सबसे बड़ा धोका—साँसें

01-10-2022

सबसे बड़ा धोका—साँसें

संजय मृदुल (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

साँसें थमने वाली हैं। अटक-अटक कर आ रही हैं, गले से घर्र-घर्र की आवाज़ निकल रही है। आँखों के कोर से आँसू धीमे-धीमे बह रहे हैं। चैतन्य तो हूँ मगर इतनी भी नहीं कि जो से आवाज़ देकर किसी को बुला सकूँ। और सुनेगा भी कौन? यहाँ है ही कौन? सालों से अकेली हूँ मैं तो। नाईट लेम्प की हल्की नीली रौशनी में कोई छाया दिखाई दे रही है, यमराज तो नहीं कहीं। 

एक पल में जीवन का हर मंज़र कौंध गया आँखों के सामने। साहब ने कितने अरमानों से बेटे को पढ़ाया, विदेश भेज कर बोलते थे बड़ा ऑफ़िसर बनेगा मेरी तरह। बचपन से होस्टल में रखा सबसे आगे रहने की शिक्षा दी। कलकत्ता में एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े पैकेज वाली जॉब भी मिल गयी। फिर एक दिन उसने अपनी पसन्द से अपने जैसे बड़े घर में शादी भी कर दी उसकी। बस यहीं से सब बदलता गया। बहू ने पहले महीने ही जता दिया कि वह यहाँ न रहने वाली। साहब ने भी सहमति दे दी। तो नई बहू का सुख लिए बिना मैंने बेमन से विदाई कर दी। वो दिन और आज का दिन उसने माँ तो नहीं माना . . . सास भी नहीं मान सकी। बस बेटे से मतलब उसे। फिर एक दिन साहब जी चले गए सब छोड़कर। रह गयी उनकी पेंशन, ये बड़ी सी कोठी और मैं, अकेली। उस समय बेटा–बहू आये सब कर्मकांड किया लेकिन बहू ने इतना जता दिया कि मैं उनके साथ रहने की सोचूँ भी न। सो मैं रह गयी अकेली। बेटा कितना भी अच्छा हो एक समय के बाद उनकी प्राथमिकताएँ भी बदल जाती हैं। रिश्तों की क़तार में क्रमांक भी बदल जाते हैं। उनका परिवार बन जाता है जहाँ माँ–बाप उसके सदस्य नहीं रहते वो गेस्ट हो जाते हैं। इसमें ग़लती किसी की नहीं होती। ये तो ज़माने का चलन है। 

सोलह साल हो गए। यूँ अकेले रहते। अब तो ये अकेलापन भला लगता है। उम्र अपना काम कर रही है। कभी-कभी सोचती हूँ जिनके बच्चे साथ रहते हैं वो कितने ख़ुश रहते होंगे। जीवन जीना कितना आनन्ददायक होता होगा उनके लिए। बच्चे तो पशु-पक्षियों के भी छोड़ जाते हैं। फिर मोह इंसानों को ही क्यों होता है? हम भी तो आये थे अपने माँ बाप को छोड़कर। 

सुखिया भी छुट्टी पर है। तीन दिन के लिए गाँव गयी है। कल सुबह जब मैं नहीं उठूँगी तो किसे पता चलेगा? आजकल तो कॉलोनी में भी किसी को किसी से मतलब नहीं रहता। मिले तो राम-राम नहीं तो किसे फ़िक्र! बेटे को ख़बर भी नहीं हो पाएगी। मोबाइल की बैटरी सुबह से ख़त्म है। बिस्तर से उठने की शक्ति होती काश। उसे बता पाती कि जा रही हूँ मैं। 

पलकें मुँदने लगी हैं। धड़कन तेज़ हो रही है। ये लार क्यों बहने लगी होंठों से। जब तक बेटा आएगा तब तक शरीर तो सड़ जाएगा। आएगा या नहीं। दो साल तो हो गए आये हुए उसे। एक बार देख लेती काश उसे। 

अच्छा किया जो समय रहते सब काग़ज़-पत्तर बनवा दिए थे, उसे तकलीफ़ नहीं होगी। 

आख़िर सब उसी का ही तो है। 

प्रभु, कुछ ग़लत हुआ हो मुझसे तो क्षमा करना। कुछ तो कर्म ऐसे रहे होंगे जो जीवन के उत्तरार्ध में अकेलापन मिला मुझे। ले जाओ प्रभु साथ अपने। 

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