पुष्पा मेहरा - 1

01-04-2020

पुष्पा मेहरा - 1

पुष्पा मेहरा (अंक: 153, अप्रैल प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

१.
आने दो रोशनी 
अँधेरे में कोई भी चेहरा 
नज़र नहीं आता।
२.
धूप में तपी, काँटों में चली, 
पानी में रंग सी मिली-
सीप बन मोती पालती रही,
अब अँधेरे में यहीं –कहीं 
पड़ा दीप, जलाने के लिए 
थोड़ा स्नेह और एक समर्पण- भाव -
अनुरक्त बाती ढूँढ़ रही हूँ।  
३. 
रंगमंच है,अभिनेता हैं, सभी 
विभीषण के मुखौटे में छिपे 
रावण की खोज कर रहे हैं,
मुखौटे हैं कि बदलते रहते हैं।
४. 
खिलते ही कली 
काँटों से घिर गई 
भोली–भाली थी 
पाँख-पाँख चिर गई। 
५. 
पंख खुले 
उड़ने लगी, जितना-ऊँचा उड़ी 
आसमान उतना ही 
ऊँचा होता गया, अब मैं हूँ
और है मेरा अन्तहीन आकाश.... 
 ६. 
अँधेरा कितनी बार 
मेरे द्वार पर आया, पर मैं - 
संकल्प-मन्त्र पढ़, उसे
भगाती रही,अँधेरे-उजाले की 
लड़ाई अभी ज़ारी है।
७.
संस्कारों में पली माँ 
अनुभवों के हीरे 
बिन माँगे लुटा गई, 
सारे के सारे पत्थर से 
बन्द पेटी में पड़े अपनी 
कान्ति खो रहे हैं।
८. 
ओ गुलाब! सुन लो 
तुम कितने भी काँटे रखो 
मैं तुम्हें तोड़ कर-अपने जूड़े में 
सजा कर ही मानूँगी।
९.
चलती–फ़िरती ज़िन्दगी है 
बारूद है, गोलियाँ हैं 
बीच में बूँद-बूँद सूखती नदी 
और नदी के उस पार है, उसमें ही रंग भरता 
उभरता सूरज..........
१०.
तोड़ते ही गुलाब, 
काँटा चुभा 
दर्द गुलाब को नहीं हुआ 
मैं कराहती रह गई, 
प्रेमी जोड़ा सेल्फ़ी लेता रहा।
११.
तुम्हारे और मेरे बीच 
मौन संवाद चल रहा है 
आँखें- कभी रोतीं तो कभी, हँसती हैं ।
१२.
जंगल में, बियावान में-अकेले 
पलाश हँस रहा है,
बस इतना ही- 
शहर के लोगों को 
जलाने के लिए काफ़ी है।
१३. 
बढ़ते जा रहे हैं –बाज़ 
उड़ने से पहले ही 
मासूम को -
दबोच ले जाते हैं। 
१४. 
पता है कि-
यह आकाश बाज़ों से घिरा है 
पर कलियाँ हैं, दस, बीस या सौ 
रौशनी पा बेख़ौफ़  हँस रहीं हैं ......
१५. 
समय चला गया 
अपनी केंचुली छोड़ गया, 
अब उसे उठाने –सँभालने का
धर्म–कर्म निभा रहे हैं हम,
अँधेरा बीता, उजाले में फँसी पड़ी है?-
केंचुली। 
१६. 
बादल अपनी हस्ती जता रहे थे 
ठण्डी पर तेज़ हवाएँ उन्हें 
भगाने को उद्यत थीं  
शक्ति परीक्षण था- हवाएँ बन
सब कुछ उड़ाने को आमादा था।
१७. 
रेगिस्तान में, रेत है, 
रेत में भी जीवन है- ताक़त है, 
उड़ कर आँख की किरकिरी 
बन जब-जब चुभी 
मरुद्यान भी है वहाँ, मैं भूल गई। 
१८. 
जंगल में मंगल है,
छोटी–बड़ी पहाड़ियों 
और पाषाणों के बीच 
सन्नाटे का जंगल …. 
इस जंगल में दबी पड़ी है 
दावाग्नि।
१९. 
पर्वत हैं पर पत्थर दिल नहीं हैं 
इनमें ही परमार्थ का दरिया 
बहता है और नरम कोंपलें फूटती हैं।
२०.
सूरज की धूप में चमकती -
दूर्वादलों की नोक पर ठहरी 
हर पल मिटने की प्रतीक्षा करती 
एक छोटी सी ओस की बूँद का 
वजूद ढूँढ़ रही हूँ मैं।
२१.
मैंने मन के समन्दर में तैरते 
भाव कुँवर के लिए 
शब्दों की कठपुतली ढूँढ़ी और 
उसकी डोर अपने हाथों में थाम ली 
अब वह ‘जी हाज़िर हूँ ‘-
कहती नहीं अघाती है। 
२२.
शब्दों को मथा 
जैसे ही अमृत के घोल से 
विष –अलग हुआ , 
सारे कि सारे हंस -नज़रें चुराने लगे।
२३. 
इन्सान हैं ये –
ऊँचा उठने की लालसा में 
पर्वत से होड़ करते हुए 
पत्थर तो हो गए, पर 
मनोरूप ढलना और देवता 
बनना भूल गये। 
२४.
मैं और तुम मिल कर 
हम हो गए , 
नदी सागर में जो मिली 
सागर (विशाल) हो गई।
२५.
मैं थी
तुमसे मिल हम हो 
नदी से सागर बने,
विस्तार की कोई
परिधि ही न रही।
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हाइबुन
कविता-मुक्तक
कविता
कविता - हाइकु
दोहे
कविता - क्षणिका
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में