नहीं था। वह एक स्वाभिमानी और अहंकारी युवक था। इसलिए माँ-बाप का साया बचपन से ही हट जाने पर भी उसने कभी भीख से अपना पेट नहीं भरा था। रुस्तम नगर के बूढ़े बावर्ची यास्मीन खाँ की कृपा से, उसकी नवाब साहब के बावर्ची खाने में नौकरी लग गई थी। यास्मीन के कोई सन्तान न थी, अतएव वह भी नईम पर पुत्रवत स्नेह रखता था। दुलारी से धोखा खाकर जीवन में पहली बार नईम का हृदय टूटा था। तब जगह-जगह भटकते-भटकते वह भावनात्मक रूप से आत्मनिर्भर और दृढ़ हो चुका था। इसलिए जब एक बार राजभोज में वह वर्षों बाद अपनी प्रेयसी दुलारी से मिलता है, तो उसके बहुत मिन्नतें करने पर भी वह दुलारी के साथ रहने से मना कर देता है। क्योंकि दुलारी की दिखावटी दुनिया से उसे अपनी अभाव भरी दुनिया अधिक सुखपूर्ण दिखायी देती है, चालबाज दुलारी से अधिक उसे अपनी नेक पत्नी भली नजर आती है। इस उपन्यास का अमहत्वपूर्ण पात्र होने पर भी लेखक ने नईम का चरित्र बहुत ऊँचा चित्रित किया है।
उस काल के रीति-रिवाजों का चित्रण करते हुये नागर जी लिखते हैं - “भारत में आकर मुसलमान बादशाहों-नवाबों ने हिन्दू राजे-सामन्तों के बहुत से रिवाज अपना लिये थे। राजपूतों की प्रथा के अनुसार अपने से हीन कुल की कन्या को ब्याहने के लिए वर स्वयं ससुर के दरवाजे पर नहीं जाता, बल्कि डोला भेज देता है। यामिनुद्दौला सआदतअलाखाँ ने भी उसी तरह का प्रस्ताव किया।”
जब गाजीउद्दीन, नसीरुद्दीन के लिए शाही महल में यह आदेश भेजता है कि वह बादशाह बेगम के साथ रहना छोड़ दे, तो बेगम क्रोध से पागल हो उठती है और हिन्दू धर्म की मान्यतानुसार माँ का दर्जा, माँ का महत्व, पिता से ऊँचा बताती हुई कहती है - “साहबेआलम, हिन्दुओं के यहाँ माँ का दर्जा बाप से ऊँचा माना गया है। बाप की गया एक बार में पूरी हो जाती है और माँ की गया सात बार में भी पूरी नहीं होती। माँ की मुहब्बत और औलाद के फर्ज की इस से बेहतर कोई मिसाल नहीं।”
मुहर्रम मुसलमानों का बहुत बड़ा त्यौहार माना जाता है। उसमें होने वाले धार्मिक रीति-रिवाजों व रस्मों का प्राचीन काल से ही प्रचलन रहा है। उसका चित्रण लेखक ने इस प्रकार किया है - “मुहर्रम का महीना लगा, हर जगह ताजयों-मर्सियों और मजलिसों का बोलबाला हुआ। * * * गरीब से लेकर बड़े-बड़े मुसलमान अमीरों के घर तक साल-भर के त्यौहार की चहल-पहल मची हुई थी।”
मुगल युवराजों का राजतिलक होने पर समाज के तौर तरीकों के अनुसार ही उन्हें राजगद्दी पर बैठाया जाता था। इसका चित्रण तब मिलता है, जब नसीरुद्दीन की मौत की खबर मिलते ही राजमाता उसके पुत्र कैवाजहाँ को लेकर महल की ओर प्रस्थान करती है तथा इस्लामी विधान के अनुसार राजगद्दी का मालिक बनाना चाहती है - “नवाब मुन्नाजान की बादशाहत को वैधानिक पुष्टि देने के लिए यह जरूरी समझा गया कि रेजडेण्ट से नये बादशाह की नजर दिलवायी जाये। * * * दरबार हॉल में रेजडेण्ट के प्रवेश करते ही ‘गॉडसेव दि किंग’ की धुन बजायी गयी। * * * नवाब फरीदूनबख्त मुन्नाजान अवध के राजसिंहासन पर बैठा, उस के सिर पर मुन्दीर रखी गयी। तवायफे मुबारकबादियाँ गाने लगीं, उन्हें भी भिश्ती की सेना डरा-धमका का पकड लायी थी। चारों ओर मुबारकबादियों का शोर था। भाले, तलवार, मशाल, बन्दूक, जो जिस के हाथ में था, ऊँचा उठा कर बड़े जोश में नये बादशाह को मुबारकबाद दे रहा था।”
‘सुहाग के नूपुर’- सुहाग के नूपुरों की आकाँक्षिणी माधवी का तिरस्कार कर उसका प्रेमी तथा उपन्यासनायक कोवलन जो शहर के प्रसिद्ध सेठ का पुत्र है सामाजिक नियम बन्धनों के कारण, उस ही नगर के प्रसिद्ध सेठ मानाइहन की पुत्री कन्नगी से विवाह कर उसे सुहाग के नूपुरों की अधिकारिणी बनाता है। कोवलन हँसते हुए माधवी से कहता है - “वह तो जग की रीति ���िभाऊँगा प्रिये। अरे, मैं ससुर के धनरूपी घी को होम का स्रुवा बनाकर निजकुल के ऐश्वर्य-यज्ञ की आहुति बनाने जा रहा हूँ। इससे मेरी लक्ष्मी ऊँची उठेगी।”
कुल सम्पदा और सामाजिक चाल-चलन के समक्ष कोवलन अपने प्रेम की आहुति दे देता है।
कोवलन एक ऐसा पुरुष है जो तन-मन से नगर वधू माधवी पर न्यौछावर है और माधवी की प्रबल आसक्ति में डूबा सब ओर से विमुख, एक विलासी युवक है। फिर भी वह सामाजिक नियम बन्धनों की ओर से सजग है तभ तो माधवी से कहता है - “मुझे तुम्हारे प्रेम पर विश्वास है। इसलिए मैं अपने आपको तुम पर निछावर कर चुका हूँ। मेरा मन तुम्हारे लिए कभी एक से दो न होगा। माधवी... परन्तु मैं अपने कुल के धवल यश और गौरव को किसी के द्वारा एक क्षण के लिए भी कलंकित हो नहीं देख सकता।” इसलिए ही वह समाज द्वारा हेय दृष्टि से देखे जाने वाले वेश्या वर्ग की माधवी से विवाह नहीं करता।
माधवी यद्यपि पेरियनायकी वेश्या द्वारा पालित एक कुशल नर्तकी है। उसने एक पुरुष धर्म को सच्चे अर्थों में अपने जीवन में अपनाया है, वह नृत्य व्यवसाय त्याग कर कोवलन की पत्नी बनकर सुख और प्रेम का संसार बसाने की निशि-दिन कल्पना करती है। उसे सुहाग के नूपुरों की प्रबल आकांक्षा है, लेकिन कोवलन द्वारा धोखा मिलने पर वह विक्षिप्त सी हो जाती है और पश्चाताप करती सी कहती है - “मैं स्त्री नहीं वेश्या हूँ। स्त्री के नैसर्गिक, रूप, गुण और मन को पाकर भी उसके अधिकारों से वंचित हूँ।”
कोवलन विवाह को समाज का एक आवश्यक नियम मानता है। तद्हेतु माधवी को समझाता हुआ कहता है - “इस विवशता (कन्नगी के साथ कोवलन का विवाह) को हँस कर स्वीकार करना ही तुम्हारे लिए अच्छा होगा माधवी। यह मेरी या तुम्हारी इच्छा या अनिच्छा का प्रश्न नहीं। विवाह समाज का आवश्यक नियम है।” माधवी के पूछने पर ‘क्यों?’ तो कोवलन उत्तर देता है - ‘सन्तान के लिए’। माधवी फिर पूछती है - मैं सन्तान नहीं दे सकती?
तब कोवलन कटु सत्य का उद्घाटन इस प्रकार करता है - “तुम्हारी कोख की सन्तान किसी कुलीन का कुल दीपक नहीं बन सकती प्रिये, यह दूसरा कठोर सत्य है।”
इसी संस्कृति और समाज के सन्दर्भ में कोवलन ऋषि-मुनियों का उदाहरण देता है कि “हमारे ऋषियों-मुनियों ने क्या कुछ बिना सोचे समझे ही गृहिणी और वेश्या का वर्गीकरण किया होगा...?”
कन्नगी एक पतिव्रता भारतीय नारी का प्रतीक है, जो पति द्वारा अपमानित होने पर तथा माधवी द्वारा प्रताड़त होने पर भी, अपनी शालीनता, शिष्टाचार को नहीं खोती और सब कुछ सहज भाव से सहन करती है। विवाह के पश्चात् रात्रि समय जब कोवलन वचनानुसार कन्नगी को माधवी के घर ले जाता है और ईर्ष्यालु माधवी उससे घुँघरू बाँधकर नृत्य करने के लिए कहती है,तब कन्नगी प्रत्युत्तर देती है - “बहन, मेरे देवतुल्य पतिकुल ने सुहाग के नूपुरों को मेरे पैरों में बाँध दिया है। ये घुँघरू तुम्हारे ही पैरों में शोभा पायेंगे।”
यह वार्तालाप मानव मन के संस्कारों व सामाजिक मान्यताओं का द्योतक है। स्त्री और पुरुष में, पुरुष सदैव से ही स्त्री जाति पर शासन करता रहा है। स्त्री उसकी छाया मात्र है। संस्कारवश जब कोवलन कन्नगी से उसके जीवन में किसी भी तरह का आक्षेप न करने का कारण पूछता है तो वह कहती है - “विज्ञजन स्वयं सोच-विचारकर कार्य करते हैं, फिर क्यों टोकती?” * * * आप मन्त्रणा देने को कहते, तब अवश्य निवेदन करती अन्यथा मेरा अधिकार नहीं। दासी का दुःख नहीं पूछा जाता स्वामी। मुझे आफ सुख में सुख मानने का संस्कार मिला है।”
संस्कार की धनी अपनी पत्नी की प्रशंसा करते हुए कोवलन कहता है - “तुम मेरी सहधर्मिणी हो, मन्त्राणी हो, दासी हो। कुलवधू के लिए उचित शास्त्रकारों के बतलाए हुए हर संस्कार को जब तुमने इतनी भली प्रकार आत्मसात किया, तब एक ही बात क्यों भूल गई।”
अपने संस्कारों के अनुरूप धर्म को प्रतिव्रत धर्म बताते हुए पेरियनायकी माधवी से कहती है - “हम क्या करें बेटी, हम तो नगरवधू हैं। हमारा पतिव्रत धर्म धन से बँधा है। पुरुष उसका माध्यम है और प्रेम व्यवसाय।”
माधवी की नृत्य गुरु चेलम्मा एक ऐसी नारी है, जो सारा दुर्भाग्य सहकर भी अपने प्रेमी को प्रेम करती है, जो उसे ठुकरा कर किसी नन्दा नाम की स्त्री से प्रेम करने लगा था। मानाइहन, चेल्लमा का प्रेमी तो नहीं, पर उसके नृत्य प्रशंसकों में थे। चेलाम्मा का एक अरबी प्रेमी था, जिसे वह भारत में चौगुने लाभ के लालच में ले आई थी, भारत आते ही एक दिन वह दुर्भाग्यवश ज्वरग्रस्त होकर मर गया और उसका सारा धन चेलम्मा को मिल गया। इस प्रकार लेखक ने कोवलन, माधवी और कन्नगी के त्रिकोण और विषाक्त जीवन की जड़ में समाज की परम्पराओं, जीर्ण रुढ़ियों का बड़ा सफल चित्रण किया है।
‘अमृत और विष’- यह भी लेखक का व्यक्ति एवं समाज सापेक्ष उपन्यास है। लेखक ने समाज के सत् और असत् दोनों ही पक्षों का चित्रण उपस्थित किया है।
अरविंदशंकर के रूप में समाज के उस वर्ग का चित्र उभरा है, जो दिन रात परिश्रम करने के बाद भी सुख और शान्ति के लिए तरसते हैं। अरविंदशंकर अपने इकसठवें जन्म दिवस को स्मरण करते हुए विगत एवं आगमी जीवन के विषय में अनेक बातों पर विचार करते हैं। उनका मन भीषण अन्तर्द्वन्द्व से व्याकुल हो उठता है। वे सोचते हैं-क्या उनका जीवन सार्थक रहा, अन्त समय निकट आ रहा है और उनके सिर पर अनेक उत्तरदायित्व शेष हैं। अरविदशंकर का परिवार टूट जाता है। उनका पारिवारिक जीवन अव्यवस्थित हो जाता है।
रद्धू सिंह ऐसा व्यक्ति है, जो कुण्ठाग्रस्त है और बेकारी का शिकार है। लच्छू एक उत्साही निष्ठावान व महत्वाकांक्षी युवक है। लेकिन ऊँचा स्तर व धन प्राप्त करने हेतु उसे जीवन आदर्शों को अन्ततः त्यागना ही पड़ता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में बढ़ने वाले वर्ग संघर्ष का लेखक ने सजीव चित्र खींचा है। देश में पूँजीपतियों का बोलबाला हुआ, जिससे निर्धन और अधिक निर्धन हो गए और धनी और धनी होते गए।
लच्छू एक महत्वकांक्षी युवक है परन्तु पूँजीपति वर्ग उसको ऊपर नहीं उठने नहीं देता। धन के लोभ में समाज में होने वाले अनेक प्रकार के अनैतिक व्यापारों का लेखक ने विशद चित्रण किया है।
अरविंदशंकर के माध्यम से लेखक ने यह दिखाया है कि पकाशक निर्धन लेखक का किस प्रकार अपमान एवं शोषण करते हैं। यदि सौभाग्यवश उनको कोई पुरस्कार आदि मिल जाता है तो किस प्रकार उनकी चापलूसी करते हैं। उदाहरण के लिए पकाशक का पुत्र पद्मनाभन पहले अरविंदशंकर को नोटिस दे देता है किन्तु जैसे ही उसको पुरस्कार मिलता है, वैसे ही नोटिस वापिस ले लेता है और उसकी खुशामद में लग जाता है।
इस उपन्यास में शादी विवाह के अवसरों पर होने वाले अनेक रीति-रिवाजों का लेखक ने रोचक वर्णन किया है। रमेश की बहिन मन्नो की शादी के संदर्भ में लेखक ने इस ओर संकेत किया है कि परम्पराएँ हमारे लिए शारीरिक श्रम, आर्थिक व्यवस्था एवं मानसिक शान्ति में किस प्रकार बाधक बन गई है। इनके पीछे रद्धू सिंह जैसे बेरोजगार व्यक्ति अपने सम्मान की रक्षा हेतु रीति-रिवाजों का पालन करने से नहीं चूकते, भले ही उन्हें पड़ौसी के आगे हाथ फैलाना पड़े। रद्धू सिंह के घर पुत्र जन्म होने की लालसा और पुत्र जन्म होने पर हुए रीति-रिवाजों का लेखक ने बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। रमेश की बहिन की शादी में बारातियों के नखरों का भी वर्णन है। उपन्यास में महँगाई में बदलते हुए समय में भी समाज में विभिन्न उत्सवों पर होने वाले रीति-रिवाजों का विशद चित्रण मिलता है, जिन्हें व्यक्ति के लिए निभाना दुष्कर है।
आधुनिक समाज में प्रचलित सफल और असफल अन्तर्जातीय विवाहों का भी लेखक ने उल्लेख किया है। भवानी शंकर और उषा का अन्तर्जातीय प्रेम विवाह असफल होता है , जबकि रमेश और रानी का प्रेम विवाह सर्वथा सफल रहता है। अरविंदशंकर की छोटी पुत्री भी एक मुसलमान से प्रेम करती है तथा वहीदन और लाल साहब के माध्यम से भी लेखक ने अन्तर्जातीय प्रेम विवाह का ही चित्रण किया है। इन विवाहों के द्वारा लेखक ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि इस परिवर्तित युग में पुरानी मान्यताएँ समाप्त हो गई हैं; जाति बन्धन टूट रहे हैं और नवीन मान्यताएँ स्थापित करने तथा अपनाने हेतु समाज सतत प्रयत्नशील है। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारत में लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना हुईं और इसके साथ जन्म हुआ चुनाव, पार्टीबाजी और वोट लेने के हथकंडेबाजी का। निर्वाचन में विजयी होने के लिए व्यक्ति किस प्रकार स्टंटबाजी को अपनाते हैं, किस प्रकार घृणा और स्वार्थपरता से पूर्ण होते हैं, इसका यथार्थ चित्र हमें इस उपन्यास में मिलता है। लच्छू, मिसेज चौधरी के चुनाव में काम करता है। खोखा मियाँ, लाल बृजकिशोर भी इसमें रुचि लेते हैं। धन कमाने और समाज में नाम करने के लिए लच्छू इलेक्शन के समय में सब कुछ करता है। उसे कर्तव्य और अकर्तव्य का भी ध्यान नहीं रह जाता। उसका केवल एक ध्येय है - पैसा और ऊँचा स्तर।
भारतीय समाज में पिछले कईं वर्षों से कई प्रकार की विचारधाराओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं को परिवर्तित किया और इन मान्यताओं ने समाज के शोषित वर्ग में नई चेतना को जन्म दिया। भारतीय नारी भी शोषित वर्ग का एग अंग है। समाज में होने वाले सांस्कृतिक एवं सामाजिक आन्दोलनों के फलस्वरूप नारी वर्ग विशेष रूप से प्रभावित हुआ। इन आन्दोलनों के फलस्वरूप स्त्रियाँ प्राचीन मान्यताओं और बन्धनों को तोड़ कर उन्मुक्त विकास क्षेत्र में आईं। ऐसी ही नारी का प्रतीक है ‘रानी’ जो समाज की जर्जर परम्पराओं का विरोध करती है। वह बाल विधवा है। अवसर मिलते ही वह किसी विरोध की परवाह न करते हुए अन्तर्जातीय विवाह कर लेती है। पत्रकार खन्ना साहब की पत्नी ‘बहिन जी’ भ रूढ़वाद के विरूद्ध हैं। वह विधवा विवाह का समर्थन करती है। वह प्रगतिशील व आधुनिक विचारों का साकार रूप है।
समाज में धन के नाम पर पलने वाली संकीर्णता एवं स्वार्थपरता का भी सजीव चित्र लेखक ने प्रस्तुत किया है। रद्धू सिंह का मन्दिर में कीर्तन करना, रुप्पनलाला का मन्दिर निर्माण आदि समस्त कार्य यह बातते हैं कि आज के समाज में धर्म मात्र स्वार्थ साधन का माध्यम बन कर रह गया है। खोखा मियां तो धर्म की दुहाई देकर साम्प्रदायिक दंगा ही करा देते हैं।
समाज के व्यक्तियों में व्याप्त ईर्ष्या का चित्रण करते हुए लेखक ने रुप्पण लाला, रेवती रमन, बृजकिशोर, बैजू लाला, खोखा मियां, मुलायम चन्द्र आदि अनेक चरित्रों को प्रस्तुत किया है, जिनमें परस्पर तनातनी है। रुप्पण लाला, राधिकारमण की उन्नति नहीं देख सकते। इस कारण उनके द्वारा निर्मित मन्दिर से भी बड़ा मन्दिर बनवाना चाहते हैं। बृजकिशोर रुप्पण लाला को अपना शिकार बनाना चाहते हैं। समान स्तर वालों में ही नहीं वरन् लोग अपने से छोटे को भी बढ़ता हुआ नहीं देख सकते हैं, यथा लच्छू की उन्नति से रेवतीरमण जलते हैं; और उसको मोटर बेचने की सलाह देते हैं। खोखा मियां भी लच्छू से द्वेषभाव रखता है और अन्त में उसकी मोटर को जलाकर ही उसे मानों सन्तोष मिलता है।
इस प्रकार इस उपन्यास में मध्यम वर्गीय समाज का, उसमें प्रचलित रीति-रिवाजों, विभिन्न परम्पराओं का गुण-दोषमय यथार्थ चित्रण मिलता है।
‘एकदा नैमिषारण्य’ - सर्व-संस्कृति समन्वय में आस्था रखने वाले व समाज की अनेकता में भी एकता के द्रष्टा, नागर जी का यह एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण पर आधारित सांस्कृतिक उपन्यास है। इसमें लेखक ने राष्ट्रीयता और भक्ति का अपूर्व समन्वय किया है। उन्होंने आर्य सभ्यता और संस्कृति को केवल विशुद्ध भारतीय ही नहीं वरन् उसे सोवियत संघ, मध्य एशिया, मिश्र, ईराक, ईरान और योरोप के कुछ भागों से भी संबंधित पाया है। भारतीय देवी- देवताओं व पुराण कथाओं को उन्होंने अन्य देशों के देवी, देवताओं से संबंधित दिखाया। ऊपर से भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाली संस्कृति ‘मूल’ में एक ही हैं। अरब वासी ‘अम्र बिन हारीत’ अपने देश व भारतीय संस्कृति में अनेक समानताएँ देखकर, चकित हो कहता है - “हे हिन्दी आलिम, यह दुनिया मेरे लिए अब एक पहेली बनती जा रही है। या तो हम इतने अलग-अलग है कि जितने हम अपनी-अपनी प्रत्यक्ष परिस्थितियों में अलग लगते हैं या फिर हम एक ऐसे विशाल सागर की बूँदें हैं, जो अलग-अलग तो की जा सकती हैं, पर वस्तुतः अलग नहीं होतीं।”
लेखक के अनुसार अनेक जातियों के सांस्कृतिक समन्वय से विराट चेतना का उदय होता है। हमारे पूज्य पुरुष आदि काल में असुर थे। भृगु से पहले सभी कच्चा मांस खाते थे। महर्षि भृगु ने प्रथम बार मांस भूनकर खाने की प्रथा निकाली। इस प्रकार व्यक्ति ने ही व्यक्ति को सुसँस्कृत किया।
पारस देश और अपने देश के धार्मिक अनुष्ठान तथा सिद्धान्तों में साम्य बताते हुए नारद, उग्रस्रवासौति से कहते हैं - “पारस देश में इस धर्म के आचार्यों से जो मैंने जाना है, उसके अनुसार इस धर्म के प्रवर्तक हमारे मगध के कुख्यात सम्राट नवनन्द के समकालीन थे, यवन विजेता अलिकसुन्दर ने पारस देश के जिस महिमामय आर्य सम्राट दार्युष को पराजित किया था, उन्हीं के पिता विस्तास्थ अथवा विश्वाश्व के गुरु थे-महात्मा जरथ्रुस। इनके धार्मिक सिद्धान्तों में हमारे वैदिक धर्म से भेद होते हुए भी बड़ा साम्य है।”
हमारे प्राचीन समाज में रोगग्रस्त होने पर जड़ी-बूटियों से रोग निदान किया जाता था और उनका प्रभाव अद्भुत होता था। सोमाहुति की माता के बीमार होने पर ग्वालिन अम्मा जड़ी-बूटियों से उनका उपचार करती है।
मथुरा नगरी में प्रवेश करने वाले घुमक्कड़ नारद उस नगरी के छिन्न-भिन्न, अव्यवस्थित सामाजिक जीवन का कारण कुषाण जाति को बताते हैं। उनके अनुसार उन आततायी दुष्टों ने भारतीय संस्कारों को नष्ट कर डाला। देवताओं के स्थान पर मानव पूजा की प्रथा प्रचलित कर दी - “मांस, मदिरा, महिला ये तीन इस समय मथुरा के नागरिक संस्कार हैं। कुषाणों ने देवों की पूजा का प्रचलन आतंकपूर्वक समाप्त करवा दिया था। * * * क्या दुर्दशा है, यज्ञ करने की आज्ञा नहीं, वैदिक भाग कर जंगलों में छिप गये हैं।”
अनेक धर्मों, अनेक जातियों वाला भारत अति प्राचीन काल से असंगठित और विघटित रहा है। गुप्तकाल में भी सामाजिक जीवन विच्छिन्न और अव्यवस्थित था, जो देश की अवनति का प्रमुख कारण बना।
समाज में सदैव से ही भ्रष्टाचार और पापाचार का बोलबाल रहा है। स्त्रियों का शील असुरक्षित रहा है। धर्म के नाम पर अनेक अधर्म होते रहे हैं। तत्कालीन समाज में मथुरा जैसी पावन नगरी का हुविष्क विहार पापाचार का प्रमुख केन्द्र था। इस ओर लेखक ने स्पष्ट संकेत किया है।
ईर्ष्यावश भृगुवत्स जैसे शासक समाज का अमंगल करने से न चूकते थे। भार्गव से ईर्ष्या के कारण भृगुवत्स उनके पूर्वजों के ग्रन्थों में आग लगवा देते हैं। इतना ही नहीं ग्रन्थों के साथ-साथ भार्गव की माँ भी वीरगति को प्राप्त होती है। समाज के इस घिनौने रूप का सजीव चित्रण लेखक ने किया है।
हमारे समाज में प्राचीन काल से ही वेश्या वर्ग को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। समाज की इस दृष्टि का उल्लेख नागर जी ने तब किया है जब नारद इज्या के सुरक्षित आवास का प्रबन्ध करने हेतु गणिका लवण शोभिका के घर शरण लेने की बात कहते हैं तो इज्या आवेश में कहती है - “मैं वेश्या के यहाँ कदापि शरण न लूँगी।”
समाज में प्रचलित नरबलि प्रथा का उल्लेख भी लेखक ने किया है। समाज में साधुओं को विशिष्ट स्थान दिया जाता था। गुप्त काल में वे डाकुओं से भी अधिक आततायी हो गए थे। यात्रियों को लूट कर नरबलि चढ़ाना उनके लिए नित्य का काम था।
तत्कालीन समाज में यज्ञ-याग आदि का प्रचलन था, भारतीय संस्कृति और समाज का यज्ञ आदि प्रमुख अंग रहे हैं। इसी का चित्रण इस उपन्यास में मिलता है। कान्तिपुरी सम्राट भवनाग - “उन दिनों वाजपेय यज्ञ करा रहे थे। लक्ष्मणपुर की सुख्यात कान्यकुब्ज ब्राह्मण मण्डली सम्राट् से यह महायज्ञ सम्पन्न करा रही थी।
नारद जब कान्तिपुरी में पहुँचते हैं तो भारतीय परम्परा व संस्कृति के अनुसार नगरवासी उनका इस प्रकार स्वागत करते हैं - “तुरही, शंख, वेदगान, जय-जयकार आदि के साथ नारदजी का जुलूस चला। जगह-जगह पर उनकी आरती उतारी गई। पुष्प और खील बरसाई गई।”
चन्द्रगुप्तकालीन समाज की असुरक्षित दशा का वर्णन करते हुए लेखक लिखता है - “हे सम्राट, मेरे मत से भारतवर्ष अब भी अरक्षित है। काश्मीर, पंचनद प्रदेश, सिन्धु, गान्धार आदि अब भी निर्बल किन्तु कुटिल कुषाणों के अधिकार में है। एलम् के शश सम्राट् उत्तरोत्तर शक्तिशाली होते जा रहे हैं।”
लेकिन लेखक का विश्वास सुसंस्कारों के प्रचार से जनमानस परिवर्तन करने में है - “सद्धर्म एवं सुसंस्कारों के प्रचार से जनमानस में निश्चित रूप से सद्परिवर्तन भी होता है। प्राचीन काल में बौद्ध सम्राट् मौर्य अशोक यदि व्यापक रूप से सद्भावनाओं का प्रसार करने में सफल हो सके, तो हमारे धर्मात्मा सम्राट् अपने पुण्य प्रताप से भला क्यों न सफल होंगे।”
सामाजिक रीति-रिवाजों और संस्कारों से बँधे भार्गव, माँ की आकस्मिक मृत्यु का समाचार पाकर उनकी आत्मा की शान्ति हेतु भारतीय परम्परानुसार श्राद्ध करने के लिए चिन्तित हो उठते है।
फारसी व्यापारी जगत सेठ कौरोष मथुरा में सोमाहुति भार्गव से अपने व भारतीय धर्म तथा संस्कृति आदि को लेकर वार्तालाप करते हैं। सब मनुष्यों का, देशवासियों का, मूल संस्कार एक ही बाताते हुए भार्गव कहते हैं - “साधु, आर्य, आपकी इस बात से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। सगुण-निर्गुण दोनों के संस्कार साथ-साथ जगाना ही आर्यमंत्र है। ऊपरी भेद के रूप में इनके परस्पर विरोधाभास की बात करना व्यर्थ का शाब्दिक वितण्डा मात्र है। भगवान् की माया, अस्तित्व का भ्रम कराते हुए भी, अपने आप में अस्तित्वहीन होती है। अस्तित्व तो हमारे अन्तर्नारायण ही का है।”
धर्म को लेकर समाज में होने वाली कलह व विषमताओं का चित्रण भी स्थान-स्थान पर इस उपन्यास में मिलता है। भार्गव जब मथुरा में मित्रगणों की सलाहनुसार गुप्तवास करते हैं, तो मथुरा के सेठ वसुमित्र को भार्गव के शत्रु भृगुवत्स द्वारा धमकी दी जाती है कि वह भार्गव की किसी भी प्रकार की सहायता न करे। नगर के बौद्ध धर्मी व्यापारी-महाजन वर्ग को अबौ्धों के प्रति घृणा करने के लिए उकसाया जाता है।
भारतीय संस्कृति और मान्यता अनुसार प्राचीन समय से भारतीय, मंत्रों की शक्ति में विश्वास करते चले आए हैं। एक बार जब ‘भारत’ संज्ञाहीन हो जाते हैं, तो भार्गव उनकी पुनर्चेतना हेतु मंत्रजाप करते हैं, जिससे वे स्वस्थ हो जाते हैं।
समाज में प्रयोग आने वाले वस्त्राभूषणों का लेखक ने विस्तार से वर्णन किया है - “आलोक मंदिर रूप, यौवन और ऐश्वर्य से भर चुका था। बंग देश के बने क्षौम, दुकूल वस्त्रों, चीन और भारत के विविध रंगों वाले, मूल्यवान अंशुक वस्त्रों, कलाबत्तू और रेशम के बुने बंगाल के वस्त्रों की छटा चारों ओर छहर रही थी। धनी समाज के नर-नारी यही वस्त्र पहनते थे। चूडामणि, किरीट, मुकुट, मौलि, उत्तंस, कुन्तली, पट्ट आदि शिरोभूषण अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से राजपुरुष, अमात्य, सेठादि के सिरों पर शोभा पा रहे थे।
समाज में प्रचलित कथा प्रवचन का भी लेखक ने उल्लेख किया है। जन गण प्रवचन को रुचि के साथ सुनते थे। भार्गव के मथुरा में दिए जाने वाले प्रवचन को सुनने के लिए उमडी भीड़ का वर्णन करते हुए लेखक लिखता है - “दूसरे दिन अपरान्ह काल में व्यासजी का प्रवचन सुनने के लिए केशवमन्दिर के कथा-मण्डप में इतनी भीड़ थी कि हजार खम्भोंवाले विशाल मण्डप और उसके सामने वाले आंगन में कहीं तिलभर भी बैठने की जगह नहीं बच पाईं थी।”
पूज्य एवं श्रद्धेय व्यक्ति की अर्चना वन्दन आदि की भारतीय प्रथा का वर्णन करते हुए नागरजी लिखते हैं - “सेठ वसुमित्र तथा अन्य माथुर महाजनों ने व्यासजी की पूजा की। दक्षिणा में एक लाख रौप्य टंकों से कुछ अधिक ही धनराशि अर्पित हुई। फिर सौति ने सुमधुर स्वर में वासुदेव वन्दना का संगीतात्मक पाठ आरंभ किया।”
विशेष पर्व व उत्सवों पर दंगल, नट, बाजीगरी का प्रदर्शन, संगीत गायन व नर्तन का प्रचलन प्राचीन भारतीय परम्परा रही है। इसके रोचक चित्र भी उपन्यास में मिलते हैं।
उत्सवों पर होने वाले भंग और सुरापान के प्रचलन का भी लेखक ने संकेत दिया है - “उत्सव के बहाने सारे दिन भंग और सुरा की नदियाँ बहती रह।”
भार्गव जब नैमिषारण्ये में इज्या के पुत्र होने का समाचार प्राप्त करते है तो पुत्र मुख देखने की उत्कण्ठावश अयोध्या प्रस्थान करते हैं लेकिन समाज के रीति-रिवाज उनकी उत्कण्ठा और बढा देते हैं क्योंकि ब्राह्मण भोज के बाद ही पिता अपने पुत्र का मुख देख सकता था। इस भारतीय परम्परा का लेखक ने रोचक चित्रण किया है - “स्नान-ध्यान-भोजनादि कृत्य सुसंपन्न हुए, इज्या और भार्गव भी मिले, पर जिसे देखने के लिए भार्गव अत्यंन्त लालायित थे, उसके दर्शन न हो सके। कल ब्राह्मण न्यौते जाएँगे, यज्ञ होगा, तब पिता पुत्र का मुखदर्शन करेगा।”
इस उपन्यास में प्रज्ञापति भारतचन्द्र नाग भारतवर्ष का प्रतीक है।
भृगुवत्स एक कुटिल और ईर्ष्यालु पुरुष है, जो धर्म का ढोंग रचकर यास्मीन के साथ पापाचार करते हुए रंगे हाथों पकड़ा जाता है और उसके पाप का घडा फूट जाता है।
इज्या और प्रज्ञा, बुद्धि और चेतना की प्रतीक है। वे पतिव्रता नारियाँ हैं। प्रज्ञा भारत की चेतना रूप में सार्थक है और इज्या पतिभार्गव की संयमित बुद्धि के रूप में सार्थक है।
लवण शोभिका वेश्या होते हुए भी सुबुद्धि वाली स्त्री है। वह मथुरा राज्य की शोभा है।
सोमाहुति भार्गव एक संयमित, सुबुद्धि व ज्ञानी पुरुष है, जो स्वयं जनमानस को चेताकर सब धर्म व जातिसमन्वय के लिए तत्पर है। गणपति महाराज राजनीतिज्ञ होते हुए भी बिना रक्त क्रान्ति के देश और समाज की कुरुपता और विषमता दूर कर समभाव लाना चाहते हैं।
इस प्रकार इस उपन्यास में समाज और संस्कृति के विविध चित्र मिलते हैं, जो समाज के विभिन्न रूपों से पाठक को परिचित कराते हैं।
‘मानस का हंस’- इस उपन्यास ���ें मुगल कालीन समाज के अेक चित्र मिलते हैं। इसके नायक तुलसी हैं। तुलसी के जन्मते ही उनके अभुक्त मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण, माँ-बाप के लिए मनहूस सन्तान समझ, पिता आत्माराम उनको त्योग देते हैं। उनकी मुनिया दासी तुलसी को जमुना पार अपनी अन्धी सास पार्वती अम्मा को दे आती है। इस वर्णन से पता लगता है कि तत्कालीन समाज में नक्षत्र गणना पर लोगों का अत्यधिक विश्वास था और इस सीमा तक था कि वे बुरे नक्षत्रों में जन्मी सन्तान का त्याग तक भी कर देते थे। जैसा कि तुलसी के विषय में गाँव वाले कहते हैं - “ऐसा हत्यारा जनमा है कि बिचारी को न वैद मिला, न दवा दारू हुइ सकी।”
हिन्दू धर्म के अनुसार यह सामाजिक रीति प्रचलित है कि मृत व्यक्ति को एकदम धरती पर ले लिया जाता है। इसी का संकेत लेखक ने रत्ना की मृत्यु हो जाने पर इस प्रकार दिया है - मैना कहारिन आस-पास के लोगों को आवाज देकर बुलाती हुई कहती है - “अरे गनपती की बहू, रमधनियां की अम्मा, अरी बतासो, अरे जल्दी-जल्दी आओ सब जनी। भौजी को धरती पर लेने का बखत आय गया।”
समाज के आधारों में एक मुख्य आधार है - धार्मिक विश्वास। ये ही धार्मिक विश्वास धीरे-धीरे रीति-रिवाज के रूप में प्रचलित हो जाते हैं। प्राचीन काल से भारतीय समाज में यह विचार प्रधान रहा है कि ब्राह्मण जाति सबसे उच्च होती है। ब्राह्मण होने की इसी श्रेष्ठता की भावना का चित्रण प्रबुद्ध लखक ने उपन्यास में किया है। जब बालक तुलसी अपने गाँव के ब्राह्मण, क्षत्रिय बच्चों के साथ खेलकूद में लीन होता है, तभी पुत्तन नाम एक ब्राह्मण आकर बच्चों को भिखारिन द्वारा पालित तुलसी के साथ खेलने को मना करता है।
समाज में संगीत मनोरंजन के प्रमुख साधनों में रहा है। अतिप्राचीनकाल से इसे मन बहलाव का साधन माना जाता रहा है। उदाहरण के लिए मेघा भगत की मूर्च्छा दूर होने पर उनके मन बहलाव हेतु, उनके भक्त जनों के कहने पर मोहिनी बाई अपने सुरीले कण्ठ से भजन गाती है। इसी प्रसंग में तुलसी का भी संगीत प्रेम स्पष्ट लक्षित होता है। मोहिनी बाई का भजन समाप्त होते ही तुलसी एकाएक वही भजन अपने मधुर कण्ठ से गाना प्रारम्भ कर देते हैं। उनका गायन सुनकर मेघा भगत व उनके भक्तों की मुग्ध हो जाने की बात लेखक ने इस प्रकार कही है - “आपका कण्ठ बड़ा ही सुरीला है, कानों में अमरित घोल देता हैं।”
सामाजिक मान्यतानुसार माता-पिता, गुरुजन, पति, ज्येष्ठभ्राता सब पूजनीय व श्रद्धेय होते हैं। उनका प्रेम निःस्वार्थ तथा महान होता है। इसी का चित्रण इस उपन्यास में तब मिलता है, जब तुलसी काशी छोड़कर तीर्थाटन का निश्चय करते हैं, तो उनसे दूर हो जाने की कल्पना मात्र से उनकी माँ स्वरूपा गुरु पत्नी रोने लगती है। गुरू पत्नी का भाई और तुलसी का धर्म मामा, जो तुलसी की हठ से खीझ कर उन्हें शाप देते हैं- “तू गृहस्थ न बनकर भगत ही बनेगा”। तुलसी इसी प्रसंग को सुनाकर हँसते हुए अपने शिष्यों से कहते हैं - “गुरुजन प्रेमवश जब शाप भी देते हैं, तो ऐसा कि वह वरदान बन जाता है।” क्योंकि तुलसी वास्तव में राम भगत बन चुके थे।
रत्ना के लिए पति तुलसी उसकी सौभाग्यनिधि है। इसलिए रत्ना का चचेरा भाई गंगेश्वर जब ईर्ष्यावश तुलसी का अपमान करता है, तो क्रुद्ध रत्ना पति के अपमान से अपमानित हुई कहती है - “अब मैं भी कहती हूँ कि भविष्य में गंगे भैया, मेरे घर की देहरी फिर कभी न चढे।
समाज की इस रीति का चित्रण कि जब पिता की मृत्यु हो जाती है तो पैतृक सम्पत्ति परम्परानुसार पुत्र को ही जाती है और पुत्र न हो तो पुत्री को। रत्ना अपने पिता की एक मात्र सन्तान थी। उनके पिता की मृत्यु होने पर, उनके कहे अनुसार उनके सारे ज्योतिष ग्रन्थ योग्य दामाद तुलसी को मिलते हैं। इसपर रत्ना का चचेरा भाई, जो स्वयं को उस ग्रंथ रूपी धन का उत्तराधिकारी समझता था, चिढ जाता है और कहता है - “ये जो सारे ग्रन्थ आप हमारे यहाँ से उठा लाए हैं, वे हमारे हवाले कर दीजिए।” तब रत्ना कहती है कि यह पैतृक सम्पत्ति स्वयं उनके पिता ने अपने दामाद को दी थी इसलिए उन पर गंगेश्वर का कोई अधिकार नहीं।
रत्नावली एक अपूर्व बुद्धिमती, तेजस्वी व रूपसी नारी है। वह ही तुलसी को राम मार्ग में अग्रसर करती है। उनका यह कथन तुलसी की चेतना बोध का कारण बन जाता है - “स्त्री और पुरुष में यही तो अन्तर होता है। नारी भले ही कामवश माता क्यों न बने किन्तु माता बनकर वह एक जगह निष्काम भी हो जाती है और पुरुष पिता बनकर भी दायित्व-बोध भली प्रकार से अनुभव नहीं करता। सच पूछो तो वह किसी के प्रति अपना दायित्व अनुभव नहीं करता। वह निरे चाम का लोभी है, जीव में रमे राम का नहीं।”
रत्ना जहाँ तुलसी की चेतना और ज्ञान बोध का प्रतीक है, जैसा कि तुलसी स्वयं स्वीकारते हैं - “तुम्हारी वाणी से स्वयं सरस्वती ने जो ज्ञान बोध दिया उससे मौन अवश्य हो गया था” वहाँ मोहिनी अज्ञान और आसक्ति के रूप में चित्रित है, जिसका सम्मोहन तुलसी पर ऐसा चढता है कि वे भ्रमवश मोहिनी को ही सत्य मान बैठते हैं। उनके हृदय में, मोहिनी प्रेम व राम प्रेम में भीषण द्वन्द्व चलता है - “मिथ्या नहीं। मोहिनी सत्य है ‘* * * मोहिनी या राम? मोहिनी या राम? तुलसी विकल होते हैं, राम को कदापि नहीं छोडूंगा पर मोहिनी को भी कैसे छोड़ दूँ?”
लेकिन अन्त में लेखक तुलसी को उनकी मोहिनी रूप आसक्ति से उबार ही लेता है - “तुलसी मोहिनी से कहते हैं - मैं वस्तुतः तुम्हारे रूप और गायन कला पर आसक्त होकर तुमसे वह अनुभव पाने का अभिलाषी हूँ, जिसे पाकर ब्रह्मचारी गृहस्थ हो जाता है और तुम भी निश्चय ही काम-क्षुधावश मुझ पर आसक्त हो। यह प्रेम नहीं, तृष्णा है। प्रेम मैं राम से करता हूँ।”
इस प्रकार लेखक ने भारतीय समाज व संस्कृति का विशद चित्रण अपने उपन्यासों में किया है तथा पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत गहन चिन्तन और दर्शन लेखक के भारतीय समाज और संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम का द्योतक है।
‘ये कोठे वालियाँ’- “सन् 1950 में राष्ट्रपति देशरत्न राजेन्द्रप्रसाद जी ने यह इच्छा पकट की थी कि वेश्याओं से भेंट करके कोई व्यक्ति उनके सुख-दुख का हाल लिखे। वे स्वयं ही इस संबंध में लिखना चाहते थे परन्तु अवकाशाभाव के कारण ऐसा न कर सके। मेरे मित्र ‘पण्डित रुद्रनारायण शुक्ल’ उस समय पत्रकार थे। उन्हें लगा कि यह काम किसी हिन्दी लेखक को ही करना चाहिए और अपने इस तर्क से प्रभावित होकर उन्होंने प्रेस ट्रस्ट औफ इन्डिया के संवाददाता को यह सूचना दे दी कि नागर, ‘देशरत्न राजेन्द्र बाबू’ की इच्छापूर्ति के लिए यह काम करेगा। अपनी इस नई जिम्मेदारी की सूचना मुझे भी आम जनता के साथ ही साथ दैनिक समाचार पत्रों से ही प्राप्त हुई।”
उपन्यास की प्रस्तावना में अंकित अमृतलाल नागर के ये शब्द स्वयं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ‘ये कोठेवालियाँ’ उपन्यास समाज के दलित दीनहीन, सदियों से हेय दृष्टि से देखे जाने वाले वेश्या वर्ग व उसकी विभिन्न समस्याओं, सुख-दुख और उत्पीडन से संबंधित है। उपन्यास में विभिन्न वेश्याओं के रोचक इन्टरव्यू संकलित है। केवल वेश्या ही नहीं, वरन् सम्मानित वर्ग की नारियों की विवशता और दीन दशा के भी लेखक ने हृदयस्पर्शी चित्र उकेरे है। निस्सन्देह भारत में नारी सदा से पुरुष द्वारा शासित व पीड़ित रही है। अति प्रचीनकाल से हमारे ऋषि-मुनियों ने नारी को नर्क का द्वार तथा तुलसी आदि कवियों ने ताडन का अधिकारी बताया है। नारी का आरम्भ से ही ऐसा तिरस्कृत और दयनीय रूप बना दिया गया और उस रूप से वह इस गहराई से संबंधित हो गई है कि 20वीं सदी में भी वह अपने उस रूप से पूर्णतया मुक्त न हो सकी। यद्यपि हमारे देश के विनोबा, गाँधी, नेहरू जैसे महान् नेताओं की कृपा से स्त्रियों की दशा में बहुत सुधार हुआ और आजकल तो लोगों के क्रान्तिकारी विचारों ने नारी को अपने बराबर का स्थान पाने की अधिकारिणी घोषित किया है। यदि भारतीय पुरुष वर्ग में स्त्री को अपने बराबर का स्थान देने की सामर्थ्य है, तो निस्सन्देह वह सच्चे अर्थों में पौरुष वाला है। यद्यपि नारी समान स्थान पाने के स्थान पर पुरुष के समान, प्रेम और सहानुभूति क अधिक इच्छुक होती है। अपवाद छोड़कर, भारतीय नारी आज भी पुरुष से प्रेमपूर्वक शासित होने में ही सुखानुभव करती है। वह उसकी बराबरी करने का कदापि दावा नहीं करती, किन्तु वह सदैव अपने उस दीन-हीन रूप से अवश्य उबरने की इच्छुक रही, जिसने उसके अस्तित्व को समाप्त प्रायः कर डाला।
नारी जीवन से संबंधित तथा विशेषरूप से वेश्या नारी जीवन से संबंधित अनेक मार्मिक प्रसंगों का उल्लेख कर लेखक ने नारी जाति की विवशता, दुख-दर्द व पीड़ा को पहचानने और उससे समाज को परिचित कराने का सराहनीय प्रयास किया है। इस उपन्यास में वेश्या वर्ग के प्रति लेखक की उदारता और सहानुभूति स्पष्ट लक्षित होती है। नागर जी ने कहीं भी वेश्याओं की निन्दा नहीं की और न उनके प्रति घृणा व्यक्त की। अगर लेखक का आक्रोश और घृणा कहीं परिलक्षित होती है,तो वह मात्र वेश्यावृत्ति के प्रति, चकलाखाना चलाने वालों के प्रति। उनका यह आक्रोश सर्वप्रथम तो प्रस्तावना में ही दृष्टिगोचर होता है - “सबसे बड़ी समस्या चकलेखानों की है। अगर इन चकलेखानों के खिलाफ सावधानी से पक्की तरह छानबीन करके, फिर उनपर जगह-जगह मुकदमें चलाए जाएँ तो जन चेतना पर असर पड़ेगा। स्त्रियों को खरीदने बेचने का धन्धा करने वाले स्त्री पुरुषों को आजीवन कारावास की सजाएँ देनी चाहिए।”
समाज के इस उपेक्षित और बहिष्कृत वर्ग के प्रति लेखक का हृदय अत्यधिक सदय सहानुभूतिपूर्ण है। लेखक के अनुसार वेश्या मानवीय कुवासनाओं, सामाजिक कुप्रथाओं का ही रूप है। मनुष्य जीवन का असित्-बिम्ब है। नागर जो वेश्या वर्ग को सुधार की दिशा में ले जाकर समाज से वेश्यावृत्ति को मिटा देने का मार्ग दिखाते हैं, उनके इस सुविचार का परिचय तब मिलता है, जब एक बार पत्नी प्रतिभा द्वारा खोले गए, सिलाई, बुनाई, नृत्य, संगीत की शिक्षा देने वाले स्कूल में संगीत अध्यापिका का स्थान, वह एक असहाय और योग्य वेश्या को दे देती है। इस प्रकार वे उस वेश्या को अपने घृणित जीवन से निकलने का पूर्ण अवसर देती है। ‘लूलू की माँ’ के रूप में लेखक ने एक विवश नारी का चित्र खींचा है, जिसका पति गरीबी से तंग आकर अन्त में अपनी पत्नी को वेश्यावत्ति के लिए मजबूर करता है। लूलू की माँ, लेखक की पड़ोसिन है, जो उससे व उसके मित्र से विशेष आत्मीयता रखती है। जिस आत्मीयता का लेखक और उसका मित्र गलत अर्थ लगाते हैं और अन्ततः आँखों के सामने प्रतिदिन दिखने वाले लूलू की माँ के प्रति सामाजिक अत्याचार से पीड़ित, लेखक और उसका मित्र मकान बदलने का निश्चय कर लेते हैं। जिस दिन दोनों मित्र कमरा छोड़कर जाने लगते है, तो आँखों में आसूँ भरे लूलू की माँ का यह कथन - “अबी से लूलू को कौन देखेगा”, उसकी आत्मीयता का रहस्य खोल, दोनों को व्यथित कर जाता है।
इस प्रकार अनेक ऐसी स्त्रियों का चित्रण है, जिन्होंने पति द्वारा वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर किए जाने के कारण आत्महत्या कर ली। ‘प्रेमी या कामाचारी’ शीर्षक की ये पंक्तियाँ एक ऐसी ही घटना से संबंधित है - “पति के आत्म-गौरव खो देने पर पत्नी ने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिए, शरीर के लोथडे को पति देव किसी को भी सौंप सकते थे।” लेखक का कथन है। “सन् 1857 से लेकर सन् 1929 तक नायक कन्याओं की बिक्री को रोकने के लिए सरकार ने कडे कानून बनाए। उस क्षेत्र के पढे-लिखे लोगों ने भी नायकों में नई चेतना और सुधार लाने के लिए अनेक सँस्थाएँ स्थापित की। आर्य समाजी सुधारकों ने भी अच्छी सेवा की। परन्तु सदियों के संस्कार आसानी से नहीं मिटते।”
नागर जी ने उस पहाड़ी प्रथा का भी विशद चित्रण किया है जिसके अनुसार पहाड़ की कुछ जातियों में पतिगण अपनी पत्नियों को खरीदते बेचते हैं। 6-7 माह रखने के बाद, मन भर जाने पर वे उसे दूसरे के हाथों बेच देते है। इस प्रकार एक पुरुष से दूसरे के हाथ, दूसरे से तीसरे का संसर्ग प्राप्त करते-करते नारी प्रायः वेश्या ही बन जाती है। निस्सन्देह यह प्रथा नारी के ‘अबला’ नाम को सार्थक करती है। लेखक ने लखनऊ शहर की एक ‘बद्रमुनीर’ नामक वेश्या की करुण कथा का उल्लेख किया है। किस प्रकार वह वेश्या बनाई गई, किस प्रकार वह वेश्या वृत्ति के लिए विवश हुई और कैसा बुरा उसका अन्त हुआ। इसका दुखदायी चित्र खींचकर लेखक ने सहज ही समाज के कलंक रूप उन स्त्री-पुरुषों के प्रति पाठक की घृणा उपजा दी है, जो भोली-भाली लड़कियों को अनेक शारीरिक यातनाएँ दे-देकर, इधर-उधर से उन्हें भगाकर लाते हैं तथा वेश्या बनाकर अपनी आजीविका कमाते हैं। ऐसे व्यक्ति पिशाच व दैत्यों से कम नहीं माने जायेंगे, जो समाज के वेश्या वर्ग की उत्पत्ति का मूल कारण है।
नागर जी ने जितनी भी वेश्याओं के इन्टरव्यू लिए, वे सभी उन्हें अपने वेश्या जीवन व वेश्या पेशे से उकताई हुई नजर आई। एक वेश्या के इस कथन में उसकी विवशता और पीड़ा स्पष्ट झलकती है - “आज भी हमारे लड़के हुजूर, कोई सड़कों पर गुल्ली डण्डा नहीं खेलते। हमारे लड़कों में डाक्टर है, वकील है, तहसीलदार, डिप्टी कलक्टर, मास्टर, मुसलिफ और शायर भी है। * * * और अब तो हुजूर, बदले हुए जमाने को देखकर हमारी बहुत सी लड़कियाँ भी नाच गाने का पेशा छोड़ एम.ए., बी.ए. पास कर मास्टरनियाँ हो गई हैं। एक तो प्रिंसिपल तक है। मगर बस यही है कि जाहिरा तौर पर न वे हमें अनी माँ कह सकते हैं और न हम उन्हें अपनी बेटी-बेटे कह सकते हैं। तवायफ की औलाद कहते ही आपकी नजरें उनकी ओर से बदल जायेगी, क्योंकि हमारे अन्दर तो तमाम ऐबों के जरासीम भरे हुए हैं न हुजूर। घर गिरस्तों की लड़कियाँ, औरतें, परदे की आड़ में चाहे जो कुछ करें, फिर भी उनकी इज्जत बनी रहेगी, मगर हम जरासीमों का पोट होती है, इन्साफ है आजकल ?”
बहुत सी स्त्रियाँ तो आर्थिक तंगी के कारण वेश्या बनी हैं। सफदर बाई की यही बससे बड़ी चिन्ता है - “भला बताइए हम फिर किस तरह अपना पेट भरें? * * * हमें सुकून से बाइज्जत अपनी रोटी चटनी कमाने का मौका मिल जाए।” इतना ही नहीं पुरुषों के हाथ की कठपुतली बनी उन नारियों का भी लेखक ने विवरण दिया है, जो प्राध्यापिका बन विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों की रखैले बन जाती है। कुछ लड़कियाँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की लालसा से प्रोफेसरों को अपने साथ मनमानी करने देती है, कहीं मातहतों को पत्नियों, बहनों को अपने अफसरों को उनकी कायिक आवश्यकतापूर्ति हेतु सौंपना पड़ता है। लेखक का प्रश्न है – "समाज का आमूल परिवर्तन होने तक क्या सरकारें इस दिशा में कोई कदम न उठाएँ? उत्तर में ‘ना’ तो कैसे कहूँ पर एकाएक ‘हाँ’ कहते भी झिझक होती है। सरकार आखिर है तो हम ही लोगों की और हम समाजवादी लोकतन्त्र का आदर्श लेकर भी अधिकतर अपने व्यवहार में सामन्ती पूँजीवादी मान्यताओं को ही बरत रहें हैं। सत्ता जिनके हाथ में है, वे नैतिक रूप से नया भारत तो बनाना चाहते हैं परन्तु उनके सामने की राह साफ नहीं।”
लेखक अन्त में सब कुछ देखते परखते हुए इस निर्णय पर पहुँचता है तथा इस प्रश्न से उलझ जाता है, जो समाज सुधार से नहीं, वरन् स्त्री जाति की दासता से जुड़ा है। लेखक के अनुसार “स्त्री बल, छल, और अर्थ से दबाई जाकर पुरुष की काम तृप्ति का साधन बने, यह मैं एक क्षण के लिए भी सहन नहीं कर सकता। इस मोरचे को यदि सरकारी और गैर-सरकारी तौर पर साफ-साफ डटकर साध लिया जाए तो फिर शौकिया वेश्याओं और व्यभिचारियों की आदत पर काबू पाते देर न लगेगी।”
अन्त में बहुत ही सुन्दर सुझाव लेखक देता है - “मेरे ख्याल में यदि सरकारी समाज कल्याण केन्द्र और सार्वजनिक सँस्थाएँ मिलकर विश्वसाहित्य से प्रेम के सुन्दर-सुन्दर व्याख्यात्मक वाक्य और छन्द चुनकर, छोटी प्रचार पुस्तिकाएँ निकालें, स्त्री- पुरुष के दबाव या फुसलाव वाले क्षणिक काम जीवन से उत्पन्न होने वाली विषम समस्याओं के तथ्य और साथ ही साथ स्वस्थ प्रेम जन्य काम - जीवन के तथ्य यदि लड़के लड़कियों के सामने आएँगे,तो निस्सन्देह हमारे युवक समाज को बड़ा लाभ होगा। मैं यह तो नहीं मानता कि काम संबंधी तथ्यों और मनोवैज्ञानिक सूत्रों के अधिकाधिक प्रचार से नर-नारियों के रिश्ते में हर तरफ सतयुग ही सतयुग झलकने लगेगा ,फिर भी स्वस्थ काम-चेतना के प्रसार से आज की कामविकृत दुनिया का नक्शा अवश्य बहुत बदल जाएगा। जन-जनार्दन करे, ऐसा ही हो।
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