सड़क बना दो अंकलजी 

01-06-2019

सड़क बना दो अंकलजी 

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

भीड़ भड़क्का, धक्कम मुक्की
कैसे चले साइकिल जी।

नई साइकिल मुझे मिली है,
परसों मेरी शाला से। 
इंतज़ार में दिन बीते थे,
मनके  गिन- गिन माला के।
लेकिन धूल भरे गड्ढों में
चले साइकिल हिल-हिल जी।

कहीं कार तो, बाइक कहीं पर,
बीच सड़क पर फँस जाती।
मोटर डंपर जे. सी. बी. से,
हाय सड़क ही धँस जाती।
शाला ठीक समय पर पहुँचूँ,
बड़ी हो रही मुश्किल जी।

इतनी जनता, इतना ट्रैफ़िक,
रोज़ कहाँ से आ जाता।
कैसे निकलूँ व्यस्त सड़क पर,
मुझको समझ नहीं आता।
सड़क बनाने वाले अच्छी,
सड़क बनादो अंकलजी।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य नाटक
बाल साहित्य कविता
बाल साहित्य कहानी
किशोर साहित्य कविता
किशोर साहित्य कहानी
बाल साहित्य नाटक
कविता
लघुकथा
आप-बीती
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में