अंतर

संजय मृदुल (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

महाविद्यालय का बड़ा सा हॉल जहाँ आज दो प्राध्यापकों के रिटायरमेंट का विदाई समारोह चल रहा है। 

शिक्षक, विद्यार्थियों के बीच शर्मा सर अपना अंतिम उद्बोधन दे रहे हैं। 

शर्मा सर महाविद्यालय के सबसे लोकप्रिय शिक्षकों में से हैं। उनका जाना सभी को अखर रहा है लेकिन नियमों से परे तो जाया नहीं जा सकता। 

उनकी गम्भीर आवाज़ हॉल में गूँज रही है, “आप सब का स्नेह हमेशा मुझे मिलता रहा है इसके लिए मैं दिल से आभारी हूँ। आज मेरे साथ गोयल जी भी रिटायर हो रहे हैं। आप सब को बताऊँ मैं और गोयल सर बचपन के साथी हैं, एक साथ स्कूल कॉलेज की पढ़ाई की, फिर नौकरी भी। आज एक राज़ की बात आप सभी को बताता हूँ।

“गोयल सर शुरू से मेधावी छात्र रहे, हर क्लास में प्रथम, विश्वविद्यालय के टॉपर, गोल्ड मेडलिस्ट। और मैं सामान्य-सा छात्र जिसने कभी पढ़ाई को गम्भीरता से नहीं लिया। स्वास्थ्यगत कारणों से ग्यारहवीं में मैं फ़ेल हो गया। गोयल जी टॉप कर निकल गए।

“मैं फिर अपने बाद वालों के साथ पढ़ने लगा। जब मैं यहाँ पढ़ाने आया तो देखा कि जो कमज़ोर बच्चे हैं वो पीछे की बेंच पर बैठते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हम बैठा करते थे। जिनपर किसी की नज़र नहीं जाती। शिक्षक आते हैं सामने की आधी क्लास उन्हें नज़र आती है, जिन्हें पढ़ाकर वो चले जाते हैं। 

“हर शिक्षक का उद्देश्य होता है उसकी क्लास से बच्चे टॉप करें। कॉलेज में उनका नाम हो। इसीलिए वो उन बच्चों पर ज़्यादा ध्यान देते हैं जो होशियार हैं। जो प्रथम आने का प्रयास करते हैं। ऐसा केवल हमारे या अन्य किसी कॉलेज में नहीं बल्कि स्कूल में भी होता है। जो ख़ुद टॉपर हो वो उस दर्द को उस कमतरी को महसूस नहीं कर सकता जो कि या तो अनुत्तीर्ण होने पर आती है या पढ़ाई में कमज़ोर होने पर। 

“जब मैं फ़ेल हुआ, एक साल अपने से छोटे बच्चों के साथ बैठकर पढ़ाई की तो इस बात को समझ पाया कि एक अनुत्तीर्ण या कमज़ोर बच्चे को क्या महसूस होता है अपनी कमज़ोरी को वो पीछे बैठकर कैसे छिपाते हैं। 
इसीलिए मैं हमेशा से ही उनपर भी उतना ही ध्यान देता आया हूँ जितना पहली पंक्ति के बच्चों पर। शायद इसीलिए मेरी क्लास से टॉपर नहीं निकलते लेकिन सबसे अच्छा परिणाम मेरे विषय का रहता है। 

“पूरे कॉलेज में मेरे विषय में न कोई फ़ेल होता है ना ही पूरक आता है। 

“मैं आप सभी से यही कहना चाहूँगा, कि यहाँ पढ़ने वाला हर विद्यार्थी हमारे लिए बराबर है। होशियार तो अपनी जगह बना ही लेते हैं लेकिन अगर एक भी कमज़ोर विद्यार्थी को हौसला दिला देते हैं उसमें आत्मविश्वास जगा देते हैं तो हमारा शिक्षक होना सार्थक हो जाता है।” 

उनका उद्बोधन समाप्त होते ही बच्चों की तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हॉल गूँज उठा। 

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