शिक्षा का मर्म
नीरजा द्विवेदीदिसम्बर की ठंड, सूर्यास्त और गंगा तट पर लहरों के आलोड़न का आनंद लेती शुचि। निकट आती छप-छप की ध्वनि ने एक मानवाकृति धारण की। शुचि ने देखा– लकड़ी का गट्ठर लिये एक वृद्ध भीगे वस्त्रों में कँपकँपाता सीढ़ी पर बैठा सुस्ता रहा है। शुचि थर्मस में अपने लिये चाय और मठरी लाई थी। उसने एक गिलास में चाय और मठरी वृद्ध को दी बोली, “बाबा। बहुत ठंड है चाय पी लो।“
शुचि सकपका गई जब वृद्ध ने सजल नेत्रों से उसे अनेकों आशीष दिये और बोला, “बेटी! आज घर में खाने को कुछ नहीं है। भीगी लकड़ी से चूल्हा भी नहीं जलेगा। भगवान तुम्हारा भला करे।“
शुचि ने सोचा कि बची हुई मठरी भी दे दूँ तो बाबा का पेट भर जायेगा। उसने जब मठरियाँ वृद्ध को दीं तो उसके मुख की प्रसन्नता, संतोष एवं भावविह्वल नेत्रों की भाषा ने शुचि को जो आत्मसंतोष दिया वह उसे बड़े-बड़े शानदार दावत करके नहीं मिला था। उसे अपने माता-पापा की शिक्षा का महत्त्व आज समझ आया। पापा कहते थे, “सम्पन्न व्यक्तियों को खाना खिलाने पर वह संतोष नहीं मिलता है जो ज़रूरतमंद या निर्धन को भोजन कराने पर मिलता है। बड़े लोगों से तुम्हें क्षण मात्र की वाहवाही मिलेगी पर यदि भूखे को भोजन कराओगे तो आत्मिक सुख मिलेगा।“
आज शुचि को शिक्षा का मर्म समझ आया और अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया।
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