हरिया काका
डॉ. दीप्ति गुप्तासब्जी, फलों और न जाने कितनी चीजों के छोटे-बड़े थैले पीठ पर लादे हरिया काका को दूर से आते देखकर ‘विनी’ और ‘पावस’ खुशी से उछलते उसके पास पहुँच गए। घर के सामने दोनों ओर मुख्य द्वार तक फैले मखमली घास के लॉन के मध्य लाल पत्थरों का लहराता रास्ता बहुत लम्बा नहीं, तो इतना छोटा भी नहीं था कि ‘हरिया काका’ की मुख्य द्वार से घर के बरामदे में पहुँचने तक बच्चे धैर्य से उसकी प्रतीक्षा कर पाते। वे पलक झपकते ही हरिया काका के पास पहुँचे, उसके थैलों को छूते, अपने नन्हें हाथों से थैले पकड़ने को काका पर लपकते, हलचल लिए घर में घुसे और बड़ी जिम्मेदारी-सी ओढ़े काका की पीठ पर लदे थैलों को उतरवाने में मदद करने लगे। हरिया काका दोनों बलाओं को शांति से झेलता हुआ, बीच-बीच में आँखें तरेरता हुआ कि कहीं सामान न बिखर जाए, गुपचुप उन्हें घुड़कता-सा, एक-एक करके बरामदे में सामान से भरे थैलों को फर्श पर जमाने लगा। थोड़ी ही देर में वहाँ खासा बाज़ार-सा फैल गया। हरिया एक ओर सामान को करीने से रखता, तो विनी और पावस लिफाफों के मुँह खोल-खोल कर, उनमें झाँक कर जाँच-पड़ताल करते। दालों और मसालों के पैकेट उनकी नाक-भौं सिकोड़ने के लिए काफी थे। दोनों को अपने मतलब की कुछ भी चीज अभी तक नहीं मिल पाई थी। तभी हरिया ने जैसे ही फलों के थैले को खोला, दो जोड़ी शरारती आँखें चमक और लोभी से भर उठीं। रसभरे अंगूरों को विनी और पावस मानो अपनी आँखों से ही निगलने को तैयार, अपनी नन्हीं हथेलियों को अधिकाधिक फैला कर उन गुच्छों को मुठ्ठी में भरने के लिए बंदरों की तरह टूट पड़े, पर हरिया काका ने झपट कर अपने भीमकाय पंजे से उनके हाथों की अंगूरों के गुच्छों पर कुछ इस सतर्कता से घेराबंदी की, कि वे दानों अंगूरों का एक भी दाना न ले पाए और न हीं अंगूरों की दुर्गति कर पाए। अपने दूसरे हाथ की तर्जनी से विनी और पावस को प्यार से पाठ पढ़ाते हुए, हरिया काका ने कहा - "क्या सिखाया था माँजी ने, क्या बताया था टीचर जी ने और क्या समझाया था हमने भी, कि बिना धोए कुछ नहीं खाते। दूर हटो दोनों। सब तुम्हारे लिए ही है। पर हम जरा नहला-धुला कर इन्हें साफ कर दें। तब तुम दोनों को इनका भोग लगाएँगे।"
दोनों अंगूरों को नहलाने-धुलाने की बात पर बड़े खिलखिलाए और हरिया काका के सुर में सुर मिलाता पावस बोला - "कौन से साबुन से नहालाओगे, मेरे या विनी के?"
"अरे पावस तूने अपनी बनियान और निकर पलंग के नीचे क्यों फेंक रखी है?"
तभी माँजी खीझ से भरी हुई, धुली बनियान से मिट्टी झाड़ती हुई, बरामदे में आईं तो दोनों भोले से बने उन्हें ऐसे देखने लगे, जैसे उन्होंने कुछ किया ही नहीं। माँजी ने पुनः दोनों को धमकाते हुए कहा -
"क्यों फेंकते हो कपड़े इधर-उधर। निकर तो इतनी दूर पलंग के नीचे, दीवार के पास फेंकी है कि मेरे बस का तो नहीं उसे निकालना।"
पावस नीची नजरे किए हौले से शिकायती स्वर में बोला - "मुझे वो निकर बिल्कुल अच्छी नहीं लगती और बनियान मैंने नहीं फेंका, वो तो अपने आप गिर गया था।"
"तो क्या उठा नहीं सकते थे?" माँजी बडबड़ाई।
पावस अपनी ड्यूटी का हवाला देते हुए बोला - "वो हरिया काका आ गए थे न बाजार से, उन्हें लेने गेट पर जाना था न !"
हरिया काका ने पावस की भोली दलील पर मुस्कुराते हुए, माँजी की उपस्थिति और फटका का सदुपयोग करते हुए फटाफट सब्जी और फल बड़े भगौने में नल के नीचे लगाकर धोने का आयोजन शुरू कर दिया। जैसे ही माँजी वापस कमरे में मुड़ी, हरिया ने ‘शरीर’ से ‘शरीफ’ बने दोनों बच्चों को एक-एक केला पकड़ा कर कहा - "जाओ, थोड़ी देर में अंगूर और अमरूद धोकर देते हैं। और हाँ, पलंग के नीचे से निकर भी निकालकर जगह पर रखो। न निकले तो हम निकाल देंगे।“
आँगन के दरवाजे की कुंडी खड़की तो हरिया काका लपक कर वहाँ पहुँचे। उन्हें पता था कि इस दरवाजे की कुंडी खड़काने वाली रमिया ही होती है, जो रोज माँजी के पैरों पर तेल लगाने आती है और साथ ही अपने और हरिया के छः बच्चों में से किसी एक बच्चे की शिकायत भी अपने पल्लू में बाँध कर लाती है। क्योंकि मालिश करने से पहले वह जब पल्लू के कोने की गाँठ को खोलती, अपने किसी एक बच्चे की शिकायत करनी शुरू करती है तो लगता है वह उस गाँठ में ही बँधी है, जिसे वह खोलते-खोलते पूरी तरह हरिया काका के हवाले कर देती है और गाँठ में से निकली सुपारी को मुँह में रखकर, अपूर्व स्फूर्ति से भर उठती है। फिर तुरंत माँजी के पैरों के पास बैठ कर कटोरी से तेल लगाने में जुट जाती है। हरिया काका बेध्यानी से, लेकिन अपनी पत्नी के डर से ध्यान से सुनने का नाटक करते हुए - अपने बच्चे की शिकायत सुन कर, फिर से घर के कामों मे लीन हो जाते हैं।
* * * * *
हरिया काका ने पिछले 40 सालों से इस घर का नमक खाया है। जब वे बिजनौर आए, तो इस घर में साहब ने उन्हें ‘भय्याजी’ को गोदी खिलाने और घर के झाड़ू-पोंछे के लिए रखा था, तब उनकी उम्र 15-16 साल रही होगी। वो दिन और आज का दिन वह कभी इस घर से दूर नहीं हुए। कितने मौसम आए और गए, तीज-त्यौहार मनाए, बुजुर्गों का ऊपर जाना और नन्हें-मुन्नों का घर में आना, क्या-क्या नहीं देखा हरिया काका ने ! वे तो मानो इस घर की जड़ों में ऐसे समा गए हैं कि उसकी शाखा, प्रशाखाओं, फूलों, पत्तों और कोंपलों में उनके प्राण बसते हैं। बाबूजी, माँजी, भय्याजी, बहूरानी और उनके नन्हें-मुन्ने सलोने बच्चों तक का सुख-दुख सब उनका है। घर के सभी लोग उन्हें जी भर कर मान-सम्मान और प्यार बख्शते हैं। हरिया काका के बिना वे सब अधूरे से हो जाते हैं। विनी और पावस के लिए तो वह खिलौना भी हैं, तो सीख देने वाले गुरु भी हैं। माँ-बाप, दोस्त, सब कुछ हैं - उन दोनों बच्चों के लिए। दोनों बच्चे अपने वे चुनमुन रहस्य, विशेष बातें, हरिया काका के साथ बाँटते हैं, जिन्हें वे मम्मी-पापा व दादा-दादी से नहीं कह पाते। कभी-कभी तो हरिया काका, विनी और पावस के लिए एक ऐसे महान अनुकरणीय ‘हीरो’ बन जाते हैं कि उनसे काका को अपनी जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। हरिया काका की तरह बैठना, उठना, चलना, यहाँ तक कि छुपाकर उनकी रोटी-प्याज और गुड़ भी उकड़ू बैठकर उन्हीं के अंदाज़ में खाना, काका और घरवालों के लिए दुखदायी हो जाता है। काका को बच्चों द्वारा रोटी हजम कर जाना गँवारा है, पर माँजी और बहूरानी से उनकी शिकायत करना जरा भी गँवारा नहीं। खाली चाय पीकर, भूखे पेट बड़बड़ाते काम में लगे रहेंगे, पर मजाल है कि बच्चों के खिलाफ एक भी शब्द उनकी जुबान पर आ जाए। उन्हें जान से प्यारे हैं दोनों बच्चे। दोनों बच्चे ही नहीं, बच्चों के बाप भी। उन्हें भी तो वह सम्हाले-सम्हाले फिरते थे। दो साल के भय्याजी की अँगुली पकड़े-पकड़े, उन्हें घुमाना, घंटों उनके साथ खेल में मस्त रहना। जमाना बीत गया। दो पीढ़ियों को अपनी बाँहों में खिलाया और सुलाया था हरिया काका ने। कभी-कभी तो हरिया काका को लगता कि पिछले जन्मों का जरूर कोई रिश्ता है इस घर से। दो बजे तक हरिया काका को मेज पर दोपहर का खाना लगा देना होता है। बहूरानी, रसोई के कामों में, दाल-सब्जी-रोटी बनाने में सुबह से हरिा काका के साथ लगी रहती हैं। जबकि काका की मन्शा होती है कि बहूरानी इतना काम न करके थोड़ा आराम करें। काका अपने गोल-गोल, फूले-फले फुलकों के लिए दूर-दूर तक रिश्तेदारों में प्रसिद्ध है। बस एक ही काम उन्हें आज तक ठीक से नहीं आया - आम का आचार और मीठी चटनी डालना। एक बार उन्होंने अपना हुनर दिखाने के चक्कर में, किसी को पास नहीं फटकने दिया और आम की मीठी चटनी बोट भर कर डाली। आम कसने से लेकर, गुड़ और मसाले आदि डालकर, पकाने तक-सारा काम यज्ञ की तरह बड़ी सफाई से, बड़े दिल से, स्वयं अकेले ही किया और सब कुछ होम भी कर बैठे क्योंकि कुछ ही दिनों में वह चटनी फफूँद से भरकर उतरने लगी। तब से उन्होंने तौबा कर ली।
* * * * *
दोपहर के खाने के बाद काका दो-तीन घंटे रामवाड़ी में अपने घर आराम करने, अपने बच्चों के साथ बैठने जाते हैं। शाम को 5 बजे धीरे-धीरे सुस्त चाल से आते काका को देखकर बहूरानी अक्सर हँसती हुई कहती कि - "अम्मा जी देखिए तो जरा, हरिया काका चल रहे हैं या सो रहे हैं।"
यह बात तो शत-प्रतिशत सही है कि हरिया काका शुरू से ही सुस्त किस्म के इन्सान रहे हैं। बड़े ही आराम से धीरे-धीरे काम करना उनकी अच्छी आदत है या खराब, पर उनसे चटर-पटर तुरत-फुरत काम नहीं होता। उनकी रमिया उनके ठीक विपरीत ‘तीर’ की तरह आती और जाती है और घंटों के काम मिनटों में कर हरिया काका की सुस्त चाल के लिए उन्हें दो-चार तीखी बातें कह, उन्हें भुन-भुना कर चली जाती है।
* * * * * *
छन्न से ड्रॉइंगरूम में कुछ गिरने की आवाज आई। विनी का चाइनीज़ गुलदस्ते पर गलती से हाथ लगा और वह लुढ़कता हुआ फर्श पर जाकर छनछना कर चकनाचूर हो गया। अंदर वाले कमरे से माँजी झुँझलाई सी बोलीं-
"क्या तोड़ डाला, अरे दुष्टों?"
बहूरानी अपने कमरे से दौड़ी हुई ड्रॉइंगरूम में आईं, तो उस अनमोल, नाजुक गुलदस्ते को चूर-चूर हुआ देख एक पल को जैसे सदमाग्रस्त-सी हो गईं। फिर गुस्से में भर कर बोलीं - "यह कैसे गिरा ? किसने तोड़ा ?"
तुरंत हरिया काका नीची निगाह किए अपराधी का-सा भाव ओढ़ कर बोल उठे- "बहूरानी हम मेज साफ कर रहे थे कि हमारा हाथ लग गया और हमारे सँभालते-सँभालते भी नीचे गिर गया।"
विनी-पावस सहमे से कभी काका को, कभी टुकड़ों में विकीर्ण गुलदस्ते को, तो कभी गुलदस्ते के टूटने से आहत अपनी माँ की टुकुर-टुकुर देखे जा रहे थे। काका का इतना बड़ा झूठ बोलना उनकी समझ से परे था; पर दोनों को और विशेष रूप से असली अपराधी विनी को बड़ा अच्छा लगा कि काका ने डाँट पड़ने से और शायद एक-दो चपत से भी उसकी रक्षा कर ली थी। वैसे डाँट-फटकार हरिया को भी पड़ी, माँजी की और बहूरानी की भी, किंतु बड़े अनुपात में और बड़ी ही शालीनता से। बहूरानी के जाते ही काका ने विनी को खामोश बैठे रहने का इशारा करके सारा काँच समेटा। विनी भी अति आज्ञाकारी बनी हुई अपने लटके पैरों को सोफे पर समेट कर बैठ गयी। तभी चिंतनशील मुद्रा में बैठा पावस एकाएक लपक कर हरिया के पास जाकर उनके कान में हौले से बोला -
"अगर मम्मी ने मुझसे पूछा, तो मैं भी यही बोलूँ कि गुलदस्ते पर विनी का नहीं काका का हाथ लगा था ?"
पावस की इस भोली उलझन पर मन-ही-मन हँसते हुए काका ने तुरंत आँखें फैलाकर उसे धमकाया कि - "चुप रहो! हमें झूठा बनवाओगे क्या? बड़े आए विनी के हाथ की शिकायत करने वाले! ये तुम्हारा वाला हाथ लग जाता तो क्या तुम तुरंत बता देते? बहन को डँटवाओगे क्या?"
पावस भोलेपन से नकारात्मक सिर हिलाता, काका की बातों को ध्यानपूर्वक मन में उतारता, काँच के टुकड़ों को उठाने में मदद करने के लिए जैसे ही तत्पर हुआ उसे काका की एक और घुड़की मिली -"अब तुम अपना हाथ काटोगे, खून निकालोगे क्या? हटो, परे हटो!"
बड़े प्यार से काका की डाँट खाकर दोनों बच्चे उसे श्रद्धा से ऐसे देखने लगे, जैसे भक्तजन रक्षक भगवान को देखते हैं।
* * * * *
आज जुड़वा भाई-बहन का जन्मदिन है। विनी, पावस से 15 मि. बड़ी है और वह अक्सर पावस को, लड़ाई-झगड़ा होने पर, अपने 15 मि. बड़े होने का एहसास कराया करती है किंतु वह 15 मि. ‘छोटा’ कभी उसका रौब नहीं खाता। सुबह से घर में चहल-पहल और-क्रिया-कलापों का अनवरत सिलसिला चल रहा है। नौ बजे से हवन आरंभ होने पर, तदनन्तर उसकी समाप्ति पर रिश्तेदारों और अतिथियों को प्रसाद देते व जलपान कराते-कराते हमेशा 1 तो बज ही जाता है।
शाम को दोनों भाई-बहन के दोस्तों की पार्टी का आयोजन होता है। हरिया काका मेहमानों को खिलाते-पिलाते, कमरे व बरामदे के काने-कोने से बर्तन समेटते उन्हें धोते-पोंछते, बिना थके काम में पिले पड़े हैं। वे दोनों बच्चों के लिए भेंट लाए हैं, उसे तो वह शाम की पार्टी में ही देंगे। हवन में तो बच्चों के मुँह में लड्डू देकर, सिर पर हाथ फेर कर, ढेर आशीष देना, उनका हमेशा का नियम रहा है। अपने उपहार तो वह ‘लाल’ कागज में लपेट कर, रिबिन से बाँध कर, पार्टी वाले अंदाज में, सब बच्चों के सामने क्रिसमस बाबा की तरह विशेष ढंग से लाकर, विनी और पावस के सामने इस तरह से पेश करते हैं कि सारे बच्चे उत्सुकता से उन्हें घेर कर खड़े हो जाते हैं कि ‘देखें, काका ने इस बार क्या दिया है ?’
देखते-ही-देखते शाम हो गई और पार्टी के लिए ड्रॉइंगरूम पूरी तरह सज-सँवर गया। विनी और पावस भी अपनी-अपनी नई पोशाकें पहन कर तैयार हो गए। एक-एक करके बच्चों का भी आना शुरू हो गया। हरिया काका ने भी शाम को नीली कमीज, झक सफेद पायजामा पहन कर, बाल बनाकर, नन्हें मेहमानों के स्वागत व विनी-पावस को भेंट अर्पण हेतु स्वयं को सँवार लिया। तभी ड्रॉइंगरूम में केक काटने की तैयारी में बच्चों को समेटती बहूरानी की पुकार सुनकर काका, माँजी, बड़े साहब, भय्याजी सभी कमरे में जा पहुँचे। विनी और पावस ने समान जोश और जोर से मोमबत्तियों को फूँक मारी और दो मोमबत्तियों की ‘लौ’ को सफाई से दिप-दिपाते छोड़, अपने नन्हें हाथों से, रिबिन और गोटे से सजी छुरी से केक काट कर, स्वयं जोर-जोर से ताली बजाना शुरू कर दिया। उनकी मित्र सेना ने उनकी तालियों का अनुसरण करते हुए कमरे को ‘हैपी बर्थडे’ की गूँज से भर दिया। माँजी, बड़े साहब, बहूरानी, भय्याजी ने बारी-बारी से दोनों बच्चों का मुख चूमते हुए, सिर पर हाथ फेरकर ढेरों आशीष बरसाते हुए अपने उपहार दिए। फिर भी विनी-पावस अपनी जगह से टस-से-मस नहीं हुए। उनकी नजरे हरिया काका को उनकी भेंट के साथ खोजने में लग गईं। काका भी उनसे पीछे नहीं थे। बड़े अनूठे ढंग से थाली में सजीला कपड़ा और फूल बिछाकर, उसमें दो लाल पैकेट रखे, वें दोनों के पास आ खड़े हुए और सभी बच्चे केक से ज्यादा काका की भेंट में रुचि रखने के कारण उचक-उचक कर देखने लगे कि काका इन पैकेटों में से क्या निकालकर देंगे विनी और पावस को! काका ने हौले से एक पैकेट का रिबिन खोला और पैकेट विनी के सामने सरका कर कहा - "इसे अब तुम खोलो बिटिया।"
विनी ने गर्व से सब बच्चों की ओर देखा और लाल कागज का एक सिरा खोला, फिर मुस्कराहट रोकते हुए, पास खड़ी सहेली से आँखें मिलाईं और कागज का दूसरा सिरा भी उघाड़ा; पास खड़े बच्चों की नजरें कागज को भेदती हुईं अंदर छुपे उपहार पर गड़ गईं। इतने में विनी ने उसे खटाक से कागज से बाहर निकाला और सबको ऐसे दिखाया जैसे लॉन टैनिस का खिताब जीकर, खिलाड़ी अपनी शील्ड को सारे दर्शकों को दिखाती है। खुद ने देखा नहीं कि क्या है - दोसतों को दिखाने का चाव अधिक हावी था उस पर। पुस्तक का शीर्षक था - "रामायण पर आधारित बालकथाएँ।" सारे बच्चे लपक कर, उसे विनी के हाथ से छीनकर देखने को उतावले होने लगे कि तभी हरिया काका के गुरू गंभीर स्वर ने सबको सचेत किया -
"सब बच्चे लोग देखो, अब पावस के पैकेट से क्या निकलता है।"
पावस ने ज़िद करी कि वह रिबिन भी अपने आप ही खोलेगा। उसने दोस्तों का ध्यान अपने पर केंद्रित करने के लिए, खूब आराम से रिबिन खोला; फिर चारों ओर सब पर नजर घुमाई। सब बच्चों की नजरें पावस की नजरों से मिलीं और जैसे बोलीं - "जल्दी से दिखाओ न क्या है पैकेट में?" पावस ने भी विनी की तरह अपने पैकेट का एक-एक कोना बड़े सलीके से पकड़ते हुए लाल कागज के अंदर से, अपनी भेंट को एक झटके से बाहर निकालकर, चूमकर, सचिन तेंदुलकर के अंदाज में एक हाथ से ऊपर उठाकर सारे दोस्तों को, एक महान क्रिकेट खिलाडी के अंदाज में दिखाया। उस पुस्तक पर शीर्षक था "महाभारत पर आधारित बालकथाएँ !" उसके पास खड़े बच्चे, पावस की पुस्तक पर लपकने लगे कि देखें कैसी कहानियाँ हैं, तस्वीरे भी बनी हैं क्या अंदर? पर रिफलैक्स एक्शन के लिए तैयार हरिया काका ने दोनों बच्चों की मार्गदर्शक मूल्यवान कथा-पुस्तकों कों अपनी कस्टडी में लेकर बच्चों को खाने-पीने, नाच-गाने में लगा दिया।
* * * * *
अगले दिन सवेरे चाय पीते समय माँजी और बहूरानी हरिया काका की सूझ-बूझ की तारीफ करते हुए उनसे पूछने लगीं -
"तुम्हें बच्चों के लिए इतनी अच्छी भेंट का विचार कैसे सूझा?"
हरिया काका कुछ खुश होते, कुछ लजाते, अपने को काम में उलझाते हुए बोले - "अरे हमें कौन सुझायेगा। ये दोनों शरारती बच्चे ही हमारी सूझ-बूझ हैं। दोनों बड़े सयाने हैं। बड़ी-बड़ी बातें सोचते हैं। तरह-तरह के सवाल करते हैं हमसे। इसलिए हमने सोचा कि अब यह इनके दिल-दिमाग को ढालने की उमर है - इसीलिए ऐसी भेंट दी जाए, जो इन्हें अच्छी बातें सिखाए।"
बहूरानी और माँजी उस शिक्षा-दीक्षा रहित, पर पढ़े-लिखे को भी मात देने वाले बुद्धिमान, समझदार हरिया का मुँह ताकती रह गईं।
* * * * *
माली छुट्टी पर गया था। बगीचे में आम और कटहल लदे थे। माली आए तो उन्हें तुड़वाकर कुछ मिलने वालों के घर और बाकी की बाजार में सवेरे नीलामी करायी जाए। पर न जाने वह सात दिन बीत जाने पर भी क्यों नहीं आया? इसलिए हरिया काका को बड़े साहब और भय्याजी का आदेश मिला कि वह अगले दिन सवेरे छः बजे तक आम और कटहल तुड़वाकर बाजार में देकर आए। यह सुनते ही काका का दिमाग सटक गया। वे दबी-दबी आवाज में बुदबुदाने लगे-
"क्या हम माली हैं? वो गैरजिम्मेदार, मक्कार नंबर एक, काम के बखत न जाने कहाँ गायब हो गया। अब उसका काम भी हम पर ही आन पड़ा। कल को कहेंगे - जमादार नहीं आया - उसका काम भी हरिया तुम ही कर लो।"
गुस्से में भरा हरिया रात का काम निबटा कर चला गया। माँजी, बहूरानी सबने उसके तने तेवर भाँप लिए थे। जाते-जाते हरिया माँजी से बोला -" सवेरे-सवेरे आँख खुलीं तो हम आयेंगे वरना देखी जायेगी।"
सवेरा हुआ तो क्या देखते हैं कि हरिया काका तड़के चार बजे से लग्गी लेकर आम और कटहल तोड़ने में जो लगे तो छः बजे तक सानियों को लाकर, उनके टोकरों में आम और कटहल भरवा कर मंडी में बेच भी आए। मिलनेवालों के लिए अच्छे आम और कटहल छाँटकर अंदर बरामदे में रख दिए। मंडी से आकर बड़े साहब और भय्याजी को हिसाब भी दे दिया।
बरामदे में मूढ़े पर बैठी माँजी ने चाय की चुस्की भरते हुए, मुस्कराहट छिपाते हुए जब हरिया से पूछा - "कि तू तो आने ही वाला नहीं था शायद इतने तड़के। फिर यह सब कैसे इतनी जल्दी इतना सब कर डाला हरिया ?"
तो हरिया काका किला जीतने के भाव से भरे बोले - "अरे माँजी, आज तलक क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप लोगों में से कोई हमें कुछ ‘आदेस’ दे और हम न मानें। भले ही हमें अच्छा लगे या न लगे पर इस ‘मन’ का क्या करें, यह आप लोगों का ‘आदेस’ माने बिना चैन से बैठता ही नहीं। अब क्या बताऊँ माँजी। रात करवटें बदलते बीती और जब 4 बज गया तो रुका ही नहीं गया। जब काम करना है तो करना है।"
माँजी कहीं खोई-सी बोलीं- "हरिया तेरे बिना, इस घर का क्या होगा? कैसे चलेगा ?"
"अरे माँजी! आप भी कैसी भाका बोल रहीं हैं? भला हम कहाँ जा रहे हैं? यहीं जियेंगे, यही मरेंगे।"
हरिया काका माँजी को आश्वस्त करते बड़े प्यार से बोले।
* * * * *
हरिया काका यूँ तो कभी बीमार नहीं पड़ते थे। पर कभी एक दो बार बुखार खाँसी ने उन पर हमला करने की जुर्रत भी की तो वह अपने कामों से तब भी पीछे नहीं हटे। एक बार जाड़े में उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। स्वेटर, मफलर, कोट अपने पर मढ़े, वे आठ बजे घने कोहरे को चीरते आ पहुँचे अपनी ड्यूटी बजाने। उन्हें आज भी याद हैं कि भय्याजी ने डाँटते हुए कहा था-
"क्या जरूरत थी बुखार में आने की? अगर तबियत और अधिक बिगड़ गई तो?"
हरिया काका के मुँह से एकाएक निकल पड़ा था - "तबियत तो और अधिक बिगड़ जाती, अगर घर पर पड़े रहते। यहाँ आए हैं तो, बुखार भाग जायेगा और काम में मन भी लगा रहेगा। और जब मन चंगा, तो तन भी चंगा आपो आप हुई जायेगा।"
यह सुनकर भय्याजी बड़बड़ाते चले गए थे - "ये और इनकी अनोखी दलीलें। इनसे तो कुछ भी कहना बेकार है।"
वाकई शाम तक देखते-ही-देखते काका का बुखार 101.0 से 99.0 आ गया था। अदरक और तुलसी की चाय पी-पीकर बच्चों-बहूरानी और माँजी से बतिया-बतिया कर उन्होंने अपना इलाज कर ही लिया था, अगले दिन पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे। पर अपने कामों से बुखार के दौरान तनिक भी अलग नहीं हुए। हालांकि उनकी यह आदत घर भर में किसी को भी नहीं भाती थी पर वे अपनी जिद्द के पक्के थे।
आज 70 वर्ष के हरिया काका लकवे के कारण, अपने आधे बेजान शरीर से मजबूर खटिया पर पड़े रहते हैं। इस उम्र में भी अपने बेटे, बहुओं और पत्नी रमिया की सेवा से उनमें इतनी ताकत तो आ गई हैं कि वे धीरे-धीरे उठ बैठ जाते हैं। विनी-पावस भी बड़े हो गए हैं। पढ़-लिखकर सैटिल हो गए हैं। साहब भगवान को प्यारे हो चुके हैं।
कोई पल ऐसा नहीं होता जब हरिया काका अपने बीते दिनों, विनी और पावस, बड़े साहब, माँजी, भय्याजी और बहूरानी, उस घर को, उसकी दीवारों को, उस आँगन को याद न करते हों और ये न मनाते हों कि "हे प्रभु! अगले जनम में भी बड़े साहब और माँजी, उनके बच्चों और बच्चों के बच्चों की सेवा का मौका देना।"
जब भी भय्याजी, बहूरानी, विनी और पावस, काका को देखने बस्ती में जाते हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। "काका कैसे हो?" सुनने पर प्रेमविभोर कृतज्ञता से भरी उनकी छल-छलाई आँखें न जाने क्या-क्या बोलने लगती ।