जब जब आयेगा सावन
महेशचन्द्र द्विवेदीजब से मानव का हुआ है
आदि, जब तक होगा अंत,
आते रहे हैं और आते रहेंगे,
ग्रीष्म, शीत और वसंत;
पर जब जब धरा पर,
उमड़ घुमड़ कर आयेगा सावन,
मानव मन में तब तब,
अवश्य जागेगा उसका बचपन।
आयेगी पुरवाई, जो हर लेगी
उसकी ग्रीष्म की तपन,
बरसेंगे बादल और सोख लेंगे
तृषित धरा की जलन,
फैलेगी सोंधी मिट्टी की महक,
कुरेदेगी मानव का मन,
अवचेतन में छिपा, क्षण भर को
अवश्य उभरेगा बचपन।
बिचरेंगे बादल कभी ऐसे,
जैसे माँझा से बंधी हो पतंग,
कभी बहते रहेंगे प्रशांत,
तो कभी बजायेंगे घनघोर मृदंग;
आँखमिचौली खेलेंगे, सूरज की
धूप और छाँव के संग,
इंद्रधनुष की सतरंगी छटा से,
मोहेंगे मानव का अंग अंग।
नवजीवन से भर जायेंगे, घने
और हरे हरे वन-उपवन,
उगेंगी गुल्म-लतायें, लिपटकर
करेंगी वृक्षों का आलिंगन;
बेला और चमेली के पुष्पों पर,
देख तितलियों की थिरकन,
किसको नहीं याद आ जायेगा,
उसका रंग-बिरंगा बचपन?
कूकेगी कोयल, और बठायेगी
विरहिणी के हृदय की धड़कन,
खेतों और बागों में नाचेंगे मोर,
लुभायेंगे मोरनी का मन;
और भाई की कलाई में, जब भी
बाँधेगी राखी कोई बहन,
बचपन की कोमल स्मृतियाँ,
उभारेगा सावन का रक्षाबंधन।