डर लगता है
आशीष तिवारी निर्मलसहमा-सहमा सारा शहर लगता है
कोई गले से लगाए तो, डर लगता है
आशीष लेने कोई नहीं झुकता यहाँ
स्वार्थ के चलते पैरों से, सर लगता है
अपना कहकर धोखा देते लोग यहाँ
ऐसा अपनापन सदा, ज़हर लगता है
इंसान-इंसान को निगल रहा है ऐसे
इंसान-इंसान नहीं, अजगर लगता है
साज़िश रच बैठे हैं सब मेरे ख़िलाफ़
छपवाएँगे अख़बार में, ख़बर लगता है
साथ पलभर का देते नहीं लोग यहाँ
टाँग खींचने हर कोई, तत्पर लगता है