तर्क और विज्ञान को कथ्य बना रहे व्यंग्य

15-05-2022

तर्क और विज्ञान को कथ्य बना रहे व्यंग्य

धर्मपाल महेंद्र जैन (अंक: 205, मई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: ‘उफ़्फ़! ये ऐप के झमेले’ (व्यंग्य संग्रह) 
रचनाकार: अरुण अर्णव खरे
प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स, नोएडा 201301
पृष्ठ संख्या: 130, 
मूल्य: रु. 200/-

अपने अनुभव-जन्य भावों को शब्दों में ढालते हुए रचनाकार अक़्सर यह महसूस करते हैं कि वे अपने सोच को ठीक-ठीक कह नहीं पा रहे। वे जो कहना चाह रहे हैं उसकी अभिव्यक्ति के लिए कभी उन्हें भाषा के दायरे सीमित लगते हैं तो कभी भाव की तीव्रता के अनुरूप शब्द नहीं मिल पाने की छटपटाहट। यही छटपटाहट एक लेखक को एक विधा से दूसरी में, कविता से कहानी आदि में ले जाती है। इसी छटपटाहट में वह अपने शब्दों की आत्मा तलाश करते-करते शब्द की व्यंजना शक्ति को महसूस करता है। यह शक्ति सदियों से काव्य में मुखर होती रही है, कहीं विनोद या उपहास के बहाने तो कभी कटाक्ष के। पिछले दो सौ वर्षों के हिंदी साहित्य में गद्य लेखन में आई प्रचुरता ने रचनाकारों को अपने कहन के लिए कई नए साधन दिए हैं, उनमें गद्य व्यंग्य भी एक है। अपनी समसामयिकता और विषय वैविध्य के कारण समकालीन व्यंग्य की स्वीकार्यता में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है। प्रमुख समाचार पत्रों में व्यंग्य स्तंभों की दैनिक उपस्थिति ने व्यंग्य के लिए एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया है। इस कारण साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन कर रहे रचनाकारों की व्यंग्य लेखन में रुचि भी बढ़ी है। 

अपने उपन्यास ‘कोचिंग@कोटा’ और कहानी संग्रह ‘भास्कर राव इंजीनियर’ से ध्यान आकृष्ट करने वाले वरिष्ठ रचनाकार श्री अरुण अर्णव खरे का दूसरा व्यंग्य संग्रह ‘उफ़्फ़! ये ऐप के झमेले’ पिछले दिनों पढ़ने लगा तो मुझे रचनाकार की विविध विधाओं में आवाजाही की छटपटाहट दिखी। इसके पूर्व अरुण ने उनके पहले व्यंग्य संग्रह ‘हैश, टैग और मैं’ ने व्यंग्य के ऊर्जावान क्षेत्र में अपनी धाकदार उपस्थिति दर्ज करवाई थी और वे दो कविता संग्रहों ‘मेरा चाँद और गुनगुनी धूप’ तथा ‘रात अभी स्याह नहीं’ से अपनी संवेदनशीलता का परिचय दे चुके थे। अरुण के उल्लेखित व्यंग्य और कहानी संकलनों के नाम में ही अरुण अर्णव खरे का तकनीकी रुझान झाँकता है। अरुण लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में मुख्य अभियंता पद से सेवानिवृत्त, मैकेनिकल इंजीनियरिंग के स्नातक हैं। उनकी यह पृष्ठभूमि यह आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त है कि उनके लेखन में नयेपन की गारंटी है और उनका विचार परिबोध वैज्ञानिकता से जुड़ा हुआ है। 

आलोच्य संकलन ‘उफ़्फ़! ये ऐप के झमेले’ के व्यंग्यों का मूल आधार सोशल मीडिया पर नित्य हो रहे विविध आयोजनों और विसंगतियों पर है। इसमें संकलित पैंतालीस व्यंग्य रचनाओं में से अधिकांश रचनाएँ अपने कथा रस के कारण पठनीय हैं। ब्रह्मलोक में आउटसोर्सिंग, ऑनलाइन और ऑफ़लाइन के दरमियां, ब्लूवेल गेम और किसान, उफ़्फ़! ये ऐप के झमेले, फ़ेसबुक चैलेंज, कोरोना गोष्ठी वाया व्हाट्सऐप, न्यूटन का तीसरा नियम और इंटरव्यू, आदि में अरुण हमारे जीवन में हस्तक्षेप करती टेक्नालॉजी को ले कर व्यंग्य बुनते हैं। संज्ञा और विशेषण की विसंगतियों से बने व्यंग्य ‘विशेषण का संज्ञा हो जाना’ तथा भाषाशास्त्रीय विवेचनों व उच्चारणों को लेकर रचा गया व्यंग्य ‘ज़ुबान रिपेयर सेंटर’ अनूठे विषय हैं। ‘पाओ बेशरम हँसी अनलिमिटेड’ टूथपेस्ट की फैक्ट्री डालने और फिर उत्पाद को विज्ञापनों के माध्यम से बाज़ार में प्रसिद्ध बनाने की राम कहानी है। अधिकांश व्यंग्य अराजनीतिक हैं और समाज में व्याप्त हर तरह की विसंगतियों को पकड़ते हुए लिखे गए हैं। ये व्यंग्य संवाद, कथा, निबंध आदि रूपों में बढ़ते हुए, एकरसता से बचाते हैं। मीटू, रोड शो जैसे तात्कालिक मुद्दों से ले कर बाज़ारवाद की चिंता में दुबले होते बुद्धिजीवियों को उन्होंने अपने कटाक्षों में शामिल किया है। 

ब्रह्मलोक में आउटसोर्सिंग में अरुण लिखते हैं “शिक्षा आउटसोर्स की तो फ़ीस में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होने लगी, इंजीनियर थोक के भाव से निकलने लगे, लेकिन नौकरी लिए फ़िट नहीं है, अस्पताल आउटसोर्स किए तो इलाज पहुँच से बाहर हो गया, ऐसे और भी बहुत से सेक्टर हैं जहाँ आउटसोर्सिंग हुई और उनके परिणाम अच्छे नहीं रहे।” ऐप की मदद से ऑर्डर करते हुए हम रोज़मर्रा कई छोटी-मोटी ग़लतियाँ करते हैं। युवा पीढ़ी और टेकनालॉजी से जुड़े लोगों के लिए ऐप का उपयोग सरल है पर अन्य लोगों को कोई मार्गदर्शक चाहिए। उनके पात्र बटुक जी ऐसे ही आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते बताते हैं ‘ये ग़लतियाँ भी अंग्रेज़ी शब्दों के मतलब न समझने के कारण हुई थीं, जैसे फल के धोखे में उन्होंने बिग बास्केट ऐप पर जेक फ्रूट का ऑर्डर कर दिया था और जब डिलीवरी बॉय कटहल लेकर आ गया तो उससे उलझ गए थे वह। इसी तरह सब्ज़ियों की सूची में ड्रमस्टिक का नाम देखकर चौंक गए थे कि म्यूज़िक की इन डंडियों का सब्ज़ियों के बीच क्या काम है . . .। पोते ने समाधान किया—“दद्दू ड्रमस्टिक का मतलब डंडियाँ नहीं मुनगे की फलियाँ हैं।” ऐप की अंग्रेज़ी भाषा को ठीक से नहीं समझ पाने की विसंगतियों पर यह अच्छा व्यंग्य बन पड़ा है। ऐसा ही एक व्यंग्य है ज़ुबान रिपेयर सेंटर। इसके पात्र मुरारी से सुनते हैं इस सेंटर की ख़ासियत।”हमारा सेंटर बिल्कुल वैज्ञानिक और संस्कारित तरीक़े से अपना कार्य करेगा हमने अलग-अलग गालियों के लिए अलग-अलग ज़ुबान रिपेयर प्लान बनाए हैं। ज़ुबान स्लिप होने जैसे मामलों में ज़ुबान की रिपेयरिंग भी हम करेंगे।” अपनी गहन शोध में वे बताते हैं कि “कंठ से बोली जाने वाली गालिया कंठव्य होती हैं जैसे कमीना, खडूस, गुंडा आदि। तालू से बोली जाने वाली तालव्य गालियों के अंतर्गत चोर, छिनाल, झूठा आदि आती हैं जबकि ठस्स, डकैत, ढपोरशंख मूर्धन्य गालियाँ होती हैं। थप्पड़, दलाल, नीच, नक्सली, क़िस्म की गालियाँ दन्त्य श्रेणी की हैं और माँ-बहिन की गालियाँ ओष्ठव वर्ग की।” अरुण ज़ुबान रिपेयर करते हुए बताते है कि “वोकल कॉर्ड में हम परिवार नियोजन के काम आने वाला कॉपर टी जैसा एक उपकरण लगा रहे हैं, आवाज़ के नियोजन के लिए . . . जिसे जब चाहो निकलवा लो और देने लग जाओ पहले जैसी गालियाँ।” 

’ग्यारह रस होंगे अब ज़िन्दगी में’ ऐसा ही एक शोधपरक व्यंग्य है। वे लिखते हैं, साहित्य में शुरू में आठ रस माने गए थे। शांत रस के आ जाने से रस नौ हो गए। वात्सल्य रस इनमें जुड़ा तो संख्या दस हो गई और अब एक नया रस जुड़ गया, वायरस। वे आगे बताते हैं कि “हर रस का एक केंद्रीय भाव होता है पर इस अकेले वायरस के इतने केंद्रीय भाव है कि आदमी महसूसना तो छोड़िए केवल याद करते-करते ही आइसोलेशन में पहुँच जाता है और चौदह दिनों के लिए दीन-दुनिया से कट जाता है।” अंत में वे तर्क करते हैं कि जैसे वीभत्स रस को हमारे पूर्वजों ने रस का दर्जा दिया उसी तरह वायरस को भी रस माना जाना चाहिए। तर्क और विज्ञान को व्यंग्य का कथ्य बना रहे अरुण के ये प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं। 

ग़रीबी साहित्यकारों, समाज सुधारकों, चिंतकों और राजनीतिज्ञों सबको उद्वेलित करने वाला आम विषय रहा है। व्यंग्यकार ग़रीबीजन्य विद्रूपताओं को बहुत समीप से देखता है। अरुण की व्यंजना ग़रीबी को किस तरह लेती है, यह उनके व्यंग्य ‘गरीबी बड़े काम की चीज़ है’ में है। वे लिखते हैं कि “हमारे देश में दो तरह के लोग रहते हैं, एक ग़रीबी रेखा से नीचे और एक ग़रीबी रेखा से ऊपर। ऊपर वाले लोग नीचे रहने वालों के लिए महलनुमा कार्यालयों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर योजनाएँ बनाते हैं। योजनाएँ बनती हैं फिर उन्हें लागू करने के लिए नीचे भेज दिया जाता है।” . . . “कहने को लोग भले ही ग़रीबी को अभिशाप कहते रहें पर अमीर लोगों को ग़रीब अति प्रिय होते हैं। ग़रीब हैं तो उनकी पूछ परख है।” सहज और सरल भाषा में पठनीयता बनाए रखते हुए इस संग्रह में निबंध शैली के साथ ही फैन्टसी और कथा शैली में अपनी रचनाएँ देकर अरुण पाठकों को मोहित कर जाते हैं। विषय और कथ्य के नयेपन के लिए भी यह संकलन उल्लेखनीय रहेगा। अरुण अर्णव खरे को व्यंग्य संकलन की सफलता के लिए शुभकामनाएँ। 

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