स्विटज़रलैंड के स्नेही बंधुओं एवं अंतरराष्ट्रीय साहित्यकारों को स्नेहपूर्ण भावांजलि

15-01-2024

स्विटज़रलैंड के स्नेही बंधुओं एवं अंतरराष्ट्रीय साहित्यकारों को स्नेहपूर्ण भावांजलि

नीरजा द्विवेदी (अंक: 245, जनवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

सन्‌ 1910 में स्विटज़रलैंड की रेज़ीडेंसी के इक्कीस दिनों की मधुर स्मृतियों को मैं लेखनीबद्ध करने चली तो सर्वप्रथम नीली आँखों वाली नन्ही तात्याना (सोफी की छह वर्ष की प्यारी बेटी) की आकृति नेत्रों के समक्ष आ गई, जो हम दोनों के विदा लेने से पूर्व हमें गुलाब के फूल देकर मुझसे और द्विवेदी जी से चिपक गई थी और बार-बार कह रही थी, “आय लव यू, आय मिस यू।”

कमेटी की सीनियर सदस्य सूज़न के यहाँ रात्रिभोज में मेरी मुलाक़ात ‘बियेट्रिस’ नामक एक स्विस युवती से हुई थी जिसके पति का नाम बॉब था और वह लेखक थे एवं यूनिवर्सिटी में शिक्षक थे। वह आकर इतनी आत्मीयता से मुझसे मिली थी कि मुझे आश्चर्य हुआ था। आज भी मुझे उसके साथ किया गया वार्तालाप अक्षरशः स्मरण है। उसने मुझे बताया था कि: 

“मेरे जन्म के पूर्व मेरे माता-पिता कई वर्ष भारत में रहे थे। जब मैं 5 या 6 माह की माँ के पेट में थी तब वे लोग भारत से वापस आ गये थे पर वहाँ की सुखद यादें उनके साथ हमेशा रहीं।” 

मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसके शरीर में जो भारत की मिट्टी का अंश था वही हम दोनों को एक दूसरे की ओर आकर्षित कर रहा था। उसने मुझे आगे बताया, “मेरे कई पारिवारिक मित्र भारतीय हैं। मैं अपनी एक इण्डियन फ़्रेंड के माता-पिता से मिली थी। वे मुझे बहुत प्यार करते थे। इण्डियन परिवारों में मुझे एक बात बहुत अच्छी लगती है कि वहाँ समय की इतनी पाबन्दी नहीं रहती कि हर समय टोका-टकी हो कि दो घंटे हो गये, अब घर जाओ। या सोने का समय हो गया, सो जाओ। मेरे पति बॉब हैं। वह यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। वह भी लेखक हैं। मैं लिखती नहीं पर मुझे पढ़ने का बहुत शौक़ है। मैं जब स्वयं लिखती हूँ तो न जाने क्यों दुखी हो जाती हूँ। अभी हमारे बच्चे नहीं हैं, हम दो ही हैं।” इसके पश्चात बियेट्रिस ने मेरे लेखन के विषय में विस्तार से जानना चाहा। 

मैंने उसे बताया कि मैं अधिकांशतः निम्न व मध्यम वर्ग की महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिये लिखती हूँ। मैंने भारतीय समाज की स्त्रियों सम्बन्धी समस्याओं जैसे दहेज़ प्रथा आदि के उन्मूलन या स्त्रियों को शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध जागृत होने के लिये लिखा है। मैं सत्य घटनाओं को आधार बनाकर स्त्रियों को जागरूक बनाने के लिये नाटकीय परिस्थितियाँ बनाकर कहानी लिख देती हूँ। 

बियेट्रिस यह सुनकर बहुत प्रभावित हुई और बोली, “मैं आपकी पुस्तकों का ट्रांसलेशन ख़रीदना चाहती हूँ। मेरी कई इण्डियन फ़्रेंड्स हैं अतः मुझे भारत से प्रेम है।” 

मैंने उत्तर दिया, “मेरी पुस्तकों का ट्रांसलेशन नहीं है। वे हिन्दी में हैं।” 

इस पर जब उसने हिन्दी में पुस्तक ख़रीदने की इच्छा प्रकट की तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मुझे चकित होते देखकर वह बोली, “मैं उनका ट्रान्सलेशन कराऊँगी।”

मैंने कहा कि “मैं भारत लौटकर आपको पुस्तकें भेज दूँगी।” 

मुझे अत्यंत दुःख है कि न जाने कैसे बियएट्रिस का ई-मेल ऐड्रेस व पता मुझसे खो गया और मैं उसके लिये पुस्तकें न भेज सकी। जब यह पुस्तक तैयार हुई और मेरा सम्पर्क फ़ेसबुक पर इला अल वाश से हुआ तो मेरे मन में विचार आया कि क्यों न मैं इस पुस्तक को बियेट्रिस, तात्याना एवं अपने अंतरराष्ट्रीय साहित्यकार मित्रों को समर्पित कर दूँ। ‘शातो द लाविनी’ नामक यह पुस्तक किंडिल पर प्रकाशित हो गई है।

शातो द लाविनी की रेज़ीडेंसी में फ़्रैंच लेखिका एवं अनुवादिका इला अल वाश, स्कॉटलैंड की लेखिका मौरेल, जर्मनी की लेखिका सूज़न, बुल्गेरिया के लेखक पेटर जैसे अंतरराष्ट्रीय लेखकों के साथ मेरे पति श्री महेशचंद्र द्विवेदी और मैंने इक्कीस दिनों तक निवास करते हुए देश-विदेश की चर्चायें कीं। हमने लाविनी और समीप के शहरों से आये श्रोताओं के समक्ष संगोष्ठियों में सहभागिता भी की। ये सब दुर्लभ स्मृतियाँ अविस्मरणीय हैं। मैं सब लेखकों इला, मौरेल, सूज़न, पेटर, एलिसा एंडर्सन्‌ एवं सोफी की हृदय से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे साक्षात्कार देकर अनुगृहीत किया। इसके साथ ही शातो की मैनेजर सोफी एवं कमेटी की सदस्य सूज़न एवं उनके पति का आतिथ्य, होम फाम की स्कूबा डाइविंग की रोमांचक चर्चा, नेप्ट्यून एवं लंका की जिनी रोजर्स की आत्मीयता का स्मरण न किया जाये तो कृतघ्नता होगी। 

इसी संदर्भ में एक अपरिचित महिला मार्गरेट द्वारा हमें बस न मिलने पर अपनी कार से मार्ष स्टेशन पहुँचाना और स्विटज़रलैंड के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी देना भी उल्लेखनीय है जो वहाँ के निवासियों की विदेशियों के प्रति सहृदयता की परिचायक है। पब्लिक रीडिंग में भारतीय महिला श्रीमती सीमा उपलेकर द्वारा भारत से आई हिंदी भाषी लेखिका का मनोबल बढ़ाने के विचार से श्रोता बनकर सम्मिलित होना और यही नहीं भारतीय परंपरा के अनुसार आतिथ्य करना एवं जेनेवा का भ्रमण कराना भी प्रशंसनीय है। 

शातो द लाविनी के प्रवास की जो अमूल्य और प्रेरणादायक स्मृतियाँ हैं उन्हें पुस्तक के रूप में सँजोकर मैं अपने हृदय की भावांजलि प्रस्तुत कर रही हूँ। 

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