महिषासुर मर्दिनी के आगे
शीश झुकाते हुए नारी
नहीं जानती कि वह
नारी शक्ति के आगे
माथा टेक रही है।


रोली, अक्षत-फूल चढ़ाते
देबी-थान लीपते
करती है कामना
मात्र पुत्र रत्न की।


वंशवृद्धि का स्वप्न देखती
वह भूल जाती है
उस अजन्मी कली में
व्यापी वह अदृश्य शक्ति
जिसके स्वरूप का ध्यान कर
पूजती है नारी-शक्ति स्वरूपा देवी
और जिमाती है कंजकें
वर्ष में दो बार
नौ, ग्यारह या अनगिनत।


मन्त्रबद्ध सी कूपमंडूक नारी
अपने ही हाथों अपना
विनाश करने को आतुर
भविष्य की आवाज़
अनसुनी कर
अपनी ही आवाज़
शांत कर देती है।
शक्ति ही जीती-जागती
शक्ति को धरती की कोख में
दबा देती है।


अज्ञानी नारी समझती नहीं
कि कोख की अँधेरी गुफ़ा में
पलकर निकली कन्या
कमज़ोर नहीं होगी
अँधेरे की क़ैद से मुक्त हो
वह स्वयं कुवासनाओं,
कुरीतियों का अंत करेगी
प्रकाश बन छाएगी
आत्मदाह नहीं करेगी
नौदुर्गा, महिषासुर मर्दिनी का
प्रतिरूप बन, वही तो
नाना प्रताड़नाओं से मुक्ति पा
सृष्टि की नव संरचना का
बीड़ा उठाएगी।

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