ग़ज़लों में रोशनी के निशान

01-06-2022

ग़ज़लों में रोशनी के निशान

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा में कम उम्र के जिन ग़ज़लकारों ने अपना नाम और मुक़ाम सुरक्षित किया है, उनमें के.पी. अनमोल अपने कलाम से थोड़े अलग खड़े दिखाई देते हैं। अपनी ग़ज़लों में के.पी. अनमोल जहाँ एक ओर ग़ज़ल की परम्पराओं का साथ निभाते चलते हैं, वहीं नये से नये प्रयोगों को भी उनकी ग़ज़लों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ग़ज़ल का अपना डिक्शन, अपनी काव्यभाषा होती है। यूँ तो ग़ज़ल भी काव्य ही है लेकिन एक ऐसा काव्य है जिसमें सामाजिक चित्रण, जनधर्मिता और समय का सत्य उसके शेरों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। ग़ज़ल की मुख्य विशेषता है उसकी सामाजिक संवेदना जो अपने पढ़ने-सुनने वालों का ध्यान बरबस ही आकर्षित कर लेती है। हिंदी ग़ज़ल अपने युगबोध, सामाजिक चित्रण और समय सम्बोधन के लिए ख़ूब पहचानी जाती है। किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर से प्रकाशित संग्रह ‘कुछ निशान काग़ज़ पर’ में अनमोल की कुल 101 ग़ज़लें संगृहीत हैं। अपनी विशिष्ट रचनाधर्मिता से अनमोल की ग़ज़लें अलग से रेखांकित की जा सकती हैं। के.पी. अनमोल ग़ज़ल के साथ-साथ कविता, गीत और समीक्षा के क्षेत्र में भी पर्याप्त रूप से संलग्न हैं। परन्तु अनमोल की मुख्य विधा ग़ज़ल है। हिंदी ग़ज़ल पर अनेक नये रचनाकारों को वह अपना मार्गदर्शन भी विभिन्न माध्यमों से प्रदान करते रहे हैं। 

अनमोल की ग़ज़लों में प्रेम के अनेक रूप हमें मिलते हैं। यह प्रेम कहीं मिलन की ख़ुशियों से सराबोर है तो कहीं विरह का दंश इसे पल-प्रतिपल सालता है। प्रेम का एक रंग संकेतों की भाषा लिए हुए है:

न शर्म उनकी अजब थी, न थी हमारी झिझक
अजब तो धड़कनों का बे-हिसाब होना था

प्रेम का एक और रंग इन शेरों में देखिए:

उलझा है तेरे प्यार के धागों में जबसे दिल
तबसे मेरी हयात का पैकर सँवर गया
मैसेज उसका आ ही गया आख़िरश मुझे 
अनमोल! कॉल आया नहीं, दिन गुज़र गया

प्रेम की अवस्था में अक़्सर ख़ुद के सजने-सँवरने पर ध्यान ज़्यादा जाता है‌। किसी की याद या किसी की प्रेमभरी पुकार किस तरह जीवन को सँवार देती है, इसे अनमोल ने अपनी दो ग़ज़लों में अभिव्यक्त किया है। अनमोल लिखते हैं:

ख़ुद को आईने में रह रह कर सँवारा ख़ूब था 
यार ने मेरे मुझे जिस दम पुकारा ख़ूब था 
 
ख़ुद को आईने में रह रह कर सँवारा ख़ूब था 
यार मेरे तुमने जब मुझको पुकारा ख़ूब था

यहाँ प्रेम का सात्विक स्वरूप भी दर्शनीय है। मुहब्बत की साम्यता केवल मुहब्बत से ही दी जा सकती है। इस पवित्र भाव की ख़ुद में कोई भी और उपमा नहीं। अनमोल लिखते हैं:

मुहब्बत बस मुहब्बत है नहीं इसके सिवा कुछ भी 
तुम्हें जब सोचता हूँ, यह कहावत मान लेता हूँ

मोहब्बत की ताक़त सारी दुनिया को जीतने की शक्ति देती है। मुहब्बत इंसान को क्या से क्या बना देती है, इसका भाव देखिए:

घुली है इस तरह मुझमें तुम्हारी प्यार की ख़ुश्बू
किसी गुलशन से भी ज़्यादा मुअत्तर हो गया हूँ मैं 
जगह पाकर तेरे दिल में यही महसूस होता है 
जहाँ को जीतकर कैसे सिकंदर हो गया हूँ मैं

किसी का साथ क्या कुछ देता है, इसकी अभिव्यक्ति देखिए:

हाथ में अनमोल उसका हाथ जब से आ गया 
बढ़ गयी जैसे अचानक ज़िन्दगानी की महक

एक पल का साथ किस तरह अनगिनत ख़ुशियों की सौग़ात लाया करता है, अनमोल इस बात को महसूस करते हैं:

वो क्या वैलेंटाइन डे से है कम 
तुम्हारे नाम का जो पल गया है

प्रेम की पराकाष्ठा तो तब है, जब दो लोग एक जान हो जाएँ। प्रेम में प्रेमी के लिखे गए शब्दों से एकाकार हो जाने की स्थिति अनमोल इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं:

देर तक मेरी ग़ज़ल पढ़ती है उसको
देर तक वो लफ़्ज़ मेरे चूमती है

प्रेम से जुड़कर व्यक्ति को अपना रास्ता अपने आप दिखाई देता है। मुहब्बत का एहसास हर एक को अपने ही मुताबिक़ ढाल लेता है। व्यक्ति का देखना-सोचना-समझना; सभी कुछ मानो मुहब्बत के पैकर में ही ढलने लगता है:

लो अब उसे भी एक अजब शौक़ लगा है
अनमोल सोचता है मुहब्बत के मुताबिक़

एक बहुत नाज़ुक-सा एहसास अनमोल अपने शेर में देते हैं। इस शेर में पर्याप्त ताज़गी और नवीनता है: 

नाज़़ुक मन पर रंग हज़ारों चढ़ते हैं 
दिल से दिल की जब कुड़माई होती है

प्रेम के दो शब्द जादू-सा असर रखते हैं ज़िंदगी में। इनकी ताक़त और तासीर कोई विरला ही जान पाता है:

लबों से छू के तुम अनमोल कर दो 
ये दो अल्फ़ाज़ जो हैं मुख़्तसर से

इसी तरह अपने ख़्यालों में खोए हुए ग़ज़लकार की सोच में यह बात आती है:

चुप्पियों में जब सुनी मीठी-सी कोई धुन
यूँ लगा जैसे तुम्हारा क़हक़हा होगा

श्रवण बिम्ब की सहायता से अनमोल ने यहाँ एक नाज़ुक शेर कहा है। इसी प्रकार स्पर्श बिम्ब का भी जादू देखिए:

पेशानी पर बोसा तेरी चाहत का 
दिल पर कितने जंतर-मंतर करता है

अनमोल की ग़ज़लों में प्रेम के अलग-अलग रूप नज़र आते हैं। कहीं यह प्रेम अकेलेपन में आकर उन्हें गुदगुदाता है तो कहीं इस प्रेम की शक्ति उन्हें जीवन की अकेली राहों में चलते जाने का सम्बल प्रदान करती है। सबसे मुख्य बात है शेरों में प्रेम की सात्विकता और पवित्रता। कहीं से भी इन शेरों में वासना की कोई गंध नहीं है। एक साथ ही प्रेम के ये रंग मानवीय और आध्यात्मिक, दोनों ही रूपों में साथ-साथ चलते दिखाई देते हैं। 

सामाजिक परिस्थितियाँ साहित्य पर पर्याप्त प्रभाव डालती हैं। साहित्यकार इन स्थितियों को देखता-समझता है और उन पर अपनी क़लम चलाता है। हिंदी ग़ज़ल की यह विशिष्टता है कि इसमें सामाजिक पक्ष पर सदैव ध्यान दिया गया है। अपनी सामाजिक भावनाओं के प्रदर्शन से ही हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल से अलग नज़र आती है। अनमोल की ग़ज़लों में भी सामाजिक परिप्रेक्ष्य के शेर ख़ूब मिलते हैं। उनके सामाजिक चित्रण में रोज़मर्रा के जीवन की ज़रूरतें हैं, समाज में होने वाली छोटी-बड़ी घटनाएँ हैं, समाज में आए परिवर्तनों की झाँकियाँ है। गाँवों में आते हुए परिवर्तनों को अनमोल यूँ दर्शाते हैं:

 गाँव को भी शहरी जीवन दे गया
 कौन इतना अजनबीपन दे गया
 प्यास ने की थी गुज़ारिश मेघ से
 फिर मगर वो आश्वासन दे गया

प्यास और मेघ के प्रतीक यहाँ बहुत गहरी बात कहते हैं। सच तो यह है कि तरक़्क़ी की तलाश में जब हम बाहर निकलते हैं तो दुनिया हमें केवल झूठे आश्वासन और ढकोसले ही देती है। सम्बन्धों में आई शिथिलता और अजनबीपन इन शेरों में द्रष्टव्य है। 

एक पिता की चिंता इस शेर में दिखाई देती है:

एक बेटे को ग़लत रस्ते की जानिब देख
बाप के सीने पे इक पर्वत ढहा होगा

बशीर बद्र ने कभी कहा था “मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिली।” रिश्ते-नाते सतत् साहचर्य और निष्काम समर्पण माँगते हैं। दोस्ती जैसा पवित्र भाव तो लुटने-लुटाने का खेल है। इसी बात को अनमोल अपने शब्दों में यूँ कहते हैं:

नहीं वो दोस्ती क़ायम न रह सकेगी अब
तू लौट आया है लेकिन हिसाब पहने हुए

समाज में आज हमें भले ही अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं लेकिन हक़ीक़त तो यह है कि वैज्ञानिक विकास ने हमें बहुत कुछ ठोस नहीं दिया है। आज हमारे पास भले ही अनगिनत भौतिक सुख-सुविधाएँ भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं लेकिन हम आपसी प्रेम, भाईचारा, मानवता; इन सबको तो जैसे खो ही चुके हैं:

सदियाँ गुज़रीं लेकिन हासिल कुछ भी नहीं 
हमको वैसे फ़र्राटे पर रोना था

इसी फ़र्राटे की रफ़्तार का असर है कि आज मनुष्य अपने जीवन में अनेक ख़ुशियों को पीछे छोड़ता आया है और नई-नई समस्याओं को झेल रहा है। 

भूख, प्यास, दुत्कारें, धूप और पसीना कब 
कार, बँगले, ए। सी। की मस्तियाँ समझती हैं
ये धुआँ जमा होकर साँस-साँस में अनमोल
ज़ह्र कैसे घोलेगा चिमनियाँ समझती हैं

अनमोल के अनेक शेरों में दहेज़ प्रथा, आपसी मनमुटाव, ईर्ष्या-द्वेष जैसी समस्याओं पर बात की गई है। इन सब से पता लगता है कि के.पी. अनमोल अपनी सामाजिक परिस्थितियों से अनजाने नहीं हैं। प्रेम के रंग अगर वह अपनी ग़ज़लों में भरना जानते हैं तो सामाजिक विद्रूपताओं और समस्याओं का सामना करने का भी माद्दा रखते हैं। साहित्यकार होने की अपनी सामाजिक भूमिका को भी अनमोल यहाँ दर्शाते हैं। 

प्रकृति चित्रण भी अनमोल की ग़ज़लों में ख़ूब मिलता है। प्राकृतिक सुषमा उनके अनेक शेरों में समाहित है। अनमोल की ग़ज़लों से गुज़रने पर महसूस होता है कि नदी और समंदर पर आधारित शेर अनमोल की ग़ज़लों में सबसे अधिक हैं। नदी एक लंबी गतिशील परम्परा है जो ख़ुद में तो बहुत कुछ लेकर गतिमान है ही, आने वाले समय से भी कुछ न कुछ नया प्राप्त करती है और आगे बढ़ती चली जाती है। एक बिम्बप्रधान शेर में अनमोल इसे यूँ अभिव्यक्त करते हैं:

समंदरों की तरफ़ रोज़ चलता रहता हूँ
हज़ारों मील तलक मैं चिनाब पहने हुए

इसी ग़ज़ल में अनमोल आगे कहते हैं:

नदी-सी बहती चली जा रही है मेरी हयात
है आग अस्ल में, लेकिन है आब पहने हुए 

यहाँ जीवन के दुखों को भी सुख के आवरण में लपेटकर जीवन को जिये जाने की और अनवरत आगे बढ़ते जाने की मार्मिक अभिव्यक्ति अनमोल ने की है। नदी भी तो यही करती है। ऊपर से शांत दिखने वाली नदी अंदर बहुत गहरी होती है और अपने साथ राग-द्वेष, सुख-दुख, मिलन-बिछोह के अनगिनत रत्नादि को अपने प्रवाह के साथ लिए बढ़ती जाती है। 

फ़क़ीर-सी एक नदी को निहायत ही बड़ा-सा समंदर जब सलाम करता है तो नदी का सोचना-झिझकना स्वाभाविक ही है। नदी और समंदर के प्रतीक इस शेर में उल्लेखनीय हैं:

मिन्नतें करता है उसकी नाज़ उठाता है सभी
है नदी अचरज में ऐसा एक समंदर देखकर

सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो बड़े-बड़े कल-कारखानों और उद्योगों का सारा प्रदूषित पानी नदियों की पवित्रता को भंग कर रहा है। यहाँ समंदर, एक प्रकार से बड़े उद्योगों और स्वार्थी तत्त्वों का प्रतीक है और नदी, अपने में सिमटे हुए निष्काम सेवा भावना रखने वाले चरित्र का। इसी संदर्भ में एक और शेर है:

ये पीती जा रही है विष निरंतर 
समन्दर को नदी भारी पड़ेगी 

आज हमारे देश में नदियों का जो प्रदूषित रूप हो गया है, उससे हमारा इकोसिस्टम ही गड़बड़ा गया है। इस शेर में अनमोल की पर्यावरण के प्रति चिंता सुस्पष्ट है। 

नदी हमेशा समंदर से ही जाकर मिलना चाहती है। समंदर से मिलकर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है नदी। एक तरह से नदी की पूरी जीवनलीला को अनमोल इन दो शेरों में अभिव्यक्ति देते हैं:

ख़ुदी को आज़माने जा रही है 
नदी ख़ुद को लुटाने जा रही है
मिटाने मुद्दतों की प्यास शायद 
समन्दर में समाने जा रही है

नदी केवल पानी से भरी हुई धारा ही नहीं है बल्कि नदी अपने अंदर बहुत सारी सभ्यताएँ और रवायतें लेकर बहती है। नदी भले ही बाहर से शांत-सी बहती दिखे लेकिन एक भावपूर्ण व्यक्ति को नदी की धारा अपने अंदर भी कलकल निनाद-सा उत्पन्न करती महसूस होती है। नदी का यह निरंतर प्रवाह जब शायर अपने जीवन प्रवाह के साथ जुड़ता हुआ महसूस करता है तो यह शेर रूप लेता है:

नदी बनकर वह मेरी ज़ात में क्या आ गई अनमोल 
बदलकर एक क़तरे से समन्दर हो गया हूँ मैं

के.पी. अनमोल ने नदी से अपना रागात्मक सम्बन्ध कितनी सुंदरता से यहाँ जोड़ लिया है। 

नदी सागर में जाकर अपना अस्तित्व मिटा देती है। लेकिन अपने अस्तित्व के पुनर्शोधन और पुनर्निर्माण का प्रयास नदी जब करती है, तब यह शेर सामने आता है:

एक नदी पर्वत की जानिब चल पड़ी है 
सागरों में एक अजब सी खलबली है

सहज और स्वाभाविक रूप से शांत प्रकृति जब किसी क्रांति का शुभारम्भ करती है, तो वह क्षण विशिष्ट ही होता है। नदी पर्वतों से ही निकलती है। नदी का अपने मूल की ओर लौटकर जाने का अर्थ है कि अंधाधुंध वैज्ञानिक प्रगति के मार्ग पर चलते जाने से प्रकृति की जो विनाशलीला हमारे सामने आरम्भ हुई है, उसे देखकर आज हमें भी अपने मूल की ओर ही लौटना होगा, तभी अपनी उन्नति का मार्ग हम प्रशस्त कर पाएँगे। विपर्यय का सुंदर उदाहरण इस शेर में है। 

चाँद शायरों का प्रिय विषय रहा है। चाँद को आधार बनाकर बुझे मनों को रोशनी देते शेर अक़्सर कहे जाते रहे हैं। अनमोल ने भी चाँद पर आधारित कुछ मनमोहक शेरों से अपनी ग़ज़लों को रोशन किया है। चाँद का मानवीकरण करते हुए अनमोल अपने इस एक ही शेर में रात का पूरा बिम्ब उतार देते हैं:

नींद से ये हुनर लिया जाए
ख़्वाब आँखों में भर लिया जाए
चाँद को खिड़कियों के परदों से 
रंगे-हाथों ही धर लिया जाए

प्रेम में अपनी प्रेयसी तक पहुँचने के लिए कोई आसान और सीधी राह नहीं होती। ज़मीन के काँटों और पत्थरों पर तो चलना ही पड़ता है लेकिन धरती से चाँद तक पहुँचने की लंबी यात्रा भी करनी पड़ जाती है। इस शेर का एक भाव और भी है कि जैसे चाँद बरबस ही हमें आकर्षित कर लेता है और हम उससे अपना नाता जोड़ लेते हैं, इसी प्रकार प्रेयसी के कोमल हृदय ने ग़ज़लकार को आकर्षित कर लिया है और प्रेयसी के प्रेम का प्रकाश उस तक पहुँचने का रास्ता दिखाता है:

उनके दिल तक मैं ऐसे पहुँचा हूँ
चाँद तक चल के जैसे पहुँचा हूँ

अनमोल ने अपने कुछ शेरों में श्लेष अलंकार का बहुत सुंदर प्रयोग किया है। यह शेर देखिए:

फ़लक पर लग रहा है चाँद फ़ीका 
उसे अनमोल ने क्या कह दिया है

यहाँ ‘उसे’ चाँद के संदर्भ में भी है और प्रेयसी के संदर्भ में भी। चाँद के सामने प्रेयसी की प्रशंसा करके चाँद भी कुछ फ़ीका नज़र आने लगा है। दूसरे अर्थ में प्रेयसी को ही कुछ कठोर शब्द जब बोले गए हैं तो धरती क्या फलक पर चमकता उजला चाँद भी अपनी आभा खो बैठा है। ऐसे कुछ और भी महत्त्वपूर्ण शेर अनमोल की क़लम से निकले हैं। 

यह शेर अपनी कोमलता और मानवीकरण के कारण बहुत विशिष्ट बन गया है:

उजली-सी एक रात ने घूँघट निकाल कर 
क्या पा लिया है चाँद को हैरत में डाल कर

ग़ज़ल कहते समय उनके अनेक शेर ऐसे भी हैं जो ‘ग़ज़ल’ पर ही आधारित हैं। अनेक स्थानों पर ‘ग़ज़ल’ गुलाब की कोमल पँखुड़ियों की तरह शब्द के रूप में भी अपनी ख़ुश्बू बिखेर रही है और अर्थसघनता के अभिनव अभिरूपों की अभिव्यक्ति कर रही है। ऐसे शेर या तो रोमांटिक शेरों की श्रेणी में हैं या फिर सामाजिक। कोलाज की परम्परागत परिभाषा को ‘कोलाज’ जैसे शब्द के प्रयोग से अनमोल ने इस शेर में विशिष्ट बना दिया है:

ग़ज़ल है प्यार भरे लफ़्ज़ों का कोलाज यहाँ
मेरे हसीन ख़यालात को टाँका गया है

ग़ज़लकार के मन में सैकड़ों शेर और ग़ज़लें समय-समय पर बनते-बिगड़ते रहते हैं। परन्तु ग़ज़लकार अपने कथन और कहन की क़ीमत को भलीभाँति समझता है, इसीलिए वह इसे ख़ुद पर किया गया एहसान मानता है:

एक अनमोल सी ग़ज़ल कहकर
ख़ुद पर एह्सान कर लिया जाए

किसी भी रचना का मूल उत्स रचनाकार के हृदय में तो होता ही है, परन्तु उसके हृदय को रस देने वाला कोई न कोई कारक बाह्य परिस्थितियों से ही मिलता है। किसी की मुहब्बत भरी बातें, किसी की ममता भरी गोद, किसी के प्यार भरे दो मीठे बोल, किसी की निश्चल मुस्कुराहटें; ये सब ग़ज़लकार को ग़ज़ल कहने का मानो जीवनरस प्रदान करते हैं। शेर देखिए:

बहुत सुकून दिया करता है मुझे अक़्सर
तुम्हारी गोद में लेटे हुए ग़ज़ल कहना

ग़ज़ल का सौंदर्य इस एक शेर में अपने चरम में प्रतिभासित हुआ लगता है:

शीरीं आवाज़, हँसी ख़ास, कहन जादू-भरी
लाज़मी है तेरे लहज़े का ग़ज़ल हो जाना

जब किसी का लहज़ा ही ग़ज़ल हो जाए, चुप्पियों में किसी की हँसी की खनखनाहट ही ग़ज़ल हो जाए, किसी की मीठी याद ही ग़ज़ल के शेरों में ढल जाए, प्यार भरे लफ़्ज़ों में हसीन ख़यालात को टाँककर ग़ज़लों के कोलाज बनाए जाएँ, शायद तभी जाकर बनना सम्भव हो पाते हैं ‘कुछ निशान काग़ज़ पर’। 

अपने अनेक शेरों में अनमोल अपना जीवन पूरी तरह ग़ज़लमयी हो जाना महसूस करवाते हैं। वास्तव में सच्ची ग़ज़ल केवल क़लम से नहीं लिखी जाती बल्कि दिल का ख़ून और माथे का पसीना भी इसमें शामिल होता है। इसीलिए एक ग़ज़लकार अपनी ग़ज़ल को और अपनी ग़ज़ल लेखन की शक्ति को स्वयं में उतरा हुआ-सा महसूस कर रहा है:

इस तरह अनमोल मुझमें हो गई शामिल ग़ज़ल
जी रहा हूँ मैं उसे ही अब ख़ुदी को छोड़कर

ग़ज़ल और ग़ज़लकार यहाँ एकजान हो गए हैं। इसी सोच का एक और शेर देखिए:

हज़ारों दर्द मेरे ढल गए अशआर में आकर 
ग़ज़ल ख़ुश हूँ बहुत ही मैं तेरे दरबार में आकर

इसी ग़ज़ल ने ग़ज़लकार में एक पवित्र भाव की स्थापना की है:

ग़ज़ल जिस दिन से मेरी धड़कनों में हो गई शामिल
लगा ठोकर ज़माने को कलंदर हो गया हूँ मैं

अनमोल की नज़र में ग़ज़ल केवल शृंगारिकता और प्रेम प्रदर्शन का ही नाम नहीं है बल्कि सामाजिक चेतना और आसपास घटती हुई बातों को ग़ज़लकार की दृष्टि से देखकर उन्हें भी ग़ज़ल की फ़ॉर्म में अभिव्यक्ति देने का एक प्रयास है। निम्नलिखित दो शेर इस बात की गवाही देते हैं:

उस इक ख़याल को ग़ज़ल की जान कह रहा हूँ मैं
जो आके ज़िंदगी की मुश्किलों पे बात कर गया

ख़याल ख़ुद अगर अल्फ़ाज़ हुए जाएँ तो
ग़ज़ल के हुस्न को फिर बा-कमाल करते हैं

अनमोल के ख़यालों और उनकी सोच में और फिर उसे ग़ज़ल के फ़ॉर्म में ढलने तक की प्रक्रिया में, कोई बनावटीपन और दुराव-छिपाव नहीं है। वास्तव में जो उनके दिल में है, वही ग़ज़ल के रूप में काग़ज़ पर अपने निशान छोड़ जाता है। इन सबके बीच में जो एक कलात्मक संतुलन है, जो डिक्शन है, भावों को अभिव्यक्त करने का जो साफ़-सुथरा तरीक़ा है; वही आज के.पी. अनमोल की ग़ज़लों की विशिष्ट पहचान बनकर हमारे सामने आता है। 

किसी भी रचनाकार के सृजन में उसका आत्मपक्ष हमारे सामने आकर आकार लेता है। सच तो यह है कि कोई भी सृजन अपने आत्म की ही अभिव्यक्ति है। आत्म संवेदना, आत्म संघर्ष और आत्माभिव्यक्ति; ये तीनों ही ग़ज़ल में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अनमोल की ग़ज़लों में भी हमें कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। आत्मगत भाव ग़ज़ल के शेरों का रूप लेकर अनमोल की ग़ज़लों में अनेक प्रकार से आए हैं। एक शेर देखिए:

किस तरह ज़माने से है अलग ज़रा सा तू 
ये वुजूद की तेरे ख़ूबियाँ समझती हैं

ग़ज़लकार की सोच की इंतिहा यहाँ तक है कि आईने देखते हुए भी उसे प्रेयसी की झलक महसूस हो रही है:

शक़्ल, लहज़ा, मुस्कुराहट और अदाएँ सब तेरी
चौंक उठता हूँ मैं आईने को अक़्सर देखकर

शायरी को ख़ुदा की नेमत मानने की सोच रखने वाला ही शायरी में और अदब में कुछ तासीर पैदा कर सकता है। एक बहुत समर्पित भाव का शेर अनमोल कहते हैं:

ख़ुद को बना सका न मैं सौ कोशिशों के बाद 
और उसने एक बार में छूकर बना दिया 
बस एक हुनर था शायरी का पास मेरे और 
रब के करम ने उसको ही ज़ेवर बना दिया

ग़ज़लकार का आस्थावादी रूप बहुत ही मज़बूती से यहाँ उभरा है। अनमोल की एक पूरी ग़ज़ल ही आत्म-रचना है। अपनी बात में वह कुछ प्रश्न भी उठाते हैं और ख़ुद उसका उत्तर भी देते दिखाई देते हैं। शेर देखें: 

मुसलसल देखते हैं ख़्वाब मुझको
मुसलसल टूटता मैं जा रहा हूँ

यह शेर अपने आप में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। ख़्वाबों को हम देखते हैं और उनके टूटने-बनने का सिलसिला भी जारी रहता है। लेकिन यहाँ अनमोल ने ख़्वाबों को देखने का काम दिया है और ख़ुद के टूटने का। 

एक और ग़ज़ल में भी अनमोल अपनी आत्माभिव्यक्ति दर्शाते हैं। यहाँ बेलौसपन और बेफिक्री भी महसूस की जा सकती है। वे लिखते हैं: 

ये क्यों सोचूँ किसी ने क्या कहा है 
मेरे जीने का अपना फ़लसफ़ा है

समंदर और नदी के प्रतीक को लेकर अगले शेर में वे लिखते हैं:

बहुत गहरी ख़ामोशी ओढ़ मुझमें 
समन्दर दूर तक पसरा पड़ा है
नदी बहती है कितना दर्द लेकर 
किनारों को कहाँ कुछ भी पता है

के.पी. अनमोल ने केवल शृंगारिक और प्रकृतिपरक ग़ज़लें ही नहीं कहीं हैं बल्कि सामाजिक जीवन भी उनकी ग़ज़लों में पर्याप्त रूप से परिलक्षित किया जा सकता है। समाज पर इस युवा शायर की पैनी दृष्टि है। आज के ज़माने की सबसे बड़ी समस्या है टूटता विश्वास, बिखरता समाज और खंडित होता भाईचारा। अनमोल इन सबके सकारात्मक पक्ष पर बात करते हैं और इस विश्वास को क़ायम रखते हैं कि राम और रहमान साथ-साथ चलकर ही सामाजिक एकता का संदेश दे सकते हैं:

कितने दिनों तक आईना हैरान रहा 
अब तक कैसे छुपकर यह इंसान रहा 
शंकर पर जब दुख का पर्वत टूटा तो 
साया बनकर साथ खड़ा रहमान रहा
सबने मिलकर सींचा है इस धरती को 
ऐसे ही तो ज़िन्दा हिंदुस्तान रहा

ग्रामीण संस्कृति में आज भी परस्पर सौहार्द, भाईचारा, एक दूसरे से सम्बन्धों का रखरखाव जैसी पावन भावनाएँ मौजूद है। निजी स्वार्थ और दम्भ के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है। ग्रामीण संस्कृति आज भी पूरे गाँव को एक समाज, एक इकाई मानती है। अनमोल यहीं से अपनी बात उठाते हैं और कहते हैं:

गाँव के बरगद में जो एक घोंसला महफूज़ है 
कह रहा है गाँव की आबो-हवा महफूज़ है 

राम, भोला और रहीमन मिलकर खाते हैं जिन्हें 
उन सिवइयों में अभी तक ज़ायका महफूज़ है

मज़हब एक-दूसरे से मिल-जुलकर रहने की सीख देता है। लेकिन अफ़सोस है कि आज का समाज धर्म और मज़हब के नाम पर लड़ाई-झगड़ा करता है और दिलों में डर पैदा करता है:

मन को भी चल पाक रखें हम मस्जिद जैसा, मंदर जैसा 
है मज़हब अब कुछ ज़ेह्नों में दंगों में उपजे डर जैसा

अनमोल का कोमल मन इन्हीं बातों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है और समाज में घुलते हुए ज़हर को सामने लाते हुए सम्बन्धों को सहेजने की बात करता है:

कोई अफ़वाह गुज़री है इधर से 
दुबकने लग गए हैं लोग डर से 
लहू से तर-ब-तर फिर होगी बस्ती
यह किसने ज़हर घोला है ख़बर से

अपनी इस ग़ज़ल में अनमोल इंसानियत, भाईचारा, प्रेम जैसे तत्त्वों को सबसे ऊँचा स्थान देते हैं और समाज की स्याह होती परिस्थितियों पर अपनी व्यथा भी प्रकट करते हैं:

वो देखो झील में भीगा पड़ा है 
यह सूरज आज क्यूँ सहमा पड़ा है 
अजब-सा ख़ौफ़ है बस्ती में तारी 
शहर को धर्म का दौरा पड़ा है 
बढ़ाओ हौसला इंसानियत का 
किसी कोने में वो टूटा पड़ा है

सम्बन्धों का साझापन, दिलों की दोस्ती, अपनेपन का अहसास अपनी इस ग़ज़ल के शेरों में अनमोल बयाँ करते हैं: 

हमारे दर्द ग़म आहें सुकूं और प्यार साझा हैं
मुहब्बत, भाईचारा, दोस्ती, तक़रार साझा हैं
हमारे मुल्क की मिट्टी, हमारे गाँवों की गलियाँ
मकानों की छतें, दिल में बसे संसार साझा हैं
बुरे पल में मदद करना, ज़रूरत पर खड़े रहना
वो अपनेपन के सब धागे, दिलों के तार साझा हैं

रचनाकार का अपना जीवन दर्शन उसकी रचनात्मकता का ताना-बाना बुनता है। अनमोल की ग़ज़लों की यह विशेषता रही है कि इनमें उनका जीवन दर्शन भी प्रवाहित होता दिखाई देता है। अनमोल की अनेक ग़ज़लें ऐसी हैं जिनमें सूफ़ियाना विचार रेखांकित किए जा सकते हैं। अद्वैत और सूफ़ी दर्शन उनकी ग़ज़लों में पर्याप्त स्थान रखते हैं। अनमोल अभी युवा हैं लेकिन उनकी लेखनी में सूफ़ियाना कलाम प्रखरता से मिलता है। मानव जीवन को ईश्वर की देन मानकर उसका सरताज ईश्वर को ही दर्शाते हुए अनमोल लिखते हैं:

यह ज़ीस्त क्या है, साँसों की एक बज़्म है जिसमें
होता है रोज़ तेरा ही चर्चा मेरे आगे

दार्शनिक चिंतन में प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय दर्शाया गया है। प्रेम शरीर का नहीं बल्कि आत्मा का शृंगार है, आत्मा का भोजन है। इसी बात को अनमोल यूँ अभिव्यक्त करते हैं:

इश्क़ अनमोल तेरा है कोई मरहम कि इसे 
रूह पर मेरी मला जाय, यही बेह्तर है

ईश्वर से मुलाक़ात के कुछ हसीन लम्हे ख़ुद में उतरे बिना नहीं मिलते। ईश्वर को पाना बाहरी दुनिया से भीतरी दुनिया तक की यात्रा का नाम है। अनमोल इस बात को यूँ कहते हैं:

ज़रा-सी देर के लिए मैं ख़ुद में क्या उतर गया
सभी लगे हैं चीखने, “किधर गया, किधर गया’

और इसी क्रम में ईश्वर की तलाश यानी कि ख़ुद की ही तलाश है:

अजब ये इश्क़ में एक तज़्रिबा कमाया है
तेरी तलाश में निकला तो ख़ुद को पाया है

ईश्वर भले ही हमारी नज़रों से छिपकर रहे लेकिन अनमोल का विश्वास यहाँ द्रष्टव्य है:

बस नज़रों से ही तो छिपकर रहता है
वो जो हर एक दिल के भीतर रहता है 
हम चाहें तो उसको बिसरा दें लेकिन 
उसको सबका ध्यान बराबर रहता है

जब मनुष्य इस बात को गहराई से समझ जाता है तो वह ख़ुद की ओर ही मुख़ातिब होते हुए ख़ुदा से मुख़ातिब होने का रास्ता बनाता है। ख़ुदा का रास्ता ख़ुद से होकर ही जाता है। उस पीड़ा और उस तड़प को भी अनमोल महसूस करते हैैं:

वो बेख़ुदी में ख़ुदी से कलाम करते हुए 
दिखा है बारहा मुझको ये काम करते हुए 
तेरा ख़याल, तड़प और ग़ज़लें फ़ानी की 
बहुत सुकून मिला दिन तमाम करते हुए

अनमोल जब एकात्म भाव की अभिव्यक्ति का शेर कहते हैं, तब उनकी ग़ज़लें में ‘अद्वैत भाव’ का रेखांकन भली-भाँति किया जा सकता है। अद्वैत भाव यानी कि तू और मैं मिलकर एक जान हो जाना। इसी पर दुनिया प्रश्न करती है:

अक़्सर मुझ में तू दिखता है हर कोई यह क्यूँ कहता है 
एक जाना-पहचाना रस्ता दूर तलक मुझमें चलता है

ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग अनमोल भली-भाँति समझ चुके हैं। इसीलिए आँसू और मुस्कान, सुख और दुख, राग और द्वेष; सभी में उन्हें उसी की मौजूदगी दिखाई देती है। निदा फ़ाज़ली जब यह कहते हैं ‘मस्जिद बहुत दूर है चलो यूँ कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए’; तब इसी बात को आगे बढ़ाते हुए अनमोल बच्चे में ख़ुदा होने का भाव ढूँढ़ लेते हैं:

न जाने कौनसी शय में छुपा है 
मगर मौजूद है सबको पता है 
कभी दिखता मुझे है आँसुओं में 
कभी मुस्कान में वो बोलता है 
किसी मासूम बच्चे में तलाशो 
यक़ीनन जान जाओगे-‘ख़ुदा है’

यहाँ ‘ख़ुदा है’ श्लेष अर्थ में आया है। मासूम बच्चा ख़ुद में भी ख़ुदा है और मासूम बच्चे को देखकर ख़ुदा के बने रहने का भी एहसास होता है। नकारात्मकता में भी सकारात्मक भाव ढूँढ़ना, बिखराव में भी जुड़ाव को पाना अनमोल का यह शेर दर्शाता है:

कुछ नहीं मुझमें कहीं भी कुछ नहीं है 
पर ‘नहीं’ में भी तेरी मौजूदगी है

मानव जीवन के अंदर अनमोल गहरे उतरे हैं और उतनी ही गहराई से नये-नये अहसासों को अपनी ग़ज़ल के शेरों में उन्होंने भरा भी है। अपनी भाषा-शैली में अनमोल सामान्य कहन और कथन को अधिक महत्त्व देते हैं। उनकी अधिकांश ग़ज़लों में बात को कहने का एक ढंग है, जिसमें कहीं भी दुरूहता और बोझिलपन नहीं है बल्कि अपनी सहजता और सरलता को उनके शेर सँजोए रखते हैं। एक विचार को लेकर उसे ग़ज़ल की अभिव्यक्ति में ढालना और उसकी कोमलता को भी बचाए रखना, अनमोल की ग़ज़लों का मुख्य आधार रहा है। अनमोल का ग़ज़लकार अपनी स्थानीयता से भी जुड़ा रहा है। अपनी माटी से उनका गहरा जुड़ाव ही उनकी ग़ज़लों को जीवंत रखता है और उन्हें खाद-पानी देता है। अपने समकालीन संदर्भों में अनमोल की ग़ज़लें एक महत्त्वपूर्ण स्थान सुरक्षित करती हैं। अनमोल की ग़ज़लों में आधुनिक सभ्यता का चित्रण हमें आकर्षित करता है। मूल्यों का महत्त्व उनकी ग़ज़लें समझती हैं। हिंदी ग़ज़ल को समृद्धि प्रदान करतीं उनकी निश्चल अभिव्यक्तियाँ किसी वाद या विवाद में नहीं बंधतीं। उनकी ग़ज़लें सार्वभौमिकता और सार्वदेशिकता के शाश्वत उद्देश्यों को सामने रखकर पूरे आत्मविश्वास और अधिकार के साथ सच ही कहती हैं:

क़लम से छोड़ दिए कुछ निशान काग़ज़ पर 
करेगा याद हमें अब जहान काग़ज़ पर

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