विशेषांक: फीजी का हिन्दी साहित्य

20 Dec, 2020

फीजी के मनीषी पं. विवेकानंद शर्मा को याद करते हुए

स्मृति लेख | डॉ. हरीश नवल

सन्‌ १९६५ की जुलाई, हिंदू कॉलेज के एक कॉरीडोर में मैं रैगिंग कर रहा था। जिनकी रैगिंग हो रही थी, वे हिंदी ऑनर्स के विद्यार्थी थे, जिन पर रौब गाँठने के लिए मैं देसी अँग्रेज़ी में रैगिंग के हथकंडे अपना रहा था। सब छात्र डरे-डरे से थे, सिवाय एक लंबे, दुबले, साँवले लड़के के, जो हम सबसे उम्र में बड़ा लग रहा था। अचानक उसने ज़बर्दस्त ब्रिटिश अँग्रेज़ी में मुझे धिक्कारना शुरू किया कि मैं क्यों रैगिंग कर रहा हूँ, जब कि यह ठीक नहीं। मैं उसे जबाब देने के लिए शब्द और ग्रामर ढूँढ ही रहा था कि उसने कहा, "मैं हज़ारों मील दूर से भारत में यह सोच कर आया था कि यहाँ भारतीय संस्कृति में मेरा स्वागत होगा, लेकिन यहाँ तो उलटा हो रहा है।"

हम सब चौंक गए। हज़ारों मील दूर से यह विद्यार्थी आया है? मैंने विनीत स्वर में पूछा, "आप कहाँ से आए हैं, हम तो आपको दक्षिण भारत से आया सोच रहे थे।" उसने बताया कि वह फीजी से आया है, सूवा में रहता है और उसका नाम विवेकानंद शर्मा है।

लगा कि उसने हम रैगिंग करने वालों की रैगिंग कर दी। मैंने क्षमा याचना करते हुए उसके आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाया और फीजी के बारे में पूछा। तब हमें फीजी के विषय में सम्यक जानकारी नहीं थी। विवेकानंद ने अपने देश के विषय में हमारी कक्षा ली और हमें उस सुंदर द्वीप समूह के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ। वहाँ हिन्दी बोली जाती है, सुनकर हम चकित हुए थे। गिरमिटिया मज़दूरों के विषय में भी पहली बार हमें पता चला।

विवेकानंद शर्मा कालांतर में फीजी के हिन्दी साहित्यकारों में एक बड़ा नाम बने। वे न केवल फीजी के प्रथम हिंदी पीएच.डी. उपाधि प्राप्त नागरिक थे, अपितु फीजी में इस उपाधि को प्राप्त करने वाले प्रथम थे। उन्होंने रामचरित मानस का पारायण किया था। वे वैदिक विधियों का ज्ञान भी रखते थे। उन्होंने हिन्दी भाषा में ’भारतीय संस्कृति विश्वकोश’ ग्रंथ रचा। उनका रचित उपन्यास ’अनजान क्षितिज की ओर’ की तुलना मॉरीशस के अभिमन्यु अनंत द्वारा लिखे गए उपन्यास ’लाल पसीना’ से हो सकती है।

मुझे पं. विवेकानंद शर्मा का जन्म सन् १९३९ में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा फीजी में ही हुई थी। दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने बी.ए. ऑनर्स तथा एम.ए. हिंदी किया था। हम 5 वर्ष तक लगातार सहपाठी रहे। उनके छात्रावास कक्ष में कितनी ही साहित्यिक सांस्कृतिक योजनाएँ हम बनाते थे।  उनमें डॉक्टर सुरेश ऋतुपर्ण भी जुड़े हुए थे जो संप्रति के. के. बिड़ला फाउंडेशन नई दिल्ली के निदेशक हैं तथा एक प्रख्यात कवि और संपादक भी हैं।

पंडित विवेकानंद शर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले प्रवासी भारतीय विद्यार्थियों की एक संस्था का निर्माण भी किया था, ’विश्व युवा संगठन’! जिसकी कार्यकारिणी में मैं अकेला ऐसा सदस्य था जो भारत से था, शेष सभी विभिन्न देशों से पढ़ने हेतु दिल्ली आए थे। यह संगठन प्रवासी छात्र समाज का भारत में पहला संगठन था जिसके साथ पंडित विवेकानंद शर्मा की प्रतिभा, निष्ठा और प्रबंधन से प्रभावित हो डॉ. नगेंद्र, श्री गिरिजा कुमार माथुर, डॉ. फारूखी, मॉरीशस के पहले राजदूत महामहिम रविंद्र घरबरन आदि नामी-गिरामी व्यक्तित्व जुड़ गए थे।

विश्वविद्यालय साहित्यिक जीवन जो प्रतियोगिताओं और गोष्ठियों का जीवन होता है, उस से ही हम मित्र आगे बढ़े। पंडित विवेकानंद को राष्ट्रकवि दिनकर, डॉ. हरिवंश राय बच्चन, श्री रमानाथ त्रिपाठी जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने बहुत प्रोत्साहित किया और वह उनकी प्रेरणा से उनकी आशाओं पर खरे उतरे।

साहित्य और साहित्येतर गतिविधियों से विवेकानंद ने बहुत कुछ ग्रहण किया और वे एक राजनेता के रूप में भी उभर सके। वे फीजी के युवा एवं क्रीड़ा मंत्री चयनित हुए और बहुत नाम अर्जित किया, साहित्य और राजनीति में एक गहरा फ्यूजन उन्होंने बनाया। उनकी कृतियाँ ’प्रशांत की लहरें’, ’जब मानवता कराह उठी’, ’फीजी में सनातन धर्म के सौ साल’, और ’सरल हिंदी व्याकरण’ आदि हैं। ’संस्कृति’ के अतिरिक्त उन्होंने ’प्रशांत समाचार’, ’जागृति’, और ’सनातन संदेश’ का भी संपादन किया।

पंडित विवेकानंद शर्मा जिन्हें हम मित्रगण ’विवेक’ भी संबोधित करते थे, ने आनन्द के सरदार पटेल विश्वविद्यालय से ’फीजी को तुलसीदास की सांस्कृतिक देन’ विषय पर शोध किया था। तुलसी तथा तुलसी साहित्य पर दिए गए उनके व्याख्यान आज भी कानों में गूँजते हैं। एक विशिष्ट वक्ता के रूप में भी वे अप्रतिम थे। मेरा मानना है कि यदि वे केवल साहित्य को राजनीति से अधिक तरजीह देते तो और भी अधिक यशस्वी साहित्यकार होते। राजनीति की कुटिलता ने उन्हें एक बार मानों देश निकाला ही दे दिया था। उन्होंने भारत में शरण ली थी, अपने परिवार के साथ जिनमें चार छोटे-छोटे बच्चे थे, दो बेटे, दो बेटियाँ, और पहले दिल्ली और फिर नैनीताल को शरण स्थली बनाया था। फिर पत्नी ने वैराग्य ले लिया और समस्त दायित्व पंडित विवेकानंद शर्मा के कंधों पर आ गया। फिर भी उन्होंने दायित्व से मुँह नहीं मोड़ा और बच्चों को खूब शिक्षित किया, मानवीय संस्कार दिए। अभावों में बहुत श्रम किया जिससे लेखन कई वर्ष छूटा रहा।

स्थितियाँ अनुकूल होने पर उन्होंने वापस फीजी लौटने का निश्चय किया किंतु उनकी परीक्षा अभी ईश्वर ने पूरी नहीं ली थी, वे बीमार हो गए। मैं और डॉक्टर सुरेश ऋतुपर्ण उन्हें देखने नैनीताल गए। वे दुर्बल काया लिए अस्पताल में दाख़िल थे। उन्हें दिल्ली लाया गया। उनके जीवन में डॉक्टर सुरेश ऋतुपर्ण जैसे सदस्य मित्र का बहुत महत्व रहा, जिनके कारण विवेक जी का अध्ययन-अध्यापन, साहित्य संबंद्धता और पारिवारिक सम्बल बहुत दृढ़ रहे।

अपने बड़े भाई के साथ पंडित विवेकानंद मेरे घर में भी कुछ दिन रहे। रोज़ ही घर गोष्ठी होती थी। साहित्य रचना की अतिरिक्त वे गायन में भी निपुण थे। हारमोनियम पर वह जब ’इनके बिगड़न रे चलनवा, कैसे सपरी’ गाते, तो जैसे आनंद का स्रोत खुल जाता।

अंततः विवेक पुनः फीजी में स्थापित हो गए और उनके बच्चे भी पूर्णतः शिक्षित हो सके। ’साउथ पेसिफिक विश्वविद्यालय” सूवा में वे हिंदी भाषा और साहित्य के व्याख्याता के रूप में यशस्वी हुए, उनकी वाणी फीजी रेडियो पर पुनः गूँजने लगी, साहित्य अवदान का पुनरारंभ हुआ। इस बार उन्होंने राजनीति से स्वयं को दूर रखा और अपने प्रथम लगाव ’भारतीय संस्कृति और अध्यात्म’ से निकटता रखी। साहित्य और संस्कृति के दूत के रूप में फीजी में पंडित विवेकानंद शर्मा एक बड़ा नाम हैं।

विवेक से मेरी अंतिम मुलाक़ात सन्‌ 1999 मैं लंदन में हुई थी। यह एक स्वर्णिम अवसर था जहाँ भारत से मैं, फीजी से पंडित विवेकानंद शर्मा, जापान से डॉक्टर सुरेश ऋतुपर्ण और त्रिनिदाद से डॉक्टर प्रेम जनमेजय सम्मिलित हुए थे, चारों ही हिंदू कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय के साथी तथा अंतरंग मित्र! प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन, नागपुर में सन्‌ 1975 में और ऋतुपर्ण दिल्ली से प्रतिभागी के रूप में गए थे जहाँ पंडित विवेकानंद शर्मा फीजी के प्रतिनिधिमंडल के नेता के रूप में शामिल हुए थे। वे वी.वी.‍आई.पी. थे लेकिन हम दोनों से मिलकर केवल ’पी.’ हो जाते थे। 24 वर्ष बाद पुनः विश्व हिंदी सम्मेलन में मिलन होना अत्यंत सुखद था। तब यह कहाँ ज्ञात था कि इसके बाद विवेक कभी ना मिलेंगे। 10 सितंबर, 2006 को पंडित विवेकानंद शर्मा महाप्रयाण कर गए और छोड़ गए अपने पीछे स्मृतियों की भारी गठरी!

 यह शायद उनके द्वारा की गई मेरी रैगिंग थी!

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