बाल-साहित्य की गत्यात्मक आलोचना के मूल्य निर्धारक: डॉ. सुरेन्द्र विक्रम

01-05-2023

बाल-साहित्य की गत्यात्मक आलोचना के मूल्य निर्धारक: डॉ. सुरेन्द्र विक्रम

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 228, मई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

बाल-साहित्य की सामाजिक-नैतिक-शैक्षिक दृष्टि से उपयोगिता और महत्ता असंदिग्ध है। अपने बाल-साहित्य सम्बंधी सृजन में एक रचनाकार जहाँ इनको महत्त्व देता है, वहीं दूसरी ओर बाल मनोविज्ञान और परिवेश को भी नकारता नहीं है। बाल-साहित्य की लम्बी सृजनयात्रा में बाल-साहित्य के इन आयामों पर अनेक रचनाकारों ने ध्यान देते हुए अपना महत्त्वपूर्ण प्रदेय दिया है। बाल-साहित्य समीक्षा भी इन सबसे अछूती नहीं रही है। बाल-साहित्य का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि आज के बदलते समय में इसकी समालोचना को भी एक वैचारिक आन्दोलन के रूप में देखा-समझा जा रहा है। जितना महत्त्व बाल-साहित्य की विभिन्न विधाओं का भंडार भरने को दिया गया, आज उतना ही महत्त्व बाल-साहित्य समीक्षा को भी प्राप्त हो रहा है। आज बाल-साहित्य समीक्षा सम्बंधी जो पुस्तकें प्राप्त होती हैं, उनमें से अधिकांश बाल-साहित्य समीक्षा का एक वैचारिक प्रतिदर्श प्रस्तुत करती हैं। साहित्य की समीक्षा के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है समालोचक का उदारवादी दृष्टिकोण। उदारवादी दृष्टि समीक्षापरक सोच और सृजन के बीच एक ऐसे सेतु का निर्माण करती है जिस पर चलकर कोई भी आलोचक अपने गहन अध्ययन और व्यापक मनन-चिंतन की सहायता से एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण समालोचना प्रस्तुत कर पाता है। गत्यात्मक आलोचना यहीं से अपना स्थान ग्रहण करती है। गत्यात्मक आलोचना प्रक्रिया पर चलते हुए बाल-साहित्य की परम्परा और पहचान की स्थापना को और बाल-साहित्य की उपयोगिता-महत्ता को अनेक बाल रचनाकारों ने पहचाना है। इस गुरुतर कार्यभार को अनेक रचनाकार पूरे मनोयोग से आज निभा रहे हैं। निरंकारदेव सेवक, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, मस्तराम कपूर, डॉ. जयप्रकाश भारती, डॉ. श्रीप्रसाद, डॉ. राष्ट्रबंधु, रमेश तैलंग, प्रकाश मनु, उषा यादव, दिविक रमेश, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, डॉ. शकुंतला कालरा, परशुराम शुक्ल के साथ-साथ आज इस क्षेत्र में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का नाम भी सम्मिलित है। 

अनेक सुधी समीक्षक बाल-साहित्य के क्षेत्र में उपाधि-निरपेक्ष भाव से बाल-साहित्य पर अपनी गवेषणात्मक समीक्षादृष्टि डालकर नये-नये तथ्यों को सामने ला रहे हैं। लखनऊ के डॉ. सुरेन्द्र विक्रम बाल-साहित्य के ऐसे ही मौलिक सर्जक और सुधी समालोचक हैं जिन्होंने पिछले 35-40 वर्षों में बाल-साहित्य पर ही स्वयं को केन्द्रित कर रखा है। बालगीतों, बाल कविताओं और कहानियों के सृजन के साथ-साथ उन्होंने अपना सर्वाधिक समय बाल-साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में दिया है। डॉ. विक्रम अपने रचनात्मक और समीक्षात्मक अवदान से बाल-साहित्य के क्षेत्र को पिछले चालीस वर्षों से अनवरत रूप से कुछ न कुछ प्रदान करते आ रहे हैं। बालकविता और बालकहानी के साथ ही बाल-साहित्य समीक्षा के प्रति उनका योगदान उल्लेखनीय है। बाल-साहित्य की अनेक महत्त्वपूर्ण संगोष्ठियों को आपका मार्गदर्शी प्रतिनिधित्व भी मिलता रहा है। बाल-साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में उनकी कुल छह पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं: ‘हिंदी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास’, ‘हिंदी बाल-साहित्य: विविध परिदृश्य’, ‘बाल-साहित्य: शोध समीक्षा संदर्भ’, ‘समकालीन बाल-साहित्य: परख और पहचान’, ‘बाल-साहित्य परंपरा, प्रगति और प्रयोग’, ‘हिन्दी बाल-साहित्य: शोध का इतिहास’। इसके अतिरिक्त डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बाल-साहित्य सम्बंधी सृजन और रचनात्मक प्रदेय का शोधरूपी वैभवशाली आकलन भी कृतिरूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रो. शंभुनाथ तिवारी डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के सृजनात्मक लेखन के साथ-साथ उनके समीक्षात्मक लेखन को बाल-साहित्य के लिए महत्त्वपूर्ण प्रदेय मानते हैं, “बाल-साहित्य के क्षेत्र में डॉ. सुरेंद्र विक्रम ऐसे ही एक जागरूक बाल-साहित्यकार कहे जा सकते हैं जो अपने समकालीनों में सर्वाधिक ऊर्जावान, सचेत, सक्रिय बाल-साहित्य रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। वे बाल-साहित्य में सृजनात्मक लेखन के साथ-साथ बाल-साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में न केवल सक्रिय हैं, वरन् उसके स्वरूप को लेकर चिंतित और असंतुष्ट रहते हैं। उनकी यह चिंता अक़्सर प्रकट होती रहती है। उन्होंने बाल-साहित्य के कमोबेश सभी पक्षों पर समीक्षात्मक ढंग से विचार किया है। वे बाल-साहित्य लेखन और उससे जुड़े अन्य पहलुओं पर बहुत पैनी नज़र रखते हुए अपना दृष्टिकोण प्रकट करते रहे हैं। सुरेन्द्र विक्रम ने हिंदी बाल-साहित्य में शोध और समीक्षा की दृष्टि से जो सर्वाधिक उल्लेखनीय और विचारणीय कार्य किया है, वह है—हिंदी में बाल-साहित्य विषयक किए गए शोधकार्यों का प्रामाणिक समीक्षात्मक विवरण, जो संभवतः किसी एक व्यक्ति नहीं; बल्कि एक समूह या संस्था द्वारा किया जाने वाला अकादमिक कार्य कहा जाना चाहिए। पूरे देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में बाल-साहित्य विषयक होते रहने वाले शोधकार्यों की सूचना एकत्र करना श्रमसाध्य कार्य तो है ही, मधुसंचयन भी है।”1 अपने आलेख ‘समकालीन हिंदी बाल-साहित्य में शोध एवं समीक्षा के उन्नायक: डॉ. सुरेन्द्र विक्रम’ में प्रो. उषा यादव लिखती हैं, “बहुमुखी प्रतिभा संपन्न डॉ. सुरेन्द्र विक्रम हिन्दी बाल-साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उन्होंने अपनी साहित्य साधना का आरंभ बालकविता से किया परन्तु उनकी प्रतिभा के शुभ्र आलोक से बाल-साहित्य का समीक्षा-क्षेत्र विशेष रूप से उद्भासित हुआ। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम की चिंतन दृष्टि में कहीं उलझाव नहीं है। सब कुछ एकदम स्पष्ट, एकदम सटीक, एकदम पारदर्शी। बात बाल-साहित्य में परम्परा एवं आधुनिकता के संघर्ष की हो या कविता में छंद की अनिवार्यता को लेकर हो, उन्हें सब कुछ एकदम साफ़गोई शैली में कहा है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने बाल-साहित्य में नये और मौलिक अनुसंधान कार्य को सदैव प्रमुखता से लिया है। जब और जहाँ कोई कोना ख़ाली दिखाई दिया, उसे भरने में वह पूरे मनोयोग से लग गए।”2

हिंदी बाल पत्रकारिता पर डॉ. सुरेन्द्र विक्रम की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है ‘हिंदी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास’। इस ग्रन्थ में हिंदी बाल पत्रकारिता का वृहद् इतिहास दर्शाया गया है। प्रस्तुत पुस्तक में उन पत्र-पत्रिकाओं को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से देखा गया है जिन्होंने बाल-साहित्य को आगे बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उल्लेखनीय है कि बड़ों के लिए प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ आसानी से नज़र में आ जाती हैं परन्तु बाल पत्रिकाओं को ढूँढ़ पाना और फिर उन पर अपनी समीक्षात्मक क़लम चलाना आसान नहीं है। वरिष्ठ बाल-साहित्यकार निरंकार देव सेवक लिखते हैं, “जहाँ तक मैं समझता हूँ बाल पत्रिकाओं के इतिहास विकास पर जैसा शोधपरक कार्य डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने किया है, वैसा हिंदी में अन्य किसी ने नहीं किया। बड़ों के लिए प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं पर इस प्रकार का कार्य करना अपेक्षाकृत सरल है। इसलिए कहा जा सकता है कि उन पर लिखा हुआ बहुत कुछ भाषा और साहित्य के इतिहास की पुस्तकों में मिल जाता है। बालपत्रिकाओं पर कुछ लिखना कठिन इसलिए है कि उनमें से ज़्यादातर ऐसी होती हैं जो कुछ ही समय तक निकलने के बाद बंद हो गईं, उनके बारे में जानकारी पाना असंभव सा हो जाता है।”3 150 से अधिक बाल पत्र-पत्रिकाओं का विवरण यह ग्रंथ प्रस्तुत करता है। इस कृति में कुल सात अध्याय हैं जिसमें प्रथम पाँच अध्याय बाल पत्रकारिता का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं और अंतिम दो अध्याय क्रमशः उपसंहार तथा परिशिष्ट हैं। कृति की आवश्यकता, उपयोगिता और सार्थकता उपसंहार में दर्शायी गई है और परिशिष्ट में विभिन्न विद्वानों की सन्दर्भ पुस्तकों की सूची दी गई है। बाल-साहित्य से सम्बंधित और बाल-साहित्य का प्रकाशन करने वाली कुल 137 बालपत्रिकाओं की यहाँ सूची भी दी गई है। पुस्तक के प्रथम अध्याय में बाल-साहित्य के स्वरूप निर्धारण के साथ-साथ इसके उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डाला गया है। इसी अध्याय के अगले भाग में बाल-साहित्य का विधिवत् अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें बालगीत, बालकहानी, बाल उपन्यास, बाल नाटक एवं बाल रंगमंच, बाल जीवनी साहित्य, स्फुट बालोपयोगी लेखन और बालपत्रकारिता; ये सात विधाएँ बाल-साहित्य की मुख्य रूप से दर्शायी गई हैं। विभिन्न विद्वानों की बाल-साहित्य सम्बंधी परिभाषाएँ को यहाँ प्रस्तुत किया गया है। सार्थक बाल-साहित्य रचना के लिए तीन विशिष्ट तत्त्व डॉ. सुरेन्द्र विक्रम यहाँ निर्धारित करते हैं—स्वस्थ मनोरंजन, युगानुकूल ज्ञानवर्धन और जीवनोपयोगी प्रेरणा। पुस्तक का द्वितीय अध्याय स्वतंत्रता पूर्व के बाल पत्रकारिता के इतिहास को प्रस्तुत करता है अर्थात् सन् 1882 से 1947 तक का लेखा-जोखा यहाँ प्रस्तुत किया गया है। ‘बाला बोधिनी’ के बालपत्रिका होने के भ्रम को दूर करते हुए भारतेन्दु युग में सन् 1882 में प्रकाशित मासिक ‘बालदर्पण’ को पहली बालपत्रिका सिद्ध किया गया है। इसी क्रम में तीसरा अध्याय स्वातंत्र्योत्तर बाल पत्रकारिता का इतिहास सन् 1948 से 1960 तक की बाल पत्रिकाओं का विवरण प्रस्तुत करता है। इन तेरह वर्षों में लगभग अट्ठाईस बाल पत्रिकाएँ प्रकाश में आईं। भारतीयों को उस समय स्वतंत्रता प्राप्त हो चुकी थी, इसीलिए बच्चों के विकास के प्रति भी थोड़ा सा ध्यान जाना स्वाभाविक था। डॉ. विक्रम लिखते हैं, “स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। फलतः कई नई बाल पत्रिकाएँ उभरकर सामने आईं, जिनमें से कुछ तो अभी भी चल रही हैं परन्तु कुछ आर्थिक बोझ तथा अन्य संपादकीय, व्यवस्थापकीय कठिनाइयों के कारण अधिक समय तक न चलकर बीच में ही काल के गाल में समा गईं, परन्तु इतना निर्विवाद है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बाल पत्रिकाओं का प्रकाशन बड़ी तेज़ी से प्रारंभ हुआ। अनेक व्यक्तिगत संस्थानों और उत्साही नवयुवकों ने बच्चों की पत्रिकाएँ निकालने में सक्रियता दिखलाई।”4 

बालभारती, प्रकाश, चंदामामा, नन्ही दुनिया, जीवनशिक्षा, स्वतंत्र बालक, पराग, नन्हे-मुन्ने, कुक्कू, बाल फुलवारी, हमारा शिशु आदि पत्रिकाओं का यहाँ उपयोगी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। चतुर्थ अध्याय साठोत्तरी बाल पत्रकारिता का इतिहास सन् 1961 से 1990 तक का अध्ययन प्रस्तुत करता है। उल्लेखनीय है कि इसी कालखंड में बच्चों को शिक्षा, सामाजिकता और वैज्ञानिक चेतना से जोड़ने वाली बाल पत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं। बेसिक बाल शिक्षा, फुलवारी, बाल लोक, बाल दुनिया, रानी बिटिया, नंदन, मिलिंद, अलीगढ़ के शिशु, बच्चों का अख़बार, छात्र हितैषी, चंपक, लोटपोट, शिशुरंग, बाल-साहित्य समीक्षा, बाल पताका, देवपुत्र, रॉकेट, चंदन, सुमन सौरभ, उपवन, चकमक आदि पत्रिकाओं का उल्लेख यहाँ मिलता है। पुस्तक का पंचम अध्याय हस्तलिखित बाल पत्र-पत्रिकाओं का समीक्षात्मक अध्ययन है। 1946 से प्रकाशित ‘बालसखा’ पत्रिका मुद्रित होने से पूर्व हस्तलिखित रूप में भी निकाली जाती थी। डॉ. विक्रम विष्णुकांत पांडेय के माध्यम से लिखते हैं, “सन् 1948 के आसपास लगभग 50 हस्तलिखित बाल पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेख मिलता है। हस्तलिखित बाल पत्र-पत्रिकाओं ने जो आंदोलन शुरू किया, उसे आगे बढ़ाने का श्रेय तत्कालीन बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘बालसखा’ को है। ‘बालसखा’ की सम्पूर्ण सामग्री हस्तलिखित पत्रिकाओं से ली गई थी। बालसखा के इस अंक की बड़ी ख्याति हुई।”5 प्रस्तुत अध्ययन में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने बाल पत्र-पत्रिकाओं पर कई दृष्टिकोणों से विचार किया है। बच्चों के हितों का ध्यान रखने वाली पत्रिकाओं को उन्होंने सराहा है जबकि अच्छी बाल पत्र-पत्रिकाओं के असमय बंद हो जाने को लेकर अपना क्षोभ भी उन्होंने प्रकट किया है। आज के बाल-साहित्य पर अपनी चिंता अभिव्यक्त करते हुए डॉ. विक्रम लिखते हैं, “आज युग की सबसे बड़ी माँग है कि गाँव के बच्चों के लिए कुछ बाल-साहित्य लिखा जाए। आज जो बाल-साहित्य लिखा जा रहा है या छपकर सामने आ रहा है, वह शत-प्रतिशत नहीं तो अधिकांश शहर के बच्चों के लिए लिखा जाता है और शहर के बच्चे उसे पढ़ते भी हैं। जब यह गाँव के बच्चों के लिए लिखा ही नहीं जाता, तो उनके द्वारा पढ़े जाने का सवाल ही नहीं उठता। फिर उन पत्र-पत्रिकाओं की गाँव के बच्चों तक पहुँचने की समस्या भी है। वास्तविकता यह है कि जब गाँव के बच्चों को उद्देश्य बनाकर बाल-साहित्य लिखा ही नहीं जाता, तो उनके लिए पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यही कारण है कि आज बाल-साहित्य जगत् में ऐसी कोई पत्रिका नहीं है जो गाँव के बच्चों के लिए छपती हो।”6 इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक हिंदी बाल-साहित्य के पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास और विकास पर आलोचनापरक दृष्टि डालती है। 

‘हिंदी बाल-साहित्य: विविध परिदृश्य’ पुस्तक अनुभूति प्रकाशन, इलाहाबाद से सन् 1997 में प्रकाशित हुई है। भूमिका में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम लिखते हैं, “बाल-साहित्य चाहे जितनी भी उन्नति कर ले, लोग उसकी ओर से आँखें मूँदे रहेंगे। आप चाहे ढोल बजाकर बाल-साहित्य की संपूर्णता, समृद्धि, समर्थता और उसके औचित्य का बयान करें, वे अपने दोनों कान बंद किए रहेंगे। आज इन बंद कानों को खोलने की आवश्यकता है। बाल-साहित्य का शंखनाद हो रहा है। अगर अब भी ये बंद कान न खुले, तो निश्चय ही उनकी श्रवणशक्ति पर संदेह होने लगेगा। आज बाल-साहित्य ने अपनी सौ वर्षों से अधिक की यात्रा के पश्चात् ऐसी जगह बनाई है जिस पर सहज ही गर्व किया जा सकता है। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, खंडकाव्य, वैज्ञानिक लेखन, स्फुट बालोपयोगी लेखन सभी क्षेत्रों में समृद्ध रचनाकारों का अंबार लगा है। कुछ रचनाएँ तो ऐसी हैं जिनका तुलनात्मक अध्ययन विश्वस्तर के बाल-साहित्य से किया जा सकता है। आज बाल-साहित्य को किसी बैसाखी की आवश्यकता नहीं है। बस एक कमी खटकती है कि बाल-साहित्य का उचित मूल्यांकन नहीं हो रहा है। इस मूल्यांकन के अभाव का परिणाम है कि लोग बाल-साहित्य पर फ़ब्तियाँ कस रहे हैं। उसे ‘बचकाना साहित्य’ से संबोधित कर रहे हैं।”7 पुस्तक में कुल छब्बीस आलेख हैं जो क्रमशः ‘चिंतन’, ‘आकलन’ और ‘टीका-टिप्पणी’ नामक तीन खंडों में विभाजित हैं। प्रथम खंड ‘चिंतन’ में कुल नौ समीक्षात्मक आलेख हैं जिनमें हिंदी बाल-साहित्य: कल और आज, हिंदी बाल-साहित्य: शोध और समीक्षा, छायावादी कवियों का बाल-साहित्य सर्जन, हिंदी बाल-साहित्य के विकास में बाल पत्र-पत्रिकाओं का योगदान, हिंदी बाल-साहित्य के बढ़ते चरण: भूमिका उत्तर प्रदेश की जैसे आलेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। पुस्तक के खंड दो ‘आकलन’ में कुल बारह आलेख हैं। ये आलेख हरिवंशराय बच्चन, रामधारीसिंह ‘दिनकर’, अमृतलाल नागर, निरंकार देव सेवक, सोहनलाल द्विवेदी और शंभूप्रसाद श्रीवास्तव जैसे रचनाकारों पर केन्द्रित हैं। उल्लेखनीय है कि ये सभी प्रौढ़ साहित्य के सिद्ध रचनाकार हैं परन्तु इन्होंने बाल-साहित्य में भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। अन्य आलेखों में परीकथाओं की आवश्यकता एवं उपयोगिता, मत सुनाइए बच्चों को भूत-प्रेत की कहानियाँ, कैसी हों बाल कविताएँ, इसीलिए यह दिन दुनिया के सब बच्चों को प्यारा है आदि आलेख हैं। तीसरा खंड ‘टीका-टिप्पणी’ है जिसमें पाँच आलेखों का संग्रह है। बाल-साहित्य जो छप रहा है, हिन्दी बाल पत्रकारिता की अनुपम कड़ी: बाल वाणी, बच्चों की ऐतिहासिक पत्रिका बालसखा, बाल-साहित्य समीक्षा: इतिहास के आईने में और 1995: बच्चों की नयी किताबें; ये पाँच आलेख हैं। पुस्तक के परिशिष्ट में उपयोगी पुस्तकें और पठनीय पुस्तकें शीर्षक से कुल तिरेपन पुस्तकों की सूची प्रस्तुत की गई है। डॉ. विक्रम अपने एक आलेख ‘सवाल है बच्चों को क्या मिला?’ में समाज के सामने कुछ प्रश्न रखते हैं, “बाल-साहित्य की इस प्रगति के बावजूद भी कहीं कोई कमी है, जिसके अभाव में बाल-साहित्य पूर्णता को प्राप्त नहीं हो रहा है। आज बाल-साहित्य उपेक्षित है और बाल-साहित्यकार बेचारा! आख़िर क्यों? बाल-साहित्य लेखन दोयम दर्जे का माना जाता है, ऐसा क्यों? स्वनामधन्य समीक्षक बाल-साहित्य को साहित्य ही नहीं समझते, ऐसा क्यों? आज बाल-साहित्यकारों को इनके उत्तर खोजने होंगे। तलाश करनी होगी बाल-साहित्य की अस्मिता की।”8 समग्रत: कहा जाए तो प्रस्तुत पुस्तक बाल-साहित्य की अस्मिता की खोज का एक प्रयास है जो विभिन्न आलेखों के माध्यम से क्रमबद्ध रूप से बाल-साहित्य के विभिन्न परिदृश्यों को भी सामने लाती है। 

बाल-साहित्य पर आज पर्याप्त मात्रा में काम किया जा चुका है। न केवल मौलिक-अनुवादित अपितु शोध व समीक्षा के क्षेेत्र में भी आज बाल-साहित्य गर्व कर सकता है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में बाल-साहित्य पर बहुसंख्य शोधकार्य संपन्न करवाए जा चुके हैं और वर्तमान में गतिमान भी हैं। प्रसन्नता की बात यह भी है कि इनमें से अधिकांश शोधग्रंथ प्रकाशित भी हुए हैं। इसके अतिरिक्त बाल-साहित्य की समालोचना के परिप्रेक्ष्य में भी अनेक ऐसे ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं, जो विश्वविद्यालयी शोधप्रक्रिया से कुछ अलग हटकर अपना निरपेक्ष चिंतन प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्रीय प्रकाशन मंदिर, लखनऊ द्वारा वर्ष 1998 में प्रकाशित ‘बाल-साहित्य: शोध, समीक्षा संदर्भ’ पुस्तक अपने प्रत्येक अध्याय में अनूठी है। मोटे तौर पर कृति को कुल पाँच भागों में विभक्त किया गया है। प्रथम भाग भूमिका है जो कुल अठारह पृष्ठों में फैली हुई है। इसमें बाल-साहित्य की विभिन्न प्रकाशित कृतियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। डॉ सुरेन्द्र विक्रम की पीड़ा भी भूमिका के आरम्भ में सामने आती है, “साहित्य के दिग्गज समीक्षकों ने बाल-साहित्य को कभी गंभीरता से नहीं लिया, जिसका परिणाम यह है कि हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में बाल-साहित्य की चर्चा ही नहीं हुई। चाहे आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास रहा हो या डॉ. नगेन्द्र का भारी भरकम इतिहास ग्रंथ, इनमें कहीं बाल-साहित्य का नामोनिशान नहीं हैं।”9 इसके पश्चात् विभिन्न शोध-समीक्षा ग्रंथों की एक लम्बी विवेचना डॉ. विक्रम ने प्रस्तुत की है। यहाँ लगभग शताधिक ग्रंथों का वर्णन हम पाते हैं। इनमें कुछ ग्रंथ अप्रकाशित भी हैं। विभिन्न पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण बाल-साहित्य विशेषांकों का विवरण भी उल्लेखनीय है। प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका पर्याप्त विस्तार के साथ लिखी गई है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का समीक्षक रूप इस भूमिका में स्पष्ट दिखाई देता है। अपने कार्य के उद्देश्य को दर्शाने के साथ-साथ बाल-साहित्य के रचना वैभव और शोध समृद्धि को भी उन्होंने बड़े ही परिश्रम से यहाँ रेखांकित किया है। कृति के द्वितीय भाग में कुल तेईस बाल-साहित्य पर आधारित शोधप्रबंधों का सार आलेखों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। डॉ. स्वाति शर्मा के अनुसार इन्हें छह भागों में विभक्त किया जा सकता है, “स्थान विशेष से सम्बन्धित, बाल-साहित्य का ऐतिहासिक क्रम प्रस्तुत करने सम्बन्धी, पृथक-पृथक विधाओं पर आधारित, तुलनात्मक, प्रवृत्तिगत, रचनाकार विशेष को रेखांकित करने वाले शोधग्रंथ।”10 इन शोधग्रंथों में ‘बांग्ला शिशु साहित्येतर क्रम विकास (डॉ. आशा गंगोपाध्याय), हिंदी बाल साहित्यः एक अध्ययन (डॉ. हरिकृष्ण देवसरे), हिन्दी में बाल-साहित्य (डॉ. ज्योतिस्वरूप), हिन्दी बालकाव्य: एक अध्ययन (डॉ. निर्मला बर्मन), हिंदी बाल-साहित्य का मनौवैज्ञानिक एवं साहित्यिक अनुशीलन (डॉ. श्रीकृष्णचंद तिवारी ‘राष्ट्रबंधु’), हिंदी बाल-साहित्य की रूपरेखा (डॉ. श्रीप्रसाद), चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’: व्यक्तित्व एवं कृतित्व (डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा) आदि के शोधकार्योंं पर समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसी के साथ डॉ. विजया गुप्ता का अंग्रेज़ी शोध प्रबन्ध भी यहाँ लिया गया है। ये समीक्षात्मक विवेचन शोधग्रंथ की सम्पूर्ण रूपरेखा और उसका निष्कर्षात्मक अध्ययन प्रदर्शित करते हैं। पुस्तक के तीसरे भाग में बाल-साहित्य पर आधारित विभिन्न समालोचनात्मक आलेखों को रखा गया है। हिंदी भाषा के 514 तथा अंग्रेज़ी भाषा के 150 आलेखों की विस्तृत सूची आकर्षित करती है। आलेख का शीर्षक, लेखक, पत्रिका का नाम और अंक तथा सम्बन्धित पृष्ठ संख्या का भी यथास्थान उल्लेख कृति की उपादेयता और विश्वसनीयता, दोनों में अभिवृद्धि करते हैं। भारत के कोने-कोने से आज बाल-साहित्य की अनुगूँज सुनी जा सकती है। देशभर के 450 बाल-साहित्यकारों के नाम सहित पूरे पते चौथे खंड की शोभा बढ़ाते हैं। यह देखना-जानना सुखद ही है कि भारत के प्रत्येक राज्य में बाल-साहित्य पर मनन-चिंतन की पावन परम्परा गतिमान है। पाँचवें भाग में दो खंड हैं-परिशिष्ट एक व दो। पहले परिशिष्ट में बाल-साहित्य में किये गये कुल 62 शोधकार्यों की सूची है। इसमें शोधार्थी का नाम, शोध का विषय, वर्ष, विश्वविद्यालय और प्रकाशित-अप्रकाशित होने की पूर्ण सूचना दी गई है। दूसरे परिशिष्ट में ‘बाल-साहित्य समीक्षा की स्थिति’ खंड के अन्तर्गत 21 पुस्तकों के नाम, लेखक/संपादक, प्रकाशन वर्ष तथा प्रकाशकों के नाम दिये गये हैं। इस प्रकार पुस्तक को सर्वविध उपयोगी, ज्ञानवर्धक और संदर्भयुक्त बनाया गया है। प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित इस सम्बन्ध में लिखते हैं, “एक ओर उन्होंने बाल-साहित्य के प्रणयन में अपनी गति-मति प्रदर्शित की है और दूसरी ओर शोध-समीक्षा की दिशा में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। यह दुर्लभ योग है। रचनाकार प्रायः शोधक और समीक्षक नहीं हो पाता अथवा यह कहें कि शोधक-समीक्षक प्रायः रचनाधर्मिता से नहीं जुड़ पाते हैं। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के इस द्विविध व्यक्तित्व ने इस कृति में दोहरी सफलता प्राप्त की है।”11 डॉ हरिकृष्ण देवसरे के विचार भी इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय हैं, “बाल-साहित्य पर अब तक हुए शोधकार्यों, समीक्षा ग्रंथों और लेखों आदि के बारे में सारे संदर्भों का यह आकलन, बाल-साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि है। मैं समझता हूँ कि सभी भारतीय भाषाओं में यह पहला कार्य है। मेरी दृष्टि में बाल-साहित्य के शोधार्थियों, मर्मज्ञों और हिन्दी के इतिहास लेखकों, समालोचकों और विद्वानों के लिए भी यह ग्रंथ, एक मानक ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत होकर, हिन्दी बाल-साहित्य की समृद्धि को स्पष्ट करेगा और साहित्य जगत् में बाल-साहित्य की गरिमा और प्रतिष्ठा को स्थापित करेगा।”12 प्रख्यात् बाल-साहित्यकार और समीक्षक डॉ. श्रीप्रसाद इस ग्रंथ को बाल-साहित्य का अनुसंधान कोश मानते हुए लिखते हैं, “इस पुस्तक को बाल-साहित्य अनुसंधान कोश की संज्ञा दी जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। बाल-साहित्य विषयक जानकारी के लिए विस्तृत संदर्भ प्रस्तुत करने के साथ ही यह कृति बाल-साहित्य के सृजन, समीक्षा और शोध की प्रेरणा भी प्रदान करती है। बाल-साहित्य: शोध समीक्षा संदर्भ के प्रकाशन के पीछे डॉ. सुरेन्द्र विक्रम की कड़ी मेहनत भी है और बाल-साहित्य को प्रतिष्ठा पहुँचाने का पक्का इरादा भी। बाल-साहित्य विषयक जानकारी के लिए विस्तृत संदर्भ प्रस्तुत करने के साथ ही कृति बाल-साहित्य के सृजन समीक्षा और शोध की प्रेरणा देती है। संपूर्ण कृति बाल-साहित्य का व्यापक परिचय तो देती ही है बाल-साहित्य को मानकीकरण भी प्रदान करती है।”13 ज्ञातव्य है कि डॉ. विक्रम ने इस बात पर पर्याप्त बल दिया है कि बाल-साहित्य पर किए गए शोधकार्यों पर जानकारी का अभाव रहा है। बाल-साहित्य पर होने वाले शोधकार्यों को सामने लाने की प्रक्रिया पर वह अपना विश्वास प्रकट करते हुए लिखते हैं, “बाल-साहित्य में शोध और समीक्षा को लेकर किया गया यह अध्ययन स्पष्ट दर्शाता है कि आज बाल-साहित्य सभी देशों से संपन्न है। इसमें अनेक संभावनाएँ निहित हैं। इसका समीक्षा पक्ष तो उज्ज्वल है ही, शोध की दृष्टि से भी उसमें प्रकाश की किरणें हैं।”14 अपने समग्र रूप में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का इस पुस्तक के माध्यम से बाल-साहित्य शोध समीक्षा संदर्भ के क्षेत्र में किया गया कार्य एक अद्वितीय प्रयास के रूप में सदैव याद किया जाएगा। बाल-साहित्य शोध-समीक्षा की राहें खोलती डॉ. सुरेन्द्र विक्रम की यह कृति बाल-साहित्य के यज्ञ में एक पवित्र आहुति है। 

कुशी प्रकाशन, लखनऊ से सन् 1998 में प्रकाशित ‘समकालीन बाल-साहित्य: परख और पहचान’ पुस्तक में कुल तेईस आलेख और दो परिशिष्ट हैं। प्रस्तुत पुस्तक को सुप्रसिद्ध कवि द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी को समर्पित किया गया है। पुस्तक की भूमिका में श्रीमती शकुंतला वर्मा लिखती हैं, “इस प्रकार के खोजपरक ग्रंथ लिखना सहज कार्य नहीं है। सामग्री जुटाने के लिए प्रकाशित-अप्रकाशित ग्रंथों को ढूँढ़ना, पढ़ना, फिर उसमें से संदर्भों को एकत्र करना अत्यंत विद्रोह कार्य होता है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम अत्यंत उत्साही लेखक हैं। उन्होंने इस दिशा में कार्य कर अपनी कर्मठता, रचनात्मक ऊर्जा, दृढ़संकल्प और मेधावी रचनाधर्मिता का परिचय दिया है।”15 मोटे तौर पर पुस्तक को तीन भागों में बाँटा जा सकता है—समीक्षात्मक आलेख, बाल पत्र-पत्रिकाएँ और स्थापित बाल-साहित्यकार। समीक्षात्मक आलेखों में बाल कल्याण में बाल-साहित्य की भूमिका, बाल-साहित्य की उपेक्षा क्यों, कैसा छप रहा है आज का बाल-साहित्य, पाठ्य साहित्य में बाल-साहित्य का अवदान के साथ-साथ सन् 1995-96-97 की बाल-साहित्य यात्रा को दर्शाया गया है। पुस्तक के दूसरे भाग बाल पत्र-पत्रिकाएँ में भारतेन्दुकालीन बाल पत्रकारिता: एक विश्लेषण, बाल पत्रकारिता के विकास में बालहंस का योगदान, बच्चों की संपूर्ण पत्रिका-देवपुत्र, रंग-बिरंगे पुष्पों से सजी-धजी बालवाटिका आदि पर चर्चा की गई है। पुस्तक के तीसरे भाग में रचनाकारों से सम्बन्धित आलेख हैं। बच्चों के मनचाहे कवि: द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, शिशुगीतों के कुशल शिल्पी विष्णुकांत पांडेय, मह-मह-महकता कहानी सौरभ, बाल-साहित्य में अंधविश्वासों के विरुद्ध चेतना, सीपियाण्डेला की सैर का कथा विधान, समकालीन बालकविताओं का दस्तावेज: प्रतिनिधि बालगीत, बड़ों ने लिखा बच्चों के लिए साहित्य आदि आलेख महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं। परिशिष्ट में पठनीय और उपयोगी पुस्तकों की सूचियाँ दी गई हैं। 

उल्लेखनीय है कि डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के उपर्युक्त चारों समीक्षापरक ग्रंथ अपने विवेचन, विश्लेषण और प्रस्तुति में अप्रतिम हैं। अपने प्रदेय, प्रस्तुति और प्रदर्शन में ये ग्रंथ अभूतपूर्व रहे हैं। चाहे समय के साथ बदलते बाल-साहित्य के स्वरूप पर मनन-चिंतन हो, चाहे बाल पत्र-पत्रिकाओं के लंबे इतिहास का लेखा-जोखा हो, चाहे देशभर के विभिन्न विश्वविद्यालयों में बाल-साहित्य संदर्भित शोधकार्यों को सूचीबद्ध करना और उन पर समीक्षात्मक क़लम चलाना हो; इन सभी कार्यों में उन्होंने अपने प्रगाढ़ परिश्रम, व्यापक अध्ययन और बुद्धि कौशल का व्यापक परिचय दिया है। बाल-साहित्य समालोचना का परिदृश्य स्थापित करने में (विशेष रूप से सन् 1995 के बाद) डॉ. सुरेंद्र विक्रम का नाम प्रथम पंक्ति में गिना जा सकता है। बाल-साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में अपने योगदान के बारे में डॉ. विक्रम, डॉ. शकुंतला कालरा के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं, “मैंने अपने लेखन की शुरूआत बाल कविताओं से की थी। बाद में मैंने बच्चों के साथ-साथ बड़ों के लिए भी कहानियाँ लिखीं। हिंदी ग़ज़लों में भी हाथ आज़माया, कवि सम्मेलनों के मंचों पर भी कविताएँ पढ़ीं। कई वर्षों तक अलग-अलग प्रकाशनों के लिए देश और विदेश में हिंदी कार्यशालाएँ कीं। अंत में आकर समीक्षा, आलोचना और शोध में ऐसा रमा कि यही मेरे लेखन का चरम बिंदु हो गया। हिंदी बाल-साहित्य में नए तथ्यों का उद्घाटन तथा उनका शोध दृष्टि से विश्लेषण ही मेरे लेखन का अभिन्न अंग बन गया।”16 

डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बाल-साहित्य सम्बन्धी प्रभूत योगदान को देखते हुए उन पर दो शोधकार्य भी सम्पन्न किए जा चुके हैं। प्रथम है महात्मा ज्योतिबाफुले रोहिलखंड विश्वविद्यालय, बरेली (उत्तर प्रदेश) से ‘डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बाल-साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन’ जो सन् 2010 की पीएच.डी. उपाधि हेतु डॉ. स्वाति शर्मा द्वारा सम्पन्न किया गया है। दूसरा शोधकार्य है जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर (मध्य प्रदेश) से ‘समकालीन हिंदी बाल-साहित्य के विकास में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का अवदान’ जो सन् 2018 में शोध उपाधि हेतु डॉ. दीपशिखा द्वारा प्रस्तुत किया गया है। उल्लेखनीय है कि ये दोनों शोधग्रंथ प्रकाशित भी हो चुके हैं। ‘हिन्दी बाल-साहित्य: डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का योगदान’ ग्रंथ में डॉ. स्वाति शर्मा ने कुल आठ अध्यायों में अपने विषय-विवेचन को विस्तार दिया है। अध्याय एक ‘बाल-साहित्य की अवधारणा’ है जिसके अन्तर्गत बालक क्या है? बाल-साहित्य क्या है? हिंदी बाल-साहित्य: उद्भव और विकास, स्वतंत्रता पूर्व का हिंदी बाल-साहित्य स्वातंत्र्योत्तर हिंदी बाल-साहित्य, हिंदी बाल-साहित्य का विधागत विवेचन, बाल-साहित्य: दशा और दिशा, बाल-साहित्य और आधुनिकता तथा बाल-साहित्य का महत्त्व आदि बिन्दुओं पर मौलिक चिंतनदृष्टि डाली गई है। प्रथम अध्याय में एक प्रकार से हिन्दी बाल-साहित्य का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया गया है। अध्याय दो ‘डॉ. सुरेन्द्र विक्रम: व्यक्तित्व और कृतित्व’ है। जन्मकाल एवं जन्मस्थान, पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं प्रारंभिक जीवन, शिक्षा, व्यावसायिक कर्मक्षेत्र, वैवाहिक जीवन, बाल-साहित्य की ओर झुकाव, स्वभाव एवं अभिरुचियाँ, डॉ. सुरेन्द्र विक्रम की साहित्य साधना के साथ-साथ उनके कृतित्व पर दृष्टि डाली गई है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बालकाव्य का वर्गीकरण अध्याय तीन में प्रस्तुत किया गया है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने बालकाव्य के अंतर्गत सार्थक शिशुगीत, किशोरावस्था सम्बन्धी गीत, खेल सम्बन्धी गीत, त्योहार या उत्सव सम्बन्धी गीत, प्रकृति सम्बन्धी गीत, ऋतु सम्बन्धी गीत, पशु-पक्षी सम्बन्धी गीत, राष्ट्रीय गीत तथा आधुनिकताबोध सम्बन्धी गीतों को अपने सृजन का आधार बनाया है। उनके बालगीतों में कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से लेखिका ने विश्लेषणपरक दृष्टि डाली है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बालगीतों के शिल्प सौन्दर्य और कलागत वैशिष्ट्य पर चतुर्थ अध्याय में चिंतन प्रस्तुत किया गया है, जिसके अन्तर्गत बालगीतों में प्रयुक्त भाषा, रस विधान, अलंकार विधान, बिंब विधान तथा प्रतीक विधान पर लेखिका ने दृष्टि डाली है। विभिन्न बालगीतों के उदाहरण भी प्रमाणस्वरूप यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। अध्याय पाँच डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बालकथा सम्बन्धी अवदान पर आधारित है। स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी बालकथा साहित्य का उद्भव और विकास, स्वातंत्र्योत्तर बाल-कहानियाँ, डॉ. विक्रम के बालकथा संग्रह, कहानी कला की दृष्टि से बाल-कहानियों का विश्लेषण जैसे शीर्षकों के माध्यम से डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बालकथा साहित्य का गहन विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत किया गया है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम बाल-साहित्य के क्षेत्र में अपनी समालोचनात्मक दृष्टि के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। अध्याय छह उनके बाल-साहित्य सम्बन्धी चारों आलोचनात्मक ग्रंथों पर अध्ययन प्रस्तुत करता है। इन ग्रंथों का परिचयात्मक और विवेचनात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया गया है। अध्याय सात में समकालीन बाल-साहित्य के विकास में डॉ. विक्रम के योगदान की चर्चा प्रस्तुत की गई है। उनके द्वारा समय-समय पर संपादित ‘अवध पुष्पांजलि’ और ‘युगसाक्षी’ पत्रिकाओं सहित अन्य पत्रिकाओं के बाल-साहित्य विशेषांकों का मूल्यांकन यहाँ मिलता है। राष्ट्रीय बालभवन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित दस पुस्तकों में उनके शोधपरक आलेखों की भूमिकाएँ, विभिन्न विद्वानों द्वारा डॉ. विक्रम और उनके बाल-साहित्य सृजन पर की गई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियों को भी यहाँ प्रस्तुत किया गया है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम के बाल-साहित्य का वैशिष्ट्य आठवाँ अध्याय है जिसमें उनके बाल-साहित्य की उपयोगिता तथा समकालीन बाल-साहित्यकारों में उनके स्थान को दर्शाया गया है। परिशिष्ट में डॉ. विक्रम से सम्बन्धित अनेक प्रकार की सामग्री दी गई है जिसमें उनका साक्षात्कार, उनकी प्रकाशित पुस्तकों और शोधपत्रों का विवरण, विभिन्न राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता, पुरस्कारों-सम्मानों के विवरण के साथ साथ सहायक ग्रंथों की सूची और चित्रावली भी दी गई है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम की बाल-साहित्य सम्बन्धी उपलब्धियाँ प्रभावित करती हैं। डॉ. स्वाति शर्मा का निष्कर्ष उल्लेखनीय है, “डॉ. विक्रम के काव्य में अधुनातन बालक का मर्मस्पर्शी चित्रण किया गया है। आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि होने के बाद भी उनके बाल-साहित्य में स्वर्णिम इतिहास, संस्कृति और परम्परा को बालक के जीवनमूल्यों से जोड़ कर रखा गया है। उनकी कविताओं का बालक प्रत्येक क्षण ग्रहणशील, संवेदनशील तथा कार्यशक्ति से भरपूर दिखता है। उसकी मासूमियत और अनगिनत इच्छाएँ सामने खड़ी हो जाती हैं, इसीलिए कविताओं से बचपन दूर नहीं जाने पाता। उनका काव्य साहित्य इक्कीसवीं शताब्दी का मुक़ाबला करने वाले बच्चों के लिए अँधेरे में रोशनी बिखेर देने जैसा चुनौती भरा काम करता है। डॉ. विक्रम का काव्य साहित्य कोरी कल्पना के बजाय यथार्थ की भूमि पर टिका है। वे बच्चों को अनावश्यक कल्पना की उड़ान भरने की छूट नहीं देते वरन् वे उसे वास्तविक स्थिति से अवगत कराते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि आज का बच्चा जब तक जीवन के यथार्थ से परिचित नहीं होता, तब तक वह अपने आने वाली ज़िंदगी के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पाएगा। लेकिन इस पर भी वे बालकों को निर्मम यथार्थ से दूर रखते हैं। अतः कहा जा सकता है कि डॉ. विक्रम और उनका बाल-साहित्य आज की अपेक्षाओं पर खरा उतरा है। वह भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए बच्चों को सक्षम और समर्थ बनाता है। डॉ. विक्रम ने अधिकांश ऐसी रचनाएँ लिखीं, जो मनोरंजक होने के साथ ही अपने उद्देश्य में सफल भी हैं। विभिन्न विधाओं में लेखनी चलाने वाले डॉ. विक्रम अपनी समीक्षा और शोधदृष्टि के कारण ही अपने समकालीन साहित्यकारों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। बाल-साहित्य की समीक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जिस कर्मठता और ऊर्जा से अपनी लेखनी चलाई है, वह अद्वितीय है। बाल-साहित्य के सम्बन्ध में उनकी अवधारणाएँ निरंतर स्पष्ट से स्पष्टतर बनती जा रही हैं। डॉ. विक्रम का बाल-साहित्य देखकर ऐसा लगता है कि उन्होंने जीवन के अंगारों को पकड़कर नहीं, हाथ से छूकर देखा है। उस ऊष्मा की निकटतम अनुभूति उनके साहित्य में स्पष्ट है। इसीलिए वे बाल-साहित्य के प्रमुख समीक्षक माने जाते हैं। उनके व्यक्तित्व में एक संपादक के रूप में एक नया आयाम भी जुड़ा है। बाल-साहित्य में उनका एक विशिष्ट स्थान तो है ही, साथ ही यदि यह कहा जाए कि वह अपने समकालीन को भी पीछे छोड़कर अधिक आगे निकल गए हैं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।”17

डॉ. दीपशिखा की पुस्तक ‘डॉ. सुरेंद्र विक्रमः बाल-साहित्य सृजन विमर्श’, डॉ. सुरेंद्र विक्रम के बाल-साहित्य में दिए गए महत्त्वपूर्ण योगदान का समाकलन करती है। लेखिका ने डॉ. विक्रम के योगदान को कुल छह अध्यायों में विभाजित किया है। प्रथम अध्याय में बाल-साहित्य की अवधारणा को प्रतिपादित करते हुए इसके उद्भव और विकास पर प्रकाश डाला गया है। बाल-साहित्य का अर्थ, स्वरूप, परिभाषा, उद्देश्य, आधारभूमि जैसे बिंदुओं के अंतर्गत बाल-साहित्य का सम्प्रत्यय स्पष्ट किया गया है। इसके अगले क्रम में बाल-साहित्य का ऐतिहासिक विवेचन दिया गया है। लेखिका ने यहाँ डॉ. श्रीप्रसाद और अभिनेष कुमार जैन के काल विभाजन को अपना आधार बनाया है। हिंदी बाल-साहित्य का विवेचन भी बाल-साहित्य के विकास की परम्परा में प्रस्तुत किया गया है। बाल-साहित्य की सभी प्रचलित विधाओं का इतिहासपरक विवेचन और विश्लेषण इस अध्याय में है। प्रस्तुत अध्याय में बाल-साहित्य के उद्भव और विकास पर लेखिका ने सामान्य जानकारियाँ ही स्थापित की हैं। बाल-साहित्य को कालखंडों के अनुसार जानना और उसके विकास के बढ़ते चरण देखना महत्त्वपूर्ण है। द्वितीय अध्याय ‘डॉ. सुरेंद्र विक्रम: व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ है जिसमें डॉ. विक्रम के जन्म, शिक्षा-दीक्षा, उच्च शिक्षा, संस्कार पीठिका के साथ-साथ पारिवारिक जीवन की अभिव्यक्ति का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। डॉ. विक्रम का कृतित्व बाल कविता, बाल कहानी के साथ-साथ बाल-साहित्य समालोचना में भी महत्त्वपूर्ण अभिनिवेश रखता है। कृतित्व खंड के अंतर्गत उनकी आरंभिक रचनाओं का विवरण देते हुए डॉ. विक्रम के संपूर्ण बाल-साहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ‘तारों की रेल’, ‘बच्चों के मनमोहक गीत’, ‘अब्बक-डब्बक’, ‘सूरज चंदा’, ‘इक्कीसवीं सदी की ओर’, ‘सारा देश हमारा घर’, ‘खेल खेल में’; ये सात बाल काव्य संग्रह डॉ. विक्रम के अभी तक प्रकाशित हुए हैं। बाल कथा साहित्य में उनकी दो कृतियाँ ‘नीम हकीम ख़तरे जान’ और ‘माँ की ममता’ प्रकाशित हुई हैं। बाल-साहित्य समालोचना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हुए डॉ. विक्रम ने हिंदी ‘बाल पत्रकारिताः उद्भव और विकास’, ‘हिंदी बाल साहित्यः विविध परिदृश्य’, “बाल साहित्यः शोध-समीक्षा-संदर्भ’ तथा ‘समकालीन बाल साहित्यः परख और पहचान’ नामक महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्रदान की हैं। प्रस्तुत अध्याय में इन्हीं पुस्तकों पर केंद्रित तथ्यपरक समीक्षात्मक विवेचन मिलता है। लेखिका का निष्कर्ष महत्त्वपूर्ण है, “डॉ. विक्रम द्वारा बाल-साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में किए गए इस महत्त्वपूर्ण योगदान सम्बन्धी चारों ग्रंथ न केवल बाल-साहित्य का कोना-कोना झाँक आए हैं बल्कि स्वयं लेखक के मान-सम्मान की वृद्धि के हेतु भी बने हैं।”18 प्रस्तुत अध्याय में डॉ. विक्रम की विद्वत्ता, कर्मठता, इच्छाशक्ति और कड़े परिश्रम की चर्चा भी की गई है, जो अनुभव कराती है कि ‘चरैवेति-चरैवेति’ के सिद्धांत का पालन करते हुए डॉ. विक्रम अपने सृजन में आज भी संलग्न हैं। तृतीय अध्याय ‘समकालीन हिंदी बालकाव्य में डॉ. सुरेंद्र विक्रम का अवदान’ है जिसमें लेखिका लिखती है, “इनकी कविताएँ इक्कीसवीं सदी के बालक के विचार और चिंतन को ध्यान में रखते हुए लिखी गई हैं। इनमें कविता के घिसे-पिटे विषयों का अभाव है तथा युगानुरूप सामाजिक परिवेश, समस्याओं बालमनोकामनाओं और उनके विचारों को कविता का हिस्सा बनाया गया है। डॉ. सुरेंद्र विक्रम साहित्य लेखन की किसी अंधी दौड़ में शामिल होकर बाल-साहित्य के नाम पर कुछ भी लिखकर बच्चों पर थोप देने के विरोधी हैं।”19 समकालीन बाल-साहित्य की प्रवृत्तियाँ और डॉ. विक्रम के योगदान को कुल पंद्रह बिंदुओं के अंतर्गत रखा गया है; जिनमें सामाजिक दृष्टि, यथार्थ दृष्टि, वैज्ञानिक प्रगति, बाल मनोविज्ञान, जीवन शैली में बदलाव, राष्ट्रप्रेम, शैक्षिक महत्त्व, प्रकृति सम्बन्धी नवीन दृष्टि, बालिकाओं के प्रति नवीन दृष्टि जैसे बिंदु महत्त्वपूर्ण हैं। डॉ. विक्रम के बालकाव्य में इन सभी बिंदुओं पर महत्त्वपूर्ण बाल कविताएँ मिलती हैं। कोई भी कविता अपनी कलागत विशेषताओं के कारण प्रभावी बनती है। भावपक्ष तो कवि के विचारों और दार्शनिकता की अभिव्यक्ति होता है जबकि कलापक्ष उस अभिव्यक्ति को और भी सुंदर रूप में प्रस्तुत करता है। चतुर्थ अध्याय में ‘डॉ. सुरेंद्र विक्रम के हिंदी बालकाव्य का कलागत वैशिष्ट्य’ समाकलित किया गया है। रस विधान के अंतर्गत डॉ. विक्रम के बाल काव्य में हास्य, वीर और करुण रस दर्शाए गए हैं। वैसे भी बच्चों की रचनाओं के लिए शृंगार, रौद्र, वीभत्स जैसे रस अनुपयोगी ही होते हैं। अलंकार विधान में अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक अलंकारों को सोदाहरण लेखिका ने दर्शाया है। दर्शनीय यह भी है कि बाल कविताएँ अधिकतर चार, आठ या बारह पंक्तियों तक की होती हैं। अपने छोटे से कलेवर में रचे होने के बावजूद भी डॉ. विक्रम की बाल कविताएँ रस और अलंकारों से परिपूर्ण हैं। यही कारण है कि ये कविताएँ बच्चों पर अपना पूर्ण प्रभाव डाल पाने में सक्षम भी रही हैं और उनका पूरा मनोरंजन भी करती हैं। बच्चों की कविताओं में बिम्ब विधान अपनी महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति रखता है। बच्चों की कल्पना की दुनिया में अनेक प्रकार के बिम्ब उनके मन में बनते-बिगड़ते रहते हैं। दृश्य, श्रव्य, स्पर्श, रंग बिम्ब डॉ. विक्रम की कविताओं में पर्याप्त रूप से प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार प्रतीक विधान के अंतर्गत लेखिका ने डॉ. विक्रम के बालकाव्य में प्राकृतिक, मनोवैज्ञानिक, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक प्रतीकों का विवेचन किया है। डॉ. विक्रम के बालकाव्य में एक नवीन प्रकार का प्रतीक भी मिलता है जिसे ‘समस्यात्मक प्रतीक’ कहा जा सकता है। छोटे बच्चे अक़्सर अपने परिवेश में कुछ न कुछ समस्याओं का सामना करते हैं और अपने बड़ों को उन समस्याओं या प्रश्नों से अवगत भी कराते हैं। इस प्रकार उनकी अनेक कविताओं में समस्यात्मक प्रतीक दर्शनीय हैं। चित्रात्मकता, संगीतात्मकता, मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग, युग्म शब्दों का प्रयोग, तत्सम-तद्भव-देशज शब्दावली का प्रयोग, वैज्ञानिक शब्दावली और संकेत भाषा का प्रयोग; ये सब मिलकर डॉ. विक्रम के बालकाव्य की काव्यभाषा का निर्माण करते हैं। प्रस्तुत अध्याय का निष्कर्ष है, “डॉ. विक्रम का काव्य साहित्य समकालीन बाल काव्य साहित्य में प्रवृत्तिगत कसौटी पर पूर्णतया खरा उतरता है। कवि की प्रत्येक रचना उनकी आधुनिकताबोध का प्रमाण देती है। पुराने विषयों या पात्रों में भी खोजी प्रवृत्ति का समावेश कर वे उसे आज के बालक के लिए उपयोगी बनाते रहे हैं। डॉ. विक्रम जैसे रचनाकारों ने बाल कविता में मनोरंजन को बनाए रखते हुए बालकों को व्यापक मनोभूमि प्रदान की है और उन्हें सीखने के अवसर भी दिए हैं जिससे वे स्वयं को समाज योग्य बना सकें तथा आवश्यकतानुरूप समाज को सही दिशा भी दे सकें। डॉ. विक्रम के बालकाव्य सम्बन्धी शिल्प-सौन्दर्य का अवलोकन यह स्वतः सिद्ध कर देता है कि वे एक सफल साहित्य शिल्पी हैं। रस परिपाक की दृष्टि से वे उन सभी रसों का चित्रण करते दिखते हैं, जो बालकों के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त हैं। उनकी भाषा में लगातार नए-नए प्रयोग होते रहे हैं। यदि हम डॉ. विक्रम के शिल्पसौंदर्य के मूल्यांकन की बात करें तो इसमें संदेह नहीं कि उनके द्वारा जिस प्रकार शास्त्रीय मान्यताओं का पालन करते हुए नए प्रयोगों से युक्त साहित्य की रचना की गई है, वह एक कलामर्मज्ञ ही कर सकता है।”20

डॉ. सुरेंद्र विक्रम ने बालकाव्य के साथ-साथ बालकथा साहित्य में भी अपना योगदान दिया है। पंचम अध्याय ‘समकालीन हिंदी बालकथा साहित्य में डॉ. सुरेंद्र विक्रम का योगदान’ है। हिंदी बालकथा साहित्य के संक्षिप्त इतिहास और प्रभावों का अवलोकन करते हुए प्रस्तुत अध्याय में समकालीन हिंदी बाल कहानी की प्रवृत्तियों का वर्णन किया गया है। डॉ. विक्रम की बाल कहानियों का ऐतिहासिक, नैतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थ जीवन, हास्य-व्यंग्य, विनोदपूर्ण-मनोरंजक, पशु-पक्षियों से संबंधित कहानियों के बिंदुओं के अंतर्गत विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। डॉ. विक्रम की कहानियाँ भाव और शिल्प, दोनों ही दृष्टियों से समकालीन बाल कहानी का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनकी बालकहानियों में चित्रों के प्रयोग भी मिलते हैं जिससे उनकी बालकहानियाँ कॉमिक्स की तरह आकर्षक बन जाती हैं और बच्चों को एक साथ ही मनोरंजन तथा ज्ञान देती हैं। ‘समकालीन हिंदी बालसमीक्षा साहित्य में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का अवदान’ छठा अध्याय है। बाल-साहित्य के समीक्षा साहित्य की रूपरेखा दर्शाते हुए लेखिका ने बाल-साहित्य समीक्षा की ऐतिहासिक परंपरा पर प्रकाश डाला है। इसी क्रम में डॉ. सुरेंद्र विक्रम की हिंदी बाल-साहित्य समीक्षा सम्बन्धी कृतियों का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने भी डॉ. विक्रम के बारे में लिखा था, “डॉ. सुरेंद्र विक्रम उन महत्त्वपूर्ण बाल-साहित्य समीक्षकों में से हैं जो इस विधा के लिए पूर्णतया समर्पित तो हैं ही, उनमें बाल-साहित्य की पैनी समझ और उसके मूल्यांकन की दृष्टि भी है। डॉ. विक्रम इस ऐतिहासिक कार्य के लिए बधाई व अभिनंदन के पात्र तो हैं ही, बाल-साहित्य जगत् भी उनके इस अनुदान के लिए ऋणी रहेगा।”21 डॉ. विक्रम के चारों समीक्षा ग्रंथों का अध्ययन एवं मूल्यांकन प्रस्तुत करते हुए लेखिका के शब्द हैं, “डॉ. विक्रम की चारों ही समीक्षा पुस्तकें विशिष्ट रंग-ढंग की हैं और परंपरागत बाल-साहित्य आलोचना से थोड़ा अलग हटकर हैं। डॉ. विक्रम ने अपने इन संग्रहों में भिन्न-भिन्न विषयों पर अपनी समीक्षात्मक क़लम चलाई है। नए विचार, नया चिंतन, नया आख्यान और नए सुझाव प्रस्तुत करते हुए उनके ये समीक्षात्मक ग्रंथ बाल-साहित्य समीक्षा की थाती बन गए हैं। हिंदी बाल पत्रकारिता के उद्भव और विकास पर तो उनका यह अपने आप में पहला ही काम है। बाल-साहित्य की परख और पहचान का आधार स्तंभ बनीं उनकी ये चारों कृतियाँ अत्यंत ज्ञानवर्धक, उपयोगी और मार्गदर्शक हैं।”22 ग्रंथ के उपसंहार में लेखिका डॉ. सुरेंद्र विक्रम के बाल-साहित्य संबंधी अवदान पर प्रकाश डालती है। डॉ. विक्रम अपने लेखन में युगीन परिवेश की चेतना, सुनियोजित लेखन और समग्रता के लिए पहचाने जाते हैं। बाल-साहित्य की विभिन्न संगोष्ठियों में वे भारतवर्ष में जाना-पहचाना नाम रहे हैं। लेखिका ने ‘विभिन्न बाल-साहित्यकारों की दृष्टि में डॉ. सुरेंद्र विक्रम का अवदान’ के अंतर्गत अनेक प्रसिद्ध बाल-साहित्यकारों के डॉ. विक्रम के सम्बन्ध में दिए गए वक्तव्यों को रखा है। निष्कर्ष रूप में लेखिका के शब्द हैं, “अंततः यदि हम डॉ. विक्रम के समकालीन हिंदी बाल-साहित्य में दिए गए योगदान पर दृष्टि डालें तो आधुनिकताबोध और वैज्ञानिक दृष्टि से ओत-प्रोत संग्रहों में संकलित उनका काव्यसंसार, नैतिकता और आदर्श का पाठ पढ़ाने वाला दो संग्रह में संकलित कथालोक और चार ग्रंथों में संकलित समीक्षा साहित्य; यह बताने के लिए पर्याप्त है कि रचनाकार ने बाल-साहित्य को क्या क्या दिया है। इतना ही नहीं, अपने संपादन और बाल-साहित्य विषयक गोष्ठियों के आयोजन-संचालन के माध्यम से भी आपने बाल-साहित्य को संवर्द्धित करने के लिए अथक प्रयास किए हैं जिसको बाल-साहित्य जगत् आसानी से नकार नहीं सकता है।”23 परिशिष्ट में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का संक्षिप्त परिचय, डॉ. विक्रम के पुरस्कारों एवं सम्मानों की सूची, उनकी प्रकाशित पुस्तकों की सूची तथा संदर्भग्रंथों की विस्तृत सूची दी गई है। डॉ. स्वाति शर्मा की पुस्तक ‘हिंदी बाल साहित्यः डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का योगदान’ की शृंखला में ही डॉ. दीपशिखा की प्रस्तुत पुस्तक को एक सुनियोजित-सुगठित प्रयास माना जाना चाहिए। डॉ. दीपशिखा, डॉ. सुरेंद्र विक्रम के बाल-साहित्य सम्बन्धी विचारों का तथ्यपरक परिकलन करने में पूर्णतया सफल रही हैं। डॉ. विक्रम के सृजन और समीक्षा सम्बन्धी योगदान को विभिन्न बिंदुओं के अंतर्गत विस्तार से यहाँ देखा समझा गया है, कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा है। बाल-साहित्य के विस्तार में प्रस्तुत पुस्तक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी, ऐसी कामना है। आराधना ब्रदर्स, कानपुर ने पुस्तक को पूर्ण सुरुचि के साथ प्रकाशित किया है। पुस्तक का अधिक मूल्य कुछ अखरता है। ऐसे सद्प्रयासों की पहुँच प्रत्येक पाठक तक सहजता से होनी चाहिए। 

‘बाल-साहित्य परंपरा, प्रगति और प्रयोग’ पुस्तक प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली से वर्ष 2022 में प्रकाशित है। प्रस्तुत पुस्तक में कुल बीस आलेखों का संग्रह है जो बाल-साहित्य का बहुआयामी परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। पुस्तक की भूमिका में डॉ. विक्रम लिखते हैं, “यहाँ यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि जो भी पुस्तकें पैसे देकर या दबाव डालकर बाल-साहित्य के नाम पर ख़ुद छापकर या छपवाकर बच्चों के लिए परोस दी जाती हैं, उनसे बाल-साहित्य के नाम पर धब्बा लगने का ख़तरा मँडराता रहता है। आज ऐसे बहुत से लेखक हैं जो बड़ों के साहित्य में हाथ आज़माने के बाद असफल होने पर बाल-साहित्य में घुसपैठ करना चाहते हैं। बाल-साहित्य सृजन कोई आसान खेल नहीं है। इस क्षेत्र में वही लोग सफल होते हैं जो अपने अहं को आत्मसात् करके बच्चों से सीधा तादात्म्य स्थापित करते हैं जो अपने लेखन के आरंभिक दिनों में बाल-साहित्य से ही आगे आए और अपने को बाल-साहित्य का मसीहा कहलाने की भूल में बाल-साहित्य पर ही फब्तियाँ कसने लगे। ऐसे लोग आत्मश्लाघा में इतना मुग्ध हो गए हैं कि अपने अतिरिक्त अन्य बाल-साहित्य सृजन को भी शक की नज़रों से घूर रहे हैं। मैं पहले भी यह कह चुका हूँ कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि आज जो भी बाल-साहित्य लिखा जा रहा है, वह सब का सब श्रेष्ठ नहीं है परन्तु कुछ तो ऐसा है ही जिस पर गर्व किया जा सकता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। बड़ों के लिए जो लिखा जा रहा है, क्या वह सभी श्रेष्ठ या उल्लेखनीय है? कदापि नहीं और ऐसा हो भी नहीं सकता है। बाल-साहित्य सृजन बच्चों की ऐसी मिठाई है जिसमें स्वाद को संतुलित बनाने के लिए कई चीज़ों का ध्यान रखना पड़ता है। बाल-साहित्य की लंबी यात्रा में भी अनेक पड़ाव आए हैं। यह यात्रा रुक-रुक कर आगे बढ़ी है और आगे बढ़-बढ़ कर हिचकोले खाती रही है। इसमें कहीं-कहीं अवरोघ भी आए हैं। कुछ रचनाएँ बहुत अच्छी हैं तो कुछ महज़ खानापूर्ति करती हैं। कहीं-कहीं बाल-साहित्य को बहुत हल्के में लेने के कारण यह चूक हुई है। ‌ एक तथ्य यह भी उल्लेखनीय है कि बाल-साहित्यकार और बाल-साहित्य दोनों अनेक आरोहों-अवरोहों से गुज़रकर धीरे-धीरे ही आगे बढ़े हैं। इसमें सच्चाई है कि बड़ों के लिए लिखने वालों ने भी बाल-साहित्य लिखा है, परन्तु कहीं चर्चा-परिचर्चा के अभाव में तो कहीं प्रकाशन के अभाव में लोगों का ध्यान उसकी ओर नहीं गया है।”24 पुस्तक में कुल बीस आलेख हैं। हिन्दी बाल-साहित्य इतिहास के आईने में, बच्चों की पुस्तकों में बचपन, हिन्दी बाल पत्रकारिता, बाल कविता, बाल-साहित्य: परम्परा, प्रगति और प्रयोग, छायावादी कवियों का बाल-साहित्य सृजन, बाल नाटकों में हास्य-व्यंग्य आदि आलेख महत्त्वपूर्ण हैं। कुछ आलेख विभिन्न साहित्यकारों के बाल-साहित्य सृजन से भी सम्बंधित हैं जिनमें रवीन्द्रनाथनाथ टैगोर, हरिवंशराय बच्चन, डॉ. रामकुमार वर्मा, सोहनलाल द्विवेदी और द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी प्रमुख हैं। वरिष्ठ साहित्यकार ओम निश्चल की टिप्पणी पुस्तक के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है, “बालसाहित्‍य की रचना, उसके विवेचन, चिंतन और सतत् विश्लेषण से जो कुछ अध्‍यवसायी आलोचक रचनाकार इसे सर्वसमावेशी बनाकर हिन्दी समाज में जन-जन तक पहुँचाने की यात्रा में संलग्‍न हैं, उनमें कुछ सक्रिय हस्‍ताक्षरों में एक नाम डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का भी है। सुरेन्द्र जी का रुझान छात्र जीवन से ही बालसाहित्‍य की ओर रहा है और अपने अपना पूरा जीवन व्‍यवस्‍थित तरीक़े से बालसाहित्‍य के अध्‍ययन विवेचन में खपा दिया है। प्रौढ़ व स्‍तरीय पाठ्यक्रम से जुड़े होते हुए भी डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का रुझान बाल साहित्‍य से नहीं डिगा तथा अब तक उनकी पचास से ज्‍यादा कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इस क्षेत्र में पूरे समर्पण से यदि किसी को देखता हूँ तो देवसरे और डॉ. श्रीप्रसाद और जयप्रकाश भारती की पीढ़ी के बाद मुझे डॉ. प्रकाश मनु, सूर्यकुमार पांडेय, क्षमा शर्मा, रमेश तैलंग, प्रयाग शुक्‍ल, देवेंद्र मेवाड़ी आदि में वह चिंता दिखती है जो उन्‍हें पूरी शिद्दत से बाल साहित्‍य रचना और उसकी व्‍याप्‍ति से जोड़ती है। इनमें डॉ. प्रकाश मनु की मेधा के ही लगभग समतुल्‍य डॉ. सुरेन्द्र विक्रम में वह समर्पण दिखता है जिसका परिणाम हाल ही में प्रकाशन विभाग भारत सरकार से आई आलोचनात्‍मक पुस्‍तक ‘बाल साहित्‍य परंपरा प्रगति और प्रयोग’ है। बालसाहित्‍य शोध और अध्‍ययन की दिशा में उनका यह प्रयत्‍न निश्‍चय ही उल्‍लेखनीय माना जाएगा।”25

‘हिन्दी बाल-साहित्य: शोध का इतिहास’ पुस्तक भावना प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2022 में प्रकाशित हुई है। कुल 512 पृष्ठों की यह पुस्तक डीलक्स साइज़ में है। पिछले पचास वर्षों के समयांतराल में विभिन्न विश्वविद्यालयों में बाल-साहित्य से सम्बंधित अनेक शोधकार्य सम्पन्न हो चुके हैं। यह सिलसिला अभी भी ज़ारी है। प्रस्तुत पुस्तक में बाल-साहित्य में सम्पन्न हो चुके दो सौ से अधिक शोध-प्रबंधों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसी के साथ प्रकाशित-अप्रकाशित 122 शोध-प्रबंधों पर सारगर्भित टिप्पणियाँ भी हैं। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, “यह पुस्तक नये कलेवर में अद्यतन पाठकों, विशेष रूप से बाल-साहित्य में रुचि रखने वाले तथा शोधार्थियों को सौंपते हुए मुझे इस बात का संतोष है कि हिन्दी बाल-साहित्य में शोध की परम्परा को आगे बढ़ाने में इसकी भूमिका का मूल्यांकन अवश्य किया जाएगा। बाल-साहित्य में शोध को लेकर किया गया यह अध्ययन स्पष्ट दर्शाता है कि आज बाल-साहित्य सभी दृष्टियों से संपन्न है। इसमें अनेक संभावनाएँ निहित हैं। इसका समीक्षा पक्ष तो उज्ज्वल है ही, शोध की दृष्टि से भी उसमें प्रकाश की किरणें हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि बाल-साहित्य पर हुए शोध प्रबंधों का पुनर्मूल्यांकन करके उनका प्रकाशन किया जाए। आज भी प्रकाशन के अभाव में बहुत से शोधप्रबंध आलमारियों में पढ़े धूल फाँक रहे हैं। आज उनकी धूल झाड़कर उन्हें आम पाठकों तक पहुँचाने की आवश्यकता है। इन शोध प्रबंधों का सार-संक्षेप इसी दृष्टि से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है ताकि लोगों का यह भ्रम तो टूटे कि बाल-साहित्य में शोधकार्य हुआ ही नहीं है, या बाल-साहित्य में शोध की संभावनाएँ नहीं हैं। इस ग्रंथ के लिए सामग्री संकलित करते समय मेरा प्रयास था कि समकालीन भारतीय भाषाओं में अब तक बाल-साहित्य पर हुए सारे शोधप्रबंधों का सार-संक्षेप एक जगह प्रकाशित हो जाता ताकि बाल-साहित्य में शोध करने वालों को एक दृष्टि मिलती परन्तु सारे प्रयत्नों के बावजूद ऐसा सम्भव नहीं हो सका। अपनी सीमा में मैंने शोधार्थियों, शोधनिर्देशकों बाल-साहित्यकारों तथा अन्य साहित्यिक मित्रों से संपर्क-पत्राचार किया कुछ ने इसमें तत्परता दिखाई तो कुछ ने जवाब देना भी उचित नहीं समझा। कुल मिलाकर जो भी सामग्री उपलब्ध हो सकी, उसे ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। शोध-समीक्षा की सीमाएँ अनंत है। यह सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। इसके पूर्ण होने का दावा करना बेमानी है। मैंने इसी विचार से सामग्री का संकलन किया है। बाल-साहित्य के अनुष्ठान में यदि मेरा यह प्रयास रच मात्र भी योगदान दे सका, तो में इसे अपना सौभाग्य समझूँगा।”26 पुस्तक के फ़्लैप पर प्रख्यात् साहित्यकार डॉ. उषा यादव लिखती हैं, “वर्ष 1998 में सामने आये इस कार्य के बाद पिछले 22-23 वर्षों के लंतराल में इसका परिवर्द्धन-संशोधन ज़रूरी था। इसी महत् उद्देश्य की पूर्ति के लिए डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने प्रस्तुत ग्रन्थ का सृजन किया है। इसमें दो सौ से अधिक शोध प्रबंधों की जानकारी है। यह अपने ढंग का अनूठा संकलन है। निश्चय ही इस भागीरथ प्रयास को प्रयास को पूरा करने के लिए जो दृढ़ संकल्प शक्ति और श्रमशीलता चाहिए थी, वह डॉ. विक्रम में है और प्रभूत मात्रा में है। यह पुस्तक उनकी कर्मठता का उज्ज्वल उदाहरण है।”27 समय के साथ बाल-साहित्य में अनेक सृजनधर्मी व्यक्तित्व और आलोचक आते रहे हैं परन्तु डॉ. सुरेन्द्र विक्रम जिस निष्ठा और समर्पण के साथ पिछले चालीस वर्षों से इस क्षेत्र में अपना योगदान देते आ रहे हैं, उस पर और अधिक गहनता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। आशा है कि डॉ. सुरेन्द्र विक्रम बाल-साहित्य का भारती-भंडार अपने चिंतन-मनन से इसी प्रकार भरते रहेंगे। 

डॉ. नितिन सेठी 
सी-231, शाहदाना कॉलोनी 
बरेली (243005) 
मो. 9027422306
drnitinsethi24@gmail.com

सन्दर्भ सूची

  1. प्रो. शंभूनाथ तिवारी, ‘बाल-साहित्य का परिवेश: संदर्भ-डॉ सुरेंद्र विक्रम’, संपादक डॉ. नितिन सेठी, (शुभम् पब्लिकेशन, कानपुर, प्र.सं. 2021) पृ. 38

  2. डॉ. उषा यादव, हमारे प्रिय बाल-साहित्यकार, (बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्र.सं. 2021) पृ. 198

  3. निरंकार देव सेवक, हिन्दी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास (साहित्यवाणी, प्र.सं. 1992) पृष्ठ 4 

  4. डॉ. सुरेन्द्र विक्रम, वही, पृष्ठ 94

  5. वही, पृ. 166

  6. वही, पृ. 175

  7. डॉ. सुरेन्द्र विक्रम, हिन्दी बाल-साहित्य: विविध परिदृश्य, (अनुभूति प्रकाशन, 1997) अपनी बात, पृ. 5

  8. वही, पृ. 82

  9. डॉ. सुरेन्द्र विक्रम, ‘बाल-साहित्य: शोध समीक्षा संदर्भ’ (राष्ट्रीय प्रकाशन मंदिर, लखनऊ, प्र.सं. 1998) पृ. 11

  10. डॉ. स्वाति शर्मा, हिन्दी बाल-साहित्य: डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का योगदान (हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर, प्र.सं. 2012) पृ. 233

  11. प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित (शुभाशंसा), ‘बाल-साहित्य: शोध समीक्षा संदर्भ’, आवरण पृ. 2

  12. वही, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे (आमुख), पृ. 10

  13. डॉ. श्रीप्रसाद, हिंदुस्तान दैनिक, 14 अप्रैल 1999

  14. डॉ. सुरेंद्र विक्रम, ‘बाल-साहित्य: शोध, समीक्षा संदर्भ’, पृ. 27

  15. डॉ. शकुंतला वर्मा, समकालीन बाल-साहित्य: परख और पहचान (कुशी प्रकाशन, लखनऊ, प्र.सं. 1998) पृ. 78

  16. डॉ. शकुंतला कालरा, हिंदी बाल-साहित्य: आधुनिक परिदृश्य, पृ. 217

  17. डॉ. स्वाति शर्मा, हिंदी बाल-साहित्य: डॉ सुरेंद्र विक्रम का योगदान, पृ. 275

  18. डॉ. दीपशिखा ‘समकालीन हिंदी बाल-साहित्य के विकास में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का अवदान’, पृ. 127 

  19. वही, पृ. 132

  20. वही, पृ. 233

  21. डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, सुरेंद्र विक्रम, ‘बाल-साहित्य: शोध समीक्षा संदर्भ’, पृ. 10

  22. डॉ. दीपशिखा, ‘समकालीन हिंदी बाल-साहित्य के विकास में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम का अवदान’, पृ. 332 

  23. डॉ. दीपशिखा, वही, पृ. 357

  24. डॉ. सुरेन्द्र विक्रम, भूमिका, ‘बाल-साहित्य परंपरा, प्रगति और प्रयोग’ (प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, प्र.सं. 2022) पृ. 5

  25. ओम निश्चल (फेसबुक पर) 

  26. डॉ. सुरेन्द्र विक्रम, भूमिका, ‘हिन्दी बाल-साहित्य: शोध का इतिहास’ (भावना प्रकाशन, दिल्ली, प्र.सं. 2022) 

  27. डॉ. उषा यादव, (फ़्लैप पर) वही

3 टिप्पणियाँ

  • शानदार ! मन से और परिश्रम से लिखा है।

  • 14 May, 2023 06:26 PM

    बहुत मेहनत और रिसर्च के साथ लिखा एक बढ़िया आलेख हार्दिक बधाई स्वीकारें।

  • 2 May, 2023 02:26 PM

    ATI sundar nitinji

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