पटाक्षेप भाग - 3
नीरजा द्विवेदीभाग - 3
एकेडमी के गेस्ट हाउस में पहुँचकर अनिमेष ने सुपूजित, मृणालिनी और अवन्तिका को जब सारी योजना समझाई तो सबके हृदय में निरंजना के प्रति स्नेह और आदर की भावना उत्पन्न हो गई। अवन्तिका में भी साहस का संचार हुआ और वह भी अभिनय के लिये प्रस्तुत हो गई।
अगले दिन ज्ञानेन्द्र सुबह ग्यारह बजे मामा के घर पहुँच गया। अपने माता-पिता, मामा-मामी सभी को वहाँ एकत्रित देखकर उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। अभी तक उसे कोई बात बताई नहीं गई थी अतः वह बड़ी व्याकुलता से जानने का प्रयास कर रहा था। मामा ने कहा – “तसल्ली रक्खो। जरा हाथ मुँह धो लो। कुछ खा-पी लो तब निश्चिन्त होकर बात करेंगे।”
ज्ञानेन्द्र शीघ्रता से बाथरूम में घुस गया। उत्सुकता के कारण शीघ्रता से तीन-चार लोटे पानी सिर पर डाल और कपड़े बदल कर आ गया। निरंजना जब प्लेट में नाश्ता लेकर चपलता से हँसती हुई आई तो ज्ञानेन्द्र असमन्जस में पड़ गया। उसकी बुद्धि ही काम नहीं कर रही थी। उसने डपटते हुए कहा – “क्या खीसें निपोर रही है? चल जल्दी बता बात क्या है?”
निरंजना हँस कर बोली – “बिल्कुल परी है परी।”
“कौन परी है” - उत्सुकता से ज्ञानेन्द्र ने पूछा।
“अरे वही कानपुर वाले सुपूजित अंकिल की बेटी -। हाँ क्या नाम है उसका ........ याद आया – अवन्तिका,” मुँह बनाते हुए निरंजना ने कहा।
“तो मैं क्या करूँ?” ज्ञानेन्द्र ने पूछा।
“तो ब्याह क्या मेरा होगा उससे?" निरंजना ने चिढ़ाते हुए कहा।
“क्या बक रही हो मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है,” ज्ञानेन्द्र ने कहा।
निरंजना कुछ कहना चाहती थी, पर सबको आते देखकर चुप हो गई। वाजपेई जी ज्ञानेन्द्र के पास आकर बैठ गये। कुशल क्षेम पूछकर बोले - “बेटा एक खास काम से तुम्हें बुलाया है। कानपुर के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी श्री सुपूजित तिवारी आये थे। उनकी पत्नी व बेटी भी साथ आई थी। उनका भतीजा यहाँ इन्कम टैक्स एकेडमी में प्रशिक्षणार्थी है। बेटी तो साक्षात् लक्ष्मी रूपा है। सुन्दर इतनी कि आँखें चौंधिया जाती हैं। तिवारी जी की एकमात्र सन्तान यही बेटी है।"
“लड़की भी सुन्दर है और पैसे वाले हैं तो उन्हें लड़कों की क्या कमी है?” ज्ञानेन्द्र ने पूछा।
“कमी है। वह शाकाहारी, धूम्रपान और मद्यपान न करने वाला दामाद खोज रहे हैं। एकेडमी में उन्होंने कई लड़के देखे, पर उनको जँचे नहीं। तुम्हारे मित्र सुनील ने तुम्हारा नाम बताया तो वे हमारे पास आये थे। भैय्या दीपक लेके खोजोगे तो इतना अच्छा घर और इतनी सुन्दर कन्या नहीं मिलेगी। सब लोग राजी हैं। तुम्हारे ’हाँ’ कहने की देर है” - वाजपेई जी बोले।
“आप मजाक करते हैं मामा। पहले मल्लिका का रिश्ता तोड़ा। अब आप वन्दना का रिश्ता तोड़ने को कह रहे हैं। वन्दना के घरवालों को क्या कहेंगे?” ज्ञानेन्द्र ने पूछा।
“कुछ भी कह देंगे। कह देंगे लड़की की जन्मपत्री नहीं मिली.” - माँ ने जोर देते हुए कहा।
माता-पिता, मामा-मामी के जोर देने पर ज्ञानेन्द्र भी लोभ संवरण न कर सका। विवाह एक बार ही तो होता है। खूब ठोंक-बजाकर करना चाहिये। ज्ञानेन्द्र के हाँ कर देने पर सब विचार-विमर्श करने लगे कि वन्दना के घरवालों को कैसे मना किया जाये। इस विषय पर विचार-विमर्श में अधिक समय नहीं लगा क्योंकि तब तक पोस्टमैन “चिठ्ठी” कहकर एक लिफाफा अन्दर डाल गया था। निरंजना ने धड़कते हृदय से दौड़कर लिफाफा उठाया। उलट-पलटकर देखा - वन्दना मिश्रा देखकर मन ही मन पुलकित हो उठी। ज्ञानेन्द्र ने लपक कर पत्र उठाया। सोचा उसके लिये होगा। अन्दर खोलकर देखा तो पत्र उसकी माँ के लिये था -
आदरणीया आन्टी जी
सादर प्रणाम।
मैं यह पत्र बहुत सोच-विचार कर लिख रही हूँ। जब मल्लिका का विवाह तोड़कर मुझसे सगाई की गई थी तो चाहते हुए भी मैं अपने माता-पिता की बात न टाल सकी। जैसे-जैसे विवाह का समय निकट आ रहा है, मेरी अन्तरात्मा विद्रोह कर रही है। किसी के स्वप्नों की चिता जलाकर मैं अपनी सेज नहीं सजा सकती। मुझे क्षमा करें। मैं आपकी पुत्रवधू नहीं बन सकती। यदि मैंने ऐसा किया तो मेरी अन्तरात्मा मुझे कभी चैन से नहीं बैठने देगी। अपनी दृष्टि में गिर जाने से अधिक करुणाजनक कुछ और नहीं है।
क्षमाप्रार्थिनी -
वन्दना मिश्रा
निरंजना ने पत्र पढ़ा तो उसके नेत्रों में आँसू छलक उठे। माँ ने समझा भाई की शादी टूटने का दुःख है। यह निरंजना ही जानती थी कि वन्दना के प्रति असीम गर्व और श्रद्धा उसके नेत्रों में तरलता बन छलक उठी थी।
ज्ञानेन्द्र का मुख पत्र पढ़कर अपमान से विवर्ण हो गया। उसके माता-पिता और मामा-मामी भी सकते में आ गये। वाजपेई जी ने अपने पर संयम रखकर कहा - “चलो छुट्टी हुई। अपने आप जंजाल कट गया। चलो कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रही। क्यों मुँह लटकाये हो? मैं अभी सुनील के पास जाता हूँ और तिवारी जी को आमन्त्रित करके आता हूँ। निरंजना बेटी ६-७ लोगों के लिये चाय नाश्ते का इन्तजाम कर लेना। सब्जी - पनीर वगैरह लाकर रख लेना। हो सकता है रात के भोजन का भी प्रबन्ध करना पड़े।” वाजपेई जी कहते हुए घर से बाहर निकल गये। निरन्जना मेहमानों के आवभगत के प्रबन्ध में जुट गई। मारे प्रसन्नता के वह गुनगुनाने लगी।
शाम को ५ बजे वाजपेई जी के साथ सुपूजित तिवारी, मृणालिनी, अनिमेष, अवन्तिका, सुनील और विभा भी आये। विवाहित होकर भी अनजान व्यक्ति के सामने विवाह के लिये प्रस्तुत होने की अजब परिस्थिति में अवन्तिका का मुख लज्जा से रक्ताभ हो उठा। ज्ञानेन्द्र ने इसे स्वाभाविक लज्जा समझा और अवन्तिका को देखकर पलक झपकना भूल गया। उसकी हास्यास्पद स्थिति पर निरन्जना मुस्कुरा उठी और कोहनी से ठेलते हुए बोली - “भैय्या।” ज्ञानेन्द्र ने चौंकते हुए सबको नमस्ते की और चुपचाप बैठ गया। वह बार-बार अवन्तिका की ओर देखने से अपने को नहीं रोक पा रहा था। ज्ञानेन्द्र औ वन्तिका के अतिरिक्त सब लोग रस्पर वार्तालाप में व्यस्त हो गये - ज्ञानेन्द्र अपनी लुब्ध दृष्टि से अवन्तिका के रूप सौन्दर्य का पान कर रहा था। अवन्तिका इस नाटक में फँसकर मन ही मन क्रुद्ध हो रही थी। उसका बस चलता तो ज्ञानेन्द्र की आँखें फोड़ देती। कभी-कभी अनिमेष की और उसकी दृष्टि मिलती तो अनिमेष चिढ़ाने के भाव में मुस्कुरा कर आँख दबा देता और अवन्तिका मन ही मन कट कर रह जाती। निरन्जना ने आकर उसे उबार लिया - “चलिये आपको घर दिखा लाऊँ। छत से पूरा शहर दिखता है।”
छत पर आकर, अवन्तिका और विभा ने चैन की साँस ली। निरन्जना ने उसे फुसफुसा कर बताया कि “वन्दना को परसों वह समझाकर आई थी। उसने पत्र लिखकर शादी के लिये मना कर दिया है। सबके चेहरे देखने लायक हो गये थे।” पीछे से पगचाप सुनकर निरन्जना ने देखा कि ज्ञानेन्द्र ऊपर आ रहा है तो वह विभा व अवन्तिका को लेकर नीचे उतर आई। सब लोग भोजन के उपरान्त घर चले गये। जाते समय वाजपेई जी के पूछने पर सुपूजित ने कहा - “मैं अपनी पुत्री से पूछ लूँगा तब कुछ निर्णय लूँगा। ऐसी भी क्या जल्दी है?” वाजपेई जी, ज्ञानेन्द्र और उसके माता पिता खिसिया कर रह गये।
अगले दिन सुनील ने वाजपेई जी के घर आकर उनसे कहा - “अनिमेष के चाचा-चाची तो सहमत हैं। अभी लड़की सहमत नहीं है। कुछ दिन समझाकर तब उत्तर देंगे। हाँ उन्हें आपकी बेटी निरन्जना बहुत पसन्द आई। वे लोग उसे अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं।”
वाजपेई जी की बाँछे खिल उठीं। उनको तो बिन माँगे सब कुछ मिल गया। ज्ञानेन्द्र का विवाह तय न होने से कुछ निराशा थी, वह इस समाचार से दूर हो गई। उन्होंने बहिन को समझाया - “उन्होंने ’ना‘ थोड़े ही की है। यदि ’हाँ‘ नहीं करेंगे तो और लड़कियाँ मिलेंगी। मेरे, भान्जे के लिये रिश्तों की कमी है क्या?”
सुनील ने कहा - “अंकल यदि आप निरंजना और अनिमेष के रिश्ते के लिये हाँ करें तो चाचा जी जाने से पहले रोक करने को तैय्यार हैं। अनिमेष के पापा बहुत बीमार हैं अतः वह तो आयेंगे नहीं। चाचा जी को ही उन्होंने अनिमेष के विवाह करने का कार्य सौंप दिया है।”
अगले दिन वाजपेई जी ५ डिब्बे मिठाई और एक टोकरी फल लेकर सुपूजित से मिलने एकेडमी गेस्ट हाउस में पहुँच गये। अनिमेष और सुनील बड़ी कठिनाई से वाजपेई जी को सब दोस्तों से अलग रख सके क्योंकि अनिमेष के विवाहित होने का भेद खुल सकता था। चाँदी की तश्तरी में एक गिन्नी रखकर वाजपेई जी ने अनिमेष की रोक कर दी और अनिमेष ने उनके पैर छू लिये। शाम को अनिमेष ने चाँदी की तश्तरी में गिन्नी एक साड़ी-ब्लाउज के साथ रखकर निरंजना को दी। उसमें एक पत्र भी था। घरवालों ने निरंजना को बधाई दी। निरंजना ने अन्दर जाकर पत्र पढ़ा -
“मेरी प्यारी बहिन निरंजना, अपने भाई की ओर से यह सौगात अपने पास रखना। यह नाटक करना अत्यन्त कष्टकर है, परन्तु तुम्हारी इच्छा के आगे मैं नतमस्तक हूँ। तुम नारी जाति का गौरव हो। काश तुम वास्तव में मेरी बहिन होती। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हें तुम्हारे उद्देश्य में सफलता मिले। मैं और तुम्हारी भाभी सदैव तुम्हारे आभारी रहेंगे।
सस्नेह तुम्हारा भाई -
अनिमेष।
निरंजना पत्र पढ़कर भवविह्वल हो उठी। उसने उठकर पत्र धीरे से अपनी अल्मारी के लाकर में रख दिया। अल्मारी बन्द करते समय उसने देखा कई जोड़ी आँखें उसकी भाव-भंगिमाओं का उत्सुकता से निरीक्षण कर रही हैं। निरंजना ने लजाने का नाटक किया और हाथों से मुँह छिपाकर दूसरे कमरे में चली गई।
तीन दिन बाद सुपूजित और मृणालिनी वापस घर जाने वाले थे। जाने से पूर्व वह वाजपेई जी के सब रिश्तेदारों से मिलना चाहते थे। वाजपेई जी ने अपने घर पर दो दिन बाद रात्रिभोज का आयोजन किया। अपने सब रिश्तेदारों और पड़ोसियों को उन्होंने निमन्त्रित किया। अपनी पुत्री के लिये इतना बड़ा अधिकारी दामाद प्राप्त कर लेना क्या कम गौरव की बात है? मेरी बेटी निरंजना का सा भाग्य हर लड़की का हो। घर बैठे इतना सुशील, सुन्दर, धनाढ्य और उच्च पदासीन दामाद मिल गया।” वाजपेई जी अपना भागय सराहते हुए सबको निमन्त्र देने और रात्रिभोज की तैय्यारी कराने में व्यस्त हो गये।
दो दिन व्यतीत होते देर नहीं लगी। सुबह से ही सड़क पर शामियाना लगाकर कुर्सी-मेज और सोफों का प्रबन्ध हो रहा था। किनारे के पेड़ों और घर पर नीले-सफेद बल्बों की झालर लगाई गई थी। बड़े नीम के पेड़ के नीचे हलवाई खाना बना रहे थे। शाम के सात बजे तक घर व पन्डाल सुसज्जित हो चुका था।
सुपूजित, मृणालिनी, अनिमेष, अवन्तिका, सुनील, विभा के आने पर वाजपेई जी ने बड़े आदर से उनका स्वागत किया। उनके सारे रिश्तेदार और पड़ोसी एकत्रित थे। उन लोगों का सबसे परिचय कराया गया। जहाँ सब अनिमेष को देखकर निरंजना के भाग्य की सराहना करते, अवन्तिका को देखकर आह भरते-काश ऐसी बहू हमारे यहाँ भी होती। अत्यन्त प्रसन्नता के वातावरण में रात्रि भोज समाप्त हुआ। सुपूजित और मृणालिनी सबके साथ विदा हुए, पर सतत् चर्चा का विषय छोड़ गये। अगले दिन प्रातः सात बजे की ट्रेन से सुपूजित और मृणालिनी-अवन्तिका को लेकर विदा हो गये और ज्ञानेन्द्र और उसके परिवार को असमन्जस के भँवर में छोड़ गये। लड़की पता नहीं सहमति देगी कि नहीं। अनिमेष को भारत दर्शन के लिये एक सप्ताह में ही नागपुर से बाहर जाना था अतः वह निरंजना से मिलने की विकट परिस्थिति से बच गया। तीन सप्ताह बाद लौटना था। निरंजना अपने घरवालों को अनिमेष की मीठी यादों में डूबते-उतराते देखती तो मन ही मन मुस्कुरा उठती।
अनिमेष के भारत दर्शन से लौटने का समय आ रहा था। अनिमेष और सुनील परेशान थे कि अब इस नाटक का पटाक्षेप कैसे किया जाये? अचानक सुनील को एक विचार सूझा। भारत दर्शन से लौटने के पश्चात् सबको दस दिन का अवकाश मिला था। अनिमेष घर जाकर अपने पापा से एक पत्र वाजपेई जी को लिखवाये जिसमें यह शादी न करने के लिये लिखा हो।
अनिमेष यह सुनकर उछल पड़ा। शादी तो पापा ने चाचा बनकर तय की है। अब पापा को मना करने का पूरा अधिकार है। लखनऊ पहुँचकर अनिमेष ने सुपूजित से वाजपेई जी को पत्र लिखवाया -
“आदरणीय वाजपेई जी
आशा है आप कुशल से होंगे। मैं बड़ी दुविधा में हूँ। समझ में नहीं आ रहा है कि किस तरह अपनी बात कहूँ। अपने मुख से आपकी बेटी को अनिमेष के लिये माँगा था, पर दैव को यह स्वीकार नहीं। शादी तय होने के हफ्ते भर बाद ही मेरी सबसे बड़ी भाभी (अनिमेष की ताई) की मृत्यु हो गई। बेटी निरंजना को वधू रूप में स्वीकार करने के लिये मेरे घर के सदस्य, विशेषकर लड़के के माता-पिता सहमत नहीं हैं। मेरी बेटी अवन्तिका भी ज्ञानेन्द्र से विवाह करने को प्रस्तुत नहीं है। मैं आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ।
आपका -
सुपूजित तिवारी।
अनिमेष के साथ सुपूजित भी सपरिवार नागपुर आये। पत्र स्थानीय डाक में डाल दिया गया।
पोस्टमैन पत्र लेकर आया तो निरंजना ने पत्र लाकर पिता को दे दिया। वाजपेई जी ने पत्र पढ़ा तो उनके ऊपर तो जैसे वज्रपात हो गया। वह लहराकर चारपाई पर बैठ गये। वाणी रुद्ध, माथे पर पसीना, मुँह विवर्ण। लगा कहीं उनका रक्तचाप न बढ़ जाये। निरंजना की माँ तो पत्र पढ़कर बेहोश हो गई। नाटक की मुख्य अभिनेत्री निरंजना अपने माता-पिता की दशा देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। वह कभी मूर्च्छित माता पर पानी डालती, कभी पिता का माथा सहलाती।
दरवाजे पर घन्टी बजी तो निरंजना ने दरवाजा खोला। सुनील, विभा और एक सुदर्शन युवक को खड़े देखकर वह आश्चर्यचकित हो उठी। सुनील ने शीघ्रता से निरंजना की माता को धरती से उठाकर बिस्तर पर लिटाने में सहायता की। आगन्तुक युवक ने अपना हैण्डबैग खोलकर एक इन्जेक्शन निरंजना की माता की बाँह में लगाया। थोड़ी देर बाद उन्होंने आँखें खोल दी। सुनील व विभा के वाजपेई जी को हौसला दिलाने पर वह भी अपने को सुव्यवस्थित करने का प्रयास करने लगे। थोड़ी देर में सुनील के फोन करने पर सुपूजित भी सपरिवार आ गये।
निरंजना ने माता-पिता के स्थिर होने पर कहा - “पापा, मम्मी आप लोगों ने ज्ञानेन्द्र भैय्या का विवाह मल्लिका से तुड़वाया। जब आपकी बेटी के साथ ऐसा हुआ तो आप लोगों के होश उड़ गये। आप लोग दूसरे की बेटियों के साथ ऐसा कर रहे थे तो आपको रंच मात्र भी दुःख नहीं होता था। आप लोगों को सबक सिखाने के लिये हम लोगों ने यह नाटक रचाया था।”
वाजपेई जी ने अविश्वास से अपनी बेटी को देखा तो - सुपूजित ने कहा - “अनिमेष मेरा बड़ा बेटा है। अवन्तिका मेरी बहू है। आपकी पुत्री निरंजना यह जानती थी। वह आप लोगों को शिकस्त देना चाहती थी। आपको अब पर्याप्त दण्ड मिल गया। आपकी बेटी हीरा है। यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं निरंजना बेटी को अपने छोटे बेटे विनिमेष, जो डाक्टर है, के लिये माँग रहा हूँ।
वाजपेई जी ने कृतज्ञता से सुपूजित के चरणस्पर्श किये। निरंजना ने आश्चर्य से उस अजनबी युवक की ओर दृष्टि उठाई। उसे अपनी ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए देख उसके नेत्र लज्जा से झुक गये।
सुना है ज्ञानेन्द्र ने मल्लिका को पत्र लिखकर क्षमा-याचना की है।
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