भारतीय अमेरिकन युवा
महेशचन्द्र द्विवेदीभारत से इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर एटलांटा (अमेरिका) में कार्यरत एक कुँवारे युवक से मैंने पूछा कि तुम अमेरिकन लड़की से विवाह क्यों नहीं कर लेते हो। उसने निःसंकोच उत्तर दिया, "अमेरिकन लड़की से दोस्ती तो की जा सकती है, विवाह बिल्कुल नहीं।" इस उत्तर के पीछे उस भारतीय युवक के मन में छिपी दो संस्कारगत भावनायें थीं- एक यह कि अमेरिका में विवाह योग्य किसी कुमारी लड़की का मिलना लगभग असम्भव है और दूसरे वह चौके में काम करवाने से लेकर बच्चे की नैपी धुलवाने तक हर काम में बराबरी चाहेगी। उस युवक ने भारत की एक लड़की से विवाह किया और दोनों में खूब निभ रही है।
मिशिगन में रहने वाले एक साहब जब भारत से अमेरिका गये थे तब तक उनके दो बच्चे हो चुके थे और तीसरा अमेरिका में पैदा हुआ था- सबसे बडी लड़की थी जिसने एक भारत के लड़के से विवाह किया और दोनों की खूब पट रही है। दूसरा लड़का था जिसकी शिक्षा दीक्षा प्रारम्भिक कक्षाओं में भारत में हुई थी और माध्यमिक स्तर से अमेरिका में ही हुई थी। उसने एक भारत की लड़की से विवाह किया, जो कठिनाई से कुछ वर्ष तक चला और फिर तलाक देकर उसने एक श्वेत लड़की से विवाह कर लिया। तीसरा भाई जो अमेरिका में ही पैदा हुआ था, ने एक श्वेत लड़की से विवाह किया और दोनों में न पटने पर तलाक देकर दूसरी श्वेत से कर लिया, जिससे अब ढंग से पट रही है।
प्रथम पीढ़ी के आप्रवासी भारतीय युगल की फिलडेल्फ़िया में जन्मीं कक्षा ७ मे पढ़ने वाली एक लड़की से मैंने पूछा था, "डू यू फील प्राइड इन बिलौंगिंग टु इंडिया"; उसका गर्वपूर्ण उत्तर था, "ओह! आय ऐम ऐन अमेरिकन।" कालांतर में उस लड़की के माँ-बाप ने उसे भारतीय संस्कृति में ढालने का प्रयत्न किया था और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी कराया था। फिर उसकी सहमति से भारत से एक अच्छा सा वर ढूँढ कर उसका विवाह कर दिया था, जो उतने दिन भी नहीं चल पाया जितने दिन लड़के को ढूँढने में लगे थे।
भारतीय मूल के अमेरिका में रहने वाले युवा किसी समाज-शास्त्री के लिये अध्ययन का बड़ा रुचिकर अवसर उपस्थित करते हैं, परंतु उनमें अनेक विभिन्नतायें हैं और वे सभी किसी एक साँचे विशेष में ढले हुए नहीं हैं। वास्तविक जीवन के उपर्युक्त तीन उदाहरण उनकी तीन मुख्य श्रेणियों को इंगित करते हैं। एक वे जो पढ़े लिखे तो भारत में हैं पर नौकरी करने अमेरिका में आ गये हैं, दूसरे वे जो पैदा तो भारत में हुए और दस साल से कम की उम्र में ही माँ-बाप के साथ अमेरिका चले आये, और तीसरे वे जो अमेरिका में ही जन्में और अमेरिका में ही बढ़े और पढ़े । इनमें हर श्रेणी के युवा की सोच एवं व्यवहार में बहुत सी भिन्न्तायें पाईं जातीं हैं, परंतु अनेक समानतायें भीं मिल जातीं हैं।
पहली श्रेणी के युवा मुख्यतः दो प्रकार के हैं- एक हवाई पुलाव पकाने वाले और दूसरे ज़मीनी सोच वाले। हवाई पुलाव पकाने वाले वे हैं जो पहली बार अमेरिका आते समय माँ, बाप, भाई ,बहिन, आदि से लिपटलिपट कर रोते हैं परंतु अमेरिका पहुँचते पहुँचते वहाँ की रंगीन दुनियाँ में ऐसे खो जाते हैं कि उन्हें भारतभूमि एक ’अनएंडिंग ओपिन एयर लैट्रीन’ लगने लगती है। ज़मीनी सोच वाले वे हैं जो भारत छोड़ते समय मुस्कुराकर बाय-बाय करते हुए हवाई जहाज में बैठते हैं, परंतु अमेरिका के लोगों का परिश्रम, वहाँ की प्रशासनिक प्रक्रियाएँ एवं दैनिक जीवन में बरती जाने वाली ईमानदारी को देखकर भारत के सुधार के लिये कुछ करने को चिंतित एवं प्रयत्नशील हो जाते हैं। वे प्रायः संस्कृतिक एवं धार्मिक संस्थाओं से जुड़कर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रचार प्रसार में भी लग जाते हैं। ये दोनों प्रकार के आप्रवासी अपने प्रारम्भिक सांस्कारिक बोझ से मुक्त नहीं हो पाते हैं और अपने बच्चों पर उसे थोपने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसका प्रमुख लाभ यह होता है कि पढ़ाई पर ज़ोर देने के कारण इनके बच्चे पढ़ाई में पूर्णतः स्वतंत्र वातावरण में पले अमेरिकन बच्चों को पीछे पिछाड़ते रहते हैं, परंतु हानि यह होती है कि इनके बच्चे घर में भारतीय संस्कृति और बाहर अमेरिकन संस्कृति में पले होने के कारण न पूरी तरह घर के रहते हैं और न घाट के। इन्हीं को यहाँ अमेरिकन बॉर्न कन्फयूज्ड देसी कहा जाता है। उनके माता-पिता विवाह के लिये भारतीय जोड़ा देखते हैं परंतु बच्चों द्वारा भारतीय मानसिकता को ढंग से न समझने के कारण प्रायः सामंजस्य की गम्भीर समस्यायें पैदा हो जातीं हैं।
दूसरी श्रेणी के युवा इंडियन बॉर्न कन्फयूज्ड देसी बन जाते हैं क्योंकि उनका समाज एवं स्कूल उन्हें व्यक्तित्व की पूर्ण स्वतंत्रता के संस्कार देते हैं जिनका मूलमंत्र है "इट इज माई लाइफ", जब कि उनके माता पिता उनसे अपने मार्गदर्शन के अनुसार निर्णय लेने की अपेक्षा करते हैं। सबसे बड़ी कठिनाई लैंगिक व्यवहार के विषय में आती है- क्योंकि माँ-बाप लड़के को विवाह तक ब्रह्मचारी और लड़की को कुमारी देखना चाहते हैं जबकि साथियों का दबाव शीघ्रातिशीघ्र कौमार्यभंग का होता है।
तीसरी श्रेणी के युवा प्रायः अपने को न सिर्फ अमेरिकन समझते हैं वरन् मानसिक रूप से भी अमेरिकन हैं। वे वहाँ के समाज में घुलमिल गये हैं और यदि उनके माता-पिता जबरदस्ती न थोपें तो वे अपने साथ भारतीय संस्कारों का बोझ लेकर नहीं चलते हैं।
अमेरिकन जीवन पद्धति में पले व बढ़े भारतीय अमेरिकन युवा स्पष्टवादी, व्यक्तिवादी, साहसी एवं परिश्रमी होते हैं। भारतीय समाज में व्याप्त पाखंड एवं भारतीय शासन में व्याप्त चालबाज़ियो से अनभिज्ञ होने के कारण वे यहाँ आसानी से विभ्रमित हो जाते हैं और ठगे जाते हैं।
’पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब‘ की सीख भारतीय अमेरिकनों के खून में अभी तक प्रवाहित हो रही है जिससे अमेरिका में भारतीय अमेरिकन समाज तकनीकी एवं व्यापारिक क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहा है एवं यह समाज वहाँ का सबसे धनिक समाज माना जाता है। भारत से गये जो लोग व्यापार कर रहे हैं, वे अमेरिकनों को इसलिये भी पछाड़ रहे हैं क्योंकि अमेरिकनों को बचत करने और छाँट कर सस्ती चीज खरीदने की आदत ही नहीं है, जबकि भारतीय पहले दिन से ही इसमें जुट जाता है। इससे भारतीय अमेरिकन के पास बड़े व्यापार के लिये पूँजी जल्दी इकट्ठी हो जाती है।
हमारे लिये सबसे खुशी की बात यह है कि भारतीय अमेरिकन युवा भारत की अंतर्र्ट्रीय ख्याति में चार चाँद गा रहे हैं।