नये आयाम स्थापित करती दोहा कृति ‘यत्र तत्र सर्वत्र’
डॉ. नितिन सेठी
पुस्तक: यत्र तत्र सर्वत्र
कवि: डॉ. सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’
प्रकाशक: राजमंगल प्रकाशन, अलीगढ़
मूल्य: रुपए 200
पृष्ठ: 96
डॉ. सतीश चन्द्र शर्मा ‘सुधांशु’ अपने गीत, नवगीत, ग़ज़ल और हास्य-व्यंग्य के माध्यम से साहित्य जगत् में पर्याप्त चर्चित हैं। विभिन्न विधाओं में उनका काव्यसृजन लंबे समय से पाठकों को आकर्षित करता रहा है। दोहा विधा में भी सुधांशु जी लगातार सृजन करते रहे हैं। उनका दोहा संग्रह ‘यत्र तत्र सर्वत्र’ विविधवर्णी दोहों का संग्रह है जिसमें कुल इक्यासी शीर्षकों के अंतर्गत दोहों का प्रणयन किया गया है। प्रत्येक खंड में दस-दस दोहे हैं। इस प्रकार कुल 810 दोहों का संग्रह ‘यत्र तत्र सर्वत्र’ काव्य जगत् की शोभा बढ़ा रहा है। ये दोहे विभिन्न भावभूमि के हैं और विविध विचारों को स्वयं में समेटे हुए हैं। इन सभी दोहों में गेयता, भाषिक अभिव्यंजना के साथ-साथ दोहा विधा के छंद विधान का भी पूर्णतया ध्यान रखा गया है। कवि का भाव प्रवाह प्रभावित करता है। समाज के अनेकानेक विषयों पर और जीवन के अलग-अलग रंगों पर सुधांशु जी ने दोहे के माध्यम से अपनी बात कही है।
संस्कृत भाषा में दोहा को “दोग्धक”कहा गया है। जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन कर ले। ‘दोग्धि चित्रमिति दोग्धकमे’। सत्य ही है कि दोहा रसिकों के चित्त का ही नहीं बल्कि वर्ण्य-विषय का भी सारतत्त्व दुहकर प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त दोहा के अन्य नाम ‘द्विपधा’, ‘द्विपथक’, ‘द्विपदिक’ हैं। यह अर्धसममात्रिक छंद है। यह सोरठा का विपरीत होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (पहले और तीसरे) में 13-13 मात्राएँ होती है। सम चरणों (दूसरे और चौथे) में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अन्त में लघु पड़ना आवश्यक है एवं तुक भी मिलना चाहिए।
माँ वीणापाणि की वंदना करते हुए कवि लिखता है:
हँस मयूर वाहिनी, दीजै ज्ञान उजास
कुछ ऐसा मैं लिख सकूँ, बन जाए इतिहास
इसके आगे स्तुतिपरक पर दोहे हैं जिनमें कवि की श्रद्धा भावना दिखाई देती है:
हिंदी के गुणगान में नित्य लिखूँ नवगीत
अमर नाम हो हिंद का गरिमा प्रोत अतीत
अनपढ़ संत कबीर ने, गुरु से पाकर ज्ञान
ग्रंथ रचे साखी-सबद, जग को दी पहचान
तुलसी को भी था मिला, सद्गुरु से सद्ज्ञान
रामचरितमानस रची, कविवर आदि महान
‘भारत में भगवान’ खंड के अंतर्गत भारत के मुख्य-मुख्य त्यौहारों पर दोहों की रचना प्रभावित करती है। होली, दीपावली के रंग देखें:
होली में होते दहन, सारे बैर प्रसंग
प्रेम सहित शुचि भाव के, बजते ढोल मृदंग
‘यदा यदा हि धर्मस्य’ गीता का अप्रतिम श्लोक है जिसमें प्राणियों के हित के लिए ईश्वर द्वारा धरती पर अवतार लेने की बात की गई है। कवि का दृढ़ विश्वास इस दोहे में उल्लेखनीय है:
जब-जब होगा धर्म का, भारत में अवसान
तब-तब आएँगे स्वयं, भारत में भगवान
‘होली आई द्वार’ शीर्षक में होली का मदमस्त माहौल और प्राकृतिक वर्णन प्रभावित करता है:
लाल लाल टेसू हुए, फूले सेमर लाल
विरहिन आनन यों लगा, जैसे लाल गुलाल
होली पर प्रकृति का मनमोहक चित्रण एक और दोहे में मिलता है–
गेहूँ की बाली पकी, सरसों फूली खेत
जैसे मीलों तक बिछी, पीली-पीली रेत
मानव के जीवन में मन, इच्छा और कर्म के अन्तर्द्वन्द्व सदैव चलते आए हैं। कहीं मन हावी हो जाता है तो कभी इच्छाएँ अपना प्रभुत्व मनुष्य पर जमा लेती हैं। यद्यपि इच्छाएँ भी मन से ही प्रकट होती हैं परन्तु मानव का कर्तव्यबोध यहाँ उसे दिशा बहुत प्रदान करता है। इस बात को बिम्ब के माध्यम से कवि कहता है:
मन प्रतिपक्षी बेंच पर, इच्छा सत्तारूढ़
लाभ उठा भरपूर तू, हे कर्तव्यविमूढ़
दीपावली का जगमग पर्व का चित्रण ‘दीप अरु क़िंदील’ शीर्षक के अंतर्गत किया गया है। कवि दीपपर्व की उज्ज्वल भावना को इन दोहों में अभिव्यक्ति देता है:
दीवाली पर कामना, तम हो चकनाचूर
जो आया वह ही गया, दुनिया का दस्तूर
सही रूप में हो तभी, पावन पर्व उजास
जब निर्धन की झोपड़ी, में भी हो उल्लास
भाई दूज के पर्व का मधुरिम वर्णन देखिए:
भाई दीपक दूज का, बहना दीप उजास
मधुर मिलन सम्मान का, दूज पर्व आभास
किसी भी समाज में दीपक और क़िंदील होते हैं वे लोग जो समाज को राह दिखाते हैं, समाज का दिशा निर्देशन करते हैं। यदि इन्हीं के मंतव्य पर प्रश्नचिन्ह लग जाए तो यह बात चिन्ताजनक हो जाती है। प्रतीक के माध्यम से सुधांशु जी इस दोहे में इस बात की कितनी गहरी अभिव्यक्ति देते हैं:
नैतिक मूल्यों को गया, भ्रष्ट आचरण लील
रिश्वत ले लौ बाँटते, दीपक अरु क़िंदील
‘पर्वत जैसी पीर’ खंड के अन्तर्गत आज के तथाकथित सभ्य युग में संतान अपने माता-पिता का कितना ध्यान रख पाती है, इस विषय को आधार बनाया गया है। अपने संस्कारों को भूलकर माता-पिता को एक सामान की तरह जब बेटे समझ लेते हैं, तब कवि की मार्मिक अभिव्यक्ति देखिए:
वृद्ध पिता अरू मात को हुआ, बहुत संताप
बाँट दिए सामान से, बेटों ने माँ-बाप
खाएँगे माँ-बाप क्या, किसे बताए कौन
बेटों ने इस प्रश्न पर, ग्रहण कर लिया मौन
लेकिन कलयुग के साये में कुछ ऐसे चरित्र आज भी हैं जो माँ-बाप को अपना सबसे बड़ा धन मानते हैं:
छोटा बोला कुछ नहीं, देना मुझको आप
विनती इतनी मानिए, दे दो बस माँ-बाप
‘विस्तृत माँ का अर्थ’ खंड में सभी दोहे माँ और उसकी महानता का बखान करते हैं:
माँ है जीवनदायिनी, माँ है पालनहार
पुत्र कभी सकता नहीं, माँ का कर्ज़ उतार
माँ का प्रेम अपनी सभी संतानों पर बराबर ही रहता है। संतान चाहे किसी भी रूप में जीवन यापन करे, उसे यथोचित सम्मान दे या अपमान, माँ का प्रेम संतान के लिए कभी कम नहीं होता:
पुत्र चतुर गुणवान हो, या अवगुण की खान
माँ का नेह समान है, निर्धन हो धनवान
मंदिर पूजा व्रत-कथा, दान-पुण्य और जाप
कुशल कामना पुत्र की, माँ करती चुपचाप
सुधांशु जी मानव मन के कुशल पारखी हैं। जीवन भर के अनुभव उनके अनेक दोहों में शब्दायित हुए हैं। संकट और संताप की घड़ी में मनुष्य को सबसे पहली याद अपनी माता की ही आती है। मानव के मनोविज्ञान का शब्दांकन इस दोहे में कितनी सुंदरता से किया गया है:
सहसा हो आश्चर्य तो, मुँह से निकले बाप
मुँह से निकले मात तब, जब होता संताप
जगत के सारे रिश्ते-नाते एक तरफ़ हैं और माँ का निःश्चल-निःस्वार्थ प्रेम निःसंदेह एक तरफ़। इसी भाव का दोहा देखिए:
स्वार्थपूर्ण रिश्ते सभी, माया-मोह-सनेह
स्वार्थ रहित सम्बन्ध है, माँ का निःसंदेह
‘झीने सब सम्बंध’ में माँ की दु:खद स्थिति और अवमानना पर मार्मिक दोहे मिलते हैं:
बेटों हित माँ ने किये, रात और दिन एक
दुःख बेटों ने गोद में, माँ की भरे अनेक
खाना कपड़ा मान सुख, माँ को मिले अनेक
आता जब हर माह में, दिवस पेंशन एक
इसी क्रम में ‘पूरक बनकर तात’ में पिता पर आधारित दोहे भी प्रभावित करते हैं। एक ही दोहे में चारों रिश्तों को सुधांशु जी ने कितनी सुंदरता से बाँध दिया है:
पूजन की थाली बहन, पुष्प दीप सम भ्रात
अक्षत रूपी हैं पिता, रोली जैसी मात
पिता सदैव हिमालय से अडिग रहते हैं, चाहे जितने भी संकट उनके सामने आएँ। पिता को हिमालय जैसी ऊँचाई और सागर जैसी गहराई वाला कहा गया है। आकाश जैसा विस्तृत और धरती जैसे धैर्य वाला है पिता। पिता का अनुशासन और साधु-संतों के प्रति सम्मान संतान को सदैव स्मरणीय रहता है और संतान भी धीरे-धीरे इसे अपने व्यवहार में ढाल लेती है। किसी भी व्यक्ति की सफलता के पीछे परिवार द्वारा प्राप्त आदर्शों और अनुशासन का उल्लेखनीय योगदान होता है। दोहे देखिए:
हो दोपहरी जेठ की, अरु ठिठुराती शीत
बाबूजी विचलित कभी, होते नहीं प्रतीत
अनुशासन उनका रहा, घर में सदा कठोर
चला तभी परिवार निज, उन्नति पथ की ओर
संतान अपने पिता को किसी भी नाम से पुकारती है और उसमें संतान का अपने पिता के प्रति प्रेम ही छुपा होता है। पिता के सभी पर्याय पुत्र को प्यारे लगते हैं और पिता के प्रति पुत्र के प्रेम को दर्शाते हैं:
बाबूजी-माता-पिता, बापू-डैडी-बाप
तात-पितर पर्याय हैं, जिसे पुकारें आप
‘बेटी ऐसी नाव’ और ‘करुणा भरी पुकार’ खंड में बिटिया का परिवार में वर्चस्व दर्शाया गया है:
बेटी से घर स्वर्ग है, बिन बेटी घर सून
यह धागा सद्भाव का, बुनती सदा सुकून
बेटी होती स्वास्तिक, जैसा पावन चिह्न
बेटी होती पुत्र से, कुछ अर्थों में भिन्न
सदा बेटियाँ बाँटतीं, पिया-पिता घर नेह
बेटी का होता नहीं, अपना कोई गेह
बेटी चम्पा की कली, जूही पुष्प कनेर
बेटी कमल-गुलाब की, गंधों का है ढेर
सीता अनुसुइया सती, बेटी दुर्गा शक्ति
करुणा दया अवतार है, सुषमा नवधा भक्ति
माता पत्नी बहन सब, बेटी के प्रतिरूप
कुशल निर्वहन समर्पण, नारी एक स्वरूप
सुता करें माँ गर्भ से, करुणा भरी पुकार
अंश आपके वंश का, मत मुझको तू मार
मात पिता अरु चिकित्सक, दोषी हैं ये तीन
भ्रूण नष्ट हित खोजते, साधन नित्य नवीन
उपर्युक्त दोहों में नारी शक्ति की महिमा का गुणगान है, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ आंदोलन की पहचान है और इस सम्बन्ध में जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित करने का अरमान है। बेटी की महत्ता दर्शाते ये दोहे अप्रतिम हैं।
शास्त्रों में पुत्र को नरक से तारने वाला बताया गया है। परिवार का वारिस है पुत्र, जो पिता के वंश को आगे चलाता है। हमारी भारतीय संस्कृति अनेक ऐसे वीरपुत्रों की शौर्य गाथाओं से भरी हुई है जिन्होंने देश-समाज का सर्वविध विकास किया। राम और भागीरथ जैसे पुत्रों का उदाहरण देते हुए कवि कहता है:
मात पिता के वचन को, शिरोधार्य कर राम
राजपाट सुख त्याग कर, चले गए वन धाम
भागीरथ ने सघन तप, करके किए प्रयास
पूर्वजों के हित किया, भू पर गंग प्रवास
सम्बन्धों के ग्रंथ में, लिखा हुआ आलेख
मोक्ष प्राप्ति कारक बने, अपना ही सुत देख
भारत की संस्कृति में पर्व-त्यौहार कुछ इस तरह रचे-बसे हैं कि हमारी सारी दिनचर्या इन्हीं त्यौहारों के आने-जाने के अनुसार चलती है। दूज पर्व तो यम और यमुना के प्रेम का त्यौहार है। दूज पर्व पर प्रस्तुत दोहे देखिए:
दूज पर्व जिस तरह से, देता ख़ुशी अपार
करता भाई बहन का, आलोकित संसार
भाई देता है वचन, बहनों के रक्षार्थ
कुशल कामना भ्रात की, बहन करे निःस्वार्थ
कवि सम्राट हुमायूँ और रानी कर्मावती के ऐतिहासिक रिश्ते को भी राखी पर्व के माध्यम से एक दोहे में कितनी सुंदरता से बाँध देता है:
कर्मावती हुमायूँ का, बतलाता इतिहास
रिश्ता भाई-बहन का, होता कितना ख़ास
बेटियों पर आज अनेक प्रकार के सितम समाज ढा रहा है। गर्भ परीक्षण, छेड़छाड़ दहेज़, हत्या, दुराचार, ईव टीज़िंग जैसी न जाने कितनी बुराइयाँ आज नारी सशक्तिकरण के दौर में भी सामने दिखाई देती हैं। मानव भले ही चाँद पर पहुँच रहा है लेकिन आज भी कुछ बुराइयाँ हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। इन बुराइयों को सुधांशु जी ‘सत्य तथ्य है कथ्य’ और ‘जीवन अनुभव सार’ खंड में दर्शाते हैं। दोहे देखिए:
गर्भ परीक्षण ने सभी, सीमाएँ दीं तोड़
कई अजन्मी बेटियाँ, गईं जगत को छोड़
होता पुष्पित-पल्लवित, दानव रूप दहेज़
अबलाओं को स्वर्ग में, दानव देता भेज
दुराचार के आँकड़े, स्वतः बताते तथ्य
दुष्चरित्र मानव हुआ, सत्य तथ्य है कथ्य
साथ ही कवि बेटा-बेटी दोनों को ही बराबर समझते हुए लिखता है:
बेटा-बेटी सृष्टि के, दोनों ही अवतार
दोनों के सहयोग से, सृष्टि करे विस्तार
बेटा-बेटी का करें, पालन एक समान
बेटों जैसी ही चढ़े, बेटी हर सोपान
परिवार किसी भी समाज की सबसे छोटी इकाई है। सामाजिक सम्बन्धों का पहला साक्षात्कार बालक अपने जीवन में परिवार के माध्यम से ही करता है। यह परिवार ही है जो हमें आपस में जोड़े रखता है और हमारा भी कर्त्तव्य यही होना चाहिए कि समय के साथ हम भी अपने परिवार को जोड़ें रखें। भारतीय परिवार में केवल माता-पिता, भाई-बहन ही नहीं अपितु हमारा पूरा परिवेश सम्मिलित हो जाता है। भारतीय संस्कृति की यही पहचान है। परिवार में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ भी आती हैं, जब बँटवारा होना मजबूरी बन जाता है। यह बँटवारा केवल ज़मीनों का या घरों का ही नहीं होता, बल्कि दिलों का भी होता है। ऐसी मार्मिक परिस्थिति पर ‘हो गंभीर विचार’ खंड में बहुत संवेदनशील दोहे मिलते हैं:
कटवाया जाने लगा, बँटवारे में बाग़
डालें रोईं फूटकर, रोए तोते-काग
आँगन में लगे एक पेड़ से किसी परिवार का कैसा और कितना गहरा जुड़ाव बन जाता है, इस दोहे में देखिए:
जब काटा जाने लगा, आँगन वाला नीम
तब बापू को यों लगा, घर से गया हकीम
एकल परिवार आज का सच कड़वा है। भौतिकतावाद की आँधी ने आज हमें केवल अपने ही परिवारों तक सीमित कर दिया है। रिश्ते-नातों को हम पूरी तरह से भुला बैठे हैं:
पश्चिम के परिचालन का, घर-घर हुआ प्रवेश
अपना रहे विदेश का, इसीलिए परिवेश
मित्रता जैसे परम पवित्र भाव को सुधांशु जी ने बहुत सुंदर दोहों में बाँधा है। कृष्ण-सुदामा की मित्रता दर्शाते हुए कवि लिखता है:
नीर क्षीर सी मित्रता, देती यह संदेश
कृष्ण सुदामा मित्रता, उत्तम कार्य विशेष
एक दोहे में तीन प्रकार की मित्रता दर्शाई गई है:
मित्रो देखो मित्रता, होती तीन प्रकार
चालू-चाटुक मित्रता, अरु दयालु आकार
इसके आगे कवि तीनों प्रकार की मित्रताओं की विशेषताओं को बतलाता हुआ परामर्श भी देता है:
बनिए और बनाइए, सदा दयालु मित्र
चालू-चाटुक तो मिलें, यत्र-तत्र-सर्वत्र
आज के दौड़-भाग वाले युग में हम केवल स्वकेंद्रित हो गए हैं। पुरखों की किसी भी सम्पत्ति का ध्यान हमने नहीं रखा है। पुरखों की दी हुई सम्पत्ति केवल रुपया-पैसा, सोना-चाँदी या ज़मीन आदि ही नहीं है बल्कि उनके दिए हुए पावन संस्कार भी हैं जो हमारे जीवन का नियमन और निर्देशन करते हैं। ‘जोड़ घटाना भाग’ खंड में इसी विषय को दोहों में पिरोया गया है:
टुकड़े-टुकड़े बँट गई, पुरखों की सम्पत्ति
पड़ी बेचनी तब हमें, आई घोर विपत्ति
खेद हमें इस बात का, बेहद रहा मलाल
पुरखों की सम्पत्ति को, पाए नहीं सँभाल
संग्रह में प्रकृति और पर्यावरण पर भी बहुत सुंदर-सुंदर दोहे प्राप्त होते हैं—इंद्रदेव अवकाश, मनुज रहा क्यों काट, जल ही जीवन जान, अति उत्तम है सूत्र जैसे खंडों में इन्हीं विषयों पर उल्लेखनीय दोहे मिलते हैं। बेतहाशा गर्मी पर दोहा देखिए:
तेवर तीखे धूप के, नहीं सह सके ताव
आसमान पर चढ़ रहे, सूर्य देव के भाव
वृक्षों की उपयोगिता पर दोहे देखिए–
पीपल नीम बबूल अरु, जामुन बरगद आम
छाल फूल जड़ पत्तियाँ, औषधि मिलें तमाम
ये वसुधा के वसन सम, मनुज नहीं ये छीन
धरती माँ इनके बिना, होगी वस्त्र विहीन
आज की राजनीति का हाल देख कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति व्यथित हो सकता है। साहित्यकारों ने राजनीति पर भरपूर मात्रा में लिखा है। दोहे में राजनीति की चर्चा ख़ूब दिखाई देती है। सुधांशु जी ने भी राजनीति पर बेहतरीन दोहे लिखे हैं, जो व्यंग्यात्मक हैं और पढ़े जाने पर पाठक के मन को कचोटते भी हैं। ‘महिमा बड़ी विशाल’, ‘कुर्सी का व्यापार’ खंडों में राजनीति से सम्बंधित दोहे रखे गए हैं। एक प्रसिद्ध कहावत को दोहे के रूप में देखिए:
राजनीति है कोठरी, काजल के अनुरूप
फँसकर इसके जाल में, दाग़ी होता रूप
राजनीति रखती नहीं, कोई मानक चित्र
कोई भी होता नहीं, इसमें दुश्मन मित्र
इसी प्रकार ‘कुर्सी का व्यापार’ खंड में व्यंग्यात्मकता का सहारा लिया गया है, जिसमें कुर्सी की व्यथा इस दोहे में दर्शाई गई है:
टप-टप आँसू गिर रहे, कुर्सी के चुपचाप
भुगत रही किस जन्म की, बेचारी है पाप
साथ ही कवि एक निवेदन भी करता है:
कुर्सी पा करना नहीं, सपने में अभिमान
कुर्सी को कारक सदा, जन सेवा का जान
प्याज़ एक ऐसी सब्ज़ी है जो अपनी अनेक विशिष्टताओं से जानी जाती है। किसी भी सब्ज़ी का एक सामान्य सा स्थानापन्न है प्याज़। ग़रीबों का छप्पन भोग प्याज़ ही बनाता है:
नॉनवेज या वेज है, प्याज़ बिना सब सून
छप्पन भोग ग़रीब का, प्याज़ रोटियाँ नून
लेकिन आज की विडम्बना ये है कि प्याज़ और हरी मिर्च का भोजन भी आज बढ़ती महँगाई में ग़रीब को दुश्वार हो गया है:
हरी मिर्च भाभी सदृश, भोला देवर प्याज़
इस रिश्ते पर गिर रही, महँगाई की गाज़
प्याज़ के बढ़ते दामों के कारण ही कई बार सरकार को भी जवाब देना पड़ जाता है:
बेहद पॉवर प्याज़ में, देते लोग दलील
सरकारें अब तक कई, प्याज़ चुका है लील
दोहा जैसा छंद अपनी उपदेशात्मकता और प्रभावोत्पादकता के कारण साहित्यकारों के साथ-साथ पाठकों में भी ख़ूब सिद्ध रहा है। दोनों के सृजन के साथ-साथ दोहा छंद के विषय में भी दोहाकारों ने इसकी विशेषताओं को अभिव्यंजित करते हुए अनेक सुंदर-सुंदर दोहे लिखे। सुधांशु जी भी दोहे की प्रशंसा इस दोहे में करते हैं:
दोहा अनुपम छंद है, शिल्पकला अनुरूप
व्यक्त करे दो पंक्ति में, भाषा भाव स्वरूप
अपने दोहों में भी कवि सतसैया के दोहों जैसी मारक क्षमता की कामना करता है:
दोहे लिख सकते नहीं, सतसइया से यार
घाव हृदय में कर सकें, अभी नहीं वह धार
साहित्य के प्रति सुधांशु जी बेहद संवेदनशील हैं। उनकी दृष्टि में साहित्य रचना केवल काग़ज़ पर चंद शब्दों को उकेरना नहीं है अपितु कुछ ऐसा लिखा जाना है जो समाज को एक नयी दिशा दे सके, समाज के काम आ सके और युगों-युगों तक लोगों को याद भी रह सके। तभी वह लिखते हैं:
जिनको पढ़ने से नहीं, मिलता हर्ष अपार
दोहे मुक्तक छंद हैं, तो सारे बेकार
शब्द कहाँ साखी कहाँ, कैसे ग़ालिब शेर
लगती अब साहित्य की, अंधे हाथ बटेर
संग्रह में महाकवि कबीरदास को केन्द्रित कर कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण दोहे रचे गए हैं। इन दोहों में कबीरदास का संपूर्ण व्यक्तित्व और उनका जीवन दर्शन प्रतिभासित होता दिखाई देता है:
टेढ़े प्रश्नों का दिया, सीधा सदा जवाब
जीवन रहा कबीर का, जैसे खुली किताब
सभी कातते सूत पर, कबिरा काटा वक़्त
नरम रूई से भी बुने, धागे कितने सख़्त
जाति-धर्म के नाम पर, वे ही करते युद्ध
जो कबिरा की राह के, चलते रहे विरुद्ध
छुआ कभी काग़ज़ नहीं, क़लम नहीं ली हाथ
रचित ग्रन्थ साखी किया, सबद रमैनी साथ
इसी क्रम में विश्व के तीन महाकवियों का पावन स्मरण इस दोहे में मिलता है:
तन तुलसी सा हो गया, मनवा हुआ कबीर
बेध बिहारी ने दिया, अच्छा-भला शरीर
‘भारत देश महान’ खंड में देश-प्रेम की पराकाष्ठा महसूस की जा सकती है। कवि की नज़र में देश-प्रेम भी एक प्रकार का कर्मयोग है जो जीवन को महानता की ओर ले जाता है। कवि लिखता है:
जिये देश हित के लिए, समझा देश महान
पद-धन जिसको गौण है, भारत की संतान
कर्मयोग को ग्रहण कर, नेक बनें इंसान
देशभक्ति पथ पर चलें, जग में बनें महान
इसी क्रम में कवि सत्ताधारियों का भी आवाहन करता है कि वे अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन भली-भाँति करें:
शासन-सत्ता यदि रखे, जन-जनहित का ध्यान
बढ़ पाएगी विश्व में, भारत भू की शान
शास्त्रों में कहा गया है कि हज़ार कुपुत्रों से एक सपूत भला होता है। इस बात की अभिव्यक्ति देखिए:
कितनी सन्तति से भली, लायक़ एक संतान
उन्नति के छूती शिखर, बढ़ती अपनी शान
पर्यावरण संरक्षण को दर्शाता यह दोहा एक प्रतीक के माध्यम से अपनी बात रखता है:
दरवाज़े पर नीम का, खड़ा हुआ इक पेड़
चौकीदारी कर रहा, जैसे वृद्ध अधेड़
चाणक्य नीति के श्लोक युगों-युगों से मानवता को जीवन जीने की राह दिखाते आ रहे हैं। इन श्लोकों को अनेक रचनाकारों ने अपने-अपने तरीक़े से गद्य-पद्य में लिपिबद्ध किया है। सुधांशु जी ने भी कुछ ऐसे ही नीतिपरक श्लोकों को दोहों में बड़ी ही सफलता से ढाला है। चाणक्य नीति का एक श्लोक है ‘लेखनी पुस्तिका दारा परहस्ते गता गता’। इस श्लोक का भावसाम्य निम्नलिखित दोहे में मिलता है:
अच्छी पुस्तक लेखनी, सुन्दर अपने पास
पड़े ग़ैर के हाथ हो, सुन्दरता में ह्रास
अन्य नीतिपरक दोहे भी उल्लेखनीय हैं:
खेती अरु निज नारी को, तब तक अपनी मान
जब तक अपने पास है, नहीं अन्य की जान
शिशु शासक के राज को, दुश्मन लेता छीन
अथवा जो शासन रहे, नारी के अधीन
अग्नि शत्रु ऋण रोग को, जड़ से करना नाश
शेष रहेंगे ये अगर, समझो सत्यानाश
‘अधजल गगरी छलकत जाए’ वाला भाव निम्नांकित दोहे में द्रष्टव्य है:
नदिया अति गंभीर तो, नाला करता ज़ोर
गागर घंटी खोखली, करती अतिशय शोर
राजा युवती अरु लता, नहीं मानते रीत
रहते जो सान्निध्य में, उसे बनाते मीत
संग्रह में अनेक दोहे ऐसे भी हैं जिनमें लोकोक्तियों को दोहों में ढाला गया है। इन मुहावरों और लोकोक्तियों में कुत्ते की पूँछ टेढ़ी होना, जल में रहकर मगर से बैर, सत्संग का फल मीठा होता है, होनहार बिरवान के होत चीकने पात, घर का भेदी लंका ढाये, भागते भूत की लँगोटी भली, खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे, एक अनार सौ बीमार आदि पर बहुत ही उपयोगी दोहे मिलते हैं।
दोहा लेखन के लिए सुधांशु जी ने अपनी भावभूमि का चयन स्वयं किया है। परिवार, परिवेश, समाज देश-राष्ट्र के साथ-साथ तेज़ी से बदलती हुई परिस्थितियों पर कवि ने बड़ी ही गहराई से अपनी दृष्टि डाली है, उसे अपनी चेतना में उतारा है और इसके पश्चात् दोहे की दो पंक्तियों में उस तथ्य को बाँधने का प्रयास किया है। कवि के अनुभव की व्यापकता के कारण ही उसकी लेखनी भी नये-नये आयाम स्थापित करती है। इन दोनों की अपनी अलग महत्ता और सार्थकता है जो पाठक का मनोरंजन तो करती ही है, इसके साथ पाठक को कहीं-कहीं नैतिकता का पाठ भी पढ़ाती है। सुधांशु जी के दोहों में गुरु महिमा, भक्ति, संस्कृति, शृंगार के तत्त्व तो उपलब्ध होते ही हैं, अद्यतन परिवेश में आत्मबोध, लोकमंगल की पावन भावना तथा सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, नैतिक अभिव्यक्तियाँ भी अपना स्थान निर्धारित करती हैं। बिम्ब और प्रतीक का प्रयोग अनेक दोहों को उल्लेखनीय बनाता है। गम्भीर भाषा, गहन भावाभिव्यक्ति, सहज सम्प्रेषणीयता, अन्योक्ति जैसे तत्त्वों के कारण ये दोहे पाठक के हृदय में सीधे उतर जाते हैं। परम्परा का मूल्यांकन, आधुनिक युगबोध, कलात्मकता के साथ-साथ उच्च जीवनादर्शों और सांस्कृतिक चेतना को स्पष्ट रूप से शब्दायित करने के कारण ये दोहे अपना सांस्कृतिक मूल्यबोध स्थापित करने में सफल सिद्ध होते हैं। यही तत्त्व इन दोहों की रसानुभूति में अभिवृद्धि करते हैं, जिसके लिए ‘यत्र तत्र सर्वत्र’ संग्रह की पर्याप्त प्रशंसा की जानी चाहिए।
डॉ. नितिन सेठी
सी 231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005)
मो. 9027422306
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- हिन्दी ग़ज़ल पर विराट दृष्टि
- साहित्यिक आलेख
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