दहेज़ एक कुप्रथा

15-01-2022

दहेज़ एक कुप्रथा

आशीष तिवारी निर्मल (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

लिखा नहीं इस विषय में निर्मल, लिखना बहुत ज़रूरी है
सच बोलो ऐ दहेज़ लोभियों क्या दहेज़ लेना मजबूरी है? 
 
न जाने कितने ही घर बर्बाद हो रहे दहेज़ की बोली में
बेमौत मर रही कितनी ही बेटियाँ, बैठ न पाईं डोली में। 
 
पिता के नयनों में आँसू हैं, बेटी के हाथ पीले कराने में
कितनों के जोड़े हाथ, पैर पड़े, शर्म आती है बतलाने में। 
 
घर गहने, खेत, खलिहान बिके इस दहेज़ की बोली में
बेमौत मर रही कितनी ही बेटियाँ, बैठ न पाईं डोली में। 
 
दहेज़ लोभी समाज की हैं यह कितनी भयावह तस्वीरें
बिखर चुके कई परिवार यहाँ और फूट रही हैं तक़दीरें। 
 
पढ़े-लिखे, शिक्षित जवान, क्यूँ बनते आज भिखारी हो
दहेज़ माँगने वालो तुम समाज की गंभीर बीमारी हो। 
 
जिस पर गुज़रे वो ही जाने, बात नहीं है यह कहने की 
इतना मत माँगो दहेज़ कि सीमा टूट ही जाए सहने की। 
 
इसी दहेज़ के चलते शायद पति-पत्नी में तना तनी है
बेटी कहकर बहू ले आने वाली सासू माँ हैवान बनी है। 
 
काग़ज़ी टुकड़ों की ख़ातिर कितनी रार मचाई जाती है
कितनी ही बेक़ुसूर बहुएँ बलि वेदी पे चढ़ाई जाती हैं। 
 
मानो मेरा कहना दहेज़ लोभियों का इतना प्रबंध करो
जेल में डालो इनको व इनके घर बेटी ब्याहना बंद करो। 

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