साम्प्रदायिक सद्भाव इनसे सीखें!
सुदर्शन कुमार सोनीएक ओर तो हिन्दु व मुस्लिम सम्प्रदाय में तनातनी चलने से चाहे जब आपसी सद्भाव के तराजू का संतुलन बिगड़ जाता है। तो दूसरी ओर एक ही धर्म के दो सम्प्रदायों शिया व सुन्नी तो केथोलिक व प्रोटेस्टेंट्स में भी चाहे जब आपसी सद्भाव बिगड़ जाता है। आम लोग समाज के प्रबुद्व वर्ग, अपने धर्म गुरुओं तक की नहीं सुनते; स्थिति नियंत्रण में पर तनावपूर्ण रहती है। आज की सबसे बड़ी समस्या यह तनातनी हो चली है। लेकिन निराश नहीं होना चाहिये हर समस्या का समाधान पास में ही छिपा होता है।
कुछ नहीं घर से निकल कर बस अहाते में आ जाएँ। यह अहाते देशी–विदेशी के, जो कि आजकल कम्पोज़िट हो गये हैं, एक ही परिसर में दोनों ठेके संचालित हैं। सद्भाव इससे बेहतर कहीं से नहीं सीखा जा सकताहै। पर देखिये यहाँ भी अँग्रेज़ी का ही बोलबाला है संयुक्त देशी–विदेशी मदिरा दुकान कह सकते थे। पर नहीं कम्पोज़िट कहेंगे। दो सम्प्रदाय एक देशी ठर्रा पीने वाला व दूसरा अँग्रेज़ी पीने वाला दोनोंं परस्पर सम्मान व सद्भाव की भावना के साथ अपने अपने पौवे को ख़ाली करने में लीन हैं।
इन दो सम्प्रदायों के मध्य आपको तनिक सा भी तनाव नहीं मिलेगा जबकि दोनोंं की आदतों में कितना अंतर है। एक को अँग्रेज़ी अच्छी नहीं लगती तो दूसरे को देशी नहीं, लेकिन वे इस सिद्धांत को मानते हैं कि भले ही मैं आपके आचार-विचार से सहमत न होऊँ लेकिन उसका सम्मान करना मेरी नैतिक जवाबदारी है। इसी के तहत वे एक ही परिसर में आजू-बाजू बैठकर अपने अपने ग़म ग़लत करते हैं। लेकिन मजाल कि कोई किसी के सम्प्रदाय उसकी आदतों उसकी पसंद–नापसंद के बारे में आक्षेप करे। अन्य सम्प्रदायों जैसे नहीं कि तुम मांसाहारी और मैं शाकाहारी तुम्हारा और हमारा मेल कहाँ।
अनुशासन भी यदि आपको किसीसे सीखना हो तो वह पियक्कड़ समुदाय से बेहतर कोई नहीं हो सकता। लॉकडाउन का समय ज़रा याद कीजिए। वैसे ज़रा क्या यह तो पूरा भी कोई नहीं भूल पायेगा। कितने दिन वे बिना पिये रहे और शान्ति से रहे। लॉकडाउन के बाद जब दारू की दुकानों के शटर अप हुए तो वे लम्बी-लम्बी क़तारों में शान्ति से लगे रहे। कोई धक्का-मुक्की, कोई शोर-शराबा नहीं। सरकार को कोसने जैसा निराश मध्यम वर्ग जैसा कोई काम नहीं। अपनी बारी का शान्ति से इंतज़ार किया। इतना अनुशासन तो फ़ौज में भी नहीं दिखता। जब रंगरूट पहले के सिनेमाघरों में रविवार को फ़िल्म देखने जाता था तो टिकट खिड़की के सामने लगी रेलिंग पर चढ़ कर बैठ जाता था। क़तार का कोई मायने नहीं। यहाँ देखो पिन ड्रॉप साइलेंस, अपनी बारी का पूरी शालीनता से इंतज़ार। शालीनता भंग होनी होगी तो पीने के बाद होगी!
महँगाई के बारे में भी ये ख़ु्द्दार सम्प्रदाय कभी शिकायत नहीं करते। दारू से ज़्यादा रेट किसी चीज़ के नहीं बढ़ते। ठेके महँगे पर महँगे होते जाते हैं। तो फुटकर दारू के भी हो जाते हैं। परन्तु वो उफ़ नहीं करता वह जानता है कि वह दारू गटक कर समाज व अर्थव्यवस्था की सटक पर राजस्व का प्रवाह बढ़ा रहा है। समाज पर उपकार कर रहा है। कई स्कूल अस्पताल उसके दारू न गटकने से रातों-रात बंद हो जाएँ पर वह ऐसी असेवा कभी नहीं कर सकता। समाज जो सस्ते राशन मुफ़्त इलाज व सस्ती बिजली पानी में मटक रहा है वह उनकी दारू की गटक के ही कारण हैं। उसे शाम होते ही जो तलब उठती है वह समाज सेवा की ही है मदिरा तो साधन है साध्य तो समाज व देश सेवा है।
तनातनी के इस माहौल में सभी सम्प्रदायों से अनुरोध है कि कम्पोज़िट दुकान में जाकर देशी व विदेशी के शौक़ीनों से सद्भाव व परस्पर सम्मान की भावना व आपसी क़द्र करना है, जाकर देखें और सीखें।
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