मानवता के मंगलायन पर आगे बढ़ते जाने का मंगलगान: मंगलामुखी 

15-10-2022

मानवता के मंगलायन पर आगे बढ़ते जाने का मंगलगान: मंगलामुखी 

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)


डॉ. लता अग्रवाल का उपन्यास ‘मंगलामुखी’ किन्नर विमर्श पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। किन्नर समाज में सदैव उपेक्षित और प्रताड़ित ही रहे हैं। सामाजिक रूप से अलग-थलग रहने वाले किन्नरों के जीवन में बिखराव ही दिखाई देते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार लता अग्रवाल ने किन्नर समाज को लेकर ‘मंगलामुखी’ का ताना-बाना बुना है। लता अग्रवाल ने थर्ड जेंडर विमर्श पर आधारित उपन्यास, कहानी, कविता, लघुकथा, आलोचना विधा में महत्त्वपूर्ण काम किया है। 

उपन्यास का आरम्भ शकुन और महेंद्र के वार्तालाप से होता है। महेंद्र की बेटी अनु आई.ए.एस. अफ़सर बनी है। आज उसके कार्यालय का प्रथम दिवस है। महेंद्र अनु को ऑफ़िस में ज्वाइन करवाने आया है। भावनाओं में सराबोर और यादों में खोये-खोये वह चौबीस वर्ष पीछे पहुँच जाता है। महेंद्र अर्थात् महेंद्री का पूरा किन्नर समाज भोपाल का प्रसिद्ध भुजरिया उत्सव मनाने के लिए एकत्रित था। समाज के सभी वर्ग बहुत ही श्रद्धाभाव से बारिश होने की प्रार्थना के लिए वहाँ उपस्थित थे। नृत्य-गान से परिपूर्ण इस जलसे की अलग ही छटा थी। तभी अचानक वहाँ एक लड़की के तालाब में कूदने का शोर मच जाता है। आत्महत्या के लिए उद्यत यह लड़की अपने जीवन से निराश हो चुकी है। सभी लोग तालाब के किनारे बचाओ-बचाओ का शोर मचाते हैं लेकिन तमाशबीनों का हुजूम किसी की जान बचाना नहीं जानता। तभी किन्नरों की टोली का ढोलची छंगा उस लड़की को बचाने के लिए तालाब में कूद पड़ता है और उस अनजान लड़की को तालाब से सुरक्षित बाहर निकाल लाता है। यह देखकर सभ्य समाज की किन्नर समुदाय के प्रति दबी-सी हँसी फूट पड़ती है, “एक भय मिश्रित मुस्कुराहट और अजीब सी दबी-दबी हँसी दर्शक समाज में उभरी . . . दरअसल ढोलची छंगा जो लड़की को बचाने पानी में कूदा था, पतला सा सफ़ेद कुरता-पजामा पहने था। पानी में भीगने के कारण उसकी देह उसके गीले कपड़ों से झाँक रही थी, झाँक रहा था उसका वह रूप जिसे समाज उसका अधूरापन कहता है। कुछ लोग इसे अपना अपशगुन मान मुँह फेर रहे थे, कुछ लोग आनन्द ले रहे थे। वहीं नारी समाज मारे शरम के मुँह में आँचल दबा पीछे को सरक गईं।”1 किन्नरों की टोली की शिल्पा गुरु यह सब देखकर बहुत क्षुब्ध होती है और सभ्य समाज को ताने देती है। जैसे-तैसे लड़की को होश आता है और वह अपने आप को बचाए जाने पर दुःख प्रकट करती है। गुरु माँ के पूछने पर लड़की अपने शारीरिक शोषण की आपबीती बताती है, “मैं कोई ऐंठ नहीं दिखा रई। मुझे अब अपने और अपने बच्चे के लिए कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है इसलिए मैं मरना चाहती हूँ। अपने चेहरे की कालिख लेकर कहाँ जाऊँ?” माहौल गंभीर हो गया जो घाट अभी कुछ देर पहले अपमान की आग में जला-बौखलाया हुआ था, अचानक ख़ामोश हो गया। आज उन्हें कोई अपना सा ग़मगीन लगा। यह प्रतीक था कि सम्वेदनाएँ किसी लिंग, जाति विशेष की धरोहर नहीं।”2 

शिल्पा गुरु इस लड़की शकुन यानी शकुंतला को अपने किन्नर डेरे में आने का न्यौता देती है। अपनी आने वाली संतान की ख़ातिर वह लड़की भी इसके लिए तैयार हो जाती है। तालाब में तिरोहित भुजरिया की तरह ही उस लड़की को भी जाने-अनजाने एक अस्थाई किनारा मिल जाता है। अपनी कंगाली की गठरी लिए शकुन हृदय और मानवता के धनी इन किन्नरों के डेरे पर अपने दिन काटने लगी। शिल्पा गुरु माँ के स्नेह और डेरे के किन्नरों द्वारा की गई उचित देखभाल से उसका स्वास्थ्य सुधरता चला गया। ममता की छाँव तले शकुन अपने बच्चे के जन्म लेने की प्रतीक्षा करने लगी। डेरे के सभी किन्नर शकुन के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उसके आने वाले बच्चे की सहर्ष प्रतीक्षा करते हैं। डेरे में बस एक महेंद्री ही ऐसी है जो शकुन को बहुत अधिक पसंद नहीं करती। शकुन को भी इस बात का एहसास है। गुजरात में कुलदेवी के पूजन के लिए मंगलवारा डेरे के किन्नरों को महामंडलेश्वर गुरुजी का न्यौता आता है और सभी किन्नर उसमें जाने की तैयारियाँ करते हैं, “दूरदराज से आए किन्नरों का बहुत बड़ा समुदाय वहाँ उमड़ा था। सभी किन्नर समुदायों के गुरु अपने दैनिक ख़र्च से कुछ राशि इस अनुष्ठान हेतु बचा कर रखते हैं जिसको आज श्रद्धा भाव से यहाँ समर्पित किया जाता है। सभी अपनी-अपनी आस्थानुसार चढ़ावा लेकर पूरे शृंगार के साथ मौजूद थे। क्यों न हों, उनके लिए किसी महापर्व से कम नहीं है यह, अपनी कुलदेवी के शरण में जीवन के दामन से छाँटकर श्रद्धापुष्प समर्पित करने का सौभाग्यशाली अवसर है उनके लिए। बुचरा माता के पूजन का भव्य आयोजन रखा गया था।”3 ख़ूब धूमधाम से यह उत्सव मनाया जाता है। चौथे दिन रवानगी के समय शिल्पा गुरु ने अपने सभी संचित कर्मों का फल शकुन के बच्चे के लिए माँग लिया, “देवी मैया! नीयत में कोई खोट नइ, एक बेबस लाचार की सहायता करनी चाही है। बच्ची की रक्षा करना . . . हमारे संग रहती है मगर हमारी छाया न पड़े उस पे, पूरा पाठा जीव देना, माँ! दुखियारी है कोई सहारा नहीं बेचारी का, औलाद की आस है . . . गोद हरी-भरी रहे। कोख की औलाद से खूब सुख पाए . . .।”4 गुरु माँ का मातृत्व भाव यहाँ दर्शनीय है। केवल गर्भ से संतान को जन्म देना ही मातृत्व का अधिकारी नहीं बनाया करता बल्कि भावनाओं का भी इसमें पर्याप्त योगदान होता है। 

शिल्पा गुरु और उनकी साथी किन्नर भोपाल वापस लौटने की तैयारी करते हैं परन्तु स्टेशन पहुँचते समय शिल्पा गुरु जानलेवा हादसे का शिकार हो जाती हैं। अपने अंतिम समय में डेरे की ज़िम्मेवारी महेंद्री को सौंपते हुए गुरु माँ शकुन और उसकी भावी संतान के लालन-पालन की ज़िम्मेवारी का वचन भी महेंद्री से लेती हैं। शिल्पा गुरु के ये अंतिम वचन डेरे के सभी किन्नरों के लिए धर्म की प्रतिज्ञाओं के समान हैं, “मैंने वचन दिया था उसको। उसका बच्चा हुए तलक मेरी जिम्मेदारी है वो . . . अब तुझसे एक वचन माँगती हूँ, मेरे वचन की लाज रखना महेंद्री। मेरा वचन निभाना री महेंद्री नइ तो मेरी आत्मा चैन नइ पाने की। अपना वचन निभाके हम साबित कर देंगे कि हम तन से भले ही अधूरे हैं, बात के मगर पूरे हैं। अब जे शकुन . . . मेरी अमानत तेरे हवाले है।”5 यह वचन लेकर शिल्पा गुरु अपने शरीर से मुक्ति पा जाती हैं। शिल्पा गुरु का अंतिम संस्कार किन्नरों के रीति-रिवाज़ के अनुसार गुजरात में ही कर दिया जाता है। सभी किन्नर डेरे पर वापस लौट आते हैं। जब यह बात जब शकुन को पता लगती है तब दुःखी मन से वह डेरा छोड़ने का मन बना लेती है। सभी उसे मनाते हैं। महेंद्री भी शिल्पा गुरु द्वारा दिए गए लाड़-प्यार को याद करके भावुक हो जाती है, “रात को जब डर के मारे उठ जाती तो शिल्पा गुरु पास आकर उसको छाती से लगाती, गोदी में ले थपकी देती। महेंद्री को वो सब बातें आज ताज़ा हो आईं जिन्हें वह भुला चुकी थी, भुलाई तो नहीं . . . समय की धूल चढ़ गई थी . . . आज गुरु के जाने से जो गर्म हवा चली है उसने उस भूल को यादों से समेट लिया है . . . याद आ रहा है महेंद्री को।”6

महेंद्री को विधि-विधान से डेरे का मुखिया बना दिया जाता है। अब महेंद्री के व्यवहार में शगुन के प्रति धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगता है। अब वह शकुन और उसके आने वाले बच्चे की पूरी ज़िम्मेदारी अपने सर पर ले लेती है। शिल्पा गुरु को दिए गए वचनों का पालन करती महेंद्री पूरी निष्ठा के साथ डेरे को चलाती है, “इतना ही नहीं अब शकुन और महेंद्री के बीच के भेद भी ख़त्म हो गए। बल्कि अब वह पूरी ज़िम्मेदारी और अपनी निगरानी में शकुन को रखती। उसका खाना पीना कैसा हो, उसे कब सोना है, कब जागना है, दवाइयाँ कितने समय के अंतराल में खाना है . . . आदि सभी बातों का महेंद्री ध्यान रखती।”7 समय के साथ शकुन एक प्यारी सी बिटिया को जन्म देती है। अस्पताल में बच्चे के माता-पिता का नाम लिखवाने के समय महेंद्री पिता के रूप में अपना ही नाम लिखवा देती है ‘महेंद्र’। बच्ची डेरे के लिए एक अनुपम उपहार थी, इसलिए उसका नाम रखा गया अनुपमा। समय बीतने पर शकुन के पास के एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल जाती है। शकुन की ममता, महेंद्र की परवरिश और डेरेवासियों के प्यार की छाँव तले शकुन की बिटिया अनुपमा दिन-ब-दिन बड़ी होने लगी। एक दिन अचानक अनु महेंद्री को फूल भेंट करते हुए फ़ादर्स डे की शुभकामनाएँ देती है। तब महेंद्री को अपने पिता के रूप में होने की गर्वानुभूति होती है। परन्तु यह भी कड़वा सत्य है कि उसका बाहरी रंग-रूप, बनाव-शृंगार उसे अनु का पिता बनने में अवरोध की तरह लगते हैं। आज महेंद्री अपने वुजूद को बदलना चाहती है।” आज ऐसा ही एक पल महेंद्री के जीवन में आया, उसने एक-एक कर हाथों की सारी चूड़ियाँ उतार दीं, माथे से बिंदी नोचकर फेंक दी, कभी पायल के शोर से जिजमान को घायल करने वाली महेंद्री को आज पायल के घुँघरू चुभन दे रहे थे। साड़ी का आँचल उसे बार-बार स्त्रीत्व का एहसास करा रहा है . . . सबसे बड़ी बात लोगों की नज़रों में ख़ुद को आकर्षक बनाने के लिए नक़ली छाती जो लगा रखे थे उन्हें आज चिर समाधि दे दी। नाई को घर बुलाकर उसने अपने बाल मर्दों जैसे करा लिए। सफ़ेद क़मीज़ और पायजामा पहन लिया . . . देखते ही देखते महेंद्री का वुजूद महेंद्र में बदल गया। अब एक नये शख़्स का जन्म हुआ था उम्र के 4वें पड़ाव पर जिसका नाम था महेंद्र। एक नन्ही-सी बच्ची ने महेंद्री को पूरी तरह बदल दिया था।”8 शकुन का सिलाई का काम भी अच्छा चल पड़ा था। सुबह वह स्कूल जाती और दिन में वापस लौटकर दूकान सँभालती। स्कूल में बच्चे अनु से अक़्सर उसके किन्नरों के साथ रहने पर सवाल पूछते। शकुन ने एक दिन जीवन की सारी सच्चाइयों से अनु को अवगत करवा दिया। अनु का संजीदापन उसे परिस्थितियों को समझने में और उन्हें आत्मसात् करने में सहायक सिद्ध होता है। अनु के सोलहवें जन्मदिवस पर सभी उसे उपहार और अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं। रिटर्न गिफ़्ट के रूप में अनु सभी को जीवन में आईएएस अफ़सर बनने का वचन देती है। यह सपना कभी महेंद्री की आँखों में भी उसके बचपन में पलता था परन्तु परिस्थितियों ने इसे सच नहीं होने दिया। अपनी कड़ी मेहनत और लगन से अनु आईएएस बन जाती है। शिक्षामंत्री द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर महेंद्र को भी मंच पर बुलाया जाता है और महेंद्र को पर्याप्त सम्मान दिया जाता है। उपन्यास का सार्थक अंत डेरे के सभी किन्नरों की संतुष्टि और प्रसन्नता के साथ दर्शाया गया है। 

‘मंगलामुखी’ उपन्यास में किसी एक विशिष्ट चरित्र की कहानी नहीं है। हालाँकि मुख्य कथा शकुन को लेकर ही चलती है परन्तु यह उपन्यास एक साथ कई पात्रों की जीवन कथाओं को लेकर आगे बढ़ता है। किन्नर सिमरन की भी अपनी दुःख भरी कहानी है। बीते समय में उसका प्रेमी हरी उसे छोड़ जाता है क्योंकि वह एक हिजड़ा है। उसका आहत आत्म-सम्मान सारी उम्र उसे टीस देता है और वह हरी के नाम का सिंदूर अपनी माँग में लगाए रखती है। संयोगवश अनेक वर्षों बाद सिमरन जिस घर में बधाई गाने के लिए जाती है, वह घर हरी का ही होता है। हरी की चार बेटियों के बाद बेटा हुआ है। महेंद्री की कहानी भी इन सबसे बहुत अलग नहीं है। सात-आठ वर्ष की अवस्था में किन्नर स्वयं उसके घर से उसे ले जाते हैं। महेंद्र यानी मणि पढ़ाई-लिखाई में बहुत होशियार था लेकिन किन्नरों की दृष्टि से वह बच नहीं पाया। शिल्पा गुरु को उन्नीस वर्ष की आयु में अपने भाई-बहनों के दबाव के कारण अपना घर-बार त्यागना पड़ता है। शायद यही कारण है कि शिल्पा गुरु के व्यवहार में अपनत्व और प्रेम की पारिवारिक ऊष्मा पूरे उपन्यास में महसूस की जा सकती है। शकुन इस बात को गहराई से समझती भी है और शिल्पा गुरु से कहती है, “तभी गुरु माँ आप सबसे अलग हैं। ममता अभी आप में वैसी ही है। परिवार के सदस्यों के साथ जुड़कर रहना, उन्हें आपस में जोड़कर रखना आपसे अच्छा किसी को नहीं आता।”9 ‘मंगलामुखी’ में भोपाल महानगर की कहानी दर्शायी गई है। अधिकांश किन्नर भोपाली पुट की हिन्दी बोलते हैं। शकुन की जीवन की एक ग़लती उसे निराशा और अवसाद के घेरे में समेटकर उसे आत्महत्या का रास्ता उठाने पर मजबूर करती है, लेकिन यह किन्नरों की मानवता ही है कि वह सब मिलकर न केवल शकुन की जान बचाते हैं बल्कि उसे जीवनभर का आसरा भी देते हैं। शकुन की गोद भराई के समय भी अपनत्व और पारिवारिक भाव दिखाई देता है, “आज मैका और ससुराल दो रिश्ते एक ही छत के नीचे बना गए। कोई नाम के रिश्ते होते हैं . . . कोई ख़ून के तो कोई प्रेम के . . . सबसे बड़ा रिश्ता होता है आत्मा से जुड़ाव का . . . जिसके आगे सभी रिश्ते बेमानी हैं। हम अपनी संतुष्टि के लिए रिश्ते खोजते रहते हैं . . . मगर जो विधाता को मंज़ूर है वो रिश्ते ख़ुद-ब-ख़ुद ज़िन्दगी से आ जुड़ते हैं।”10 भुजरिया पर्व के आयोजन पर भी किन्नरों की मानवता दर्शनीय है, “अपनी मस्ती में चूर ज़माने की परवाह से बेख़बर जनहित के लिए ही ख़ुशी का उत्सव मनाते हम जिन्हें कोई मेहरा, कोई हिजड़ा, वृहन्नला, यूनक आदि नामों से पुकारता है। मानवीय रिश्तों का कोई आधार नहीं है हमारे पास, जो समाज हमें अपूर्ण कह उपेक्षित करता है उसी समाज की पूर्णता के लिए हम प्रतिबद्ध हैं, मानव जाति के कल्याण हेतु दूर दराज़ से किन्नर समुदाय के लोग इस अवसर पर जुड़कर मानवता के हितार्थ कर्मयोग में रत जीवन संग्राम में अपनी कर्माहुती देता है। ख़ुशी से हम इस उत्सव को मनाते हैं, इससे बड़ा हमारे लोकमंगल स्वरूप का उदाहरण और क्या हो सकता है?”11

‘मंगलामुखी’ उपन्यास अपनी प्रत्येक घटना में इस बात को स्पष्ट रूप से दर्शाता चलता है कि किन्नर समाज सभ्य कहे जाने वाले समाज के लिए सदैव, सर्वरूपेण और सर्वतोभावेन समर्पित रहता है। भले ही उन्हें शिक्षित और सभ्य समाज से दुत्कार या प्रताड़नाएँ मिलें; किन्नर समाज अपने ‘मंगलामुखी’ होने के अर्थ को सिद्ध करता रहा है और उनके सुख में सदैव अपनी मंगलकामनाओं और आशीर्वादों को शामिल करता है। ढोलची छंगा भले ही लैंगिक विकलांगता के दोष के साथ जीवनयापन कर रहा है परन्तु मानवीयता का उदात्त स्वरूप छंगा में दर्शनीय है। अपनी शारीरिक अपूर्णता में मानवीय पूर्णता का सफल संतुलन साधे हुए छंगा अपना साहस और पराक्रम डूबती शकुन की जान बचाते हुए दर्शाता है। तथाकथित सभ्य समाज उस पर भी हँसता है। छंगा मानो यहाँ शकुन के भाई होने का फ़र्ज़ अदा करता दिखता है। 

लेखिका ने महेंद्री का चरित्र गढ़ने में विशिष्ट परिश्रम किया है। मानवीय करुणा की दिव्य चमक से आप्लावित महेंद्री एक ऐसी किन्नर है जिसका जीवन न केवल अपने किन्नर समाज के लिए बल्कि सभ्य समाज के लिए भी सदैव समर्पित रहा है। अपने पुराने दिनों को वह अक़्सर याद किया करती है और उन्हें याद करके व्यथित होती है।” गुलमोहर से बड़ा पुराना रिश्ता था महेंद्र का, हल्की-सी याद बाक़ी है ज़हन में, बचपन में माँ को तड़पता छोड़ खींच लाए थे गोद से समाज वाले। फिर बंद कर दिया था कमरे में . . . बार-बार भागने का जुर्म जो कर बैठता था। तब उस बंद कोठरी की एकमात्र सीखचों वाली खिड़की जो पिछवाड़े खुलती थी . . . उस खिड़की से दूर-दूर तक कोई इंसान नज़र नहीं आता था जिसे वह अपनी मदद को पुकार सके। अगर कुछ दिखता था तो एकाकी खड़ा वह गुलमोहर . . . उसी की तरह उदास जिस पर शाम को कुछ पखेरू आकर बैठ जाते, एक दूसरे को सुनाते थे अपने दिन भर के क़िस्से। उनके फड़फड़ाते पंख मानो उसे इस बंद कमरे से उड़ जाने की कलाबाज़ियाँ सिखाते हैं . . . वह उड़ता भी तो कैसे . . . बहुत कोशिश की उसने, उन परिंदों के पास तो खुला आकाश था अपनी कलाबाजियाँ दिखाने के लिए . . . किन्तु उसके पास तो महज़ चारदीवारी थी, जब-जब उड़ने का प्रयास किया, फड़फड़ाकर औंधे मुँह गिरा, धीरे-धीरे उसके पंख अपनी उड़ान ही भूल गये।”12 भुजरिया पर्व पर शकुन की जान बचाए जाने से लेकर शिल्पा गुरु के शरीर छोड़ने तक, महेंद्री बेशक शकुन से नाराज़ और चिढ़ी-सी रहती है। लेकिन शिल्पा गुरु को वचन देने के बाद उसका सारा ध्यान शकुन और उसकी भावी संतान की देखभाल में लगा रहता है। एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन और हम देखते हैं। शगुन की बेटी अनु का पिता बनने के बाद महेंद्री अपने किन्नर स्वरूप को त्याग देती है। वह महेंद्री से महेंद्र बन जाता है। एक किन्नर से आम आदमी की वेशभूषा अपनाकर वह अनु के पिता के रूप में समाज के समक्ष आता है और किसी भी प्रकार की सामाजिक प्रताड़ना और प्रश्नों से अनु को मुक्त कर देना चाहता है।13 इन्हीं पात्रों में रमुआ का चरित्र भी किन्नरों की मानवता का एक और पहलू दर्शाता है। उपन्यास के सभी किन्नर पात्रों में किन्नरों की सकारात्मक छवि दर्शायी गई है। शकुन के रूप में एक सामान्य स्त्री किन्नरों के डेरे में रहकर उन्हीं के संरक्षण में जीवन यापन कर रही है। डेरे के आपसी मेल-जोल के बारे में वह सोचती भी है, “जहाँ हम एक ही कोख से जन्म लेकर अपने हिस्से की अलग-अलग छत बनाए हैं और ये . . . इनमें कोई ख़ून का रिश्ता नहीं इनके बीच फिर भी एक छत के नीचे रहते हैं। धर्म अलग, माँ-बाप अलग, संस्कार अलग . . . हाँ! कहीं समानता है तो इतनी कि सभी हालात के मारे हैं। एक नज़र में शगुन को यह मिनी भारत लगा।”14 शकुन का एक स्थान पर डेरे के लोगों के बीच पारिवारिक रिश्ते-नातों के सन्दर्भ में सोचना है, “कौन कहता है रिश्ते ख़ून के बनते हैं . . . यहाँ इस छत के नीचे जितने भी लोग हैं किसी का किसी से ख़ून का नाता नहीं . . . ख़ुद मेरा और अनु का भला क्या रिश्ता है इन सबसे . . . मगर ज़िन्दगी में जितना प्यार, जितना सम्मान, जितनी देखभाल इन लोगों ने की है . . . ईश्वर द्वारा बनाये ख़ून के सभी रिश्ते तो बरसों पहले कहीं छूट गए . . . किसी ने कोई ख़बर नहीं ली। जिनसे कभी सपने में भी कोई रिश्ता न था आज हमारे अपने हैं। रिश्तों की परिभाषा इन्सान को बहुत सोच समझकर गढ़ना चाहिए।”15

डॉ. लता अग्रवाल ने प्रस्तुत उपन्यास का शीर्षक ‘मंगलामुखी’ रखा है। ‘नालंदा विशाल शब्द सागर’ शब्दकोश में मंगला शब्द का अर्थ है, “पतिव्रता स्त्री, पार्वती, हल्दी।”16 मानक हिन्दी कोश के अनुसार मंगला शब्द की व्युत्पत्ति है–मंगल+अच्+टाप्; जिसका अर्थ है पार्वती, पतिव्रता स्त्री, तुलसी, दूब।17 परन्तु मंगलामुखी का अर्थ शब्दकोश में ‘वेश्या’ ही मिलता है। डॉ. लता अग्रवाल की लेखनी, किन्नरों के मंगलरूप को प्रतिष्ठित करते हुए, ‘मंगलामुखी’ शब्द के अर्थ को उपन्यास के कथानक के माध्यम से मंगलभाषित कर देती है। ‘मंगलामुखी’ उपन्यास को पढ़कर हम महसूस कर सकते हैं कि ‘मंगलामुखी’ का अर्थ है, “जिनका मुख देखकर मंगल का आगमन हो, वह मंगलामुखी।” उपन्यास में यह नाम सर्वत्र अपनी सार्थकता को सिद्ध करता दिखता है। शकुन मंगलवारा डेरे पर आकर इन मंगलामुखी किन्नरों के मध्य जीवनयापन करती है और स्वयं का मंगल भी अपने जीवन में होते देखती है। आगे चलकर ऐसा ही शुभाशीष उसकी बेटी को भी मिलता है। लेखिका ने प्रस्तुत उपन्यास में कथावस्तु को अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। घटनाओं का केवल तथ्यात्मक निरूपण ही यहाँ नहीं है बल्कि प्रस्तुतिकरण का ढंग और दृष्टिकोण भी विशिष्ट ही है। यह उपन्यास शकुन, महेंद्री, महेंद्र और अनु; इन सबकी कहानियाँ हमारे सामने प्रमुखता से लाता है। किन्नर सभ्य कहे जाने वाले समाज में भले ही निर्धन हों, अशिक्षित हों, प्रताड़ित हों, अपमानित हों; परन्तु सभी प्राणियों में सम्वेदना का एक निर्धारित दर्ज़ा होता है। मानव में यही सम्वेदना ‘मानवता’ के नाम से सामने आती है। किन्नरों की सम्वेदनाओं और मानवता की फलती-फूलती लताओं को ‘मंगलामुखी’ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिन किन्नरों को सामान्य तौर पर आम आदमी हिक़ारत भरी नज़रों से देखता है, उन्हें दुत्कारता है; उन्हें मंगलामुखी के नाम से पुकारना लेखिका की विशिष्ट सोच को दर्शाता है। मंगलामुखी उपन्यास न केवल किन्नरों को शुभकारी और सौभाग्यशाली दर्शाता है बल्कि विभिन्न घटनाओं के माध्यम से किन्नरों की मानवता की मंगल भावनाओं को भी रेखांकित करता है। ऐसी भावना जो मंगलाचार और मंगलविधि के मंगलस्वरों में, तालियों की थाप और ढोलक की ताल के माध्यम से, सम्पूर्ण मानवता के मंगलायन पर आगे बढ़ते जाने का मंगलगान करती है। 

डॉ. नितिन सेठी
सी 231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005) 
मो. डॉ. नितिन सेठी
सी 231, शाहदाना कॉलोनी
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मो। 9027422306

 सन्दर्भ सूची:

  1. डॉ. लता अग्रवाल, “मंगलामुखी’ (विकास प्रकाशन, कानपुर, प्र. सं. 2020) पृ. 25

  2. पृ. 30

  3. पृ. 84

  4. पृ. 85

  5. पृ. 91

  6. पृ. 92

  7. पृ. 97

  8. पृ. 127

  9. पृ. 58

  10. पृ. 100

  11. पृ. 21

  12. पृ. 18

  13. पृ. 127

  14. पृ. 32

  15. पृ. 141

  16. ‘नालंदा विशाल शब्द सागर’ (सम्पादक नवल जी), पृ. 1038

  17. मानक हिंदी कोश (चतुर्थ खंड), प्र.सं. रामचन्द्र वर्मा (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग) 

1 टिप्पणियाँ

  • 15 Oct, 2022 11:51 PM

    Bahut sundar nitinji . bahut badhai

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