रश्मि विभा त्रिपाठी ‘रिशू’ – 005

01-03-2023

रश्मि विभा त्रिपाठी ‘रिशू’ – 005

रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू' (अंक: 224, मार्च प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

1.
बनके दूब
पत्थरों पर उगी
औरत ख़ूब। 
2.
सिंदूर, हिना, 
हाँ! जी सकती थी मैं
इनके बिना। 
3.
ऐसे बे-तौर
मुझे क्यों विदा किया
जी लेते और! 
4.
माँग ये सूनी
उसके जीते जी की
सिन्दूर ख़ूनी। 
5.
गन्दा मज़ाक
आज के दिन शादी
कल तलाक़। 
6.
नथनी, लौंग, 
चूड़ी, बिंदी, बिछिया
हो गए ढोंग। 
7.
लाकर बहू
घरभर पी गया
उसका लहू। 
8.
मीरा या सिया
दुनिया ने स्त्री को तो
दुख ही दिया। 
9.
चुटकी भर
सिंदूर मेरे लिए
हुआ ज़हर। 
10.
क्या देता साथ
ख़ून में डूबे हुए
उसके हाथ। 
11.
नहीं मामूली
मंगलसूत्र बना
मुझको ‘सूली’। 
12.
पूरी आबादी
सोचती-अमीरी का
उपाय शादी! 
13.
नहीं पहना
शादी का चूड़ा फिर
ख़ून से सना। 
14.
बर्बाद हुआ
बेटी ब्याह के पिता
शादी है जुआ। 
15.
‘चाँद’ पूजतीं
स्याह रातों से तो भी
स्त्रियाँ जूझतीं। 
16.
बनके दूल्हा
बेटा दहेज़ लाया
तो जला चूल्हा। 
17.
एक सिन्दूर–
किसी की माँग सजा
किसी को ‘सज़ा’। 
18.
उठा जनाज़ा! 
एक डोली के लिए
ये खामियाज़ा? 
19.
नया चलन
कौन निभाता अब
सात वचन? 
20.
स्त्रियों ने माना–
एक ‘चाँद है और!’
तो क्यों न ठौर? 
21.
तलवे छिले
काँटों भरे रस्ते ही
स्त्रियों को मिले। 
22.
धधकी छाती
अंगारों के सिवा क्या
औरत पाती? 
23.
स्त्रियों को डर
जंगल के भेड़िए
आए शहर। 
24.
क्या उपेक्षा से
पाओगे मनमाना? 
नहीं! स्वेच्छा से। 
25.
कहाँ ठिकाना
अकेली स्त्री पे सब
साधें निशाना। 

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