भटका हुआ गंधर्व
नीरजा द्विवेदीएक प्रमुख नगर की मुख्य सड़क है जिस पर हर समय चहल-पहल रहती है। प्रातः एवं सायं ऑफ़िस जाने वाले लोग कार, स्कूटर, साइकिल, रिक्शा से भागे चले जाते हैं। यही सड़क स्टेशन को भी जाती है तो यात्रियों की भीड़ भी दिन भर आती–जाती रहती है। इस आवागमन के अतिरिक्त इस सड़क से श्मशान घाट जाने का रास्ता भी है जिससे भवसागर पार जाने वाले लोगों के परिजनों की टोलियाँ अपने-अपने परिजनों की अंतिम क्रिया के लिये रामनाम का जाप करते घाट की ओर जाती हैं।
इस प्रमुख सड़क पर कई आवास स्थित हैं। यहीं पर एक लाल रंग का दुमंज़िला मकान भी है जिसमें एक परिवार रहता है। श्याम एवं शशि नामक दम्पती इसकी ऊपरी मंज़िल पर रहते हैं। उनके दो कन्या एवं एक छह माह का शिशु पुत्र है। छोटी कन्या वृष्टि तीन वर्ष की हँसमुख और बहुत चंचल है। बड़ी कन्या सृष्टि पाँच वर्ष की है पर उसके मुख पर गम्भीरता है। वह खिड़की पर बैठी न जाने किस सोच में डूबी रहती है। छोटी हँसती है, खिलखिलाती है परंतु बड़ी केवल मुस्करा देती है। उसे बच्चों की तरह खिलखिलाते कम ही देखा जाता है। दिन निकलता है, रात होती है और जन-जीवन निःस्पृह भाव से चलता रहता है पर सृष्टि के मुख की गम्भीरता और मौन का भाव बना रहता है।
दुमंज़िले मकान के सामने, सड़क के दूसरी ओर पुलिस थाना है जिसके ऊपर के आवास में सी.ओ.सिटी रहते हैं। उनका छोटा भाई आलोक डॉक्टर है। जब भी सामने के घर की खिड़की पर आलोक की दृष्टि जाती है तो वहाँ बैठी उस बालिका के मुख के गाम्भीर्य को देख कर वह असमंजस में पड़ जाता है। उसके मन में विचार आता है कि इसके माता-पिता इस बच्ची के ऊपर ध्यान नहीं देते हैं या यह बीमार है। वह अपने को रोक नहीं पाता और श्याम के घर मिलने पहुँच जाता है। उसे वह परिवार बहुत भला मालूम देता है। तीनों बच्चे स्वस्थ एवं बहुत प्यारे थे। बड़ी सृष्टि गम्भीर थी पर होशियार थी। ऐसा नहीं प्रतीत हुआ कि बड़ी बेटी का ध्यान नहीं रक्खा जाता या उसे प्यार नहीं किया जाता।
आलोक घर आ गया पर उसके मन से इस भोली बालिका का विचार नहीं निकल रहा था। कुछ तो असाधारण है उसमें। आलोक स्वयं मनोचिकित्सक था अतः उसका बार-बार इसी बात पर ध्यान जाता था। उसने कई बार देखा था कि जब भी कोई अर्थी जाती है तब सृष्टि बहुत ध्यान से उसे देखती है। "राम नाम सत्य है" की आवाज़ आते ही वह घर में अंदर होती है तो बाहर आकर खिड़की पर बैठ जाती है और तब तक उस अर्थी की ओर देखती रहती है जब तक कि वह दृष्टि से ओझल नहीं हो जाती। उसे पाँच वर्ष की बालिका के विचार से सृष्टि का व्यवहार असामान्य प्रतीत होता है। उसने सोचा कि मुझे सृष्टि के पापा से इस विषय में बात करनी चाहिये।
एक दिन आलोक सृष्टि के पापा से समय लेकर उनसे मिलने पहुँच जाता है। वह उनसे कहता है, "भाईसाहब! आप अन्यथा न लीजिये तो मैं आपसे एक व्यक्तिगत बात करना चाहता हूँ।"
श्याम और आलोक में पूर्व में परिचय हो ही चुका था अतः श्याम ने हँसकर कहा, "अरे भाई! बेतकल्लुफ़ होकर कहो। क्या बात है?"
आलोक ने कहा, " मैं मनोचिकित्सक हूँ। मुझे लगता है कि आज के समय में सभी को मानसिक तनाव से गुज़रना पड़ता है। विशेषकर बच्चों में मैं अध्ययन कर रहा हूँ कि बच्चों की मानसिक अवस्था पर शुरू से ही ध्यान न रक्खा जाये तो आगे चलकर अनेक समस्यायें उठ खड़ी होती हैं। यहाँ तक कि आत्महत्या की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हो जाती है। आपकी बड़ी बेटी बहुत प्यारी है पर उसकी गम्भीरता को लेकर मुझे चिंता होती है। कोई ऐसी बात है उसके मन में जो उसे असामान्य बनाती है।"
श्याम ने उत्तर दिया, "आलोक! आपको भ्रम हो रहा है। वह अपनी आयु के हिसाब से बहुत समझदार है और पढ़ने के अतिरिक्त अन्य घर के कार्यों में अपनी माँ की सहायता करती है। यह अवश्य है कि वह गम्भीर है और अधिकतर चुप रहती है।"
आलोक ने बताया, "मेरा आवास आपके घर के सामने ही है। मैंने अक़्सर देखा है कि जब भी कोई अर्थी निकलती है तो सृष्टि अंदर से भाग कर आती है और देर तक उसको देखती रहती है। उसके मुख के भावों को देख कर मुझे आश्चर्य होता है। पाँच वर्ष की बालिका के मानसिक स्वास्थ्य के लिये यह उचित नहीं है। यदि आप बुरा न मानें तो मैं उससे बात करना चाहता हूँ।"
"मुझे क्या आपत्ति होगी? आप शायद ठीक ही समझ रहे होंगे,” श्याम ने उत्तर दिया। श्याम ने सृष्टि को आवाज़ दी तो आलोक ने कहा, "मैं उससे अकेले में बात करना चाहता हूँ परंतु पहले तीनों बच्चों को एक साथ बुलाइये।"
इतने में शशि चाय लेकर आ गई। सृष्टि भाई को गोद में लिये उसके पीछे थी और वृष्टि चपलता से मुस्कराती हुई अपनी मम्मी के आँचल का एक छोर पकड़ कर आई और पापा की गोद में आकर बैठ गई। सृष्टि ने आकर नम्रता से पूछा, "पापा! आपने बुलाया था?"
श्याम के उत्तर देने के पूर्व ही आलोक हँस कर बोला, "अरे भई मैं आया था तुम लोगों से मिलने के लिये इसीलिये बुलाया था। तुम लोग अपनी टॉफ़ी लेने नहीं आये।"
वृष्टि पापा की गोद से कूद कर उतरी और झपट कर टॉफ़ी ले लीं। आलोक ने सृष्टि को बुलाकर उसके हाथ में टॉफ़ी दी तो उसने धीमे से मुस्करा कर धन्यवाद कहा। आलोक ने दोनों बालिकाओं से प्रश्न किया, "मैं कुछ प्रश्न पूछूँगा जो उसका सही उत्तर देगा उसे एक बड़ी चौकलेट इनाम में मिलेगी।" सृष्टि ने सिर हिला दिया और वृष्टि हँसती, खरगोश की तरह फुदकती, भाग गई। श्याम ने धीरे से इशारा किया और शशि के साथ कमरे से बाहर चला गया। अब आलोक ने सृष्टि से पूछा, "बेटी! यह बताओ तुम पापा को ज़्यादा प्यार करती हो या मम्मी को।"
उसने उत्तर दिया, "दोनों को।”
"अच्छा यह बताओ पापा किसको ज्यादा प्यार करते हैं?”
सृष्टि सोच में पड़ गई।
"मैं किसी को बताऊँगा नहीं," आलोक के कहने पर धीरे से बोली, "मम्मी-पापा मुझे सबसे कम प्यार करते हैं।" यह कहते हुए उसके नेत्र सजल हो उठे।
आलोक ने प्यार से कहा, "पर तुम तो सबसे समझदार बच्ची हो। मैं तो सबसे अधिक तुम्हें पसंद करता हूँ।"
यह सुनकर सृष्टि कुछ आश्वस्त होकर बग़ल की कुर्सी पर बैठ गई। आलोक ने प्रश्न किया, "तुम किस कक्षा में पढ़ती हो?”
सृष्टि ने उत्तर दिया, "कक्षा दो में आई हूँ"
आलोक ने गर्व से उसे देखते हुए कहा, "अरे वाह! इतनी छोटी तुम कक्षा दो में। तुम्हारी तो बहुत सहेलियाँ होंगी।"
"अंकल मैं बोलती सबसे हूँ पर मेरी सहेली एक ही है," सृष्टि ने उत्तर दिया।
"एक ही सहेली क्यों है?" आलोक ने प्रश्न किया पर इतने में "राम नाम सत्य है” की ध्वनि सुनाई दी जिसको सुनते ही सृष्टि उत्तर दिये बिना एकदम उठ कर खिड़की पर पहुँच गई। आलोक भी साथ-साथ वहाँ चला गया। जब अर्थी ओझल हो गई तब उसने सृष्टि से प्रश्न किया, "बेटी! तुम क्या देखने गई थी? तुम क्या सोचती रहती हो? तुम अन्य बच्चों की तरह हँसती भी नहीं। इतना चुप क्यों रहती हो?”
सृष्टि ने जो उत्तर दिया उसे सुनकर आलोक हैरान रह गया।
वह बोली, "अंकल! अर्थी को देख कर मेरे मन में आता है कि हर कोई मर जाता है। यह दुनिया क्षण भंगुर है। यहाँ माया-मोह में नहीं फँसना चाहिये," यह कहते-कहते अचानक उसने प्रश्न किया, "अंकल! आप किसी से कहियेगा नहीं, न जाने क्यों मेरे मन में बार-बार यह बात आती है कि मैं कोई भटकी हुई आत्मा हूँ। मैं शापग्रस्त गंधर्व हूँ जो भटक रहा हूँ। यह दुनिया नश्वर है। मुझे माया-मोह में नहीं फँसना चाहिये। इसीलिये मैं सबसे अलग रहती हूँ। मैं स्कूल में भी एक ही दोस्त बनाती हूँ।"
पाँच वर्ष की बच्ची से इस तरह की गम्भीर बातें सुनकर डॉक्टर आलोक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसके कार्यकाल का यह सबसे अद्भुत केस था।
उसने सृष्टि की पीठ थपथपाते हुए चॉकलेट देकर कहा, "बेटी! कोई ख़ास बात नहीं है। धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा।" यह कह कर वह घर चला गया।
आलोक कई दिन तक इस विषय पर मनन करता रहा। इतनी छोटी बच्ची के मन में ऐसे विचार कैसे आये? क्या सच में पुनर्जन्म होता है? क्या सच में किसी शापग्रस्त गंधर्व ने इस कन्या के रूप में जन्म लिया है। इस तरह की बातें पाँच वर्ष की बालिका के मन में हर्गिज़ नहीं आ सकतीं। उसे श्याम से बात करके ज्ञात हुआ कि श्याम के घर में किसी निकट सम्बंधी की मृत्यु नहीं हुई है कि जिसका सृष्टि के मन पर प्रभाव पड़ा हो। उनके यहाँ इस तरह का वातावरण भी नहीं है कि धार्मिक प्रवचन होते हों। आलोक ने उनके यहाँ धार्मिक पुस्तकें भी नहीं देखी थीं कि बच्ची ने यह सब पढ़ लिया हो।
एक दिन आलोक ने श्याम को अपने पास बुलाया और समझाया कि सृष्टि के यथोचित मानसिक विकास के लिये कुछ बातें बहुत आवश्यक हैं। आप मानें या न मानें इसके मानस पर कुछ पूर्व जन्म की स्मृतियाँ हावी हैं। आपको और भाभी जी को इस बच्ची को दिखाना पड़ेगा कि आप लोग उसे बहुत प्यार करते हैं। उसे अकेला मत रहने दें। हो सके तो ऐसी जगह पर घर लेकर रहिये जहाँ सृष्टि के साथ के बच्चे हों जिनके साथ वह घुल-मिल सके। एक बात और कहना है कि जहाँ हर समय शव यात्रा निकलती हों, वहाँ पर घर न लें। मेरा मोबाइल नम्बर नोट कर लें। कोई नई बात हो तो मुझे बताइयेगा।
आलोक की सलाह पर श्याम वहाँ से दूर चले गये थे। कुछ वर्ष के पश्चात उनका दूसरे ज़िले में स्थानान्तरण हो गया। जाने से पूर्व श्याम सपरिवार आलोक से मिल कर गये थे। आलोक को सृष्टि को देख कर संतोष हुआ था। स्थान परिवर्तित होने से उसके व्यवहार में कुछ परिवर्तन आया था। अब वह गम्भीर तो थी परंतु सामान्य बालिका के समान व्यवहार कर रही थी।
श्याम फोन से आलोक से बराबर सम्पर्क रखते थे। उन्होंने बताया था कि सृष्टि विवाह करने के लिये मना करती है। इस पर आलोक ने एक पत्र श्याम को लिखा था कि उसे समझायें कि शादी इसलिये की जाती है कि हमेशा एक साथी की आवश्यकता होती है। माता-पिता हमेशा साथ नहीं रहते हैं। कुछ समय बाद सृष्टि के एक प्रशासनिक अधिकारी के साथ विवाह का निमंत्रण मिला। आलोक विवाह में सम्मिलित हुआ। आलोक के बधाई देने पर सृष्टि बोली थी, "मैं माया-मोह में नहीं फँसना चाहती थी पर मुझे पापा-मम्मी की इच्छा माननी पड़ी।"
कुछ वर्ष के पश्चात श्याम का एक पत्र आलोक को मिला जिसमें उन्होंने उसे धन्यवाद देते हुए लिखा था कि हम तो अपनी बेटी की मानसिक स्थिति समझ ही नहीं पाये थे। आपके समय पर मार्ग निर्देशन कर देने से आज मेरी पुत्री सफल जीवन व्यतीत कर रही है। हम कभी आपके उपकार से उऋण नहीं हो सकेंगे।
इसके बाद बहुत वर्ष तक आलोक का सम्पर्क श्याम या उसके परिवार से नहीं हुआ। एक दिन समाचार पत्र में उसने एक चित्र देखा जिसमें सृष्टि कुछ बच्चों के साथ थी। उससे सम्बंधित समाचार था कि एक प्रशासनिक अधिकारी की पत्नी ने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धन और अनाथ बच्चों की शिक्षा के लिये समर्पित कर दिया है।
आलोक को यह पढ़ कर बहुत संतोष हुआ। सृष्टि की मानसिक स्थिति का सही समय पर आंकलन कर लेने से उसे अवसाद से बचाकर एक सफल जीवन व्यतीत करने में सहायक बनने का सौभाग्य पाकर उसे बहुत प्रसन्नता हुई। उसे एक बात का आश्चर्य अभी भी है कि क्या सृष्टि का सचमुच पुनर्जन्म हुआ है। पिछले जन्म में वह कोई शापग्रस्त आत्मा या भटका हुआ गंधर्व थी जिसने इस जन्म में नारी योनि में जन्म लिया है।
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