रक्तबीज भाग – 2
महेशचन्द्र द्विवेदीभाग - 2
मैं जैसे ही जेल के भीमकाय फाटक के बाहर निकला, वैसे ही एक गोरी नवयौवना ने दौड़कर मुझे बाँहों में भर लिया और अश्रुसिक्त चुम्बनों की झड़ी लगा दी। बीच-बीच में उसके मुख से केवल ये शब्द निकलते थे "बिल, आई लव यू; परन्तु तुमने ऐसा क्यों किया?" मेरे लिये किसी नवयौवना द्वारा बाहों में भरा जाना प्रथम अनुभव था और सार्वजनिक स्थान पर इस प्रकार का चुम्बन-प्रहार कल्पनातीत अनुभव था और मैं प्रत्येक चुम्बन के साथ अपने को लज्जावश अधिक से अधिक संकुचित होता अनुभव कर रहा था। आवेश कुछ शांत होने पर वह नवयौवना, जिसे मैं समझ गया था कि वह फ़ियोना ही है, मेरी बाँह में बाँह डालकर घसीटती हुई सी मुझे अपनी कार तक ले गई और बगल की सीट पर मुझे बिठा कर वह स्वयं ड्राइवर-सीट पर बैठ गई और गाड़ी स्टार्ट कर दी। तब मैंने कहा, "मैं बिल नहीं हूँ। आप मुझे कहाँ ले जा रही हैं।"
उसने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, "बिल, इतने दिन जेल में रहने के बाद भी तुम्हारी मज़ाक करने की आदत गई नहीं है।"
मैंने फिर समझाने वाले अंदाज़ से उससे कहा, "मैं सही कह रहा हूँ कि मैं तो भारतवासी हरिहरनाथ कपूर हूँ तुम्हारा बिल नहीं।"
इस पर वह केवल मुस्करा दी और गाड़ी चलाती रही। फिर मुझे वह एक फार्म पर बने भव्य मकान पर ले गई। उसने दूर से ही कार के डैशबोर्ड पर एक बटन दबाया और गैराज का दरवाज़ा खुल गया और हमारी कार अंदर पहुँचने पर बटन दबाने पर बंद हो गया। गैराज में ही पीछे का दरवाज़ा अन्दर एक सुन्दर ड्राइंग-रूम में खुलता था। ड्राइंग-रूम में घुसते ही उसने मुझे फिर बाँहों में भर लिया और वह मेरे मुख पर दीर्घ चुम्बन देते हुए आवेशित हो रही थी, तभी मैंने कह दिया, "मैं सबसे पहले नहाना चाहता हूँ, जेल में नहाने हेतु गर्म पानी न मिलने के कारण मैं कभी ठीक से नहीं नहा पाया और बड़ा गंदा सा महसूस कर रहा हूँ। मुझे भूख भी बड़ी ज़ोर से लग रही है।" यह सुनकर उसने मुझे छोड़ दिया और मेरे लिये कपड़े बाथरूम में रख दिये। फिर किचेन में खाना तैयार करने में जुट गई। मैं नहा-धोकर जब बाहर निकला तो मुझे देखकर वह बोली, "बिल! इन दिनों में तुम पहले से अधिक सुंदर लगने लगे हो। अब डाइनिंग रूम में बैठो, खाना लगभग तैयार है।"
मैं उसके द्वारा फ़ुर्ती से मेज़ पर खाना लगाना देखता रहा। फिर वह भी मेरी बगल की कुर्सी पर बैठ गई और बड़े दिन बाद मैंने भरपेट भोजन किया। तब तक सायंकालीन अंधकार घिरने लगा था। फ़ियोना मुझे ड्राइंग-रूम में ले गई और टी.वी. खोलकर मेरे साथ सोफ़े पर बैठ गई और बोली, "बिल, तुमने यह सब क्यों किया? हमारे पास किस चीज़ की कमी है?"
मैंने अब अपने विषय में उसे विश्वास दिलाने हेतु बात पुन: प्रारम्भ की, "फ़ियोना, मैं बिल नहीं हूँ। सचमुच भारतवासी हूँ। मेरे पास भारतीय पास-पोर्ट भी था जिसे कचहरी के आदेश से ज़ब्त कर लिया गया है। मैंने कोई अपराध नहीं किया है।"
इस पर वह तुनक कर बोली, "बिल! अब बकवास बंद करो। मैं अख़बार में पढ़ चुकी हूँ कि तुमने कितनी बड़ी जालसाज़ी की है और तुम्हारे पास कितने देशों के पासपोर्ट हैं। हाँ, इतना याद रखना कि तुम्हारी ज़मानत में कोर्ट ने शर्तें लगा दी हैं कि तुम पूर्णत: मेरी निगरानी में रहोगे और किसी से कोई सम्पर्क नहीं करोगे। यदि टेलीफोन से भी वकील के अतिरिक्त किसी व्यक्ति से सम्पर्क करोगे, तो तुम्हारी ज़मानत रद्द हो ही जायेगी और तुम्हारे पलायन के प्रयत्न के षडयंत्र में मुझे भी सम्मिलित समझा जा सकता है।"
मैंने फिर कोई बात करना व्यर्थ समझा। अपनी उस दशा में भी मुझे फ़ियोना के प्रति कृतज्ञता का भाव जागा और साथ ही उसकी स्थिति पर तरस भी आया। कुछ देर टी.वी. देखने के बाद थकावट व तनाव के कारण मुझे नींद आने लगी और मैंने सोने की इच्छा प्रकट की। इस पर फ़ियोना ने टी.वी. बन्द कर दिया और बेडरूम को चल दी। मैं उसके पीछे-पीछे चल दिया। बेडरूम पहुँच कर मैंने उससे ’गुड-नाइट’ कहा और अर्ध निद्रित सा पलंग पर लेट गया और अपनी पुरानी आदत के अनुसार बायीं करवट लेकर रजाई से मुँह ढंक लिया। परन्तु कुछ ही देर पश्चात् फ़ियोना मेरे पीछे आकर सटकर लेट गई। मुझे आभास हुआ कि वह वस्त्रविहीन है। मैंने फिर भी अपने को संयमित कर कहा, "फ़ियोना, मेरा विश्वास करो मैं बिल नहीं हूँ।"
इसके उत्तर में बिना कुछ बोले उसने मेरे ऊपर से रजाई हटा दी और नाइट-लाइट में मेरी बाँह देखकर हँसते हुए बोली, "बिल, मैं तो समझती थी कि जेल में लोग दुबले हो जाते होंगे पर तुम्हारी बाँह तो पहले से मोटी हो गयी है।"
मैं इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करता कि अचानक कमरे का ताला बाहर से खुलने की आवाज़ आई। फ़ियोना के मुँह से निकला, "कौन है?" और मैंने भी पीछे घूमकर देखने का उपक्रम किया। तभी कमरे का दरवाज़ा खुल गया और कमरा रोशनी से भर गया। दरवाज़े पर एक व्यक्ति खड़ा था, जिसके मुख पर क्रोधाग्नि जल रही थी परन्तु मुझे देखकर वह एक अजीब से असमंजस में पड़ता हुआ दिखाई दिया। मैं भी उसे देखकर आश्चर्यचकित था- उसका चेहरा मेरे चेहरे से हू-बहू मिलता था और हम दोनों की आयु, रंग व शक्लों में लेश-मात्र का अंतर नहीं था। अब आश्चर्य से भौंचक सा अपने क्रोध को दबाते हुए उसने मुझे घूरते हुए पूछा, "तुम कौन हो? "
उस व्यक्ति द्वारा किसी भी क्षण हम दोनों पर आक्रमण कर देने के भय को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी सम्पूर्ण स्थिति को स्पष्ट कर देने का यह उचित अवसर समझा और अपना परिचय देते हुए संक्षेप में आप-बीती सुनाई; यह भी बता दिया कि यद्यपि मैं बार-बार अपना सही परिचय दे रहा हूँ परन्तु फ़ियोना भ्रमवश मुझे अपना पति समझ रही है परन्तु हम दोनों में कोई शारीरिक सम्बन्ध स्थापित नहीं हुआ है। मेरे शब्दों में निहित आत्म-विश्वास के कारण एवं मेरे शरीर पर वस्त्र पहने हुए होना देखकर उसे मेरी बातों पर विश्वास हो गया और उसके चेहरे पर एक स्मित-रेखा खिंच गई। तभी फ़ियोना चुपचाप आँख नीची किये हुए लजाती अपने वस्त्र पहनने बाथरूम में घुस गई और वह व्यक्ति, जो स्पष्टत: बिल था, धीरे से आगे बढ़कर मेरे निकट बेड पर बैठ गया। उसने मेरे चेहरे को पुन: एकाग्रचित्त होकर देखा जैसे उसकी प्रत्येक रेखा का अध्ययन कर रहा हो, मेरे हाथों को छूकर देखा और मेरे पैर देखे। फिर भावावेश में मेरे गाल पर हल्का सा चुम्बन देते हुए कहा, "हम दोनों एक ही पिता के क्लोन्स (रक्तबीज) हैं।
मैं भौंचक्का सा उसकी ओर देख रहा था और वह बोले जा रहा था, "हमारे जनक प्रोफेसर फ्रेडरिक रोज़लिन बायो-टेक्नोलोजी इंस्टीच्यूट, एडिनबरा में जीन्स पर शोध कार्य किया करते थे। आज से तीस वर्ष पूर्व उन्होंने चार अन्फर्टिलाइज़्ड फीमेल एग्सेल (अगर्भित अंड) प्राप्त कर और उनमें उपलब्ध सभी डी.एन.ए. निकाल कर उनमें अपने शरीर के सेल के सभी डी.एन.ए. प्रस्थापित कर दिये थे। सहवास के उपरांत स्त्री एवं परुष के आधे-आधे डी.एन.ए. अंडे के अंदर मिलने से शरीर की रचना प्रारम्भ हो जाती है और इस प्रकार शरीर के प्रत्येक सेल में दोनों के डी.एन.ए. होते हैं। यदि किसी खाली अंडे में एक ही व्यक्ति के शरीर के सेल के सभी डी.एन.ए. स्थापित कर दिये जायें, तो उस व्यक्ति का प्रतिरूप तैयार होने लगता है। इस प्रकार प्रोफेसर फ्रेडरिक ने टेस्ट-ट्यूब्स में अपने ही चार क्लोन्स (रक्तबीजों) को जन्म दिया था। प्रोफेसर फ्रेडरिक यह कार्य पूर्णत: गुप्त रूप से कर रहे थे। चूँकि वह अपने इंस्टीच्यूट में अत्यंत सम्मानित वैज्ञानिक थे अत: उनकी इच्छानुसार उनकी प्रयोगशाला में उनके अतिरिक्त अन्य किसी का आना पूर्णत: वर्जित था। जब ये रक्तबीज पूर्णत: विकसित शिशु बन गये तो एक रात लैबोरेटरी का ताला तोड़ कर किसी ने तीन शिशुओं की चोरी कर ली। तब प्रोफेसर फ्रेडरिक ने अपनी सफलता की पूरी कहानी अपने साथियों को बताई, परन्तु उसी रात उनकी लाश संदेहपूर्ण परिस्थितियों में स्विमिंग-पूल में डूबी पाई गई। चूँकि लैबोरेटरी में केवल एक शिशु ही मिला था अत: उसे परखनली शिशु मानते हुए उनकी बात को केवल एक सनक समझा गया और किसी ने विश्वास नहीं किया और इंस्टीच्यूट की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए उनकी बात का कोई प्रचार भी नहीं होने दिया गया। मुझ यह पूरी घटना मेरे पालनकर्ता इसी इंस्टीच्यूट के एक वैज्ञानिक ये ने बताई थी और मैं भी रक्तबीजों की रचना को कल्पना की उड़ान मात्र समझता था। परन्तु आज तुम्हें देखकर मुझे विश्वास हो गया है कि हो न हो तुम उन्हीं तीन रक्तबीजों में से एक हो।"
फ़ियोना जो बाथरूम के दरवाज़े से सटी यह सब आश्चर्य से सुन रही थी, रूठी हुई सी बोली, "तो तुमने मुझे यह पहले क्यों नहीं बताया था।"
इस पर बिल ने कहा, "मैं स्वंय प्रोफेसर फ्रेडरिक की बात कपोलकल्पित समझ रहा था अत: तुम्हें क्या बताता? हाँ, आज जब मैं स्वयं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मैं, मैं हूँ या यह मैं है, तो प्रोफेसर द्वारा कही बात पर आश्वस्त हो रहा हूँ। तुम्हारे द्वारा इनको भ्रमवश मुझे मान लेने में तुम्हारा कोई दोष नहीं है।"
फिर देर रात तक हम लोग बातें करते रहे। मुझे बिल के प्रति एक अनोखी एकानुभूति एवं मोह लग रहा था। मैंने अपनी जीवन गाथा संक्षेप में सुनाई और बताया कि मेरे मम्मी-पापा ने मुझे कभी नहीं बताया कि मैं उनके द्वारा जन्मी संतान नहीं हूँ। यद्यपि मेरे रंग को देखकर वहाँ सभी आश्चर्य करते हुए कहते थे कि ऐसा गोरा रंग भारतीय माता-पिता से पैदा होना अनोखी बात है। मेरे मम्मी-पापा के अन्य कोई सन्तान नहीं है। तब बिल ने बताया कि उसने लदंन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से फ़ाइनेन्शियल मैनेजमेंट में मास्टर की उपाधि प्राप्त की है और अब बैंक ऑफ़ इंग्लैंड की ट्रेज़री शाखा में कार्यरत है; उसका अपने कार्यक्षेत्र में बड़ा नाम है। वह एक सप्ताह पूर्व बैंक के काम से कान्टीनेंट गया हुआ था और लौटने पर अपने बेडरूम में मुझे पाया। उसने कोई जालसाज़ी अथवा अपराध नहीं किया है।
- क्रमशः
- क्रमशः