आशा भरी दृष्टि का दिग्दर्शन: बन्द गली से आगे

01-09-2022

आशा भरी दृष्टि का दिग्दर्शन: बन्द गली से आगे

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 212, सितम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

 
पुस्तक: बन्द गली से आगे 
लेखक: जी.पी. वर्मा 
प्रकाशक: विकास प्रकाशन, कानपुर 
मूल्य: ₹575
पृष्ठ: 208

मनुष्य का जन्म सामाजिक परिवेश में होता है। इस सामाजिक परिवेश के अपने कुछ विशिष्ट नियम और संस्कार होते हैं और मनुष्य इनमें बँधा होता है। इससे बाहर जाकर, इससे विलग होकर व्यक्ति का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। अपने व्यक्तिगत जीवन को मनुष्य समष्टिगत दायित्वों के सामने सदैव पीछे रखकर चलता है। समष्टिगत मूल्य, व्यक्तिगत मूल्यों से सदैव अधिक महत्त्वपूर्ण और महत्तर स्थान रखते हैं। मनुष्य अपने सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में एक प्रकार का सामंजस्य बिठाता है और अपने जीवनमार्ग को सुगम बनाता है। परन्तु कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ भी आती हैं कि व्यक्ति अपने बाह्य शारीरिक आवरण से आंतरिक शरीर को कुछ अलग-सा महसूस करता है। ऐसी विशेषताएँ और विरूपताएँ व्यक्ति को नर और नारी के रूप से अलग जाकर ‘ट्रांसजेंडर’ की उपाधि से अभिहित करती हैं। ट्रांसजेंडर उन्हें माना जाता है जो अपने प्राकृतिक लिंग के अनुसार आचरण न करके उससे विपरीतलिंगी आचरण करते हैं। ट्रांसजेंडर समाज में अनेक रूपों में पाये जाते हैं। इनमें मुख्य रूप से हिजड़ा, किन्नर, गे, लेस्बियन, हेट्रोसेक्सुअल, बाईसेक्सुअल आदि सम्मिलित किए जाते हैं। 

प्रख्यात् पत्रकार जी.पी. वर्मा की पुस्तक ‘बंद गली से आगे’ थर्ड जेंडर विमर्श पर चिंतन के नये द्वार खोलती है। उल्लेखनीय यह भी है कि इनमें ट्रांसमैन और ट्रांसवूमैन–दोनों ही सम्मिलित हैं। अपनी बाहरी और आंतरिक संरचना की पहचान को निर्धारित करने के लिए इन ट्रांसजेंडर को बहुत सी जानी-अनजानी कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। पारिवारिक रूप से ये बहिष्कृत ही रहते हैं। अधिकांश के माता-पिता और सम्बन्धी उन्हें अपनाने से कतराते हैं। इसके पीछे सामाजिक नियमों और बंधनों के दबाव हो सकते हैं। प्रसन्नता की बात यह भी है कि कुछ ट्रांसजेंडर को उनके अपने परिवारों का सराहनीय साथ और सहयोग भी मिलता है। ट्रांसजेंडर्स को तथाकथित सभ्य समाज की क्रूरता और शोषण का लगातार सामना करना पड़ता है। इनके जीवन के पन्नों को पलटने पर नक़ली सहानुभूतियों और झूठे दिखावों के सफेद-स्याह निशान आसानी से देखे जा सकते हैं। अपने अंदर के पुरुष और स्त्री के होने, छिपे रहने और उनके सामने आने के अंतर्द्वन्द्वों को ये ट्रांसजेंडर अक़्सर ही महसूस करते हैं। सामाजिक जीवन की लंबी और अनवरत चलने वाली दौड़ में ट्रांसजेंडर अपने तन और मन को सँभालते और साधते हुए, अपनी शारीरिक पहचान को छुपाते और दर्शाते रहते हैं। इस कार्य में इनकी मानसिक चेतनाशक्ति इनके जीवन को संवेदनापूर्ण और रससिक्त बनाती है। ट्रांसजेंडर का अपना शरीर कौन सा है, यह प्रश्न उनके जीवन के साथ-साथ सदैव चलता है। यह होने या न होने का भाव उससे कभी नहीं छूटता। इसी द्वंद्व में वह अपने दिल की आवाज़ सुनता है और उसे अपने जीने की राह का इशारा अनजाने में ही मिलता चला जाता है। ये ऐसे अनदेखे इशारे हैं, ऐसी अनसुनी आवाज़ें हैं, ऐसे अनछुए स्पर्श हैं; जो उन्हें दुनिया के किसी भी अवरोधों को पार कर अनचीन्हे रास्तों पर आगे बढ़ते जाने की शक्ति और प्रेरणा प्रदान करते हैं। ये रास्ते कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए ट्रांसजेंडर को उसके आत्म से परिचित करवाते हैं। उसे रूबरू करवाते हैं उन अंदरूनी आवाज़ों से जिन्हें सामाजिक नियमों के शोर-शराबे में सुना नहीं जा सकता, दुनियावी ताने-बाने में देखा नहीं जा सकता। इन्हीं का सहानुभूतियों से भरा हुआ सम्बल पाकर ट्रांसजेंडर ‘बंद गली से आगे’ की यात्रा भी करना चाहते हैं। जी.पी. वर्मा शायद तभी अपनी पुस्तक का नाम ‘बंद गली से आगे’ रखते हैं। ट्रांसजेंडर का भरी दुनिया की चकाचौंध से बचकर एक अकेली और आत्मनिर्वासित दुनिया की तरफ़ चलना भी एक मजबूरी ही है जो उनके विचारों और वैयक्तिकता के अन्तर्जाल से भी उन्हें दूर ले जाती है। पुस्तक के समर्पण में भी लेखक का कथन उल्लेखनीय है, “उनको जो फूलों से खिलते घर उपवन में बिखर जाते पर . . . तंग गलियों के सीलते कमरों में आसमाँ छूने के सतरंगी सपनों के हौसले लिए।”1

पुस्तक की भूमिका ‘न भूतो न भविष्यति’ में जी.पी. वर्मा लिखते हैं, “नैसर्गिक व संवैधानिक, दोनों प्रकार के अधिकारों से ट्रांसजेंडर अब तक वंचित रहे। मानवाधिकार के हिमायती भी इनके उन्नयन के लिए कुछ न कर पाए। कारण सरकारों की उदासीनता। समाज का इनके प्रति घृणा-भाव। इनकी अजूबी शारीरिक संरचना के प्रति दुराव। फिर भी वह जीवन डगर पर अडिग और अविराम है। देखा जाए तो इनका वुजूद इस्पात से निर्मित उस विराट् जलपोत के समान है जो जीवन सागर की तूफ़ानी तरंगों पर बढ़ता है। उनसे मोर्चा लेता है। कभी विजयी होता है, कभी हार जाता है। पर वह ठहरता तब तक नहीं जब तक वह डूब ही नहीं जाता है। यूँ तो ज़िन्दगी स्वयं गहरे सागर-सी शान्त और तूफ़ानी है। वह बहुत पेचीदा भी है। कभी-कभी उसे जीने वाले पेचीदा बना देते हैं। कभी पेचीदगियों में गढ़े लोग ही ज़िन्दगी के समक्ष चुनौती बनकर उसे झकझोर देते हैं। इसी श्रेणी में आते हैं वे लोग जो सृष्टिकृत नर-मादा के विरूप हैं। इन्हें थर्डजेंडर या किन्नर के रूप में जाना जाता है।”2 पुस्तक की लंबी भूमिका में लेखक ने थर्ड जेंडर, किन्नर आदि को ऐतिहासिकता के दृष्टिकोण से भी देखा है। प्रस्तुत पुस्तक कुल पाँच खंडों में विभाजित है। पहला खंड है ‘जीवन चरित’ जिसमें कुल सोलह ट्रांसजेंडर्स का जीवन दर्शाया गया है। उल्लेखनीय यह भी है कि ये जीवनचरित स्वयं इन ट्रांसजेंडर्स द्वारा अपनी ही भाषा-शैली में लिपिबद्ध किए गए हैं। ये आत्मकथात्मक शैली में रचे गए हैं जिनमें ट्रांसजेंडर के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की विडंबनाएँ, विवशताएँ, विद्रूपताएँ विविध रूपों में हमारे सामने आती हैं। 

‘मैं जिऊँगी’ विद्या राजपूत की आत्मकहानी है जिसमें विभिन्न अवरोधों और समस्याओं का सामना करते हुए जीवन और मृत्यु के खेल के बीच विद्या राजपूत अपनी पहचान की तलाश करती हैं। एक लड़के के शरीर में जन्म लेने के बाद ऑपरेशन द्वारा अपना लिंग परिवर्तित करवाकर वह स्त्री बनती हैं। ‘मितवा’ संगठन के माध्यम से विद्या राजपूत आज ट्रांसजेंडर समाज का भला कर रही हैं। रुद्रप्रयाग में जन्मे धनंजय चौहान ‘मैं अधूरी नहीं’ के माध्यम से अपनी बात रखते हैं। उल्लेखनीय है कि धनंजय चौहान विश्व के ट्रांसजेंडर समाज के रोल मॉडल हैं। ग़ज़ब के आत्मविश्वास और समर्पण के कारण उनके कार्यों को दर्शाता ‘एडमिटेड’ नाम से एक वृत्तचित्र भी उनके ऊपर बनाया जा चुका है। वह पहले ट्रांसजेंडर हैं जिन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में बी.ए. ऑनर्स किया और विश्वविद्यालय में टॉप किया। अन्य अनेक विषयों में भी उन्होंने डिप्लोमा और डिग्रियाँ प्राप्त कीं। क़ानून की पढ़ाई करते के लिए लॉ कॉलेज में दाख़िला तो मिला परन्तु छात्रों के दुर्व्यवहार के कारण क़ानून की पढ़ाई वह पूरी नहीं कर पाए। धनंजय चौहान का जन्म एक लड़के के रूप में हुआ था परन्तु तीन वर्ष की उम्र से ही उन्हें लगने लगा कि वह लड़का नहीं लड़की हैं। सन् 2009 में उन्होंने एक ग़ैर सरकारी संगठन ‘सक्षम ट्रस्ट’ का गठन किया। राज कनौजिया एक ट्रांसमैन हैं। उनका जन्म मुंबई में हुआ था। आगे चलकर उनका ‘हमसफ़र ट्रस्ट’ से जुड़ाव हुआ। ट्रस्ट के पदाधिकारियों ने उन्हें मुंबई में चल रहे नौ टारगेट इंटरवेंशन केंद्रों को संचालित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। अपने कार्य को विस्तार देते हुए उन्होंने हमसफ़र ट्रस्ट के अंतर्गत ‘उमंग’ नामक ग्रुप बनाया। सिमरन बालिया का जन्म बिहार में एक लड़के के रूप में हुआ था। आर्यन एक ट्रांसमैन हैं जिन्होंने छोटी सी उम्र में शरीर सौष्ठव प्रतियोगिताओं में एशिया के पहले ट्रांसमैन बॉडीबिल्डर होने का ख़िताब प्राप्त किया। पप्पी देवनाथ त्रिपुरा के प्रथम ट्रांसमैन हैं। रुद्रांशी एक ट्रांसवूमैन हैं जिनका जन्म अजमेर में हुआ था। उन्होंने कविता लेखन में भी कई पुरस्कार जीत चुके हैं। अपनी आत्मव्यथा बताने के साथ-साथ उन्होंने अपनी तीन कविताएँ भी प्रस्तुत की हैं। 

संजना सिंह चौहान बचपन से ही लड़कियों जैसा महसूस करती थीं। वे लिखती हैं, “सामान्यतः बचपन और यौवन आशा-महत्त्वाकांक्षाओं के फूलों से महकता चमन होता है। लेकिन मैंने इस चमन में सैर नहीं की। मैंने तो नश्तर से भी तेज़ बबूल की झाड़ियों से घिरे सीमित मैदानों में ही काँटों से बचने के लिए भागदौड़ करते-करते जीवन के इस पड़ाव पर ठहराव पाया है। अब मैं भूत के पीड़ादायक क्षणों और काँटों को याद करके गुज़रे वक़्त से या उन लोगों से जिन्होंने मुझे तिरस्कार और अपमान दिया, कोई शिकवा या शिकायत नहीं करना चाहती। न ही मैं उस पर विलाप करना चाहती हूँ। मैंने तो जीवन में आने वाले हर अँधेरे में प्रकाश की मद्धिम किरण ढूँढ़ने का प्रयास किया है ताकि मैं उस प्रकाश के सहारे जीवन की भावी राहों को देख सकूँ, उन पर बढ़ सकूँ। अपनी अज्ञात किन्तु नियति द्वारा निर्धारित मंज़िल को पा सकूँ।”3 उल्लेखनीय है कि संजना सिंह चौहान एशिया की पहली ट्रांसजेंडर हैं जिन्हें स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत सम्मानित किया गया। अब्दुल रहीम अपने आलेख ‘सोशल डिस्टेंसिंग से मुक्ति कब’ के माध्यम से अपनी पीड़ा रखते हैं। उनका मानना है कि कोरोनावायरस सदियों में पहली बार आया है, पाबंदियाँ लाया है। सब जगह लॉकडाउन हुआ। सोशल डिस्टेंसिंग ने लोगों को दूर कर दिया है। कहीं कोरनटाइन में रहे लोग, पर यह कुछ दिन का मेहमान है, चला जाएगा। समाज पुराने ढर्रे पर चल पड़ेगा। लेकिन हम फिर भी इससे मुक्त नहीं होंगे। कोरोना तो हमारे जीवन में उस दिन से प्रवेश कर गया था जब हमने जन्म के बाद होश सँभाला। हमने अपना आज तक का जीवन कोरनटाइन और सोशल डिस्टेंसिंग में गुज़ारा है। आज भी हम सबसे अलग-थलग हैं। लोग हमसे मिलने, हमसे बात करने और हमारे पास आने से हिचकते हैं, झिझकते हैं। प्रस्तुत आलेख में उन्होंने अपने दिल की बात चार-पाँच छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से भी रखी है। उनकी पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

 ख़ुदा ने जो बनाया 
 बस वही हूँ मैं
 न ग़लत न सही
 जो कुछ भी है मेरे भीतर
 क़ुदरत ने रचा है 
 मेरा वुजूद 
 कुछ भी नहीं4 

भैरवी अरमानी ने लंबे आत्मसंघर्ष के पश्चात् तंत्र-मंत्र और ज्योतिष विद्या में भी निपुणता प्राप्त की। उन्होंने अपनी शल्य चिकित्सा भी अपना जेंडर परिवर्तन के लिए नहीं करवाई है। अपनी माँ को याद करते हुए वे लिखते हैं:

 तू हमेशा रहना माँ
 मेरे बाद भी 
 तेरा ही विस्तार हूँ मैं
 तेरी अभिव्यक्ति 
 कुछ लोग कहते हैं माँ पर हूँ 
 कुछ कहते हैं पिता पर 
 मैं जानता हूँ माँ, मन मेरा तू है 
 और तन है पिता 
 इस आधे-आधे में तू ज़्यादा है माँ
 तू हमेशा रहना माँ 
 मेरे बाद भी5

स्त्रिती चन्द्रन, माही, भावेश जैन प्रिया बाबू, दीपिका ठाकुर, अमृता जैसे ट्रांसजेंडर अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में आज पर्याप्त नाम अर्जित कर रहे हैं। प्रिया बाबू ने ‘अरवानिगल समूह वाराईवियल’ और ‘मूनरमपालिन मुगम’ जैसी पुस्तकें भी लिखी हैं। इन सभी आत्म जीवनचरितों को पढ़ते हुए एक बात स्पष्ट होती है कि लगभग सभी ट्रांसजेंडर को पारिवारिक और सामाजिक अवहेलनाओं का सामना करना पड़ा है। कुछ ने अपने गुणों को निखारा और समाज में अपना एक विशिष्ट मुक़ाम भी बनाया है। ये जीवनचरित यह भी दर्शाते हैं कि इन्हें भी सामान्य लोगों की तरह ही हमारे प्रेमपूर्ण व्यवहार और साहचर्य की आवश्यकता है। ये भी इंसान हैं जो एक सामान्य सामाजिक जीवन जीना चाहते हैं। इस खंड के आलेखों के शीर्षक भी इन ट्रांसजेंडर्स की व्यथाओं से भरी जीवनयात्रा को दर्शाते हैं। ‘मैं जिऊँगी’, “मैं अधूरी नहीं’, “संघर्ष बहुत शेष है’, “अपने घरौंदे की तलाश’, “पहचान के अँधेरों में’, “हर दिन जीता, हर दिन मरता’, “ट्रांसमैन पहचान बनाएँ’, “हमें नर्क में न ढकेलो’, “ख़ुशियाँ छोड़ दो परिवार नहीं’, “अंधेरों से प्रकाश मिलता है’ जैसे शीर्षक अर्थपूर्ण व्यंजना प्रस्तुत करते हैं। 

‘समसामयिक परिवेश’ पुस्तक का दूसरा खंड है जिसमें तीन अध्यायों के अंतर्गत ट्रांसजेंडर की वर्तमान स्थितियों और परिस्थितियों पर प्रकाश डाला गया है। प्रथम अध्याय है ‘ट्रांसजेंडर मुक्ति आंदोलन’ जिसमें लेखक ने इस आंदोलन को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा है। ट्रांसजेंडर मानव सभ्यता के आरंभ से ही अपना अस्तित्व रखते आए हैं। एक समय ऐसा था जब ये सामाजिक प्रताड़ना और अपमान के डर से समाज के सामने खुलकर नहीं आते थे। परन्तु धीरे-धीरे ये जागरूक हुए और इन्होंने अपने अधिकारों की माँग करना आरंभ किया। एक लंबे समय तक ये अपुष्टलिंगी ‘जेंडर नॉट कंफर्मिंग’ कहलाते थे। इन पर अनेक प्राणघातक हमले किए जाते रहे। समाज इन्हें दुत्कारता रहा और इन्हें सामान्य नागरिक जीवन से अलग ही रखा गया। सरकार भी इन्हें शारीरिक रूप से किसी काम के उपयोग का नहीं मानती थी। परन्तु धीरे-धीरे अपने अधिकारों को पाने के लिए उन्होंने लंबे समय तक संघर्ष किया, आंदोलन किया और इनके ‘ट्रांसजेंडर’ नाम को भी मान्यता प्राप्त हुई। ट्रांसजेंडर नाम, पाँच रंगों का प्राइड फ्लैग, यिन-यांग प्रतीक; इन सबके साथ मानो एक सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतीकीकरण की प्रस्तावना ट्रांसजेंडर के लिए रखी गई। नाम, ध्वजा, सामाजिक रख-रखाव; इन सब बातों ने मिलकर ट्रांसजेंडर को समाज में धीरे-धीरे स्वीकारोक्ति प्रदान की। विद्वान लेखक ने ट्रांसजेंडर मुक्ति आंदोलन में इन सभी बातों को उनका औचित्य स्पष्ट करते हुए कालक्रमानुसार दर्शाया है। दूसरा अध्याय ‘चुनौतीपूर्ण जीवन’ है जिसमें लेखक ने ट्रांसजेंडर के जीवन यापन में आने वाली समस्याओं का विस्तार से उल्लेख किया है। लेखक के शब्द हैं, “सबसे दुखद बात यह है कि ये लोग जो भी हैं या जैसे भी हैं, अपनी स्वेच्छा से नहीं हैं। वे सृष्टि की रचना का ही एक अंश हैं या फिर सृष्टि की किसी भूल का परिणाम हैं। जो भी हो, सृष्टि के इस अनोखे प्रयोग या सृष्टि की भूल का ख़म्याज़ा इन तृतीय लिंगियों को जन्म से लेकर मृत्यु तक भुगतना पड़ता है। इसके अतिरिक्त इनमें एक वर्ग ऐसे लोगों का है जिन्हें शासकों, विशेषकर मध्यकालीन शासकों ने अपने स्वार्थसिद्धि हेतु उन्हें इस रूप में परिवर्तित कर दिया। सृष्टि की भूल अथवा उसके किसी प्रयोग के तहत तृतीयलिंगीय बच्चों का जन्म सामान्य बच्चों की भाँति ही होता है। उनके पैदा होने पर ख़ुशियाँ मनाई जाती हैं, मिठाई बाँटी जाती हैं। उन्हें परिवार की शान माना जाता है। किन्तु जिस दिन परिवार में यह बात पता चलती है कि जन्मा यह बच्चा असामान्य है, डिसऑर्डर्ड जेंडर है, उसका जेंडर भ्रामक है; बस फिर क्या! घर में मायूसी छा जाती है। बड़े-बूढ़ों के वैचारिक मंथन के दौर चलते हैं। उसे सुधारने के प्रयासों की झड़ी लग जाती है। उनमें पहला प्रयास होता है बच्चे को डरा-धमका और मारपीट कर उसके अंदर बसी विपरीत आत्मा को बाहर निकालने की कोशिश करना। उसे तांत्रिकों और साधुओं के पास ले जाकर उसका उपचार करना और न जाने कितने अनोखे उपचार कराना। हारकर जब उसे किसी मनोचिकित्सक अथवा चिकित्सक के पास ले जाया जाता है तो असलियत का पता चलता है। असलियत का पता लगने के बाद बहुत कम ही परिवार ऐसे होते हैं जो चिकित्सक द्वारा जेंडर परिवर्तन के लिए आगे आए। धीरे-धीरे घर के बाहर ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो जाता है कि वह बच्चा घर में घुटन महसूस करता है। अधिकांश अवसरों पर वह या तो स्वयं घर छोड़ देता है या उसे घर से चले जाने को कह दिया जाता है। कभी-कभी तो घर का माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि बच्चा न चाहकर भी घर छोड़ देता है।”6 लेखक ने यहाँ ट्रांसजेंडर के जीवन में आने वाली कुल सोलह चुनौतियों और परेशानियों का विस्तार से वर्णन किया है जिनमें बच्चे की परेशानी, स्वीकार्यता, किन्नर समाज का भय, शिक्षा की समस्या, निर्वासन, नौकरी, व्यवसाय, असहयोग, सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, भावात्मक संकट, वृद्धावस्था, सार्वजनिक शौचालय, एकाकीपन, ग़रीबी, घर की समस्या और ट्रांसवूमैन की समस्याएँ दर्शाई गईं हैं। ये वे समस्याएँ हैं जो प्रत्येक ट्रांसजेंडर को निश्चित रूप से अपने जीवन में अलग-अलग रूपों में झेलनी ही पड़ती हैं। लेखक ने विभिन्न उदाहरणों और सत्य घटनाओं के द्वारा भी अपनी बात को स्पष्ट किया है। तृतीय अध्याय ‘प्रथम अचीवर्स’ है। प्रत्येक क्षेत्र में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो कुछ नया करता है और अपने नाम कोई रिकॉर्ड स्थापित करता है। ‘प्रथम अचीवर्स’ के अंतर्गत ट्रांस जेंडर समाज में इस प्रकार के काम करने वालों की सूची दी गई है। प्रथम ट्रांसजेंडर एम। एल। ए। शबनम मौसी, किन्नर अखाड़ा के महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी, ए। रेथी, कलकी सुब्रह्मण्यम, रोजी वेंकेटेशन, पद्मिनी प्रकाश, ज्योति मंडल, निष्ठा विश्वास, गंगा कुमारी, जिया दास, इस्थर भारती जैसे नाम उल्लेखनीय हैं। 

किसी भी देश का संविधान अपने नागरिकों को समानता, सुरक्षा और स्वतंत्रता के अधिकार प्रदान करता है। भारत का संविधान भी अपने नागरिकों के प्रति सदैव संवेदनशील रहा है और उनके अधिकारों की न केवल रक्षा करता है बल्कि उनके लिए नये-नये क़ानूनों के निर्माण द्वारा सुविधापूर्वक जीवनयापन का मार्ग भी प्रशस्त करता है। पुस्तक का तृतीय खंड ‘वैधानिक स्थिति’ है जिसमें ट्रांसजेंडर से सम्बन्धित विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों, अधिनियमों और राजपत्रों का संग्रह किया गया है। प्रथम अध्याय है ‘ट्रांसजेंडर: सर्वोच्च न्यायालय निर्णय 2014’ उल्लेखनीय है। द नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (नालसा) ने ट्रांसजेंडर्स की सामाजिक मान्यता के लिए एक केस दाख़िल किया था जिसका निर्णय 15 अप्रैल सन् 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के माननीय जस्टिस के.एस. राधाकृष्णन और जस्टिस ए.के. सीकरी के द्वारा दिया गया। यह पूरा निर्णय अँग्रेज़ी भाषा में यथावत इस अध्याय में रखा गया है। इसी क्रम में दूसरे अध्याय ‘ट्रांसजेंडर अधिकार संरक्षण अधिनियम 2019’ में इस अधिनियम के सोलहवीं लोकसभा के ख़त्म होने के बाद नई लोकसभा में पास होने का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस बिल का विश्लेषण भी जी.पी. वर्मा यहाँ प्रस्तुत करते हैं। तीसरा और चौथा अध्याय भारत का राजपत्र 2020 और उसके संशोधित रूप पर केंद्रित है। प्रथम राजपत्र 13 जुलाई सन् 2020 और इसका संशोधित रूप 29 सितंबर सन् 2020 को प्रकाशित किया गया। लेखक ने इन राजपत्रों को यहाँ उपलब्ध करवाकर पुस्तक की उपयोगिता में अभिवृद्धि ही की है। ट्रांसजेंडर को दिए गए विभिन्न प्रकार के अधिकार, सुविधाएँ और उनके प्रति किए जाने वाले अपराधों के दंडविधान आदि का यहाँ वर्णन मिलता है। 

समाज में ट्रांसजेंडर को लेकर जब इतना अधिक मंथन हुआ है, मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा है, विभिन्न प्रकार के आदेश, राजपत्र और शासनादेश आदि जारी किए गए हैं; तब यह बात ज़रूरी हो जाती है कि इसके वैचारिक आयामों को भी समझा जाए। किसी भी समाज का कोई भी अंग बिना वैचारिक गतिशीलता के अपनी समृद्धि नहीं प्राप्त कर सकता। पुस्तक का चौथा खंड ‘वैचारिक आयाम’ है जिसमें उच्चस्तरीय मंथन, कुछ चुने हुए राज्यों में अब की स्थिति और सामाजिक अवरोध जैसे विषयों पर प्रकाश डाला गया है। उच्चस्तरीय मंथन में लेखक लिखता है, “सरकारी स्तर पर ट्रांसजेंडर की विविध समस्याओं का समाधान खोजने और उनके निराकरण करने हेतु दिशा-निर्देश निर्धारित करने के लिए 22 अगस्त सन् 2013 को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने अनेक मंत्रालयों, एनजीओ तथा अन्य विशेषज्ञों के समूह के साथ शास्त्रीभवन में एक औपचारिक बैठक आयोजित की। मंत्रालय ने इसी बैठक में एक सोलह सदस्यीय विशेषज्ञ कमेटी के गठन का आदेश निर्गत कर दिया। इन सदस्यों में विधि और न्याय मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, एड्स नियंत्रण विभाग, ग़ैर सरकारी संस्थाओं, ट्रांसजेंडर्स के प्रतिनिधि, प्रोफ़ेसर तथा अनेक राज्यों के प्रतिनिधि शामिल थे।”7 भारत के दस राज्यों में ट्रांसजेंडर की स्थिति और उनके लिए लागू की जा रही योजनाओं का भी यहाँ विवरण मिलता है। इसी क्रम में राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल जैसे राज्यों में ट्रांसजेंडर्स को दी गईं विभिन्न सुविधाओं और अधिकारों को यहाँ क्रमबद्ध रूप से दर्शाया गया है। 

आज ट्रांसजेंडर्स के लिए विभिन्न प्रकार के क़ानून और अध्यादेश आदि लागू किए जा चुके हैं, उन पर अमल भी हो रहा है। सामाजिक-साहित्यिक-शैक्षिक-राजनीतिक क्षेत्र में भी वे धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं परन्तु फिर भी कहीं न कहीं कुछ सामाजिक अवरोध ऐसे हैं जो उनके जीवन की सुगम राहों पर काँटे बिछा रहे हैं। कोई भी प्राणी जगत में तभी उन्नति और विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है जब उसके सामने सामाजिक परिस्थितियाँ अवरोध पैदा न करें। लेखक दर्शाता है कि न्यायालय के निर्देशों को अमलीजामा पहनाने का कार्य सरकार, समाज और मनोवृत्ति परिवर्तन पर आधारित है। यदि इनमें से कोई भी घटक अपने दायित्व को भली-भाँति नहीं निभाएगा, ट्रांसजेंडर जीवन को समस्याओं का सामना करना ही पड़ेगा। परिवर्तन के सम्बन्ध में लेखक के विचार उल्लेखनीय हैं, “वैसे प्रयास यही होना चाहिए कि लोगों की मनोवृत्ति परिवर्तन के द्वारा नियमों का सफल अनुपालन सुनिश्चित किया जाए ताकि नियमों के अनुपालन को स्थायित्व मिल सके। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यदि किसी विषयवस्तु के संदर्भ में लोगों की भावनाओं और उनकी वृत्तियों को बदला जा सके तो उस विषयवस्तु से सम्बन्धित किन्हीं भी निर्देशों को सरलता से सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है। वह स्थायी रूप से समाज का एक अंग बन जाता है। यही बात थर्ड जेंडर के सम्बन्ध में न्यायालय के निर्देशों के क्रियान्वयन पर लागू होती है। जब तक सरकारी तथा ग़ैर सरकारी प्रयासों से समाज के लोगों की थर्ड जेंडर के प्रति मनोभावनाओं को नहीं बदला जाएगा, उनका शत-प्रतिशत अनुपालन सुनिश्चित नहीं हो सकेगा। आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी तथा ग़ैर सरकारी स्तर पर सघन जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ। लोगों को थर्ड जेंडर के सम्बन्ध में सत्यता बताई जाए और उनके मनोभावों को उनके प्रति सहज बनाने का प्रयास किया जाए।”8

अंतिम भाग में ट्रांसजेंडर जनगणना भी दी गई है जो वर्ष 2011 में की गई जनगणना के अनुसार है। उल्लेखनीय है कि सन् 2011 में ही ट्रांसजेंडर्स की जनगणना पहली बार की गई थी जिसमें उनके व्यवसाय, शिक्षा तथा जाति का विवरण भी सुरक्षित रखा गया। इस जनगणना के अनुसार भारत में ट्रांसजेंडर्स की कुल जनसंख्या लगभग चार लाख अट्ठासी हज़ार है। 

‘बन्द गली से आगे’ थर्ड जेंडर विमर्श पर साहित्यिक और सामाजिक, दोनों ही आयामों पर खुली आँखों से देखने का सफलतम प्रयास है। जी.पी. वर्मा पत्रकारिता की जीवंत मिसाल रहे हैं। यही कारण है कि वह समाज और इसके नागरिकों की सोच तथा इसके स्पंदनों को भली-भाँति पकड़ना और महसूस करना जानते हैं। ‘बन्द गली से आगे’ पुस्तक नयी संभावनाओं के द्वार खोलती है, वैचारिकता के नये मार्गों की ओर ले जाती है और थर्डजेंडर की जीवनरेखा को सहजक्रम भी प्रदान करती है। ‘बन्द गली से आगे’ सोच के खुले मैदानों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखने का दिग्दर्शन करवाती है। पुस्तक के व्यवस्थित रूप में सामने आने में हलीम मुस्लिम डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ..। एम फ़ीरोज़ खान का सहयोग भी उल्लेखनीय है। विकास प्रकाशन, कानपुर थर्ड जेंडर विमर्श पर जो उल्लेखनीय कृतियाँ समय-समय पर लाता रहा है, उनमें यह पुस्तक एक बहुमूल्य रत्न की भाँति सदैव पठनीय और संग्रहणीय है। 

डॉ. नितिन सेठी
सी-231, शाहदाना कॉलोनी 
बरेली (243005) 
मो. 9027422306

संदर्भ सूची:

  1. बन्द गली से आगे, जी.पी. वर्मा, (विकास प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं। 2021), पृ. 5

  2. पृ. 8

  3. पृ. 71

  4. पृ. 82

  5. पृ. 91

  6. पृ. 137

  7. पृ. 193

  8. पृ. 204

1 टिप्पणियाँ

  • 3 Sep, 2022 01:12 PM

    बहुत अच्छी समीक्षा की है।

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