आतिशा
नीरजा द्विवेदीकाले बुर्के में आवृत्त एक महिला मानसी के समक्ष अपने तीन बच्चों को लेकर आ खड़ी हुई। सामने आकर उसने अपने मुख से पर्दा हटाया और बोली– "मैं आतिशा हूँ। आंटी! सबके बच्चे पढ़ रहे हैं पर मेरे बच्चे नहीं पढ़ पा रहे हैं। मेरे शौहर बच्चों को पढ़ाने को पैसा नहीं देते।"
मानसी उस स्त्री की ओर देखा– लगभग तीस साल की होगी। बड़ी बच्ची दस साल की होगी। दूसरी आठ साल की और बच्चा पाँच साल का। स्त्री गोरी और सुंदर थी। आँखों में काजल लगा था। मैंने बच्चों के नाम पूछे तो उसने बताया कि बड़ी का नाम नज़मा है। उससे छोटी नाज़नीन और बेटा अफज़ल है। उस स्त्री के बोलने का लहज़ा बहुत मधुर था, शिक्षित प्रतीत होती थी। बड़े आदर से उसने फिर कहना शुरू किया– "आंटी! प्लीज़ मेरी नज़मा का दाख़िला स्कूल में करा दें। मेरे शौहर किसी तरह राज़ी नहीं होते। अल्लाह आपको सबाब देगा। मैं बहुत उम्मीद लेकर आपके पास आई हूँ। आशा है आप मुझे मायूस न करेंगी," कहते हुए उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे।
मानसी ने कहा– "ठीक है बच्चों को दोपहर को तीन बजे मेरे यहाँ पढ़ने भेज देना। नज़मा का दाख़िला मैं स्कूल में करा दूँगी पर उसे मेरे यहाँ भी पढ़ने आना होगा। यहाँ उसको स्कूल में जो नहीं समझ आयेगा वह समझा दिया जायेगा। नाज़नीन और अफज़ल मेरे यहाँ पढ़ते रहेंगे। उनका नाम अगले साल स्कूल में लिखा दिया जायेगा।"
नज़मा की माँ तीनों बच्चों को मानसी के पास छोड़ कर चली गई।
नज़मा, नाज़नीन एवं अफज़ल को मानसी ने उनकी योग्यता के अनुसार अलग-अलग समूह में पढ़ने के लिये बिठा दिया। अफज़ल को मुस्कान के सुपुर्द किया। वह सबसे छोटे बच्चों का समूह था जिन्हें अक्षर ज्ञान कराना था। नाज़नीन को बबिता के सुपुर्द किया गया। वे बच्चे कुछ जानते थे। नज़मा को निशा ने सम्हाला।
मानसी ने अपने आवास पर निर्धन बच्चों को शिक्षा देने का कार्य प्रारम्भ किया था। जो बच्चे स्कूल नहीं जाते थे या वहाँ से भाग आते थे उन बच्चों को मानसी घर पर ही पढ़ाती थी। पहले वह अकेली थी पर अब शिक्षा देते हुए पंद्रह साल हो चुके थे। अपनी सहायता के लिये उसने अपने यहाँ के शिक्षित मेधावी बच्चों को शिक्षिका नियुक्त कर लिया था जिन्हें वह प्रतिदिन के हिसाब से पढ़ाने के लिये कुछ धनराशि प्रदान करती थी। इससे उन बच्चों को प्रतिदिन आने का उत्साह बना रहता था और उनमें आत्मविश्वास भी बढ़ता था। उन्हें अपनी शिक्षा के लिये धन भी उपलब्ध हो जाता था। बच्चों की प्रगति देख कर कुछ शिक्षित महिलायें स्वेच्छा से अवैतनिक रूप से सहायता करने आने लगी थीं। जिन मेधावी बच्चों को उनके माता-पिता आर्थिक तंगी के कारण उच्च शिक्षा नहीं दिला सकते थे, उनकी सहायता के लिये कई लोग आगे आकर उन बच्चों की शिक्षा का उत्तरदायित्त्व सम्हाल लेते थे। बिना किसी सरकारी सहायता के मानसी की संस्था दिन-प्रतिदिन प्रगति कर रही थी। कौंवेंट की सेवानिवृत्त अध्यापिका श्रीमती कपूर अत्यंत एकाग्र होकर बच्चों को गणित सिखाने का प्रयत्न कर रही थीं एवं बहुत परिश्रम से अँग्रेज़ी ग्रामर कंठस्थ करके श्रीमती वाजपेयी उन्हें अँग्रेज़ी सिखा रही थीं। हिंदी का ज़िम्मा श्रीमती सिंह एवं मानसी ने ले रक्खा था। इसी बीच एक अन्य अध्यापिका श्रीमती स्वप्निल कपूर ने भी आना प्रारम्भ कर दिया।
मानसी को नज़मा के प्रति विशेष सहानुभूति थी। वह बहुत चंचल छात्रा थी और सभी अन्य शिक्षिकाओं ने उसे पढ़ाने से हाथ जोड़ लिये थे। मानसी ने उसे स्वप्निल कपूर को सौंपा पर वह भी माफ़ी माँगने लगीं। हारकर मानसी ने नज़मा को अपने पास पढ़ाना प्रारम्भ किया। अपनी सहायता के लिये स्वप्निल को भी वह अपने पास बिठा लेती थी। कभी-कभी मानसी का भी जी चाहता कि वह नज़मा को एक ज़ोर से थप्पड़ मारे या उसको घर भेज दे पर ऐसे समय नज़मा की माँ की आँसू भरी आँखों की स्मृति से वह रुक जाती और उसे पास बुलाकर प्यार से ठीक से पढ़ने के लिये समझाती। उसने बच्चों को मारने की छूट किसी को नहीं दी थी स्वयं को भी नहीं।
नज़मा का दाख़िला राजकीय कन्या पाठशाला में पाँचवीं कक्षा में हो गया। अब उसकी चंचलता कुछ कम होने लगी थी। मानसी को नज़मा के व्यवहार में एक अंतर दिखाई दे रहा था जिसे देख कर उसकी अंतरात्मा को कष्ट होता था। नज़मा के मुख पर जो एक स्वाभाविक मुस्कान और उत्फुल्लता थी वह कम हो गई थी। उसकी गम्भीरता के लिये समझा जा सकता था कि स्कूल जाती है अतः उसके कारण गम्भीरता आ रही है। किशोरावस्था में चेहरे पर मुर्दनी का भाव ठीक नहीं होता। मानसी का मन नहीं माना तो उसने नज़मा को अपने पास एकांत में बुलाया और प्रश्न किया– "नज़मा! क्या बात है? क्या तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है? तुम इतनी चुप-चुप और उदास क्यों रहती हो?"
"जी कुछ नहीं, मैं ठीक हूँ," नज़मा ने उत्तर दिया।
"देखो नज़मा मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ। तुम्हें कोई परेशानी हो तो बताओ। घर में कुछ दिक़्क़त हो तो . . ."
मानसी का वाक्य पूरा हो पाता उससे पूर्व ही नज़मा उससे लिपट गई और सिसक-सिसक कर रोने लगी। मानसी ने उसके आँसू पोंछते हुए प्रश्न किया– "नज़मा! मुझे बताओ क्यों रो रही हो?"
"आंटी! क्या आप मेरे पापा को बुला कर समझा सकती हैं?"
"क्या बात है? पूरी बात तो बताओ," मानसी ने पूछा।
"आंटी! मेरे पापा रोज़ शराब पीते हैं। मम्मी मना करती हैं तो मानते नहीं। कुछ दिनों पहले मम्मी-पापा में इसी बात पर झगड़ा हुआ तो पापा ने मम्मी पर हाथ उठा दिया। मम्मी इस बात पर ग़ुस्सा होकर नानी के यहाँ चली गईं। अब मम्मी यहाँ आने को मना कर रही हैं। हमें मम्मी की बहुत याद आती है," सिसक-सिसक कर जब नज़मा ने कहा तो मानसी का हृदय उस किशोरी के दुख से द्रवित हो उठा। उसने उसे समझाते हुए कहा– "अपनी नानी का पता और माँ का फोन नम्बर मुझे लिख कर दे दो। तुम्हारे पापा को बुलाना ठीक नहीं रहेगा।"
नज़मा के घर जाने के बाद मानसी ने देखा कि केवल जास्मीन और श्रीमती वाजपेयी अभी नहीं गई हैं। जास्मीन नज़मा के घर के बग़ल में रहती है। मानसी ने जास्मीन से पूछा– "नज़मा की मम्मी क्या घर पर नहीं हैं?"
"जी आंटी! नज़मा के पापा बहुत शराब पीते हैं और बच्चों के ख़र्च के लिये पैसे भी नहीं देते। एक सप्ताह पहले उसके पापा-मम्मी में ख़ूब झगड़ा हुआ जिसमें पापा ने मम्मी को थप्पड़ मार दिया। नज़मा की नानी स्टेशन रोड पर रहती हैं अतः उसकी मम्मी ग़ुस्सा होकर मायके चली गईं और घर आने को मना कर दिया है।"
श्रीमती वाजपेयी बोलीं– "नज़मा एवं उसके भाई-बहिन के कपड़े देख कर तो नहीं लगता कि वे लोग तंगी में रहते हैं।"
जास्मीन ने उत्तर दिया– "ये लोग दादा-दादी के साथ रहते हैं। अन्य रिश्तेदार अच्छे खाते-पीते हैं अतः कपड़ों की व्यवस्था तो हो जाती है। नज़मा की मम्मी भी अच्छे घर की हैं। उनके घरवाले कह रहे हैं कि वे नज़मा की मम्मी का तलाक़ करा देंगे। पापा सुधरेंगे नहीं तो वह घर नहीं आयेंगी।"
मानसी और श्रीमती वाजपेयी ने फोन से नज़मा की मम्मी को बहुत समझाया तो वह बच्चों की ख़ातिर वापस आ गईं।
नज़मा अब सम्हल गई और पढ़ने में ध्यान लगाने लगी। धीरे-धीरे उसकी विशेषतायें निखर कर सामने आनें लगीं। उसका गला तो इतना सुरीला था कि सबका ध्यान आकर्षित करता था। नृत्य में भी वह पारंगत हो गई थी। स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में उसकी प्रतिभा निखर कर सामने आती थी।
नज़मा अब दसवीं पास करके ग्यारहवीं कक्षा में आ गई थी। उसका दाख़िला हो गया था पर इस बार न जाने क्यों वह न मानसी के घर पर पढ़ने आ रही थी और न कॉलेज गई थी।
एक दिन मानसी प्रातः बाहर बैठी थी कि उसने बुर्का ओढ़े एक स्त्री को अपने पास आते देखा। जब उसने समीप आकर इधर-उधर देख कर सावधानी से अपना मुख खोला तो नज़मा की मम्मी आतिशा को सामने देख कर मानसी चौंक पड़ी।
नज़मा की मम्मी धीरे से समीप बैठकर बोली– "आंटी जी! मैं बड़ी हिम्मत करके छुपते-छुपाते आपके पास आई हूँ। आप जानती ही हैं कि मेरे शौहर बहुत शराब पीते हैं। मैं उनको छोड़ कर चली गई थी पर आपके समझाने पर बच्चों की ख़ातिर वापस आ गई और अब तक निभाती रही। मुझे पता लगा है कि उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। वह सात महीने से घर नहीं आये हैं। मैं बर्दाश्त करती रही। अब उन्होंने नज़मा की पढ़ाई रोक दी है और उसकी शादी तय कर दी है।"
"तुम मुझसे क्या चाहती हो?" मानसी ने प्रश्न किया।
"आंटी! मुझे किसी से पता लगा है कि वह लड़का कुँवारा नहीं दुहेजू है। उसकी बीबी मर गई है और दो बच्चे भी हैं। मुझे कहने में शर्म आ रही है कि मेरे शौहर इतने गिर गये हैं कि उन्होंने उस आदमी से रुपये ले लिये हैं। उन्हें अपनी बेटी को बेचते शर्म नहीं आती!" कहते-कहते नज़मा की मम्मी आतिशा का मुख ग्लानि और उत्तेजना से लाल हो उठा।
यह सुनकर मानसी कुछ क्षणों तक सन्न रह गई। उसके कानों में सीटी सी बजने लगी और नज़मा का भोला चेहरा उसके नेत्रों के सामने कौंध गया। इस प्रतिभाशाली बच्ची का इस प्रकार शोषण होगा इसकी कल्पना उसने नहीं की थी। उसने नज़मा की एक उभरते हुए कलाकार के रूप में कल्पना की थी।
किसी तरह उसने आत्मबल एकत्रित किया और फिर नज़मा की मम्मी से प्रश्न किया– "तुम्हारा नाम क्या है?"
"जी मेरा नाम आतिशा है," विस्मित होकर उसने मानसी की ओर देखा।
"तुमको आतिशा का मतलब मालूम है? आतिशा का अर्थ है अग्नि, आग। तुमने देखा है न कि आग जब तक शांत रहती है, भोजन पका कर सबका पालन करती है और जब विध्वंस पर आ जाये तो सब कुछ जला कर राख कर देती है।"
"आंटी! मैं समझी नहीं कि आप क्या कहना चाहती हैं? यानि आपका मतलब क्या है?" कुछ आश्चर्य से मानसी की ओर देखते हुए आतिशा ने पूछा।
"जब तुम्हारे साथ इतना अत्याचार हो रहा है तो तुम क्यों सह रही हो? अपने पैरों पर क्यों नहीं खड़ी होतीं? तुम्हारे जीते जी तुम्हारे पति तुम्हारी बेटी को बेचने का साहस कैसे कर सकते हैं? तुम शेरनी बनकर अपनी बच्ची को बचाने का साहस करो। नज़मा भी शिक्षित है वह भीगी बिल्ली बन कर क्यों बैठ गई है? तुम लोग स्पष्ट रूप से नज़मा की अयोग्य व्यक्ति से शादी करने से मना कर दो। तुम तो आतिशा हो जो तुम्हारे रास्ते में आये उसे अपनी ज्वाला से भस्म कर दो। जब पिता बेटी का पालन-पोषण नहीं करता तो उसे उसकी शादी करने का हक़ नहीं है और बेचने का तो बिल्कुल नहीं। आगे बढ़ो और सामना करो," एक श्वास में मानसी बोलती चली गई।
"आंटी! मैं अकेले क्या कर पाऊँगी?" हताशा भरे स्वर में आतिशा बोली।
"तुम हिम्मत तो करो। जब तुम्हारे पति ने तुम्हें छोड़ दिया है तो उनकी बात तुम सुनती क्यों हो? अपने पति से अलग होकर अपने पैरों पर खड़ी हो और अपने विवेक एवं साहस से काम लो। तुम्हें साथ देने वाले अपने आप जुड़ते जायेंगे।"
"मुझे नौकरी कौन देगा? शादी के लिये पैसे कहाँ से लाऊँगी?" आतिशा ने चिंतित स्वर में प्रश्न किया।
"नज़मा की उच्च शिक्षा की ज़िम्मेदारी तो मैंने ले ही ली है। उसे संस्था के बच्चों को पढ़ाने के लिये शिक्षिका नियुक्त कर देती हूँ। नज़मा ने बताया था कि तुम सिलाई जानती हो। बच्चों को सिलाई सिखाने के लिये मैं तुम्हें शिक्षिका रख दूँगी। नाज़नीन और अफज़ल को भी छात्रवृत्ति दिलवा दूँगी तो तुम्हें कुछ सहारा हो जायेगा," मानसी ने समझा कर कहा तो आतिशा की आँखों में चमक आ गई।
"आंटी! आप मेरे साथ हैं तो अब मैं किसी की परवाह नहीं करूँगी। मैं देखती हूँ कि नज़मा के अब्बू उसका निकाह कैसे करते हैं? मैं उसे आज से ही पढ़ने भेजूँगी," कहते हुए वह तेज़ी से जाने के लिये उठ खड़ी हुई।
मानसी ने देखा कि . . . आतिशा अब डरी सहमी स्त्री नहीं थी। उसके नेत्रों में आत्मविश्वास का तेज था। उसमें साहस था कि अपनी बच्ची की रक्षा कर सके। उसे देख कर लग रहा था कि वह ज्वाला बन चुकी है। वह अपनी मंज़िल पर पहुँचने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ बन चुकी है। जो भी उसके रास्ते में आयेगा उसे आतिशा बन कर राख कर देगी।
1 टिप्पणियाँ
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बहुत संवेदनशील विषय पर बढ़िया कहानी
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