रमेश गौतम के नवगीतों में नदी

01-01-2022

रमेश गौतम के नवगीतों में नदी

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

रमेश गौतम प्रख्यात नवगीतकार हैं। उनके नवगीतों में प्रकृति के अनेक सुंदर चित्रण मिलते हैं। पर्वत, सागर, पंछी, हवा, नदी; सभी अपने-अपने मुखरित सौन्दर्य की सार्थक अभिव्यक्ति आपके गीतों में करते दिखाई देते हैं। ‘इस हवा को क्या हुआ’ आपका नवगीत संग्रह है जिसमें अनेक नवगीतों में प्रकृति का आलम्बन और उद्दीपन शब्दायित हुआ है। आपके नवगीतों को ध्यान से पढ़ने पर पता लगता है कि ‘नदी’ आपका प्रिय विषय है। नदी पर केन्द्रित लगभग 18 नवगीत आपके संग्रह में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त भी नदी की उपस्थिति अन्य अनेक नवगीतों की पंक्तियों में है। नदी अपने सतत् प्रवाह, गतिशीलता और तरलता-गहनता के गुणों के कारण मानव मन को भी भावों ओर विचारों के प्रांगण में सतत् प्रवाही और सदानीरा बनाने का कार्य करती है। नदी तो मानव की चिर सहचरी है। मानव मन में भी एक नदी है जो आंतरिक अनुभूतियाँ को बहाव देती है, अपनी सुंदरता से मानव मन में भी सौंदर्य का संचार करती है, साथ ही साथ अपने जल की ही तरह मानव मन के विचारों को लोकापयोगी भी बनाती है। हमारे दार्शनिक चिंतन में शायद इसी कारण ‘प्रकृतिवाद’ भी एक विशिष्ट चिंतन के रूप में उभर कर सामने आया है। डॉ. रघुवंश लिखते हैं, “परम्परा के अर्थ में समस्त बाह्य जगत् को उसके प्रत्यक्षीकरण की रूपात्मकता में और उसमें अधिष्ठित चेतना के साथ ही प्रकृति माना गया है।”1 प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों का भिन्न-भिन्न व्यक्तियों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभाव पड़ता है।

रमेश गौतम के नवगीतों में नदी के अनेक रूपों से हमारा परिचय होता है। ‘नदी की धार’ नवगीत में वे लिखते हैं:

“पुलों को बाँधने वालों नदी की धार तो देखो
हमारी आँख निर्वसना नदी की देह पर अटकी
हमारे आचरण की नाव, फिर मँझधार में भटकी
अरे माँझी, जरा टूटी हुई पतवार तो देखो”2

यहाँ बदलते मानवमूल्यों पर करारी चोट करता है कवि। नदी को ‘जीवन’ का प्रतीक देकर आचरण को उस बिखरती-सिमटती नदी पर नाव की संज्ञा दी गई है। इसी तथ्य को वे ‘बोलो ‘अन्तर्मन’ नवगीत में दोहराते हैं। यहाँ वे एक प्रश्नकर्ता की भूमिका में है और पूछते हैं कि आज मनुष्यता ने सभ्यता की ऊँचाइयाँ तो छूने की कोशिशें की हैं लेकिन इन झूठे दिखावों में हम अपनी जड़ों से कटते चले गये हैं:

“ऐसे खेले खेल निराले सिमट गई है मोक्षदायिनी
खेले नहीं सरोवर के तट, मछली-मछली कितना पानी
पानी, पोखर पनघट वाली, अब तक झूठी कसमें खाईं
बोलो, अन्तर्मन, मरुथल में, लहरें कितनी बार नहाईं”3

नदी सदैव गतिमान रहती है, जीवनधर्मिता का स्रोत बनती है और अपने मनोभावों को अपनी सतत् प्रवाहमयता से दर्शाती भी है। शायद इसीलिये कवियों की भावनाओं में नदी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। प्रकृति के अचेतन पदार्थ, चेतनामयी हो उठते हैं, यदि कवि की अन्तःसलिला उनसे अपना तादात्म्य स्थापित कर ले। पीड़ा की अनुभूतियों की नदी के प्रवाह में समेटते हुए निम्नलिखित पंक्ति द्रष्टव्य है:

“आँखों के उद्गम से निकली 
एक नदी गहरी”4

करुणा का प्रसार होते ही हमारी आँखों से भी नदिया की धारा बह निकलती है। रमेश गौतम यहाँ करुण रस की उत्पत्ति नदी के बिम्ब से करते हैं। ज्ञातव्य है कि हिन्दी के आचार्यो ने करुण रस का देवता ‘वरुण’ को माना है।5 वरुण अर्थात् जल और नदी भी जल की संचित प्रवाहमयी राशि का ही नाम है। अपने नवगीत ‘दुख है ऐसा अतिथि’ में करुणा का संचार कवि ने इन शब्दों में दर्शाया हैः

“संवेदन की नदी निकलती जब पर्व रोते
मोती झरी हथेली के आशीष सिद्ध होते
जीवन का सारांश दुखों में ढलकर आता है”6

यहाँ नदी का अस्तित्व चेतनामयी है। मानवीकरण के सुन्दर प्रयोग द्वारा नदी का कार्य व्यापार द्रष्टव्य है। परंन्तु नदी केवल करुणा का प्रवाह ही नहीं है। रमेश गौतम ने नदी को सदानीरा बने रहने का विश्वास भी अपने काव्य में दिया है। नदी को उसकी बंधन-पीड़ा से मुक्ति देकर उसे सदायौवना बनाने का प्रण कितने सुंदर शब्दों में है:

“एक ज़िद है बादलों को बाँध कर लाऊँ यहाँ तक
खोल दूँ जल के मुहाने प्यास फैली है जहाँ तक
धूप में झुलसा हुआ फिर खिलखिलाए नदी का यौवन”7

नदी पर आये संकट को कवि अपने उद्योग से दूर करना चाहता है। आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में पर्यावरण का जो विनाश हुआ है, वह किसी से भी छिपा नहीं है। सदानीरा की भाँति रहने वाली नदियाँ कल-कारखानों के दूषित जल से मैली कर दी गईं या कहीं-कहीं नदी की अविरल धारा को मृतप्राय ही कर दिया गया। प्रकृति का कोई भी अंग समाज विरोधी नहीं है। वह तो सर्वजनहिताय की भावनाओं की साक्षी है। नदी के दो किनारे भले ही परस्पर न मिलें परन्तु नदी सदैव समाज को जोड़ती है। नदियों के किनारे बसी नगर सभ्यतायें इसकी गवाह हैं। नदी ने साहित्य से भी अपने रागात्मक सम्बंधों को निभाया है। जीवन के उदात्त भाव साहित्य में स्थान पाते हैं। रमेश गौतम अपने एक नवगीत ‘नदी ठहरो’ में मानो इन्हीं योजक सम्बधों की पावन बात को लिपिबद्ध करते हैं। वैसे भी कवि में सौन्दर्य दर्शन करने और उसे अभिव्यक्त करने की क्षमता अधिक होती है। इस सम्बन्ध में अज्ञेय लिखते हैं, “कवि के संवेदन पर उसकी दार्शनिक अथवा धार्मिक आस्था के प्रभाव की अनिवार्यता को स्वीकार करके हम प्रकृति वर्णन की परम्परा का अध्ययन कर सकते हैं।”8 रमेश गौतम लिखते हैं:

“नदी ठहरो, तनिक पल भर
सुनो! तटबंध की बातें”8

आगे की पंक्तियों मे कवि ने नदी की शक्तियों का आह्वान किया है। यहाँ महाकवि कालिदास की ‘अभिज्ञानशकुन्तलम्’ नाटक में कही गई ‘नान्दी’ याद आती है: ‘या सृष्टि स्रष्टुराद्या’।9 कालिदास ने इसमें जलतत्त्व को ब्रह्मा की प्रथम सृष्टि बताया है। ब्रह्मा की यही प्रथम सृष्टि जलतत्त्व कवि की दृष्टि में प्रथम स्थान का अधिकारी बनकर आया है:

“बहो श्वेताम्बरा ऐसे, तटों पर हों हरित उत्सव
धुले सम्वेदना जल की, मरुस्थल में यथासम्भव 
तुम्हारे संग रहती हैं, हमारी शुभ सौगातें”10

कवि ने बड़ी सुदरता से नदी की वंदना करते हुए उसे मानव जीवन के संदर्भों से जोड़ दिया है। नदी के प्रति इतने उदात्त भावों में कोई नवगीत शायद ही लिखा गया हो। कवि ने नदी को पशु-पक्षियों के लिये भी इतना ही उपयोगी माना है। औद्योगिकीकरण के अंधे दौर में नदियों-जलाशयों पर बाँध बनाना ज़रूरी भी है और मजबूरी भी; परन्तु कवि अपने नवगीतकार होने का कर्त्तव्य निभाता है। नवगीत लोकसंपृक्त होता है। महानगरीय बोध की प्रताड़नायें कवि को उद्वेलित करती हैं। डॉ. माहेश्वर तिवारी संग्रह की भूमिका में इसे यूँ लिखते हैं, “कविता का कार्य सिर्फ अनुरंजन नहीं है। वह समाज को प्रेरित और जाग्रत करने की भूमिका का भी निर्वहन करती है। लगभग इसी तरह की भूमिका में रमेश गौतम ने पर्यावरण चिंतन से जुडे़ कुछ गीत लिखे हैं।”11 रमेश गौतम लिखते हैं:

“पहले प्यास बुझे हिरनों की
तब अरण्य से नदी मोड़ना महानगर
गौरय्या भी एक घोंसला रख ले
इतनी जगह छोड़ना महानगर”12

समष्टिगत पीड़ा यहाँ बड़ी ही सुंदरता से स्थान पाती है। नदी के साथ-साथ गौरय्या, हिरन जैसे जीवों की जिंदगी भी कवि की दृष्टि में है। रमेश गौतम के नवगीतों में नदी रहस्यात्मक रूप से भी अवस्थित है। प्रेम में रहस्यात्मकता का आरोप करती निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिये:

“मान जा मन छोड़ दे अपना हठीलापन
 मानते उस पार तेरी हीर है
 यह नदी जादू भरी जंजीर है
 तोड़ दे प्रण सामने पूरा पड़ा जीवन”13

नदी को जादू भरी ज़ंजीर कहकर एक विशिष्ट रहस्य की अभिव्यक्ति कवि करता है। अक़्सर काम की तलाश में व्यक्ति अपना घर-गाँव छोड़कर परदेस में प्रस्थान करता है। दूसरी दुनिया के सुख को कवि ने ‘हीर’ से सम्बोधित किया है। परदेस के रहस्यों की सुन्दर अभिव्यंजना की गई है। ‘नदी अकेली रहती है’ में नदी की अन्तर्पीड़ा का अनुवाद है। यहाँ प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अपनी बात कही है:

“कहाँ माधुर्य वंशी का, नदी के भाग्य में सुनना
बहुत रोती पटक कर सिर, तटों से आजकल यमुना
सहस्रों कालियादह में, नदी रहती अकेली है”14

सार बड़ी गहराई से पकड़ा है। नदी के कल-कल में उसके कल की विकलता-व्याकुलता विशिष्ट रूप से ‘जानती है सच नदी भी’ नवगीत में अभिव्यंजना पाती है। दोषारोपण की सहज मानवीय प्रवृत्ति पर एक प्रश्नचिन्ह लगाता प्रस्तुत गीत वर्तमान ‘सरकारी व्यवस्था’ की पोल भी खोलकर रख देता है:

“जानती है सच नदी भी लोग क्या कहते कहानी
जल-प्रलय पर फिर रचे हैं, राजनीति ने स्वयंवर
फिर नदी की मुँह दिखाई में करोड़ों की निछावर
फिर नदी के मान-मर्दन की वही रस्में पुरानी”15

प्रकार गंगा की आत्मकथा-सा लगता नवगीत ‘एक मटमैली नदी हूँ’ में नदी का नाद, आर्त्तनाद बनकर मौन-सा हो गया है:

“पुण्य का व्यापार करते घाट पर पण्डे पुजारी
 हर लहर के पाँव से मोती जड़ी पायल उतारी
इस नगर से उस नगर तक, मौन बहती त्रासदी हूँ
मत कहो गंगा मुझे मैं एक मटमैली नदी हूँ”16

नदी को सदैव अपने तटबंधों की सीमाओं में रहकर बहना है। उसकी मजबूरी है कि सामान्य परिस्थितियों में वह अपनी मर्यादा में रहती है। नदी की नैतिकता; समानता-न्याय-निरपेक्षता जैसे गुणों को अपनी अविराम यात्रा में साथ-साथ लेकर चलती है। कवि इसे ‘ध्वनि पर्व’ की ख़ूबसूरत संज्ञा देता है। ‘एक नदी बनकर’ नवगीत में नदी का मानो पूरा दर्शन ही समाहित हो गया है:

“एक नदी बनकर संवेदना, बहना अन्तर्मन के पास
कल-कल ध्वनि पर्वों को साधना आए न किंचित अवरोध
यात्रा में भावुक मंदाकिनी अधरों पर रखना युगबोध
अस्ताचल सूरज के साथ कहीं डूबे न हिरनों की प्यास”17

नदी की निश्छलता, निःस्पृहता, निशब्दता, निःस्वार्थता यहाँ द्रष्टव्य भी है और अनुकरणीय भी। नदी की सच्ची सम्वेदनाओं का इससे अधिक सफल शाब्दीकरण और क्या होगा। स्वयं रमेश गौतम के शब्दों में “संवेदना को शब्दों में प्रतिबिंबित होना चाहिए। गीत हमारी इन्हीं अनुभूतियों का चितेरा रहा है जिसमें आनंद और अवसाद दोनों का अनवरत प्रवाह विद्यमान रहा है। हमारा हर संवेदना क्षण गीतों में जीवंत हुआ है।”18 कहना न होगा कि रमेश गौतम ने नदी की हर एक सम्वेदना को अपने इन नवगीतों में प्रवाहमयता प्रदान की है। यह प्रवाहमयता जितना इन नवगीतों को विशिष्ट बनाती है, उतना ही काव्यरस के अमरजल से पाठकों को भी अभिरसमय कर देती है। नदी की गहराई जैसे ये नवगीत अपने शब्दों में असंख्य भावों की ऊर्मियाँ समेटे हुए हैं।

डॉ. नितिन सेठी
सी-231, शाहदाना कॉलोनी,
बरेली (243005)
मो. 9027422306

सन्दर्भ सूची:

  1. डॉ. रघुवंश, प्रकृति और काव्य, पृ. 4

  2. रमेश गौतम, इस हवा को क्या हुआ, नदी की धार, पृ. 57

  3. वही, बोलो अन्तर्मन, पृ. 138

  4. वही, एक नदी गहरी, पृ. 65

  5. डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित, रस सिद्धांत: स्वरूप-विश्लेषण, पृ. 372

  6. रमेश गौतम, इस हवा को क्या हुआ, दुख है ऐसा अतिथि, पृ. 92

  7. वही, मैं अकेला ही चला हूँ, पृ. 103

  8. अज्ञेय, हिंदी साहित्यः एक आधुनिक परिदृश्य, पृ. 58

  9. कालिदास, अभिज्ञान शाकुन्तलम्,पृ. 113

  10. रमेश गौतम, इस हवा को क्या हुआ , नदी ठहरो, पृ. 126

  11. डॉ. माहेश्वर तिवारी, युगीन सच से संवाद, पृ. 16

  12. रमेश गौतम, इस हवा को क्या हुआ, गौरय्या भी एक घांेसला, पृ0 109

  13. वही, मान जा मन, पृ. 107

  14. वही, नदी अकेली रहती है, पृ. 150

  15. वही, जानती है सच नदी भी, पृ. 160

  16. वही, एक मटमैली नदी हूँ, पृ. 164

  17. वही, एक नदी बनकर, पृ. 142

  18. इस हवा को क्या हुआ, भूमिका पृ. 34

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