होली के दिन एक नवजवान मच्छर बौरा गया
महेशचन्द्र द्विवेदीहोली के दिन एक नवजवान मच्छर बौरा गया,
भंग भरे ठंडाई के मटके पर उड़कर आ गया।
भंग की भीनी ख़ुशबू से मुँह में पानी आने लगा
तो लगाकर छलाँग ठंडाई के मटके में समा गया।
बाहर निकाली अपनी लम्बी पिचकारीनुमा चोंच,
फिर शास्त्रीय तान की तरह खूब भंग चढ़ा गया।
पूरी तरह छक जाने पर ली अँगड़ाई एक लम्बी सी,
और मदमस्त हो मच्छरनी की तलाश में चला गया।
मच्छरनी एक सज्जन का खून चूसने में थी व्यस्त,
मच्छर सजनी के काले कुंतल केशों पर छा गया।
कथक, पौप और ब्रेकडांस आदि किये सभी नृत्य,
फिर बालों पर बैठा और गालों को सहला गया।
तब तक मच्छर पर भंग का नशा था छाने लगा,
पुरुष व स्त्री का अंतर भूल सज्जन पर आ गया।
वह सजनी के साथ उसकी हरकतों से जले बैठे थे,
मारा ऐसा झापड़ कि उसे छठी का दूध याद आ गया।