विधाता की निगाह में
आशीष तिवारी निर्मलये ज़िंदगी गुज़र रही है आह में
जाएगी एक दिन मौत की पनाह में
कर लो चाहे जितने पाप यहाँ
हो हर पल विधाता की निगाह में
मेरी कमी मुझे गिनाने वाले सुन
शामिल तो तू भी है हर गुनाह में
छल प्रपंच से भरे मिले हैं लोग
दग़ाबाज़ी मुस्काती मिली गवाह में
खोने के लिए कुछ भी शेष नहीं
सब खोये बैठा हूँ किसी की चाह में
आँखों में छिपे हैं राज़ बड़े ही गहरे
इतनी जल्दी पहुँचोगे नहीं थाह में