आभास
महेशचन्द्र द्विवेदीमधुर मधुमास के आगमन का आभास हो तुम
दिवस के श्रम से श्लथ थकित
अवनि हो जाती है जब निद्रित
नील-नभ को घेर लेती कालिमा
और नक्षत्र भी सब होते हैं तंद्रित
ऐसे काले कुंतल केश वाली सुंदरि सुमुखि,
सघन तिमिर का रहस्यमय आकाश हो तुम।
ब्राह्मवेला में एक कोकिला बन
चहकती हो देकर चपल चितवन
छा जाती है तव व्रीड़ा पर लालिमा
सलज नयनों से जब देती निमंत्रण
मम हृदय में प्रीति के प्रस्फुटन का संदेश लाती,
रक्तिम-रवि की प्रथम किरण का प्रकाश हो तुम।
अग्नि बरसाती धरा पर रविकिरन
वायु भी जब करती संतापित बदन
दग्ध धरती और दग्ध जड़-चेतन
पशु-पक्षी सब ढूँढते छाया सघन
मन के इक कोने में जगाकर स्वस्पर्श की कल्पना,
अग्नि-दग्ध इस हृदय की बुझाती प्यास हो तुम।
सूर्य जब जाने लगता है अस्तांचल
एकांत के संताप से मन होता विकल
दैदीप्यमान हो जाती स्मृति तुम्हारी
हृदय होता उतना ही अधिक विह्वल
तब शांति देती तुम्हारी आराधना की आरती ही,
गोधूलिवेला के पवन की मलयज सुवास हो तुम।
ग्रीवा में मयूर-सम मोहक चमक
तव बदन में गमके बेला की महक
तव अँगड़ाई उठाये हृत में कसक
तव दृष्टि में छिपी है गहन तड़ित
तू ही ग्रीष्म, तू ही पावस, और तू ही है शरत,
मधुर मधुमास के आगमन का आभास हो तुम।