डूबता हुआ इश्क़ 

01-11-2024

डूबता हुआ इश्क़ 

संजय मृदुल (अंक: 264, नवम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

नदी के घाट में भारी भीड़ में तुम्हारी माँग में भरा सिंदूर दूर से दमक रहा था। छट पूजा की शाम का इंतज़ार मुझे हर साल रहता है। तुम हर साल इन दिनों घर आती हो। 

मैं तुम्हारी तस्वीरें देखता रहता हूँ सोशल मीडिया में अक्सर। वहाँ मैं तुम्हारा मित्र तो नहीं हूँ। वहाँ क्या, अब तो मैं हर जगह अजनबी हूँ तुम्हारे लिए। मुम्बई में रहने वाली तुम। मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली, जिसका अपना फ़्लैट, गाड़ी सब कुछ है वहाँ। यही सब तो चाहती थी तुम, आसमान में उड़ना। 

कॉलेज में जब भी हम इकट्ठा होते, हमेशा तुम्हारी बातें केरियर को लेकर ही होती। “यार यहाँ के कॉलेज से इंजीनियरिंग करके क्या हो जाएगा? मुझे आगे पढ़ने के लिए आईआईटी जाना है। वहाँ से निकले तो कोई ना कोई बड़ी कम्पनी ले जाती है। फिर लाइफ़ सेट।” हम उन बदनसीब बच्चों में से थे जिनका सलेक्शन स्टेट इंजीनियरिंग कॉलेज में हुआ था। तुम्हारी बातें सुनकर मैं मुस्कुराकर ख़ामोश रह जाता। मेरी मंज़िल, रास्ता सब इसी शहर में था। 

पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण सम्भव ही नहीं था कि बाहर जाने के ख़्वाब देखूँ, यही बहुत था कि इंजीनियरिंग पढ़ने की इजाज़त मिल गयी थी मुझे। 

तुम्हारे साथ रहने की चाह थी बस फिर जो भी पढ़ाई करनी पड़ती मुझे मंज़ूर था। 

बचपन की दोस्ती अक्सर मोहब्बत में बदल ही जाती है। लेकिन यहाँ मामला अलग ही था। मैं जानता था तुम्हारी ख़्वाहिशें तुम्हें रुकने नहीं देंगी और मेरी बेड़ियाँ मैं काट सकूँ इतना साहस नहीं मुझमें। 

कॉलेज में सारा दिन साथ रहते, कोचिंग भी साथ आते-जाते। ऐसा कहते हैं न लड़के पहले प्यार में पड़ते हैं। शायद इसलिए कि वो ज़्यादा भावुक होते हैं। बचपन से साथ रहते आए थे आज तक। फिर भी ना मैंने कुछ बोला ना ही तुमने कुछ सुना। जो नज़रों, अहसास में व्यक्त होता रहा उसका गला दोनों घोंटते रहे। एक समय के बाद ज़रूरी नहीं होता शब्दों में कहना, प्रेम की महक यूँ ही बिखरने लगती है, जितना दबाया जाए उसे उतना ही फैलता है ये। 

परिवार, आस-पड़ोस में दबे ज़ुबान में चर्चा होती पर हम दोनों नज़रअंदाज़ करते। सुबह कॉलेज जाने से लेकर शाम कोचिंग तक साथ रहने से ये अफ़वाहें तो फैलनी ही थीं। उस पर न तुम्हारी कोई ख़ास सहेली न मेरा कोई दोस्त। जो भी थे हम दोनों ही। 

फिर वही हुआ एक दिन। कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म हुई। रिज़ल्ट आया और तुम चली गई आगे की पढ़ाई की लिए बाहर। तुम उड़ गई पंखों को खोल कर, और मैं प्रयास करने लगा कि कोई ठौर मिल जाये मुझे भी। क़िस्मत शायद अच्छी थी कि सरकारी नौकरी मिल गयी। शायद तुम्हारे जाने के बाद ये लगा कि तुम्हारे बिना भी अस्तित्व है मेरा। कुछ बन कर दिखाना है। तुम जैसे न बन पाऊँ लेकिन इतना तो बन जाऊँ की कभी मिलें तो बताने में शर्म न आये। 

तुम यहाँ से जाकर यूँ भूली मुझे जैसे कृष्ण भूल गए थे अपना गाँव। न कभी फोन न कभी ईमेल। नम्बर भी बदल लिया था तुमने। जीवन का यथार्थ समझ लिया था जल्दी तुमने। जिस राह की मंज़िल न हो उसे छोड़ देना, भूल जाने में ही समझदारी होती है। तुम्हारी राह का मुसाफ़िर अब मैं न था। तुम कभी घर आती भी, तो कोई ख़बर न होती मुझे। एक छोटे से शहर से निकल कर वहाँ नए-नए लोग मिले होंगे, नई दोस्ती हुई होगी, पढ़ाई का तनाव अलग से। मैंने कई लोगों को देखा था ऐसा करते, तुम कोई पहली नहीं थी। बड़े शहर जाकर लोगों को अपना शहर पिछड़ा लगने लगता है और लोग दक़ियानूसी। 

एक दिन तुम्हारी शादी का कार्ड आया घर पर पापा के नाम से। धक से हुआ दिल। ये क्या हुआ? कब हुआ? तुमने हाँ कहने के पहले क्या मुझे याद किया होगा? हज़ारों सवाल ज़ेहन में उठे फिर झाग से बैठ गए। जिस इंसान को तुम भूल ही गयी हो उसकी याद क्यों आएगी भला। कार्ड में देखा शादी लड़के वालों के शहर में होनी थी। ग़नीमत है, मैंने सोचा। 

ये एकतरफ़ा इश्क़ सबसे जानलेवा मर्ज़ होता है। इसका मरीज़ न जीता है न मौत आती है उसे। जैसे ऑक्सीजन लगा हुआ हो और साँस चल रही हो। कभी धड़कन बढ़ जाएगी तो कभी नब्ज़ डूबने लगेगी। न किसी से कुछ कहना बस मन ही मन में घुटते रहना। ज़्यादा से ज़्यादा डायरी भर लेना या कविताएँ कर लेना। 
मेरे पीछे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी थी, उनको निभाते रह गया मैं। ख़ुद के लिए कुछ करने की सोच भी नहीं पाया। अब जाकर जब सब ठीक हुआ है तो लगता है अकेलापन और तुम दो ही साथी हो मेरे। अब मन भी नहीं होता घर बसाएँ। जिस दिल में मरघट बन जाता है वहाँ फिर कोई इमारत नहीं बन पाती। ज़बरदस्ती बना भी दो तो मनहूसियत छाई रहती है वहाँ। तो बेहतर है कि उसे वैसा ही रहने दिया जाए। 

तुम हर साल दीवाली के बाद यहाँ आती हो। और मैं पूरा साल राह देखता हूँ इस वक़्त का। मेरे मन में अब भी वही छवि है तुम्हारी, दो चोटी वाली, हल्के रंगों वाले सलवार सूट में, बिना मेकअप। पूजा पर जब तुम नदी के घाट पर आती हो तो अलग ही नज़र आती हो। गहरी लिपिस्टिक, हल्का सा मेकअप, चटक गहरे रंग की साड़ी में तुम। और माँग में दमकता हुआ सिंदूर। 

मैं नदी किनारे सुरक्षा व्यवस्था वाली टीम में अपनी ड्यूटी बजाता तुम्हें देखता हूँ। तुम नज़र भी नहीं डालती इस तरफ़। तुमने भी तो कभी किसी से पूछा होगा मेरे बारे में किसी से? कभी खोज-ख़बर ली होगी? मुझे सर्च किया होगा सोशल मीडिया में? बचपन के साथ की कमी महसूस तो हुई होगी किसी पल? बस उतना ही पर्याप्त है मेरे लिए। 

ख़ुश रहना हमेशा। ख़ूब तरक़्क़ी करना। मेरे मन में यही आ रहा है तुम्हारे लिए। डूबते सूरज के साथ अंधकार छा रहा है तुम तल्लीनता से आँखें बंद किये अंजुरी से जल अर्पण कर रही हो और मैं तुम्हें अपना प्रेम। 

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