निर्गुण संत कवियों के काव्य का सटीक अध्ययन: संत साहित्य की समझ

15-11-2021

निर्गुण संत कवियों के काव्य का सटीक अध्ययन: संत साहित्य की समझ

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 193, नवम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक: संत साहित्य की समझ 
लेखक: डॉ. नंदकिशोर पाण्डेय
प्रकाशक: यश पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली
 मूल्य: रु. 795
 पृष्ठ: 332

भारतवर्ष एक देश का नाम तो है ही, एक संस्कृति का भी नाम है। एक ऐसी संस्कृति, जिसका आरम्भ और प्रसार आध्यात्मिक चिंतन की छत्रछाया में हुआ। भारतीय संस्कृति और समाज का मूलाधार अध्यात्म कहा जा सकता है। हमारे यहाँ प्रत्येक कार्य और वस्तु को ईश्वर की कृपा मानकर उसे ईश्वर के चरणों में ही समर्पित किया गया है। अनादि काल से ही ऋषियों और संतों की आर्ष-गौरवशाली परंपरा हमारे देश में चली आ रही है। इसने यहाँ के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक- आध्यात्मिक जीवन को भली-भाँति प्रभावित किया। साहित्य के क्षेत्र में भी इसका प्रभाव पड़ना लाज़िमी था। हिंदी साहित्य का मध्यकाल तो मुख्यतः अपनी भक्तिधारा के लिए ही जाना जाता है। सगुण और निर्गुण ईश्वर की उपासना की जो पावन पद्धतियाँ संत कवियों ने समाज को दीं, वे आज भी अपने किसी न किसी रूप में जनसामान्य के व्यवहार में मिलती हैं। वास्तव में संत कवि दूरदर्शी और अग्रसोची थे। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की गरिमा और कृतित्व की महिमा से न केवल तत्कालीन साहित्य और समाज को एक नवीन दिशा दिखलाई अपितु कुछ ऐसे जीवनसूत्रों का भी निर्धारण वे कर गए, जिनके माध्यम से एक सामान्य व्यक्ति अपने जीवन को सफल बना सकता है और अपने परलोक को भी सुधार सकता है। 

अपने दार्शनिक चिंतन से संतों ने समाज-हित में ऐसे कल्याणकारी संदेश फूँके थे जिनसे तत्कालीन समाज को एक नई स्फूर्ति मिली। संत साहित्य पर उपरोक्त दृष्टिकोण से अनेक अध्ययन सामने आते रहे हैं। प्रो. नंदकिशोर पाण्डेय की पुस्तक ‘संत साहित्य की समझ’ इस दिशा में एक नवीनतम प्रयास है। ‘संत साहित्य’९९९९९ रूपी आंदोलन को सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि से अवलोकित करने का प्रस्तुत प्रयास कुछ दृष्टिकोणों से एक नवीन अध्ययन भी प्रस्तुत करता है। अध्ययन सौकर्य के लिए कृति को कुल सात अध्यायों में विभाजित किया गया है। प्रथम अध्याय है ‘संत साहित्य के सम्बोध्य और सम्बोधन’। अध्याय के आरंभ में ‘संत’ शब्द का अर्थ बताते हुए कबीर, नामदेव, रविदास, धर्मदास, रज्जब आदि संतों की बानियों-पदों का उल्लेख किया गया है। नागपंथी गोरखनाथ की अट्ठाइस संस्कृत पुस्तकों की सूची उल्लेखनीय है। साधो, संतों, अवधूत सम्बोधनों पर यहाँ विस्तार से प्रकाश डाला गया है। दादूदयाल जहाँ ‘मन’ को सम्बोधित करते हैं, वहीं हरिदास ‘अलख निरंजन’ को और गुरु तेगबहादुर ‘साधो’ और ‘हरि जी’ को। डॉ. पाण्डेय का महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष है,“इन सम्बोधनों के माध्यम से संत श्रोताओं के विकेंद्रित ध्यान को केंद्रित करते हैं और अपनी बात सुनने के लिए बाध्य कर देते हैं। आश्चर्यजनक तथ्य है कि यह सम्बोधन की भाषा, जनचेता संतों के पास ही थी। यह भाषा न इनके पहले थी, न इनके बाद दिखी।”

संतों ने अपने पावन संदेश मौखिक भाषा में ही दिए। वाणी से नि:सृत यह अमृतधारा इसीलिए ‘बानी’ कहलाई। संत-कवियों को कभी भी इन्हें लिपिबद्ध करने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। आगे चलकर उनके शिष्यों ने इन्हें ‘लिखत्’ का रूप दिया। पुस्तक का द्वितीय अध्याय ‘संत साहित्य की मौखिक और लिखित परंपराएँ’ इसी विषय पर व्यापक प्रकाश डालता है। ज्ञातव्य है कि एक ही बानी अपने अलग-अलग रूपों और स्वरूपों में कई संतों के कृतित्व में मिल जाती है। लेखक ने इसके पीछे पुष्ट तर्क दिए हैं। बानियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन लेखक ने यहाँ प्रस्तुत किया है। पाठ संपादन के विभिन्न सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में यह जानना विस्मयकारी है कि संतों के उपदेशों का किस-किस प्रक्रिया से शाब्दीकरण किया गया। यह दु:खद तथ्य है कि आज भी अनेक दुर्लभ पांडुलिपियाँ-पोथियाँ विदेशी पुस्तकालयों में पड़ी नष्ट हो रही हैं। 

संत कवियों के प्राप्त साहित्य में ‘ग्रंथ-ग्रंथन पद्धतियों का उल्लेख’ तृतीय अध्याय की विषयवस्तु है। संस्कृत के पूर्वर्ती कवियों की तरह सर्ग, अंक, उच्छ्वास, तरंग, अध्याय, उद्योत आदि संत कवियों की लिखत योजना में नहीं मिलते। इस क्षेत्र में वे सगुण भक्तिधारा के कवियों से भी पर्याप्त मात्रा में अलग हैं। तत्कालीन समय के समाज की सामान्य बुद्धि के अनुसार अपने काव्य में उन्होंने साखी-सबद-रमैनी, चाँचर-बेलि, कहरा आदि का प्रयोग किया। संत कवियों को ‘हरिरस’ प्रिय था और जनता के कानों तक वे इसे सीधे-सीधे ही पहुँचा देना चाहते थे। इसीलिए अधिकांश संतकाव्य में मंगलाचरण, ईश्वर महिमा से आरंभ अथवा सज्जन-दुर्जन की निंदा की प्रवृत्तियाँ ग्रंथों के आरंभ में नहीं दिखाई देती हैं। डॉ. पाण्डेय का मंतव्य है,“संतों का उद्देश्य था जनता को चेताना। जनता को चेताने में जिस चीज़ से सहायता मिली उसे अपनाया, जो बाधक बनी उसे त्यागा। उन्हें तो विचार से मतलब था। भाषा को भावों के रंग में ढलना पड़ा।”

कृति का चतुर्थ अध्याय ‘पारम्परिक सौन्दर्य विवेक और राग अर्थ के मानक’ है। प्रस्तुत अध्याय के पूर्वाद्ध में सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना प्रस्तुत की गई है। संत साहित्य को सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखे जाने का यह प्रयास विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण है। उत्तरार्द्ध में शास्त्रीय संगीत के तत्त्वों का विवेचन भी किया गया है। नाद, राग, स्वर के साथ-साथ भारतीय संगीत की चारों पद्धतियों का विशद् वर्णन किया गया है। लेखक यह दर्शाता है कि किस प्रकार संत कवियों की बानियाँ और रचनाएँ विभिन्न रागों पर आधारित थीं। ये राग विभिन्न प्रहरों में गाए जाते थे, जिस कारण ये पद अपनी विशिष्ट समयावधि रखते थे। सायंकालीन समय के रागों में राग ‘गौड़ी’ तथा प्रातःकालीन समय के रागों में राग ‘रामकली’ तथा ‘भैरव’ का उपयोग अधिक मिलता है। संत कवियों की काव्यभाषा में सरलता-सहजता-प्रवाहमयता-दार्शनिकता के गुण प्रचुरता से मिलते हैं। ‘संत काव्यभाषा की विलक्षणताएँ’ नामक पंचम अध्याय में लेखक संतों की काव्यभाषा में प्रयुक्त शब्दावली का उल्लेख करता है। संतों की भाषा को खिचड़ी भाषा या सधुक्कड़ी कहा गया है। अलग-अलग स्थानों की बोली-बानी इस भाषा में आकर बस गई थी। तेईस शब्दों का परिचय इस परिप्रेक्ष्य में हमें यहाँ मिलता है। लेखक ने दर्शाया है कि इनमें सबसे अधिक संख्या योग और तंत्र के दार्शनिक शब्दों की है। अनेक संत कवियों ने कुछ शब्दों का प्रयोग अपने-अपने विशिष्ट अर्थों में भी किया है। संत साहित्य की काव्यभाषा को समझने-जानने के लिए प्रस्तुत अध्याय अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

‘संधा भाषा, उल्टी बानी और निर्गुन निर्वान पद’ नामक षष्ठ अध्याय अपने विशिष्ट विवेचन और विश्लेषण के कारण महत्त्वपूर्ण भी है और एक नवीन अध्ययन भी प्रस्तुत करता है। चर्यापदों में संधा भाषा का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ अभिसंधियुक्त शैली है। गुह्यवाणियों का प्रयोग उल्टी बानी है। इसी क्रम में निर्गुन-निर्वान पद पर भी प्रकाश डाला गया है। सप्तम अध्याय ‘संत भाषा के नियामक स्रोत’ है। उल्लेखनीय है कि अधिकांश संतकवि ‘अपढ़’ ही थे, ‘पढ़’ बहुत कम थे। प्रतिभा, लोकान्वेषण और अभ्यास जैसे गुणों के कारण इनकी प्रतिभा ‘नवोन्मेषशालिनी’ थी। इन्होंने समाज में जैसा देखा-सुना, उसी को अपनी विशिष्ट काव्यप्रतिभा से अपनी ‘बानी’ में अभिव्यक्ति दे दी। श्रमजीवी और पेशे में संलग्न ये संत कवि अपने रोज़मर्रा के कार्यों से ही अपनी बानी का सार निकाल लेने में सक्षम थे। इस संदर्भ में डॉ. पाण्डेय का निष्कर्ष है, “सम्पूर्ण संत साहित्य की भाषा का अवलोकन करने के बाद निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि उनकी शब्दावली का स्रोत कोई पोथी नहीं, उनके आसपास का सामान्य जन है। संतों का संसार ही उनकी काव्यभाषा है।” डॉ. नंदकिशोर पाण्डेय की प्रस्तुत कृति संत साहित्य पर एक सार्थक और सात्विक शाब्दिक अनुष्ठान कही जा सकती है। संत साहित्य का परिसर-परिकर जितना व्यापक है, उतनी ही गहनता और गूढ़ता भी लिए हुए है। एक-एक संत कवि की बोली-बानी-पोथी के गूढ़ रहस्यों को समझ पाने में ही मानव की जीवनयात्रा पूरी हो जाती है। ‘संत साहित्य की समझ’  कृति के माध्यम से पाठकों को इन संत कवियों की रचनाप्रक्रिया, उनकी काव्यभाषा और रचनाशैली का साक्षात्कार होता है। अनेक अर्थों में डॉ. पाण्डेय की प्रस्तुति कृति इन  उज्जाग्रत और स्वयंसिद्ध संत-कवियों से मानो सीधा साक्षात्कार ही करवाती है। मध्यकालीन संत काव्य को आज के युगसंदर्भ में नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह है कि आज के इस भौतिकवादी और वैज्ञानिक युग में संतो की  बोली-बानियाँ ही हमें युगसत्य का साक्षात्कार करवा सकती हैं। प्रस्तुत पुस्तक की संदर्भग्रंथ सूची भी पुस्तक का एक गरिमामयी भाग कही जा सकती है।

डॉ. नितिन सेठी 
सी-231 शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005)
मो. 9027422306

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