घर लौटते हुए
धर्मपाल महेंद्र जैन
शाम घर आते हुए
ब्लूर से फिंच स्टेशन तक
कई चीज़ें लौटने लगती हैं मुझमें।
हँसती पत्नी और खेलते बच्चों की यादें
ढेर-सी ऊर्जा भर जाती है।
संवेदना आ पूछती है हालचाल
मन हल्का हो जाता है।
सड़क पर चलते लोगों को
आँखें पहचानने लगती हैं।
जीभ बतियाने लगती है सहयात्री से
भीड़ भरी ट्रेन में
अपनी सीट पर दब कर भी
बेहतर लगता है मुझे
होंठ चाहते हैं गुनगुनाना
हथेलियाँ लचीली हो जुड़ने लगती हैं
जाते हुए सहयात्रियों को
अलविदा कहने उठने लगते हैं हाथ।
शाम घर आते हुए
मैं लौट रहा होता हूँ
बेहतर आदमी बनते हुए।