स्नेह से गूँथे धागे

15-08-2022

स्नेह से गूँथे धागे

संजय मृदुल (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

रुचि बालकनी मेंं बैठी बारिश की बूँदों को निहार रही है। सावन की झड़ी लगी हुई है दो दिनों से अनवरत। चारों ओर पानी ही पानी। पूना के एक बड़े से अपार्टमेंंट मेंं दसवीं मंज़िल का फ़्लैट, जहाँ से थोड़ा आकाश दिखाई देता है और बालकनी से नीचे का गार्डन। बाक़ी जहाँ देखो खिड़कियाँ, बालकनी, उनमें सूखते हुए कपड़े, थोड़े गमलों मेंं खिली हुई हरियाली। 

एक छोटे से शहर की रहने वाली रुचि शादी के बाद यहाँ आ गयी पति के साथ। जहाँ ऐसी बारिश मेंं अपनी गाड़ी मेंं भीगते हुए चाट खाने जाना, पानी से भरे गड्ढों पर तेज़ी से गाड़ी निकालना, मम्मी से डाँट खाने को तैयार होकर छत पर पर भीगना, क्या दिन थे! यहाँ तो बस ये फ़्लैट, गार्डन और ये बालकनी। ये बालकनी उसकी फ़ेवरेट जगह थी। सब काम ख़त्म कर यहाँ आकर बैठना, और किताबें पढ़ना। 

सास ससुर होली पर आये थे पर लॉक डाउन के कारण यही रह गए। अब सब खुल भी गया है तो वापस भेजने का मन नहीं हो रहा, अकेले कहाँ रहेंगे ऐसी विषम परिस्थिति मेंं। 

आलोक के ऑफ़िस भी शुरू हो गए हैं। तो सारा दिन सास ससुर के साथ बीत जाता है। 

नई शादी है तो ज़रा ज़्यादा ख़्याल रखते हैं दोनों। लॉक डाउन ने रुचि को दोनों के क़रीब ला दिया। सास ससुर माँ पिता नहीं हो सकते मगर इनसे कम भी नहीं होते ये अहसास हुआ उसे। बस ज़रूरत थोड़ी समझदारी और सामंजस्य की होती है। 

ये पहला सावन है, मायके मेंं रहने का रिवाज़ है। फिर राखी के बाद वापसी होती है। मगर कहाँ सम्भव ऐसा हो पाना। छह महीने हो गए शादी को, मायके जाने को नहीं मिला। अब फ़िलहाल मिलना अभी नहीं। 

राखी है तीन दिन बाद। जी कसक रहा है। ऐसे ही बीत जाएगी राखी। बारिश की नमी अनायास ही पलकों मेंं छप गयी। 

तभी सासू माँ आकर बैठ गयी। 

“क्या हुआ रुचि, क्यों उदास बैठी हो?” 

“कुछ नहीं मम्मी जी। तीन दिन बाद राखी है पहली बार ऐसा होगा कि भैया की कलाई सूनी रह जाएगी। यही सोचकर मन उदास हो रहा है।” 

“हाँ बेटा ये तो है, पर क्या कर सकते है। समय ही ऐसा है कोई कहीं आ जा नहीं सकता। तुमने राखी भेज तो दी है न?” 

“जी मम्मी जी, भेज दी है।” 

“ये अच्छा किया तुमने। तुम्हें एक बात बताऊँ?” उन्होंने पूछा। 

“जी मम्मी जी।” 

“पता है, हमारे समय में इतने साधन नहीं थे आने जाने के। मेरे मायके मेंं ट्रेन भी नहीं थी। हम तीनों बहनों की शादी इतनी दूर मेंं हुई कि एक दिन मेंं आना–जाना सम्भव नहीं था। ऊपर से व्यवसाय ऐसा कि त्योहारों पर समय नहीं मिल पाता। तो मेरे भैया कभी नहीं आ पाए राखी दूज मेंं। शुरू-शुरू मेंं बुरा लगता था मगर फिर आदत हो गयी। फिर समझदारी भी आई, कि भैया चाह कर भी नहीं आ पाते, ये बात उन्हें दुख भी देती थी। 

“पर एक बात समझ मेंं आई, जब ज़रूरत पड़ी सबसे पहले भैया ही खड़े होते हम तीनों के लिए। जब हम मायके जाते तो सारी ख़्वाहिशें पूरी करते भरपूर समय देते। आलोक का जब जन्म हुआ था तो अस्पताल मेंं पूरे समय बाहर बैठे रहते। 

“मैं आज सोचती हूँ तो लगता है कि सिर्फ़ एक त्योहार को छोड़कर बाक़ी हर जगह तो साथ दिया उन्होंने। हमारी राखी डाक से पहुँचती उसे माँ से बँधवा लेते फिर जब तो वो अपने से न उतरे हाथ से उसे बाँधे रहते। मुझे देर से समझ आया कि ये त्योहार बस राखी बाँध देने का नहीं है। वक़्त पड़ने पर निभाने का भी है। अगर उस वक़्त भाई–बहन एक दूसरे के साथ खड़े हैं तो किसी धागे के बंधन की ज़रूरत नहीं। आज माँ पिता जी नहीं है फिर भी भैया के स्नेह के कारण उनकी कमी नहीं महसूस होती। 

“तो बिटिया, रिश्तों को मन के, विश्वास के, प्रेम के धागे से मज़बूती से बाँधना ज़्यादा ज़रूरी है बजाय रेशम की डोरी के। अगर ये डोर मज़बूती से बँध गयी न, तो भाई बहन का रिश्ता सबसे मज़बूत रिश्ता बन जाता है। 

“तुम भी इतनी दूर हो उनसे कि हर बार न उनका आना सम्भव न ही तुम्हारा जाना। कल को बच्चे होंगे उनके स्कूल, परवरिश मेंं व्यस्त हो जाओगी तुम। ऐसा ही उनके साथ होगा। 

“तो बेहतर होगा अपने रिश्ते को दूर रहकर भी मज़बूती से निभाना सीख लो। आसानी होगी।” 

रुचि के हाथों को उन्होंने स्नेह से अपने हाथों मेंं ले लिया। 

उसे लगा जैसे उसके भैया ही ये बात बोल रहे हैं। वक़्त के साथ रिश्ते न बदलें हम न बदलें यही प्रयास करना होगा। 

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