गर्मी और पेड़
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सूरज ने ऑंखें दिखलाईं,
फिर गर्मी फैलाई।
भट्टी जैसी धरा हो गयी,
ऐसी आग लगाई॥
इतने ग़ुस्से में क्यों सूरज,
सबको थी हैरानी।
ताल-तलैया लगे सूखने,
सबने माॅंगा पानी॥
बंद हो गयी हवा अचानक,
कठिन हो गया जीना।
इधर प्यास ने ज़ोर लगाया,
आया उधर पसीना॥
ऐसी उलझन हुई, सभी को
याद आ गयी नानी।
बूॅंद बूॅंद पानी की क़ीमत,
सबने ही पहचानी॥
दादा बोले—‘सारे मिलकर
जल के स्रोत बचाओ।
गर्मी से यदि बचना है तो,
सब मिल पेड़ लगाओ॥’