सुबह ड्यूटी पर जाते वक़्त
तुम
मुझे आवाज़ लगाते
झुँझलाते
मैं भी
तवे पर
रोटी
यूँ ही छोड़कर
झटपट
आती
और तुम
मुझे झिंझोड़कर
कहते
कितना समय लगता है
तुझे आने में
फिर ढूँढ़ती
बहाने मैं
रसोई से निकलकर
आटे भरे हाथ
बाल्टी में डुबोकर
पल्ले से
जैसे-तैसे पोंछकर
दौड़ती आती
शर्ट के बटन लगाती
तुम कहते
वैसा ही करती
जब तक तुम न जाते
दम न भरती
आज तुम्हारी
शर्ट
मैं पहनती हूँ
जिसके बटन
आज
ख़ुद मैं ही
नहीं लगा पाती
क्योंकि
शर्ट में बटन हैं ही नहीं
किसी को नहीं भाता
मेरे लिए एक साड़ी लाना
मिलती तो है
तुम्हारी पेंशन
हर महीने
मगर
मुझपर
एक पाई
ख़र्च करने में
औलाद के छूटते हैं पसीने
अब कहाँ रहा
तुम्हारा वो ज़माना
जब बिन कहे
तुम
एक के बदले दो साड़ियाँ
लाते थे
भले ग़ुस्सा करते थे
मगर तुम
चुपके-चुपके
प्यार भी जताते थे
नातिन कहती है
बाबा जेब में रखकर
बटन
साथ ले गए
हा! हा!
बेटा कहता है—
किसे दिखाना है
पहनकर
इस उम्र में अब
कपड़े नए
मैंने सूई उठाई
करने को तुरपाई
मिंचमिंचाकर आँखें
धागा पिरोने लगी
पलकें भीगीं
चेहरा
आँसुओं से सना
तुम थे तो ढेरों कपड़े-गहने थे
आज तुम्हारी शर्ट से
मेरा कुर्ता बना!
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