ख़ामोश दीवारें
संजय मृदुल
आज तीन दिन हो गए बाज़ू वाले गौतम की माताजी को गुज़रे हुए।
सब पड़ोसियों ने मिलकर उनका अंतिम संस्कार किया। गौतम तो जाने कहाँ सपरिवार ग़ायब हो गए थे। सब के मोबाइल भी बन्द।
गौतम और विजय के घर की बीच की दिवाल एक है। सो कोई ज़ोर से बोले तो दूसरे घर में सुनाई देता है।
गौतम की अम्मा लगभग अस्सी साल की होगी, कई सालों से बिस्तर पर थी। कोई बीमारी नहीं थी पर बुढ़ापा भी बीमारी से कम नहीं होता। सारा काम बिस्तर पर कराना पड़ता। एक बार आँगन में गिर पड़ी थी पैर की हड्डी जो टूटी तो फिर वो खड़ी न हो पाई अपने पैरों पर।
गौतम की आमदनी इतनी तो थी कि कोई नर्स रख ले, पर जेब से ज़्यादा मन की ज़रूरत होती है ऐसे कामों के लिए।
रो-धोकर उनकी सेवा की जाती। बदले में रोज़ पचासों बातें भी सुनाई जातीं। बेचारी अम्मा चुपचाप सिसकती बिस्तर पर पड़ी रहती अपने कर्मों को कोसते। गौतम की बीबी का कोसना शुरू होता तो बीच की दीवार मानों झनझनाने लगती।
“बुढ़िया मरती भी नहीं। कोई सम्पत्ति जायजाद ही होती तो उसकी लालच में सेवा करते। सूखी सेवा से क्या फायदा। यहाँ तनख्वाह पूरी नहीं पड़ती ऊपर से इनके खर्चे।” और भी जाने क्या क्या।
सालों से यही चला आ रहा था।
विजय के घर में सब की आदत हो गयी थी। जिस दिन शान्ति रहे बड़ा ख़ालीपन लगता था। पिछले रविवार विजय को सपरिवार किसी पारिवारिक कार्यक्रम के लिए बाहर जाना पड़ा। तीन दिन पहले जब वापस आये तो गौतम के घर पर ताला लगा हुआ था। थोड़ा अटपटा तो लगा क्योंकि अम्मा के रहते ताला लगाकर कहाँ जा सकते हैं सब। जब रात तक कोई नहीं आया तो थोड़ी चिंता हुई।
रात सब खाना खाकर बैठे थे कि गौतम के घर से ज़ोर से आवाज़ आई किसी बरतन के गिरने की। विजय ने बाहर जाकर देखा तो ताला वैसे ही लटक रहा था। मन थोड़ा घबराया, उसने बेटे से कहा कि पीछे आँगन की दीवार पर चढ़कर देखे क्या हुआ है।
सब आँगन में आ गए, बेटे ने जैसे ही दीवार से उस तरफ़ झाँका ज़ोर से चीखा, “पापा दादी पड़ी हैं यहाँ तो।”
विजय ने और लोगों को आवाज़ देकर बुलाया तब तक बेटे ने पीछे का दरवाज़ा खोल दिया था।
अम्मा आँगन में पलंग से नीचे पड़ी हुई थी, पीतल की गुंडी उनके हाथ से टकराकर गिरी होगी जिसकी आवाज़ सुनाई दी थी। शायद उसी समय प्राण पखेरू उड़ गए थे।
जब कोई सम्पर्क नहीं हो पाया गौतम से तो सब ने मिलकर तय किया कि अंतिम संस्कार तो किया जाए।
आज सुबह जब गौतम वापस आये तो ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। सारा दिन बीत गया है न उन लोगों ने आकर कुछ पूछा है न ही विजय का मन हो रहा कि जाकर सब बताएँ।
सभी को समझ आ गया है कि जानबूझकर किया गया ये सब, बुढ़िया से पीछा छुड़ाने के लिए।
बीच की दीवार में तीन दिन से ख़ामोशी पसरी हुई है। बस कभी कभी अम्मा के कराहने की आवाज़ सिसकी बन कर गूँजती है।
जाने गौतम के तरफ़ की दीवार से क्या आवाज़ें आती होगी।