आलोचक शिवदान सिंह चौहान और मधुरेश की दृष्टि

01-11-2023

आलोचक शिवदान सिंह चौहान और मधुरेश की दृष्टि

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

शिवदान सिंह चौहान (1918-2000) का नाम प्रगतिशील आलोचना के आरंभिक दौर के आलोचकों में गिना जाता है। उनका प्रसिद्ध आलेख ‘भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता’, जो उन्होंने सन् 1936 में लिखा था, सन् 1937 में विशाल भारत के मार्च अंक में 16 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ था। इस आलेख ने एक प्रकार से भारत में प्रगतिशील साहित्य और उसकी आलोचना की स्थापना को बल दिया। शिवदान सिंह चौहान ने हिन्दी आलोचना को प्रगतिशील धारा का मार्ग दिखलाया। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर चिंतन किया, उसके इतिहास की समस्याओं पर व्यापक विचार-विमर्श किया और इसी के साथ आलोचना का अपना सौन्दर्यशास्त्र भी गढ़ा। प्रगतिशील आलोचकों में उस दौर में रामविलास शर्मा, प्रकाशचन्द्र गुप्त, नामवर सिंह, शिवदान सिंह चौहान जैसे दिग्गज मौजूद थे। प्रगतिशील आलोचना के आरंभिक दौर में इसे निश्चित स्वरूप प्रदान करने वालों में सर्वप्रथम नाम शिवदान सिंह चौहान का ही आता है। भारतीय साहित्य में प्रगतिशीलता और प्रगतिशील साहित्य के बारे में मौलिक विचार आरंभिक दौर में शिवदान सिंह चौहान ने ही प्रस्तुत किए। आगे चलकर धीरे-धीरे इसी कारण से प्रगतिशील आलोचना के समीक्षा सिद्धांत भी अपना स्वरूप निर्धारित कर सके और इस प्रकार शिवदान सिंह चौहान के समीक्षा सिद्धांत भी सामने आए। शिवदान सिंह चौहान को इसलिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने कला, कला के लिए नहीं अपितु कला संसार को बदलने के लिए है, इस सूत्र वाक्य को ही प्रगतिशील साहित्य का लक्ष्य मानकर आजीवन काम किया। इसीलिए प्रगतिशील आलोचना मानव को मानव के रूप में देखने और उसके अधिकारों की बात करती है। इसी के साथ शिवदान सिंह चौहान ने व्यावहारिक आलोचना पर भी गहराई से विचार किया। साहित्य सम्बंधी सिद्धांतों की विवेचना के साथ ही उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया। उस समय इसकी आवश्यकता भी थी। इतिहास को नए सिरे से देखने का दृष्टिकोण शिवदान सिंह चौहान ने अपने तरीक़े से प्रस्तुत किया। इसीलिए कदाचित् शिवदान सिंह चौहान की व्यावहारिक आलोचना हिन्दी साहित्य जगत् से एक प्रकार का संवाद स्थापित करती दिखाई देती है। उन्होंने आलोचक को सदैव साहित्य के मंदिर का द्वारपाल माना।

उल्लेखनीय है कि शिवदान सिंह चौहान ने अपनी आलोचना अधिकांशतः निबंधों के रूप में प्रस्तुत की है। ये निबंध आलोचनात्मक और वैचारिक निबंध हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि शिवदान सिंह चौहान के रचनाकर्म पर आधारित पुस्तकें आज भी बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हैं। प्रख्यात् आलोचक मधुरेश ने अपनी पुस्तक ‘मार्क्सवादी आलोचना और शिवदान सिंह चौहान’ (आधार प्रकाशन, पंचकूला) में उन पर बड़ी गहराई से विचार किया है। मधुरेश मार्क्सवादी आलोचना और सौन्दर्यशास्त्र सम्बंधी प्रश्नों को शिवदान सिंह चौहान के परिप्रेक्ष्य में संतुलित और व्यापक रूप से देखते हैं। शिवदान सिंह चौहान की आलोचनात्मक सक्रियता का महत्त्वपूर्ण कालखंड सन् 1951 से 1960 के बीच का ही ठहरता है। उनकी उल्लेखनीय पुस्तकें ‘हिन्दी गद्य साहित्य’ (1952), ‘हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष’ (1954), ‘साहित्यानुशीलन’ (1955), ‘आलोचना के मान’ (1958), ‘साहित्य की समस्याएँ’ (1959) और ‘आलोचना के सिद्धांत’ (1960) आदि इसी एक दशक में प्रकाशित हुई हैं। उनके आरंभिक दौर के बहुत से महत्त्वपूर्ण निबंध भी बाद की इन्हीं पुस्तकों में सम्मिलित कर लिए गए हैं। उनके आलोचनात्मक और वैचारिक निबंधों के रूप में उनका अधिकांश लेखन उपलब्ध है। किसी भी लेखक का उनका कोई स्वतंत्र मूल्यांकन उपलब्ध नहीं है। ‘हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष’ और ‘आलोचना के सिद्धांत’ उनकी योजनाबद्ध पुस्तकें हैं। निबंधों और समीक्षाओं के रूप में किए गए अपने लेखन के बारे में टिप्पणी करते हुए शिवदानसिंह चौहान लिखते हैं, “प्रारम्भ से ही सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेते रहने के कारण मैं अब तक सौभाग्य या दुर्भाग्य से वस्तुतः एक ख़ाना-बदोश की-सी ज़िन्दगी बिताने को ही विवश रहा हूँ। ऐसे में, किसी पूर्व निश्चित योजना के अनुसार एक समय में, एक ही स्थान पर जमकर लिखने की कल्पना भी असम्भव रही है, जिससे विभिन्न परिस्थितियों में हमारे साहित्य के सामने जो समस्याएँ उठती गईं या जिन पुस्तकों की समीक्षा का आग्रह टालना सम्भव न हुआ, उन पर ही लिखने-लिखाने का समय निकाल पाया हूँ। इन्हें पढ़कर पाठकों को साहित्य के मूल्यांकन की एक वैज्ञानिक किन्तु रसज्ञ दृष्टि और पद्धति का ज्ञान अवश्य हो जाएगा और एक सीमा तक उनका साहित्यबोध भी गहरा और व्यापक होगा, जिसका प्रयोग वे अन्य कृतियों के मूल्यांकन में स्वयं कर सकेंगे।”1 शिवदान सिंह चौहान के सन्दर्भ में मधुरेश लिखते हैं, “इस वक्तव्य में लेखक की कदाचित् यह प्रच्छन्न इच्छा भी समाहित है कि उसकी ये रचनाएँ व्यावहारिक आलोचना में एक मॉडल के रूप में इस्तेमाल की जा सकती हैं। इसी तरह मुख्य रूप से सन् 51 और 55 के बीच लिखे गए अपने निबंधों के संकलन ‘साहित्य की समस्याएँ’ की संक्षिप्त भूमिका में भी उन्होंने अपने आलोचनात्मक सरोकारों का ख़ुलासा किया है। इसे ही उन्होंने महान और श्रेष्ठ साहित्य के मूल्यांकन में आलोचनात्मक विवेक और कलाभिरुचि के विकास के रूप में रेखांकित किया है।”2 

इसी प्रकार संकलन में संकलित रचनाओं की प्रकृति पर टिप्पणी करते हुए शिवदानसिंह चौहान अपनी पुस्तक ‘साहित्य की समस्याएँ’ की भूमिका में लिखते हैं, “श्रेष्ठ साहित्य की रचना या उसके मूल्यांकन के मार्ग में यदि किसी प्रकार के मतवाद, अतिवाद ग़ैर-ज़िम्मेम्मेदार दृष्टिकोण या सामाजिक परिस्थितियाँ बाधक बनी हैं तो यह हमें गवारा नहीं हुआ और हमने उनके विरुद्ध खुलकर प्रतिवाद किया है। साहित्य चिंतन में सत्य और विवेक को प्रतिष्ठित करना ही इन विविध-विषयक निबंधों का उद्देश्य है।”3 

मधुरेश के अनुसार, “शिवदान सिंह चौहान ने मार्क्सवादी आलोचना की न तो कोई व्यवस्थित सैद्धांतिकी तैयार की है और न ही किसी लेखक को लेकर ऐसी व्यावहारिक आलोचना का उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसके आधार पर उनके आलोचनात्मक प्रतिमानों की व्याख्या की जा सके। उन्होंने जो कुछ लिखा है वह या तो निबंधों की शक्ल में है या फिर कुछ पुस्तकों के मूल्यांकन के रूप में। इनके अतिरिक्त उनकी ‘हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष’ को ही उनकी व्यवस्थित पुस्तक मानकर उनके वैचारिक संघर्ष और उस दौर में उठे मुद्दों एवं सवालों पर उनके द्वारा लिए गए स्टैंड को समझा जा सकता है। इस आकलन से एक ओर यदि हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना के विकास में उनकी भूमिका को समझा जा सकेगा, वहीं रामविलास शर्मा से उनके मतभेद के मुद्दे भी स्पष्ट हो सकते हैं क्योंकि अपने इस विवाद को वे दो दिग्गजों की आपसी लड़ाई मानते हैं जो उन्हीं के अनुसार परस्पर विरोधी हैं है। इस प्रसंग में शिवदान सिंह चौहान के जिन निबंधों का विशेष महत्त्व है उनमें ‘साहित्य की परख’, ‘प्रगतिवाद’, ‘आलोचक का दायित्व’, ‘मानव आत्मा के शिल्पियों से’, ‘जनपदीय भाषाओं का प्रश्न’, ‘आलोचना के मान’, ‘आलोचना में सौंदर्य और सामाजिक मूल्य’, ‘साहित्यकार की आस्था’, और ‘मूल्यांकन की समस्या’ आदि का उल्लेख किया जा सकता है। शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ये निबंध हिन्दी आलोचना में गंभीर और सुगठित निबंधों के उदाहरण तो हैं ही, एक पूरे कालखंड की आलोचनात्मक हलचलें भी उनमें सुरक्षित हैं। शिवदान सिंह चौहान ने ‘साहित्य की परख’ में अनेक ऐसी स्थापनाएँ कीं जिनके कारण आगे चलकर विवाद शुरू हुए। आलोचक के दायित्व के रूप में ‘संस्कृति की रक्षा’ के सवाल से आगे जाकर वे ‘नयी संस्कृति के निर्माण’ की बात भी करते हैं।”4

शिवदान सिंह चौहान के पास अपने समय की रचनाशीलता और उसके परिप्रेक्ष्य की सही समझ उपस्थित है। इसी के उपयोग के द्वारा शिवदान सिंह चौहान आलोचना में विध्वंस और संहार से बचते हैं और साथ ही लेखकों के एकांगी और अतिरंजित व अविश्वसनीय बखान से भी दूर रहते हैं। मधुरेश के अनुसार, “एक आलोचक के रूप में शिवदान सिंह चौहान की मुख्य चिंता समग्रता और वस्तुनिष्ठता के आग्रह के रूप में रेखांकित की जा सकती है। यह अकारण नहीं है कि उनके आलोचना-कर्म में राष्ट्रीय दृष्टि स्वाधीन भारत में नवनिर्माण की समस्या स्वाधीनता, समाजवाद, विश्वशांति और पंचशील तथा सह-अस्तित्व के सिद्धांतों की अनुगूँज वाद्यवृंद के सामूहिक संगीत-सी बजती सुनाई देती है। वस्तुतः इसी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में वे ‘तुच्छ’ और ‘असुंदर’ के विरुद्ध श्रेष्ठ और सार्थक की प्रतिष्ठा का आलोचनात्मक अभियान शुरू करते हैं। ‘रसज्ञता’ और ‘विशेषज्ञता’ के द्वन्द्व में वे रसज्ञता का वरण करने वाले आलोचक हैं। सौन्दर्यबोध और जीवनबोध को विकसित और समुन्नत करना वे आलोचना का मुख्य प्रकार्य मानते हैं। आलोचना श्रेष्ठ रचनाओं का सिर फोड़ने के लिए अंधे की लाठी नहीं है।”5

शिवदान सिंह चौहान ने बहुत सीमित संख्या में ही पुस्तकों की समीक्षा की परन्तु उनके इस चुनाव में उनके आलोचना विवेक और उनके सौन्दर्यपरक दृष्टिकोण को देखा जा सकता है। उन्होंने अन्य समालोचकों की तरह तुलनात्मक आलोचनाएँ प्रस्तुत नहीं कीं। बिना किसी आधार के रचनाकारों के परस्पर विरोधी युग्म बनाने में उनका कभी भी विश्वास नहीं रहा। निराला और पंत या फिर प्रेमचंद और शरत्चंद्र जैसे युग्म उनके यहाँ नहीं मिलते। उन्होंने जिन रचनाकारों को आलोचना के लिए चुना, उनके गुण-दोषों का समूचे सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने उस दौर के महत्त्वपूर्ण लेखकों को साम्प्रदायिक, नस्लवादी और अश्लील मानकर ख़ारिज नहीं किया अपितु इनकी सीमाओं को समझते हुए इनकी रचनात्मकता का गहनता से वे उनका मूल्यांकन करते हैं। 

शिवदान सिंह चौहान ‘आलोचना’ पत्रिका के हिन्दी साहित्य के इतिहास पर केन्द्रित अंक अक्टूबर 1952 में निकाल चुके थे। इसके संपादकीय का शीर्षक ही उन्होंने ‘साहित्य के इतिहास की समस्या’ रखा था। आगे चलकर उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष’ नामक पुस्तक की रचना की जिसमें हिन्दी साहित्य के इतिहास से सम्बंधित अनेक तथ्य उन्होंने उजागर किए। शिवदान सिंह चौहान लिखते हैं, “इतिहास लेखन के सन्दर्भ में ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल और मध्ययुग में उन बहुत-सी भाषाओं और बोलियों-राजस्थानी, मैथिली, अवधी और ब्रज आदि को भी ‘हिन्दी’ के अंतर्गत रखकर देखा जाता है। इसमें यह स्वीकृति-सी दिखाई देती है कि हिन्दी किसी एक भाषा का नाम नहीं बल्कि शौरसेनी और अर्ध-मागधी अपभ्रंशों से आठवीं-दसवीं शताब्दियों के बीच प्रचलित हुई जनपदीय भाषा-समूह का नाम है। लेकिन आधुनिक काल की चर्चा के प्रसंग में हम इन भाषाओं और बोलियों के प्रति असहिष्णु हो उठते हैं। इसी का स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि आधुनिक काल से पहले तक हम हिन्दी भाषा समूह का इतिहास लिखते हैं लेकिन आधुनिक काल आते ही हम संघ भाषा हिन्दी (खड़ी बोली का संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक रूप) का इतिहास लिखने लगते हैं।”6

मधुरेश इस पर टिप्पणी करते हैं, “उनकी थीसिस की मूल स्थापना यह है कि जिसे सचमुच हिन्दी साहित्य कहा जा सकता है वह वस्तुतः खड़ी बोली हिन्दी का ही साहित्य है जिसकी शुरूआत भारतेंदु युग से हुई। हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रंथों में जिसे हिन्दी साहित्य का इतिहास कहकर प्रस्तुत किया जाता रहा है, वह वस्तुतः ‘हिन्दी भाषा-समूह’ का इतिहास है जिसमें मैथिली, अवधी, ब्रज और राजस्थानी आदि को शामिल किया जाता रहा है। इस पद्धति का सबसे बड़ा अंतर्विरोध यह है कि आदिकाल से रीतिकाल तक तो इस भाषा-समूह को ‘हिन्दी’ के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन आधुनिक काल के इतिहास के संदर्भ में इस पद्धति को त्यागकर सिर्फ़ खड़ी बोली हिन्दी के साहित्य को ही स्वीकृति दी जाती है। चूँकि भारतेन्दु-युग में भी काव्यभाषा के रूप में ब्रज भाषा की स्वीकृति थी, स्वयं भारतेन्दु और उनके सहयोगियों ने ब्रजभाषा में ही काव्य रचना की थी, इसलिए खड़ी बोली हिन्दी के साहित्य का शुभारंभ शिवदान सिंह चौहान भारतेन्दु हरिश्चंद्र के प्रहसन ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ से मानते हैं, जो सन् 1873 में प्रकाशित हुआ। ‘हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष’ (1954) चूँकि सन् 53 में लिखी जा रही थी इसीलिए चौहान इस सम्पूर्ण कालावधि को अस्सी वर्षों की सीमा में बाँधकर देखते हैं। लेकिन खड़ी बोली हिन्दी के साहित्य को इस संक्षिप्त काल-सीमा में रखकर भी वे हिन्दी को उतना ही पुराना मानते हैं जितनी भाषा समूह की अन्य भाषाएँ हैं। वे अमीर खुसरो और कबीर की रचनाओं में खड़ी बोली के यत्र-तत्र प्रयोगों के आधार पर खड़ी बोली की किसी प्राचीन परंपरा की खोज को व्यर्थ मानते हैं। लेकिन शिवदान सिंह चौहान की इस थीसिस से स्पष्ट नहीं होता कि जब मात्र कुछ शब्दों के रूप में ही खड़ी बोली का अस्तित्व सीमित था, और जिन कवियों की भाषा में वे प्रयोग उपलब्ध थे, उनकी काव्यभाषा ब्रज, अवधी या कोई अन्य भाषा थी जिसे चौहान ‘हिन्दी भाषा समूह’ की भाषा कहते हैं तो फिर कुछ शब्द प्रयोगों के आधार पर ही उसे खड़ी बोली हिन्दी भाषा के रूप में स्वीकृति कैसे दी जा सकती है?”7

प्रत्येक आलोचक की तरह शिवदान सिंह चौहान की समीक्षा पद्धतियों की भी अपनी सीमा रेखाएँ हैं। मधुरेश शिवदान सिंह चौहान की समीक्षा पद्धति की सीमाओं का भी स्पष्ट उल्लेख करते हैं। वे लिखते हैं, “शिवदान सिंह चौहान की आलोचनात्मक सक्रियता का दौर अपेक्षाकृत बहुत छोटा है। उसकी कालावधि पाँचवें दशक के उत्तरार्द्ध से शुरू होकर छठे दशक का अंत होने तक समाप्त हो जाती है। आलोचना में जिस मानववादी साहित्य की प्रतिष्ठा का अभियान उन्होंने शुरू किया, उसे वे स्वयं ही बहुत दूर तक नहीं ले जा सके। उनके आलोचना कर्म को एक व्यवस्थित पद्धति की तरह उपयोग में लाने की सम्भावना क्षीण है। हिन्दी में मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र के निर्माण और विकास में छिटपुट संकेतों के रूप में ही उनके इस प्रकार्य का उपयोग किया जा सकता है। वे परिप्रेक्ष्य और संतुलन के सवाल पर प्रायः ही विश्वसनीय दिखाई देते हैं, लेकिन उदारता की झोंक में अतिरंजना और नए रचनात्मक उन्मेष के नकार के उदाहरण उनके यहाँ भी आसानी से उपलब्ध हैं।”8

शिवदान सिंह चौहान और रामविलास शर्मा आलोचना के अनेक मुद्दों पर दो विपरीत ध्रुवों की तरह से थे। यद्यपि दोनों ने ही अपनी पत्रिकाओं ‘आलोचना’ और ‘समालोचक’ में एक-दूसरे को पर्याप्त आदर और सम्मान के साथ प्रकाशित किया परन्तु फिर भी दोनों के समीक्षा सिद्धान्तों में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। रामविलास शर्मा जहाँ लेखकों की स्थापना के प्रयास में लगे हुए थे, शिवदान सिंह चौहान इन सब बातों से अलग अपने द्वारा निर्मित सिद्धान्तों के अनुसार आलोचक थे। मधुरेश स्पष्ट करते हैं, ‘नयी कहानी’ का आंदोलन, अपनी सारी आत्मपरकता और रोमानी रूझान के बावजूद ‘आलोचना’ के उनके दूसरे दौर के सम्पादन काल तक अपने शिखर पर पहुँच चुका था लेकिन शिवदान सिंह चौहान उसके कैसे भी सम्भव मूल्यांकन की अपेक्षा सिर्फ़ उसे ख़ारिज करने में उत्साह दिखाते हैं। आलोचना, पूर्णांक 31, जुलाई ‘64 का उनका सम्पादकीय ‘आज की कहानी: आंदोलन की उपलब्धियाँ’ उनके इसी निषेधवादी रवैये का एक दयनीय उदाहरण है। आलोचना का मुख्य प्रकार्य यदि अपनी समकालीन रचनाशीलता का मूल्यांकन है तो वे यह काम उस सीमा तक भी नहीं कर पाते जितना रामविलास शर्मा अपने आलोचनात्मक नैरन्तर्य के कारण करते दिखाई देते हैं। रामविलास शर्मा से हुए विवाद का कोई लाभ शिवदान सिंह चौहान नहीं उठाते जबकि रामविलास शर्मा पर इस विवाद से उठाए गए लाभ को आसानी से देखा जा सकता है। अपनी अनेक पुरानी स्थापनाओं में गुपचुप फेरबदल और मूल्यांकन के परवर्ती दौर में अपेक्षाकृत एक संयत और संतुलित दृष्टि का उपयोग इस विवाद के ही सुफल माने जाने चाहिए।”9 

शिवदान सिंह चौहान आलोचना में विचारधारात्मक संघर्ष को केंद्रीय महत्त्व देने वाले आलोचक हैं। समाजवाद और जनतंत्र उनकी विचारधारा के सर्वाधिक प्रेरक सूत्र हैं और इन्हीं के पक्ष में वे इनकी विरोधी विचारसरणियों, सामंतवाद, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद आदि की तीखी आलोचना करते हुए इन विचारों से प्रतिनिधि लेखकों की भी गंभीर जाँच-पड़ताल करते हैं। बकौल मधुरेश, “अज्ञेय और नयी कविता के कवियों के व्यक्ति-स्वातंत्र्य की चिंता को वे अमेरिकी कांग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम के तहत पूँजीवादी प्रचार के रूप में देखते हुए सोवियत संघ और समाजवादी व्यवस्था के विरुद्ध प्रचार अभियान के रूप में देखते हैं। लेकिन यहाँ भी वे एक ओर यदि जैनेन्द्र और अज्ञेय और नयी कविता के कवियों को एकदम ख़ारिज न करके व्यक्तिवादी समाजविरोधी, कुंठाग्रस्त और ह्रासशील अंतर्वस्तु के लिए उनकी आलोचना करते हैं, नयी कविता पर वे अस्तित्ववाद के कुंठावादी और हताशापूर्ण प्रभाव को भी अनदेखा नहीं करते। पर्याप्त एकांगी रूप में सार्त्र और कामू की आलोचना करते हुए इन्हें वे मानवद्रोही लेखकों की श्रेणी में रखते हैं। क्योंकि वे केवल मनुष्य की कुंठाओं, हताशाओं और अवसादों को ही अंकित करते हैं। जीवन की उत्सवधर्मिता, उसकी छोटी-छोटी आशाओं और उमंगों को नकार कर वे मूलतः अपने और दूसरों के नरक के ही लेखक हैं। दूसरी ओर परम्परा के मूल्यांकन के सन्दर्भ में वे आलोचक को यह छूट देने को तैयार नहीं हैं कि अपनी पसंद के पुराने लेखकों के प्रति पूरी तरह अनालोचनात्मक दृष्टि अपनाते हुए वह उनके साहित्य में वह सब कुछ देख ले, जो वह चाहता है। वे आलोचक के अपने युगबोध को मूल्यांकन की कसौटी बनाए जाने पर ज़ोर देते हैं, न कि उन पुराने लेखकों के युग के हिसाब से उनके साहित्य में प्रगतिशील तत्त्वों के रेखांकन पर।”10

शिवदान सिंह चौहान ने स्वतंत्र भारत में भाषा चिंतन पर भी अपने विचार व्यक्त किए। चौहान राहुल सांकृत्यायन की इस बात का समर्थन करते थे कि स्वतंत्र भारत में बसने वाली सभी छोटी-बड़ी विकसित या अविकसित भाषाओं को साहित्य और विज्ञान की भाषा के रूप में अपने चतुर्मुखी विकास की सुविधा उपलब्ध कराई जाएँ। राहुल सांकृत्यायन इस सन्दर्भ में सोवियत मॉडल के समर्थक थे। शिवदान सिंह चौहान राहुल सांकृत्यायन का समर्थन करते हुए ‘महापंडित राहुल सांकृत्यायन और जनपदीय भाषाओं का प्रश्न’ नामक आलेख में राहुल जी की चिंता को सामने लाते हैं कि कहीं आज़ादी के बाद भी मातृभाषाओं की अवहेलना करने की नीति क़ायम न रहे और देश के हर व्यक्ति को शिक्षित करने का जनवादी सपना केवल सपना ही बना रहे। 

शिवदान सिंह चौहान ने अपनी पत्नी विजय चौहान के साथ मिलकर विश्व साहित्य की अनेक महान कृतियों का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया था। इसकी एक लंबी सूची है। लगभग पैंतीस पुस्तकों का अनुवाद उन्होंने किया। श्रेष्ठ मानववादी कृतियों के अध्ययन और अनुवाद की तरफ़ शिवदान सिंह चौहान ने बहुत ध्यान दिया था। मधुरेश शिवदान सिंह चौहान के विदेशी भाषाओं की महत्त्वपूर्ण और क्लासिक कृतियों के अनुवाद पर भी विस्तृत चर्चा करते हैं। वे लिखते हैं, “शिवदान सिंह चौहान की आलोचना दृष्टि के निर्माण और विकास में विदेशी भाषाओं के क्लासिक्स की एक महत्त्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका रही है। अपनी पत्नी श्रीमती विजय चौहान के साथ उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं के अनुवाद किए। राष्ट्रों में गंभीर, वैचारिक मतभेद और भयानक शीतयुद्ध के दौर में भी वे मानते थे कि श्रेष्ठ मानववादी कृतियों के अनुवाद की एक विशिष्ट भूमिका होती है। अमेरिका और इंग्लैंड के साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी मूल्यों के विरोध में खड़े होकर भी हम शेक्सपीयर, फील्डिंग, डिकेंस, वाल्ट टिमैन, हेमिंग्वे आदि लेखकों से बहुत कुछ सीख और पा सकते हैं। उनकी आलोचना दृष्टि में जो एक प्रीतिकर खुलापन और सुखद फैलाव है, उसका उत्स कहीं न कहीं इन विदेशी लेखकों और उनकी कृतियों में ही ढूँढ़ा जाना चाहिए। विरोधी विचारधारा की श्रेष्ठ रचनाओं को अनुवाद के लिए चुनने की सदाशयता उनके आलोचना-विवेक एवं प्रतिमानों को भी प्रभावित करती है। जब सोवियत संघ में, मनोवैज्ञानिक जटिलताओं और हताशावादी अवसादपूर्ण रचनादृष्टि के कारण दोस्तोयव्स्की के प्रति लोगों और सरकार का रवैया बहुत उत्साहपूर्ण नहीं था, नए समाज के निर्माण में उनकी रचनाओं की कहीं कोई भूमिका उन्हें दिखाई नहीं देती थी, शिवदान सिंह चौहान उनके साहित्यिक एवं कलात्मक मूल्यों को विशेष महत्त्व देने के कारण ही उनके ‘अपराध और दंड’ तथा ‘महामूर्ख’ जैसे श्रेष्ठ और बड़े उपन्यासों का अविकल अनुवाद करते हैं। ‘महामूर्ख’ की भूमिका में वे दोस्तोयव्स्की को रूस के श्रेष्ठ लेखकों तोलस्तोय, चेखव, तुर्गनेव और गोर्की के साथ रखकर देखते हैं। मानव आत्मा की गहराइयों के चित्रण में उसे विश्व साहित्य में अद्वितीय मानते हैं। दोस्तोयव्स्की के बारे में जिस संतुलित और वस्तुनिष्ठ दृष्टि का परिचय वे देते हैं, वह सिर्फ़ अनुवादक की नहीं, आलोचक की दृष्टि भी है।”11

शिवदान सिंह चौहान ने अपने जीवन काल में अनेक पत्रिकाओं का संपादन किया जिनमें ‘प्रभा’, ‘नया हिंदुस्तान’, ‘हंस’, ‘आलोचना’ और ‘सोशलिस्ट वर्ल्ड पर्सपेक्टिव’ (अंग्रेज़ी) प्रमुख हैं। ‘हंस’ पत्रिका का संपादन उन्होंने सन् 1940 के उत्तरार्ध से 1944 के पूर्वार्द्ध तक किया था। ‘आलोचना’ पत्रिका के संस्थापक संपादक के रूप में वे याद किए जाते हैं। ‘आलोचना’ पत्रिका के दो दौर का संपादन शिवदान सिंह चौहान ने किया था। पहले दौर में शिवदान सिंह चौहान के संपादन में आलोचना के कुल छह अंक निकले—अक्टूबर 1951 से जनवरी 1953 तक। इसके बाद का सातवाँ अंक अप्रैल 1953 में धर्मवीर भारती, रघुवंश, बृजेश्वर वर्मा और विजय देवनारायण साही के संयुक्त संपादन में निकला था। ‘आलोचना’ पत्रिका का दूसरा दौर शिवदान सिंह चौहान के संपादन में बारह वर्ष बाद आता है—जुलाई 1963 में, पूर्णांक 27 के रूप में। इस दूसरे दौर में तीन साल की अवधि में आलोचना के कुल ग्यारह अंक प्रकाशित किए गए जिसमें छह अंक सामान्य और क्रमशः पाँच अंकों में स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य विशेषांक प्रकाशित किया गया। आलोचना पत्रिका के सम्पादन में उन्होंने हिन्दी पाठकों की साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिरुचियों के निर्माण और पुनर्संस्कार के लक्ष्य को सामने रखकर कार्य किया था। आलोचना पत्रिका में संतुलित सामग्री देने का प्रयास किया जिसमें वैचारिकता के साथ-साथ समय के ज्वलंत प्रश्नों के हल ढूँढ़ने के प्रयास भी थे। मधुरेश आलोचना के प्रथम दौर के प्रथम वर्ष पर टिप्पणी करते हैं, “आज जो लोग साहित्य और संस्कृति में बहुलता को लेकर बहुत चिंतित दिखाई देते हैं, अपने सम्पादन वाली पत्रिकाओं में उनकी भरसक यह कोशिश होती है कि साहित्य की जनतांत्रिक बहुलता और समावेशिता के विरुद्ध अपनी अभिरुचियों और पूर्वग्रहों की तानाशाही को ही तरजीह दी जाए। शिवदान सिंह चौहान ने कट्टरता, एकांगिता और हर तरह की संकीर्णता का विरोध करके आधुनिक और प्राचीन साहित्य को समान रूप से परीक्षण, विश्लेषण और मूल्यांकन का आधार बनाया। हिन्दी और उर्दू के अतिरिक्त उन्होंने दूसरी भाषाओं के साहित्य और लेखकों को अपने दायरे में लिया और ज़रूरी होने पर विदेशी लेखकों के अनुवाद भी प्रकाशित किए। ‘आलोचना’ के प्रवेशांक में सम्मिलित लेखकों की सूची ही किसी को आश्वस्त कर सकती है। इसमें वे आलोचक अपेक्षाकृत कम हैं जो तब हिन्दी की प्रगतिवादी आलोचना में ख़ूब सक्रिय और उल्लेखनीय बने थे। प्रकाशचंद्र गुप्त, रांगेय राघव, नामवर सिंह आदि के अतिरिक्त अधिकतर लेखक वे हैं जो प्रगतिवादी आलोचना के बाहर थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी, गुलाबराय, जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, विजयेंद्र स्नातक आदि वे आलोचक यहाँ प्रमुखता से उपलब्ध हैं जो या तो शास्त्रीय साहित्य के आलोचक हैं या फिर आधुनिक प्रगतिवादी साहित्य से उतने सीधे रूप में जुड़े नहीं थे। इसके साथ ही इस प्रवेशांक में उन लेखकों की संख्या किसी को भी विस्मित कर सकती है जो इसी दौर में, या फिर इसके लगभग तत्काल बाद ही, प्रगतिवाद के विरोध में सबसे अधिक सक्रिय थे। ऐसे लेखकों में देवराज, रघुवंश, लक्ष्मीकांत वर्मा, प्रभाकर माचवे आदि के नाम सहज ही ध्यान आकृष्ट करते हैं। नरेन्द्र शर्मा और त्रिलोचन शास्त्री जैसे कवि यहाँ आलोचक की भूमिका में हैं। विदेशी लेखकों में यदि कात्सेतेंतिन फ़ेदिन अपने ‘लेखक और उसकी कला’ के साथ उपस्थित हैं तो भारतीय भाषाओं के आलोचकों में उर्दू के एहतेशाम हुसैन और मराठी के डी.के. बेढेकर शामिल हैं।”12

शिवदान सिंह चौहान ने हिन्दी साहित्य की रचनात्मकता को बीते एक दशक के समय में अस्त व्यस्त, उत्साहहीन और अनुर्वर प्रवृत्तियों से ग्रस्त देखा था। इसीलिए दूसरे दौर की आलोचना पत्रिका के संपादन काल में भी उन्होंने अपने पहले वाले दृष्टिकोण को ही और अधिक धार दी। शिवदान सिंह चौहान द्वारा संपादित आलोचना के संपादकीय में उनके साहित्य संबंधी मान्यताएँ और चिंताएँ बहुत ही संवेदनशीलता के साथ प्रकट होती थीं। इसके अतिरिक्त मूल्यांकन खंड के अंतर्गत विभिन्न पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित की जाती थी प्रत्यालोचना स्तंभ में पिछले अंकों में प्रकाशित आलोचनाओं से असहमति और मतांतर को आमंत्रित किया जाता था। आलोचना ने अपने समय की रचनाशीलता को बहुत हद तक रेखांकित और प्रभावित किया। मधुरेश बहुत विस्तार और गहराई से आलोचना के शिवदान सिंह चौहान द्वारा संपादित आलोचना के कुल सत्रह अंकों का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। 

कहा जा सकता है कि शिवदान सिंह चौहान शायद अकेले ऐसे आलोचक और संपादक रहे हैं जिनके साहित्यिक प्रदेय पर क़ायदे से अभी तक कोई काम देखने में नहीं आता। ऐसे में जब मधुरेश अपनी पुस्तक ‘मार्क्सवादी आलोचना और शिवदान सिंह चौहान’ के माध्यम से उनकी समालोचना, संपादन प्रतिभा और अनुवाद क्षमता पर विस्तारपूर्वक चर्चा प्रस्तुत करते हैं तब उपेक्षा का शिकार एक आलोचक अपने समग्र रूप में सामने आता है। भले ही शिवदान सिंह चौहान भी असहमति और दृष्टिकोण के विभेद अपनी समालोचना में रखते हैं परन्तु फिर भी उन्होंने इन बातों को अपने सिद्धांतों के आगे कभी नहीं आने दिया और न ही कभी मूल्यांकन की कसौटी ही इन्हें बनाया। निष्पक्ष और तटस्थ दृष्टि शिवदान सिंह चौहान की विशेषता रही और यही विशिष्टता मधुरेश ने भी शिवदान सिंह चौहान के मूल्यांकन में प्रस्तुत की है और काफ़ी हद तक वे इसमें सफल भी दिखाई देते हैं। 

डॉ. नितिन सेठी 
सी-231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005) 
मो। 9027422306
drnitinsethi24@gmail.com

 सन्दर्भ सूची:

  1. शिवदान सिंह चौहान, ‘साहित्यानुशीलन’ (भूमिका) 

  2. मधुरेश, ‘मार्क्सवादी आलोचना और शिवदान सिंह चौहान’, आधार प्रकाशन, पंचकूला, (प्र. सं. 2011), पृ. 15

  3. शिवदान सिंह चौहान, ‘साहित्य की समस्याएँ’ (भूमिका) 

  4. मधुरेश, ‘मार्क्सवादी आलोचना और शिवदान सिंह चौहान’, पृ. 20

  5. वही, पृ. 23

  6. शिवदान सिंह चौहान, ‘हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष’, पृ. 7

  7. मधुरेश, ‘मार्क्सवादी आलोचना और शिवदान सिंह चौहान’, पृ. 32

  8. वही, पृ. 39

  9. वही, पृ. 39

  10. वही, पृ. 42

  11.  वही, पृ. 62

  12. वही, पृ. 76

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