तब और अब
महेशचन्द्र द्विवेदीवक़्त था जब हर बशर मानता था कि
यह शिकार व शिकारियों का शहर है,
पैसा ही था ईमां, पैसा लख़्ते-जिगर है,
मुफ़्त के माल पर रखता था नज़र है;
फ़रेब में महारत होने से ही यहाँ कोई
बन पाता था गाँठ का पक्का बशर है।
सबको जल्दी ही मालामाल होना था,
जमा करना ख़ूब चाँदी व सोना था,
मौक़ा मिलते ही लूटने लगना था,
चाहे हो पराया या सगा बिरादर है;
टूट पड़ना था सरकारी ख़जाने पर
बन सितमगर, न छोड़ना कसर है।
खानों के खनन का ठेकेदार बनना था
खुलेआम नक़ल का सरदार बनना था,
हज़ारों करोड़ का लेना था उधार, और
फिर ऐसे देश को जाना था खिसक,
जहाँ की कचहरी स्वदेश वापसी का
हर प्रयत्न रोकने को रहती तत्पर है।
किसी को हर राजसी ठाठ से जीना था,
पहनना था रेशम, गले में नगीना था,
काजू-पिश्ता खाना व विदेशी पीना था,
बगल में रखना टीना, मीना, रीना था;
साधु वस्त्र धारण कर बनना था गुरु,
ठगना था भक्त, जो अक़्ल से सिफ़र है।
आज यदि तुम्हें अपयश हो कमाना,
चारा खाकर पुनः जेल में हो जाना,
तभी लोहिया, अम्बेडकर के नाम का
झुनझुना थमाकर जनता को बहलाना;
तुम्हारे परिवारवाद व भ्रष्टाचार पर
अब शासन का कोरोना सा क़हर है।