अनुसंधान पत्रिका का कश्मीर विशेषांक: ज़िन्दगी जीने की कशमकश के बीच हौसलों के जगमगाते जुगनू

15-11-2022

अनुसंधान पत्रिका का कश्मीर विशेषांक: ज़िन्दगी जीने की कशमकश के बीच हौसलों के जगमगाते जुगनू

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 217, नवम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

कश्मीर भारत के उत्तर में स्थित एक सुरम्य राज्य है। इसे भारत का स्विज़रलैंड कहा जाता है। एक ऐसा राज्य जो प्राकृतिक रूप से जितना सुन्दर है, सामाजिक चेतना में जितना आगे है, राजनैतिक रूप से उतना ही प्रताड़ित और प्रभावित है। अपनी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक पहचान को अनेक प्रहार झेलते हुए भी कश्मीर सदैव बचाए रहा है। ऐसा माना जाता है कि कश्यप ऋषि के नाम पर इसका नाम काश्यमीर पड़ा जो कालांतर में कश्मीर हो गया। कश्मीर भारत का उन्नत भाल है जिसका अधिकांश भाग पर्वतीय है। विभिन्न पर्वत श्रेणियाँ, नदियाँ, दर्रे, झीलें, मर्ग, बाग़ आदि से प्रकृति ने कश्मीर को सजाया-सँवारा है। यहाँ के वन-प्रांतरों में विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, वनस्पतियाँ, फल-फूल पाए जाते हैं। कश्मीर पर्यटन स्थलों और तीर्थस्थलों के लिए भी विश्वभर में प्रसिद्ध है। मुग़ल साम्राज्य के समय मुग़लों ने यहाँ की बाग़वानी पर बहुत ध्यान दिया और अनेक बाग़ लगाए जिनमें शालीमार बाग़, निशात बाग़, चश्मे शाही आदि स्थल आज भी प्रसिद्ध हैं। मुग़ल सम्राट जहांगीर तो कश्मीर को विशेष रूप से पसन्द करता था। कभी जहांगीर ने कहा था कि कश्मीर के लिए वह अपनी सल्तनत का कोई भी क़ीमती हिस्सा छोड़ सकता है। कश्मीर अनेक विद्वानों-मनीषियों की धरती भी रही है। आचार्य अभिनवगुप्त, जयन्तभट्ट, शंकरानन्द जैसे विद्वानों ने कश्मीर की पावन भूमि पर जन्म लिया। आचार्य मम्मट, सोमदेव, सोमेन्द्र के साथ-साथ कल्हण ने अपने सृजन से भारतभूमि की ज्ञानसम्पदा को समृद्ध किया। कल्हण द्वारा रचित ‘राजतरंगिणी’ को कश्मीर का प्राचीनतम लिखित इतिहास माना जाता है जो तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक जीवन की विस्तृत जानकारी देता है। कश्मीर में ललद्यद, अरणिमाल, हब्बाखातून स्त्री शक्तियाँ मानी जाती हैं। कश्मीर में सभी धर्मों का समान रूप से प्रचार-प्रसार रहा है। आरम्भ में यहाँ हिन्दू धर्म था। तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कश्मीर में बौद्धभिक्षु भेजे। शैवदर्शन का उदय स्थल कश्मीर ही माना जाता है। इस प्रकार सांस्कृतिक-आध्यात्मिक-साहित्यिक वैभव का विश्वप्रतीक बनकर कश्मीर वैष्णव, शैव, बौद्ध, शाक्त दर्शनों का प्रतिपादक और प्रसारक रहा। नागपंथ परम्परा भी यहाँ स्थान पाती है और बाद में यहाँ सूफ़ी मत भी आया। तेरहवीं शताब्दी में कश्मीर मुसलमानों के प्रभाव में आया। ईरान के प्रसिद्ध संत हज़रत सैयद अली हमदान ने अपने धर्म का यहाँ ज़ोरों से प्रचार किया और धीरे-धीरे राज्यसत्ता भी मुसलमानों के हाथ में पहुँच गई. कश्मीर में मुसलमानों का राज्यकाल 1338 ई. से 1587 ई. तक रहा और ज़ेनुलअब्दीन के शासनकाल में कश्मीर भारत-ईरानी संस्कृति का प्रख्यात् केंद्र बन गया। ज़ेनुलअब्दीन को उसके उदार विचारों, सदाशयता और संस्कृति प्रेम के कारण कश्मीर का अकबर कहा जाता है। अनेक सूफ़ी संतों की दरगाहें आज भी यहाँ स्थापित हैं जिन पर सभी धर्मों के लोग श्रद्धा भाव से जाया करते हैं। 

हिंदू राजाओं ने कश्मीर पर लंबे समय तक शासन किया। इसके बाद बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार हुआ। आठवीं-नवीं शताब्दी के आते-आते शैव राजाओं मिहिरकुल से अवन्तिमर्दन तक का शासनकाल प्रसिद्ध रहा। इसके पश्चात मंगोलों का कश्मीर पर आक्रमण, क़बीले के रिचन का कश्मीर का शासक बनना व इस्लाम को अपनाकर सुल्तान-अल-दीन बनना। शाहमीर वंश, सामंतों और सैयदों के बीच मुठभेड़, कश्मीर का मुग़ल सल्तनत का हिस्सा बनना, अफ़गानों का क़ब्ज़ा, सिख साम्राज्य का आगमन, शेख़ अब्दुल्ला और राजा हरि सिंह का शासन और इसके बाद अराजकता का युग, कश्मीरवासियों पर विभिन्न प्रकार के निर्दयतापूर्ण कृत्य; ये सब कश्मीर का इतिहास बन चुके हैं। यह एक कड़वा सच है कि आतंकवाद और अलगाववाद के कारण कश्मीर को बहुत कुछ झेलना पड़ा है। 27 अक्टूबर 1947 ई. को कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना। परन्तु पाकिस्तान और चीन की कुटिल दृष्टि कश्मीर पर लगातार बनी रही जिस कारण वहाँ आतंकवाद, अराजकता और अलगाववाद हावी होते गए। सन् 1980 के बाद कश्मीर का सारा मंज़र ही बदल गया। राजनीतिक रूप से अस्थिरता, उथल-पुथल, भ्रष्टाचार, संत्रास के साथ-साथ सामान्य जनता में एक प्रकार का भय व्याप्त हो गया। पलायनवाद और प्रवास की प्रवृत्तियाँ ही मानो कश्मीर की जीवनशैली और जीवनप्रक्रिया बन गईं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 एक ऐसा अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान वाला अनुच्छेद था जो जम्मू और कश्मीर को स्वायत्तता प्रदान करता था। कश्मीर में विस्थापन की समस्या सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आई जो देश की अखंडता और संप्रभुता पर भी एक करारी चोट थी क्योंकि हज़ारों लोगों को निर्दयतापूर्वक कश्मीर से बाहर निकाल दिया गया और इस प्रकार की घटनाओं को राजनीतिक रंग देने के लिए प्रयास किए गए। निर्ममता, निर्दयता, निर्वासन मानो कश्मीर की नियति ही बन गए। परन्तु कश्मीर के भाग्य में 5 अगस्त सन् 2019 का चिरप्रतीक्षित दिन भी आया जब भारत की संसद द्वारा ‘जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019’ प्रस्तुत किया गया। धारा 370 को हटाकर कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के समान ही माना गया। 

साहित्य लेखन और इतिहास लेखन में अन्तर होता है। साहित्य अपने समय की नब्ज़ टटोलने का प्रयास करता है, अपने समाज की चित्रवीथिकाओं का रेखांकन करता है। जबकि इतिहास घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन मात्र होता है। इतिहास हमें घटनाओं से जोड़ता है लेकिन इन घटनाओं के पीछे छिपी सम्वेदनाओं और भावनाओं को साहित्य ही उकेरता है। साहित्य के लिए इतिहास की घटनाओं के पीछे छिपे मानवीय मूल्यों और जीवन संदर्भों का अध्ययन अभीष्ट होता है। साहित्य में कश्मीर पर आधारित कई विधाओं में सृजन हुआ है। मुख्य रूप से उपन्यास बहुतायत में प्राप्त होते हैं। कश्मीर पर आधारित समाजशास्त्रीय और राजनीतिक दृष्टिकोणों को सामने रखकर भी अनेक कृतियाँ हमें प्राप्त होती हैं। विभिन्न शोधकार्यों में कश्मीर अनेक आयामों में संदर्भित और अन्वेषित किया जाता रहा है। अनेक प्रसिद्ध फ़िल्में भी कश्मीर पर आधारित बनी हैं या उनमें कश्मीर समस्या को दिखाया गया है। कश्मीर पर आधारित कई महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के विशेषांक भी समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं जिनमें संस्कृति मंत्रालय की पत्रिका ‘संस्कृति’, ‘बहुवचन’ और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की पत्रिका ‘साहित्य भारती’ के विशेषांक कश्मीर को जानने-समझने की दृष्टि से उपयोगी हैं। इसी क्रम में अलीगढ़ से प्रकाशित प्रसिद्ध त्रैमासिक शोधपत्रिका ‘अनुसंधान’ ने कश्मीर पर केन्द्रित उपन्यास कथा आलोचना अंक प्रकाशित किया है। यह अप्रैल सितंबर 2022 का संयुक्तांक है। इस विशेषांक में कुल उन्नीस आलेख हैं जो कश्मीर पर आधारित विभिन्न उपन्यासों को समीक्षापरक दृष्टिकोण से हमारे समक्ष लाते हैं। 

डॉ. रामविनय शर्मा क्षेमलता वखलू के उपन्यास ‘कश्मीर की धरती’ में पराधीन भारत के कश्मीर की झाँकी दर्शाते हैं। वे रेखांकित करते हैं कि प्रस्तुत उपन्यास में वर्णित कश्मीर की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थितियों से आज के हिंसाग्रस्त कश्मीर की तुलना नहीं की जा सकती अपितु इस उपन्यास में अलगाव और हिंसा के स्थान पर साहचर्य और संवाद के चित्र मिलते हैं। डॉ. रामविनय शर्मा का निष्कर्ष है, “इससे ज़ाहिर होता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय और उसके कई दशक बाद भी कश्मीर वैसा नहीं था जैसा आज दिखलाई पड़ता है। कश्मीर की जनता के मुद्दे भी वही थे जो शेष भारत की जनता के हुआ करते थे।” क्षमा कौल अपने उपन्यास ‘दर्दपुर’ के माध्यम से कश्मीर की संस्कृति और समाज के विखंडन और विस्थापन को दर्शाती हैं। आतंकवाद और विघटन के दौर ने मनुष्य के बीच सामंजस्य को मिटा दिया लेकिन कुछ भी हो, संवेदनाएँ कहीं न कहीं जीवित रहती ही हैं। ‘दर्दपुर’ की सुधा संवेदना को अपने भीतर जीती है। सुधा के साथ-साथ उस जैसी अनेक स्त्रियों की पीड़ाओं को प्रस्तुत आलेख में प्रोफ़ेसर श्रद्धा सिंह बहुत ही मार्मिकता के साथ उकेरती हैं। डॉ. रमेश कुमार अपने आलेख ‘मूर्तिभंजन के विरुद्ध मानवता का जयघोष’ में क्षमा कौल के सन् 2022 में प्रकाशित उपन्यास ‘मूर्तिभंजन’ पर क़लम चलाते हैं। वह लिखते हैं, “उपन्यास का कथ्य कश्मीर में फैले जिहादी आतंक से पीड़ित जनमानस के दर्दपूर्ण क़िस्सों को उठाता है। अपने घर-आँगन से विस्थापित हुए हिंदू शरणार्थी जो अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करते हैं। अपने ही देश में कश्मीरी पंडित जो शरणार्थी बनकर कई दशकों से प्रताड़ना झेल रहे हैं तथा उनके अभाव सत्ता-संघर्ष और मानवीय सरोकारों को यथार्थ परिदृश्य के साथ व्यक्त किया है।” रमेश कुमार ने मूर्तिभंजन के तीनों सूत्रों–मंत्र, रहस्य और मूर्ति को समीक्षापरक दृष्टि से देखा-परखा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के प्रोफ़ेसर हरिकृष्ण कौल के उपन्यास ‘व्यथ-व्यथा’ पर डॉ. शिवचंद प्रसाद ने प्रस्तुत आलेख की भूमिका में विस्तारपूर्वक कश्मीर का पौराणिक और ऐतिहासिक वर्णन प्रस्तुत किया है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ को भी वे यहाँ उद्धृत करते हैं। उल्लेखनीय है कि व्यथा वितस्ता नदी का ही दूसरा नाम है। विस्तता को ही झेलम भी कहा जाता है जिसके किनारे पर कश्मीर बसा हुआ है। प्रस्तुत उपन्यास आत्मकथात्मक उपन्यास है जिसमें नायक अशोक अपने सेमिनार के लिए कश्मीर समस्या से सम्बंधित टॉपिक चुनता है ‘अ केस अगेंस्ट क्रोनोलॉजी इन द स्टडी ऑफ़ हिस्ट्री’। जिसके तीन कारण हैं उसका कश्मीरी होना, नीलमत पुराण और राजतरंगिणी तथा जहांगीर और पंडित जवाहरलाल नेहरू। 

डॉ. भावना मासीवाल संजना कौल के उपन्यास पाषाण युग पर लिखती हैं, “पाषाण युग उपन्यास अपने शीर्षक के अनुरूप घाटी के पाषाण बनने की कथा है जिसमें एक ख़ूबसूरत घाटी धीरे-धीरे सत्ता परिवर्तन, राजनीतिक दबाव, नीतियों, बढ़ती आतंकी गतिविधियों, चरमपंथी संगठनों की स्वतंत्र कश्मीर की माँग के कारण एक धर्म विशेष के प्रति नफ़रत, हत्या, बलात्कार की घटनाओं से घिर जाती है। विश्वास, प्रेम, धार्मिक सौहार्द से ओतप्रोत घाटी का वातावरण बदल जाता है।” मनीषा कुलश्रेष्ठ का बहुचर्चित उपन्यास है ‘शिगाफ’। शिगाफ का अर्थ होता है दरार। डॉ. विमलेश शर्मा अपने आलेख ‘हर ज़िन्दगी पर तारी एक अनचाहा-आरोपित: शिगाफ’ में उपन्यास के शीर्षक को उस दरार की बात करती दर्शाती हैं जो विस्थापित मन पर अमिट है, जिसने इंसान को ख़ौफ़ के दायरे में ला खड़ा किया है। जो आतंक की खूंरेज ज़मीं तैयार करने को आमादा है। कैफ़ी आज़मी की भी एक प्रख्यात नज़्म है, “एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार, एक ख़तरनाक शिगाफ उसमें नज़र आता है”। कश्मीर की बहुसांस्कृतिक तस्वीर के साथ-साथ उसकी समस्याओं को लेखिका ने विस्थापन का दर्द और अभिशप्त जीवन, वसीम और यास्मीन की प्रेम कहानी और आतंकी साया, शिगाफ को भरने का प्रयास करते सजग किरदार, आतंक और सुरक्षा बनाम जंग-जद और ज़िद, ज़िन्दगी बनाम वहम: कश्मीरी औरत के दुख, इस्लाम की पाक रवायतें और शिगाफ जैसे उपशीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया है और उपन्यास की कथावस्तु विस्तारपूर्वक सामने रखी है। लेखिका का निष्कर्ष महत्त्वपूर्ण है और आज के समय में कश्मीर और कश्मीरवासियों के लिए एक प्रकार की पवित्र प्रार्थना भी बनकर हमारे सामने आती है, “उपन्यास इस सोच पर सवाल उठाने में सफल कहा जा सकता है जो इंसानी ताक़त को सर्वोपरि मानता है और उम्मीद, यक़ीन और मोहब्बत जैसे शब्दों को औरताना और कोमल। उपन्यास इस बिंदु पर महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब वह अपने किरदारों के माध्यम से बताता है कि कट्टर आस्थाओं के बरक्स कोमल भावनाएँ कभी नहीं डिगतीं, वे हमेशा पल्लवित होती रहती हैं, वे ऊपर-ऊपर से भले ही झुलस जाएँ, लेकिन अपने मूल में विरोपित नहीं होतीं, बारिश की पहली फुहार से ही पुनर्नवा हो जाती हैं।” 

डॉ. रमाकांत राय ‘कश्मीर के पक्ष में इक़बाल’ आलेख में लेखिका जयश्री राय के वातावरण के चित्रण की प्रशंसा करते हैं, “कश्मीर और गोवा के दृश्य बहुत अपनेपन से वर्णित किए गए हैं। कश्मीर में जहाँ-जहाँ जिया भ्रमण करने जाती है वहाँ का चित्रण बहुत सजीव हुआ है। यह चित्रण इस उपन्यास को बहुत मूल्यवान बनाता है और कश्मीर को समझने के लिए दृष्टिसम्पन्न करता है। इक़बाल में लेखिका ने जानबूझकर रमणीय स्थानों का भ्रमण पात्रों से कराया है ताकि पाठकों को कश्मीर के वातावरण की झलक मिल सके।” रमाकांत राय उपन्यास की नाटकीयता और शैली पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी प्रस्तुत करते हैं। डॉ. भारती अग्रवाल बुद्ध और युद्ध के द्वंद्व से गुज़रते कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में मधु कांकरिया के उपन्यास ‘सूखते चिनार’ को देखती हैं। उनका कथन आज का युगसत्य है कि यदि अपने तिरंगे की हिफ़ाज़त करनी है तो युद्ध का जवाब युद्ध ही होना चाहिए। सेना के माध्यम से यही धर्मयुद्ध कश्मीर में आज शान्ति की संस्थापना के लिए लड़ा जा रहा है। जो चिनार सूख रहे हैं, वे कल फिर हरे होंगे; दिलों में जो अविश्वास पैदा हुआ है, वह फिर दूर होगा; अशान्ति की जगह फिर शान्ति आएगी; तपती रेत फिर से हरा-भरा उपवन खिलाएगी। लेकिन उसके लिए बलिदान भी एक अनिवार्य शर्त है। सुधाकर अदीब के उपन्यास ‘बर्फ और अंगारे’ को डॉ. आलोक कुमार सिंह कश्मीरी पंडितों के महानिर्वासन की करुण कहानी के रूप में देखते हैं। कश्मीर में ‘कश्मीरियत’ ज़िंदा रहने से लेकर ‘कश्मीरियत’ को छोड़कर बाक़ी सब कुछ अपने चरम पर होने तक का लंबा कालखंड कश्मीर के सच को ‘बर्फ और अंगारे’ उपन्यास के माध्यम से सामने लाता है। 

चंद्रकांता के उपन्यास ‘ऐलान गली ज़िंदा है’ (डॉ. अल्पना सिंह), ‘कथा सतीसर’ (शशिभूषण मिश्र) और ‘यहाँ वितस्ता बहती है’ (डॉ. सुनील कुमार यादव) पर अंक में महत्त्वपूर्ण आलेख संकलित किए गए हैं। मोहन राकेश के ‘काँपता हुआ दरिया’ (डॉ. प्रीति सिंह), डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद के ‘कश्मीर की बेटी’ (डॉ. जिन्दर सिंह मुंडा), डॉ. रश्मि के उपन्यास ‘घाटी’ (डॉ. रूबी एलसा जेकब), उपेन्द्रनाथ अश्क के पत्थर-अलपत्थर (डॉ. नितिन सेठी) पर आधारित शोधपरक आलेख भी कश्मीर, उसके इतिहास और उसकी समसामयिक समस्याओं को गहराई से सामने लाते हैं। ‘एक कोई था कहीं नहीं-सा’ कश्मीर की एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है। प्रख्यात् लेखिका मीरा कांत ने इसी लोकोक्ति को आधार बनाकर अपने उपन्यास का शीर्षक भी यही रखा है। योगेंद्र सिंह इस उपन्यास को कश्मीर की साझा विरासत का स्वप्न और यथार्थ के रूप में दर्शाते हुए अपने आलेख में लिखते हैं, “इस उपन्यास का कथानक स्वयं को किसी एक मुद्दे तक सीमित नहीं रखता अपितु उसका समूचा इतिहास प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक अन्वेषण के इसी क्रम में कश्मीरी संस्कृति का साझा फलक उभरकर सामने आता है तो उसका बार-बार खंडित हुआ इतिहास भी नज़र आता है। सांस्कृतिक रूप से एक ही संस्कृति का अभिन्न अंग होते हुए भी, एक-दूसरे के जीवन-मरण के कारण बने हालातों का व्यापक विश्लेषण उपन्यास में किया गया है। यहाँ सब कुछ तो है मगर कुछ भी नहीं है।” कश्मीर की आज की परिस्थितियों का बेबाक सच इस निष्कर्ष में सिमटकर पाठक के सामने आ जाता है। रवींद्र प्रभात का उपन्यास ‘कश्मीर 370 किलोमीटर’ धारा 370 के सन्दर्भ में संकेत करता है। ‘अतीत से वर्तमान की दूरियों को नापता उपन्यास: कश्मीर 370 किलोमीटर’ आलेख में डॉ. करिश्मा पठाण लिखती हैं, “उपन्यास के अंत में जब कौल साहब पूछते हैं गाड़ी ने कितने किलोमीटर का सफ़र तय किया तो उपन्यास का पात्र सुदेश कौल साहब से कहता है, 370 किलोमीटर अर्थात् संविधान की धारा 370 की ओर लेखक हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहता है। 370 यह सिर्फ़ धारा नहीं थी बल्कि वह कश्मीर के लोगों का कवच-कुंडल था जो टूटने के बाद उनकी स्थिति में परिवर्तन भी हमें आने वाले समय में दिखाई देगा।” 

‘अनुसंधान’ पत्रिका का प्रस्तुत विशेषांक पाठकों का कश्मीरियों की व्यथा से साक्षात्कार करवाता है। कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे को लेकर लिखे गए महत्त्वपूर्ण उपन्यासों पर आधारित ये आलेख हमें कश्मीर की वादियों की गहराई में ले जाते हैं और वहाँ के समाज और सभ्यता से परिचित करवाते हैं। इन आलेखों को पढ़कर ही पता चलता है कि वास्तव में कश्मीरियों को किन-किन कठिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है और इन सबके बावजूद भी वे कश्मीरियत को ज़िंदा रखे हुए हैं। ‘कश्मीरियत’ अपने-आप में एक दर्शन है। यथार्थ में यह भारतीयता का आधार ही है जो वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को सामाजिक जीवन में स्थान देती रही है। धार्मिक सहिष्णुता, आपसी मेलजोल और एक परिवार-एक समाज-एक कश्मीर की भावना ही कश्मीरियत है। ‘अनुसंधान’ पत्रिका का यह विशेषांक कश्मीर को अनेक आयामों से देखता है और कश्मीर सुषमा की फूलों भरी वादियों के सतरंगी वितान को शब्दों में बाँधता है। इन आलेखों में कश्मीर के आतंकवाद, राजनीतिक उठापटक और अस्थिरताओं का विवरण है, वहाँ के रहन-सहन और आपसी मेलजोल का दृश्यांकन है। धरती का स्वर्ग कैसे रक्तिम नर्क में बदलता चला गया, यह सब इन आलेखों के माध्यम से सम्बंधित उपन्यासों की कथावस्तु को पढ़कर जाना जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत विशेषांक जिन उपन्यासों पर आधारित है, वे सब 5 अगस्त सन् 2019 से पहले के कश्मीर का मंज़र हमारे सामने लाते हैं। इस प्रकार एक बड़ी गुंजाइश अभी भी बनती है कि ‘जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019’ के बाद आने वाले नवीन उपन्यासों पर भी ‘अनुसंधान’ पत्रिका का भविष्य में कभी एक कश्मीर विशेषांक प्रकाशित होगा। 

कश्मीर में ज़िन्दगी जीने की कशमकश के बीच हौसलों के जुगनू जगमगाते हैं जो आज भी कश्मीरियत का वुजूद बचाए रखे हुए हैं। यह एक ऐसी सुनहरी आशा भी बलवती करता है कि कश्मीर में आने वाले समय में बहुत कुछ बेहतर हो सकेगा। प्रस्तुत 168 पृष्ठीय अंक की पठनीयता में अभिवृद्धि करने वाले ये सभी आलेख उपयोगी हैं। अपनी समकालीन शोध पत्रिकाओं में ‘अनुसंधान’ का स्थान इसीलिए विशिष्ट तरीक़े से आरक्षित रहा है। ‘अनुसंधान’ अपने आलेखों में इन्हीं सबका सफलतम अनुसंधान प्रस्तुत करता है जिसके लिए इस अंक की संपादक महोदया डॉ. शगुफ़्ता नियाज़ बधाई की पात्र हैं। 

डॉ. नितिन सेठी
सी 231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005) 
मो. 9027422306

3 टिप्पणियाँ

  • 15 Nov, 2022 11:10 PM

    बहुत अच्छी समीक्षा नितिन जी की है।

  • निस्संदेह नितिन सेठी जी द्वारा अनुसंधान पत्रिका के कश्मीर विशेषांक की समीक्षा ज्ञानवर्धक और रोचक है। यह विशेषांक पाठकों को कश्मीर के हालात से रचनात्मक शैली में वाकिफ कराता है। लेखकों ने अपने सामाजिक सरोकार को निभाते हुए कश्मीर के जमीनी सच को उपन्यासों में उघाड़ा है जिस पर नितिन सेठी जी ने पैनी दृष्टि रखी है । भविष्य में इसी प्रकार के समीक्षात्मक आलेख के प्रति पाठक को की जिज्ञासा बनी रहेगी।

  • 15 Nov, 2022 10:57 AM

    Bahut badhai nitin ji

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