खोया हुआ आशियाना

01-07-2022

खोया हुआ आशियाना

संजय मृदुल (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“अरे! बल्ब तो जला लीजिये। अँधेरा पसर गया है कमरे में,” सुधा ने भीतर आते हुए कहा। 

शान्तनु की यादों की ट्रेन को अचानक ब्रेक लगी। भीगी हुई आँखें देखकर सुधा ने क़रीब आकर हाथ थाम लिया। बर्फ़ सी हथेली नम हो गयी थी। 

“क्या हुआ हरि ओम?” सुधा ने हौले से पूछा। 

“ये अकेलापन अब भारी पड़ने लगा है सुधा। कैसे कटेगी बाक़ी की जिंदगी।” 

‘सुधा’ सुन उसे थोड़ा अचरज हुआ। सालों से दोनों एक दूजे को नाम से न पुकार कर ‘हरि ओम’ बुलाते थे। 

“काटना तो है, यही नियति है। जैसे हम सब कुछ छोड़ जीवन में आगे बढ़ते गए वैसे ही अब बच्चे भी आगे जा रहे हैं।” 

“हम्म,” गम्भीरता से हुंकार भर शान्तनु ने फिर आँख बंद कर ली। 

शान्तनु के पिता सरकारी नौकरी में थे, किसी एक शहर में लम्बे समय तक नहीं रहे। इसी कारण न घर बनाया न कोई सम्पत्ति। पारिवारिक सम्पत्ति बेच कर जो मिला जमा कर दिया। ब्याज से शौक़ पूरे हो जाते और तनख़्वाह से घर के ख़र्चे, तब सस्ते का ज़माना था। शान्तनु बड़े हुए तो बैंक में लग गए। पिता-माता को छोड़कर फिर उनका सफ़र शुरू हुआ। बैंक की नौकरी में सुविधाओं की कमी नहीं होती पर एक जगह पर ज़्यादा समय नहीं रहने मिलता। यायावर से वो भी भटकते रहे शहर दर शहर। माता पिता और दोनोंं बच्चे। पिता से जो सीखा वही अपनाया। 
न कहीं सम्पत्ति बनाई न घर। ज़्यादा हुआ तो पत्नी के लिए ज़ेवर बनवा दिए। बच्चों के शौक़ पूरे कर दिए। 

बचपन से जो भटकने का सिलसिला चल रहा था वो उनके बच्चों को न सहना पड़े ये सोचकर दोनोंं को होस्टल में डाल दिया। 

कुछ साल बाद बस पति-पत्नी ही रह गए। बैंक का दायरा बढ़ा तो तबादला देश के अलग-अलग हिस्सों में होने लगा। तरक्क़ी, नाम, पैसा सब था, नहीं था तो बस सुकून। 

बच्चे पढ़-लिखकर नौकरी में लग गए। बड़ा विदेश चला गया और छोटा मुंबई में। 

स्कूल की छुट्टियों में बच्चे घर आ जाते फिर वो बड़े होते गए और उनकी व्यस्तता बढ़ती गयी। कभी आये, कभी नहीं। 

कुछ साल हुए रिटायर हुए शान्तनु को। अब तक घर नहीं बनाया उन्होंने। पैसों की कमी नहीं। पर लगता है क्या करेंगे घर का। बेटों को आकर रहना नहीं यहाँ। उनके बाद क्या होगा घर का। 

उनके कुछ सहकर्मी रिटायर होने के बाद अपने अपने गृहनगर वापस चले गए, कुछ ने, जहाँ रिटायर हुए, वहीं घर बना लिया। 

शान्तनु को तो याद भी नहीं वो अपने पुरखों के शहर कब गए थे। न किसी से सम्पर्क सुदृढ़ था न ही रिश्ता। नाम भी याद नहीं अब तो किसी के परिवार में। 

बस दो प्राणियों का संसार है उनका। सुबह होती है फिर रात आती है। इसी तरह जीवन बीत रहा है। 

आज बैठे हुए सोच रहे थे शान्तनु कि कल को वो नहीं रहे तो सुधा का क्या होगा? बेटों से रिश्ता इतना भी मज़बूत नहीं कि वो ले जाएँ सुधा को। वो ले भी जाएँ तो उनकी पत्नियों को पसन्द आएगा या नहीं? या कहीं सुधा नहीं रही तो वो क्या करेंगे? 

जीवन की तेज़ रफ़्तार में कहीं थम जाएँ, कहीं बसेरा कर लें, कहीं नीड़ बना लें ये क्यों नहीं सोचता इन्सान? पैसा, इज़्ज़त, सब किस काम के अगर परिवार, रिश्तेदार पास न हों। 

शान्तनु की बन्द आँखों से फिर एक बूँद चेहरे पर बिखर गई। 

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