मनःसंकल्प को दर्शाती जीवनीपरक औपन्यासिक कृति: ‘मैं पायल . . .’

01-10-2022

मनःसंकल्प को दर्शाती जीवनीपरक औपन्यासिक कृति: ‘मैं पायल . . .’

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

प्रख्यात् कथाकार महेन्द्र भीष्म द्वारा रचित उपन्यास ‘मैं पायल . . .’ थर्ड जेंडर पायल सिंह के जीवन पर आधारित है। उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत जीवनीपरक उपन्यास की नायिका पायल सिंह जी वर्तमान में लखनऊ के प्रसिद्ध क्षेत्र ‘हज़रतगंज’ की किन्नर गुरुमाई हैं और समाजसेवी संस्था ‘पायल फ़ाउंडेशन’ की निदेशक भी हैं। जीवनीपरक उपन्यास होने के कारण महेन्द्र भीष्म ने किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन के लगभग सभी पहलुओं और घटनाओं को अपनी क़लम की सहायता से एक पठनीय औपन्यासिक कृति के रूप में प्रस्तुत किया है। 

उपन्यास का आरम्भ लेखक ने ‘रामबहादुर के एक और लड़की हुई’ वाक्य से किया है जो यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि परिवार में जन्मी बच्ची परिवार के लिए बच्ची नहीं बल्कि एक बोझ है। जुगनी नाम रखा जाता है इस बच्ची का। इससे तीन बड़ी बहनें और एक बड़ा भाई राकेश भी है। घर पर एक और पुत्र की चाहत सभी को थी। “उम्मीद तो पहली दीदी के बाद से ही थी पर अब दूसरी, तीसरी और चौथी बार लगातार कन्या के जन्म लेने से अम्मा और उनकी कोख को गालियाँ मिलने लगी थीं। जैसे कन्या को जन्म देना उनके ही हाथ में हो, सारा दोष उन्हीं पर मढ़ दिया जाता और कोसा जाता रात और दिन।”1 

जुगनी की माँ शान्ति देवी के लिए अपने सब बच्चे एक समान ही थे। जुगनी या जुगनू एक सामान्य बच्चा नहीं है। वह हिजड़ा संतान के रूप में जन्म लेती है। जुगनी के चचेरे बाबा शिवदत्त सिंह भारतीय थलसेना से सूबेदार के पद से सेवानिवृत्ति प्राप्त करके गाँव में ही खेती-बाड़ी किया करते थे। वे अविवाहित रहे। उनकी पेंशन और खेती-बाड़ी से होने वाली आय से परिवार का पालन-पोषण भली-भाँति हो जाता था। जुगनी जब छह वर्ष की थी, बाबा का स्वर्गवास हो जाता है। बाबा के दैहिक सम्बन्ध गाँव में ही एक पंडिताइन भौजी के साथ रहे। इसीलिए वे अपनी शारीरिक पुष्टता और दम-खम की ओर इस उम्र में भी बहुत ध्यान दिया करते थे। तेल मालिश, व्यायाम आदि उनकी दिनचर्या का हिस्सा थे। जुगनी को बहुत बाद में पता चलता है कि बाबा की मृत्यु किसी शक्तिवर्धक जड़ी-बूटी के अधिक मात्रा में सेवन करने से हुई थी। जुगनी के पिता राम बहादुर सिंह के पास ज़मीन तो थी परन्तु बड़े परिवार का पालन-पोषण आसान नहीं था। इसलिए वे ट्रक ड्राइवरी भी करते थे। इससे पहले जुगनी के पिताजी उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम में रोडवेज़ की बस चलाते थे परन्तु किसी अधिकारी से झगड़ा होने के कारण उन्होंने अधिकारी को थप्पड़ जड़ दिया था जिस कारण उनकी नौकरी चली गई थी। जुगनी का जन्म लखनऊ कैंट स्थित आर्मी के कमांड हॉस्पिटल में 26 अप्रैल सन् 1980 को हुआ था। उसका अपना पैतृक निवास उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले का गाँव बहराजमऊ है। उनका परिवार एक बड़ा संयुक्त परिवार रहा है जहाँ आए दिन परिवारिक क्लेश होते रहते थे। घर के बड़े-बुजुर्गों को शराब सेवन की आदत थी और इसी कारण आपसी झगड़े-हंगामे चलते रहते थे। 

जुगनी का जब जन्म होता है, उसके पिता राम बहादुर सिंह ट्रक लेकर कहीं सुदूर गए हुए थे। परन्तु जब वे वापस आते हैं तब यह जानकार कि उनकी संतान एक हिजड़ा है, वे बहुत दुःखी होते हैं। यही कारण था कि अपनी नाक बचाने के लिए वे जुगनी को लड़के की तरह ही देखना पसंद करते थे। परन्तु जुगनी को लड़कियों की तरह रहना अच्छा लगता था। जब भी वे जुगनी को लड़की के रूप में कपड़े पहने देखते, तब अपनी पत्नी को डाँटते हुए कहते थे, “कान खोल कर सुन ले कमलेश की अम्मा! अगली बार जब मैं आऊँ और यह साला हिजड़ा लड़की के कपड़े पहने मिला और घर के बाहर निकला तो मैं अपने ही हाथों से इस साले का ख़ून कर दूँगा।”2 

पिताजी जब भी बाहर जाते, अपनी सबसे बड़ी संतान राकेश को पाँचों बहनों की ज़िम्मेदारी सौंप जाते। राकेश भी बहनों पर पूरा रोब रखता था। पिताजी की तरह राकेश भी नशे का सेवन करने लगता है। एक दिन राकेश का मित्र राकेश से जुगनी की असलियत पूछ लेता है तो राकेश ग़ुस्से में आ जाता है। दोनों मित्रों की आपस में ख़ूब लड़ाई होती है। इसी कारण राकेश जुगनी के जन्म पर लानत भेजने लगता है और उससे नफ़रत करने लगता है। जुगनी के पिता ट्रक ड्राइवर होने के कारण अधिकांश समय घर से बाहर ही रहते थे। तब कभी-कभी जुगनी घर पर लड़की के कपड़े भी पहन लिया करती थी और लड़कियों की तरह ही सजा-सँवरा करती थी। जबकि पिताजी की इस पर सख़्त पाबंदी थी। एक दिन घर पर बहनों ने खेल-खेल में जुगनी को लड़कियों वाले कपड़े पहना दिए और लिपस्टिक, काजल, पाउडर लगाकर सजा-सँवार दिया। घर में ही सभी बच्चे खेल में मग्न थे। दुर्भाग्य से तभी पिता जी का आगमन हो जाता है। वे नशे में धुत्त थे। पिताजी ने जुगनी को जब इस तरह सोलह शृंगार किए देखा तो जुगनी की बहुत बुरी तरह से मार लगाई। इसके बाद उन्होंने जुगनी के गले में रस्सी बाँधकर उसे फाँसी दे दी। परन्तु या तो रस्सी ढीली बाँधी गई थे या पिताजी जुगनी के पैरों के नीचे से ईंटें हटाना भूल गए थे। किसी प्रकार जुगनी की जान बच जाती है। जुगनी अपनी बेबसी का वर्णन करती है, “मैं ही तो उनका निशाना थी, कुल कलंकिनी। क्षत्रियों के ख़ानदान में हिजड़ा पैदा होने का जैसे सारा श्रेय मेरा ही हो . . . मैं हिजड़ा हूँ . . . ठीक है, पर इसमें मेरा क्या क़ुसूर? हिजड़ा होने में मेरी अम्मा बल्कि पिताजी का भी तो कोई दोष नहीं, फिर मेरे साथ ही ऐसा दुर्व्यवहार क्यों? लोग अपने विकलांग बच्चों को पाल लेते हैं पर एक हिजड़ा बच्चे को नहीं क्योंकि हिजड़ा बच्चा होना वे अपनी आन-बान-शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। क्षत्रियों में सिंह पैदा होते हैं, हिजड़े नहीं।”3

इन सब बातों से तंग आकर और रोज़-रोज़ की प्रताड़नाओं से दुःखी होकर जुगनी कई बार आत्महत्या करने की सोचती है। मरने के लिए घर छोड़कर जाते समय उसके भाव देखिए, “अम्मा को भीगी पलकों से निहारते हुए दालान में पड़े तख़्त पर लेटे अपने जन्मदाता को देख मैं रोने लगी। मुझे वह दृश्य याद आ गया जब भरे गले पिताजी ने मुझे पहली बार स्नेह के साथ लड़के के कपड़े देते हुए कहा था, जुगनू! जुगनू सिंह! ज़िन्दा रह। मैंने तख़्त के दो चक्कर लगाते हुए पिताजी की ओर देखा। उनके पैरों के पास आकर अपना सिर रख दिया और बिना पीछे मुड़कर देखे घर का दरवाज़ा खोल इस अभिशप्त देह का विनाश करने निकल पड़ी।”4 

पहले वह कुएँ में छलाँग लगाने की बात सोचती है परन्तु वहाँ पानी भरने स्त्रियाँ आ जाती हैं। इस कारण वह यह विचार स्थगित करके गाँव से दूर रेलवे लाइन की ओर बढ़ जाती है और ट्रेन के आगे कूदकर अपनी इहलीला को समाप्त करना चाहती है। थोड़ी ही देर में उसे दूर से धीमी गति से ट्रेन आती हुई दिखाई देती है। पटरी के पास जुगनी पहुँच भी जाती है लेकिन ट्रेन आउटर सिग्नल पर ही रुक जाती है। आउटर सिग्नल की ओर जैसे ही जुगनी बढ़ती है, कुछ क़दम चलने पर उसके बाएँ पैर के तलवे में बबूल का काँटा घुस जाता है। इतनी देर में ट्रेन आउटर सिग्नल से स्टेशन की ओर बढ़ने लगती है। जुगनी ट्रेन को जाते देखती रहती है। पैर से काँटा बाहर निकालकर वह प्लैटफ़ॉर्म की ओर बढ़ जाती है और ट्रेन के आख़िरी डिब्बे में चढ़ जाती है। यहाँ से जुगनी अपनी एक नयी जीवनयात्रा का आरम्भ करती है। जो कहीं अधिक कष्टों, व्यथाओं और पीड़ाओं से भरी हुई है। पैर में चुभा काँटा निकालने के बहाने धोती-कुर्ता पहने एक अधेड़, मोटा, ठिगना व्यक्ति जुगनी के प्रति हमदर्दी दर्शाता है और उससे बातचीत करने लगता है। काँटा निकालने के बहाने वह जुगनी को ख़ुद से सटा लेता है और उसका पैर अपनी गोद में रख लेता है। ग़लत इरादे से वह जुगनी को बीस रुपए देता है और उसे बाथरूम की तरफ़ आने का इशारा करता है। कुछ देर बाद वह उसे पचास रुपए का नोट दिखाता है और साथ आने की ज़बरदस्ती करता है। जुगनी उसके ग़लत इरादों को भाँप लेती है, “मैंने उस प्रौढ़ की ओर एक पल के लिए देखा। वह जा रहा था उसकी आँखों में मुझे दिखा जैसे शेर अपने शिकार को न पा झुँझलाई व ललचायी नज़रों से देखता है। शायद उन्नाव आने को था। ट्रेन की गति धीमी होती जा रही थी।”5 

जुगनी प्लैटफ़ॉर्म पर उतर जाती है। दो रुपए में चार समोसे लेकर अपनी भूख मिटाती है और एक बेंच पर आकर सो जाती है। वहाँ भी एक सिपाही की बदनीयती का वह शिकार होती है। वह सिपाही उसके पास बचे हुए अठारह रुपए के बारे में पूछताछ करता है। कामलोलुपता से वह जुगनी को ज़बरदस्ती पकड़कर खींचता है। तभी वहाँ से एक ट्रॉली वाला निकलता है जिसके पूछताछ करने पर वह सिपाही वहाँ से रफ़ू-चक्कर हो जाता है। जुगनी को पटरी के पास के हौज पाइप पर एक लड़का नंगे बदन नहाता दिखाई देता है। जुगनी उसके कपड़े चुराकर पहन लेती है ताकि दुनिया की नज़रों से ख़ुद को बचाए छुपाए रख सके। अपने बचाव का वर्णन वह इन शब्दों में करती है, “लड़के का रूप धरते ही मैंने देखा कि मेरी ओर कोई भी नहीं देख रहा था। इतना बड़ा परिवर्तन जो लड़की की ओर घूरते हैं, वे लड़के की ओर ध्यान भी नहीं देते। यह युक्ति मेरे लिए आगे के दिनों में बहुत काम आने वाली थी।”6 

प्लैटफ़ॉर्म पर जुगनी का काफ़ी समय भिखारियों के साथ गुज़रा। भिखारी होने के बावजूद उन सब में मानवता कूट-कूट कर भरी हुई थी हमेशा दूसरों की कुछ न कुछ मदद भी किया करते थे। जुगनी की दोस्ती कानपुर स्टेशन पर ही अनवर नामक एक लड़के से हो जाती है जो दातून बेचता है। “अनवर नाम के एक हमउम्र लड़के से मेरी जान-पहचान हो गई थी। वह ट्रेनों में दातून बेचता था साथ ही छोटी-मोटी चोरियाँ भी करता था, इसका मुझे बाद में पता चला। उसने मुझे अपना पार्टनर बना लिया और एक रुपए की दातून बेच लेने पर मुझे बीस पैसे देने लगा। इस तरह से मैं दातून बेचकर रोज़ सुबह एक से दो रुपए तक कमाने लगी, जो मेरे दिनभर की भोजन व्यवस्था के लिए पर्याप्त रहता था।” अनवर की चोरी करने की आदत के कारण एक दिन भागते हुए उसकी प्लैटफ़ॉर्म पर ट्रेन से टकराकर आकस्मिक मृत्यु हो जाती है। जुगनी दुखी होकर रेलवे स्टेशन छोड़ देती है और घंटाघर की तरफ़ आ जाती है। पास ही चाय की दूकान पर पंडित जी की दुकान पर उसे काम मिल जाता है। अब वह लड़के के वेश में यानी कि जुगनू बनकर दुनिया के सामने आती है। वहीं दूकान पर ही अप्सरा टॉकीज की कैंटीन के ठेकेदार संतोष सिंह जुगनू को सौ रुपए महीना काम पर रखने की बात कहते हैं। धीरे-धीरे जुगनू के काम से ख़ुश होकर वे उसकी पगार एक सौ पचास रुपए महीना कर देते हैं। अप्सरा टॉकीज में जुगनू को एक नयी दुनिया का नज़ारा दिखाई देता है। “टॉकीज में जो भी फ़िल्म लगती थी, वह कई-कई बार देखने को मिलती थी। चारों शो में वही फ़िल्म, वही दृश्य, वही गाने देख-देखकर पूरी फ़िल्म हर समय मेरे मस्तिष्क पटल पर चलती रहती थी। जिसकी वजह से मैं फ़िल्मी अंदाज़ में कभी हीरो तो कभी हीरोइन बनी झूमती, इठलाती और अपने आप में मग्न रहती थी। मैं एक बेहतरीन डांसर बन पायी हूँ तो इसका बहुत कुछ श्रेय उन दिनों की देखी गयी ये फ़िल्में ही थीं। मैं मिमिक्री भी करना सीख गई थी। हीरोइन की आवाज़ में हीरोइन के सम्वाद, हीरो की आवाज़ में हीरो के सम्वाद और लगभग उन जैसा अभिनय भी कर लेती थी।”7

जुगनी के शरीर में समय के साथ धीरे-धीरे अनेक अपेक्षित शारीरिक परिवर्तन हो रहे थे परन्तु वह उन्हें प्रयत्न करके छिपाती रहती है। अप्सरा टॉकीज का चौकीदार प्रमोद जब उसे शारीरिक रूप से परेशान करने लगता है तो वह टॉकीज का काम छोड़कर फिर से रेलवे स्टेशन पहुँच जाती है। कई दिन भूखी भटकने के बाद बच्चों से भीख मँगवाने वाला गिरोह उसे अपने चंगुल में फँसा लेता है। इस दलदल में फँसी जुगनी लिखती है, “ज्यादातर बच्चे अपने घर परिवार वालों से तंग आकर इस दलदल में फँसे थे। घर से भागने की उन सभी के पास अपनी-अपनी वजहें थीं। पर उनमें से मेरी तरह एक भी न था, जो हिजड़ा होने के कारण अपने पिता की नफ़रत और मार से बचने के लिए घर से भागा हो।”8 

जन्माष्टमी की रात वहाँ एक दिन पुलिस की रेड पड़ जाती है और इस गिरोह का सरगना पकड़ा जाता है। बच्चों को बाल सुधारगृह में भेज दिया जाता है। एक दिन अचानक जुगनी अपनी अम्मा और राकेश भैया को बाल सुधार गृह में बड़ी मैडम के सामने बैठे देखती है। दोनों जुगनी को घर ले जाने के लिए आए हैं परन्तु जुगनी इस अपमान भरी ज़िंदगी में दोबारा नहीं जाता चाहती। राकेश भैया भी उसे घर वापस नहीं ले जाना चाहते थे क्योंकि वह उनके लिए जुगनी नहीं सिर्फ़ एक हिजड़ा थी। अम्मा जुगनी को अपने साथ यशोदा नगर में छोटी मौसी के यहाँ ले आती है। वहीं जुगनी को पता चलता है कि उसके राकेश भैया और कमलेश दीदी की न केवल शादी हो चुकी है बल्कि दोनों के एक-एक बच्चा भी हो चुका है। जब जुगनी की माँ अपनी बहन को कुछ दिन और जुगनी को अपने घर ठहराने के लिए कहती है, जुगनी की मौसी स्पष्ट रूप से अपनी बहन को मना कर देती है, “दीदी! जब तुम जुगनी को नहीं रख पाईं तो मैं कैसे इसे अपने पास रख सकूँगी। एक-दो दिन की बात तो है नहीं . . . बच्चों को जब जुगनी की असलियत पता चलेगी कि वह एक हिजड़ा है तो वे भी उससे नाक-मुँह सिकोड़ेंगे और ये तो एक पल भी रखने को तैयार नहीं होंगे। न दीदी न, मैं न रख सकूँगी तुम्हारे इस हिजड़े जुगनू को। तुम्हारे रहने तक जुगनी हमारे पास रह सकती है पर तुम्हें उसे अपने साथ ही लेकर जाना होगा। मैं एक हिजड़ा बच्चे को अपने साथ क़तई नहीं रख सकती हूँ।”9 

अम्मा को बिना बताए जुगनी फिर से अप्सरा टॉकीज में काम करने के लिए पहुँच जाती है। ठेकेदार दादा संतोष सिंह उसे देखकर चिंतित होते हैं और फिर से काम पर रख लेते हैं। अगले दिन अम्मा को भी वह अप्सरा टॉकीज में ठेकेदार संतोष सिंह से मिलवाने ले जाती है। संतोष सिंह भी अम्मा की ख़ूब आवभगत करते हैं और अम्मा को जुगनी की ओर से निश्चिंत कर देते हैं। टॉकीज में प्रमोद चौकीदारी करता है और जुगनू की असलियत पहचान जाता है। वह उसका शारीरिक शोषण करने का कई बार प्रयास करता है। परन्तु जुगनी उस पर वार करके स्वयं को बचा लेती है। वह सारी बात संतोष दादा को बताती है। इस घटना के बाद संतोष दादा प्रमोद को अप्सरा टॉकीज के मालिक से कहकर नौकरी से हटवा देते हैं और जुगनी को पहली बार अपने घर ले जाते हैं। दादा और उनकी धर्मपत्नी दोनों बाज़ार से जुगनी के लिए लड़कियों वाले कपड़े लेकर आते हैं और जुगनी एक सप्ताह उनके घर पर ही ठहरती है। यहाँ जुगनी को पारिवारिक अपनत्व और मान-सम्मान मिलता है। एक दिन दादा अपने साथ अम्मा को लेकर लौटते हैं और अम्मा उन्हें जुगनी की पूरी आपबीती बता देती है, जिस पर दादा और उनकी पत्नी जुगनी के किन्नर होने पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। इसके बाद संतोष दादा तीन सौ रुपए महीना पगार पर पूनम टॉकीज में जुगनी को गेटकीपर की नौकरी पर लगवा देते हैं। इसी बीच जुगनी प्रोजेक्टर रूम में कटियार साहब से फ़िल्म प्रोजेक्टर चलाना सीख लेती है और उनकी सहायक बन जाती है। बीच-बीच में जुगनी की अम्मा भी उसकी कुशल-क्षेम लेने कानपुर आती रहतीं। जुगनी उन्हें फ़िल्म दिखाती, उनको चाय-नाश्ता करवाती और माँ को ख़ुशी दिया करती। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। जुगनी की जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही थी, उसके शरीर में स्त्रियों वाले बदलाव भी हो रहे थे। “अब मुझे मेरी वास्तविकता पहचान लिए जाने का नामालूम-सा भय सताने लगा था। लोग भले ही इस दृष्टि से न देख रहे हों, पर मुझे लगता वे मेरी वास्तविकता मेरे शरीर में तलाश रहे हैं और मेरी ही बातें किए जा रहे हैं। मैं भी सोचने लग गई थी कि आख़िर ऐसा कैसे चलेगा और कब तक? एक न एक दिन मुझे अपने असली रूप में आना ही पड़ेगा। अप्सरा टॉकीज में काम करने वाले लोग मेरी वास्तविकता तो जान ही गए थे। कहाँ कितनी देर ऐसी बातें छिपी रह सकती हैं। अब मेरे पल-छिन इसी ऊहापोह में बीतने लगे थे।”10 

संयोग से पूनम टॉकीज में उस समय ‘महबूब की मेहंदी’ फ़िल्म चल रही थी जिसे जुगनी ने कई-कई बार देखा। इस फ़िल्म की लखनवी तहज़ीब से प्रभावित होकर उसका मन लखनऊ जाकर एक लड़की के रूप में काम तलाशने का बन गया। जुगनी मिमिक्री-डांस आदि के प्रस्तुतीकरण में माहिर हो ही चुकी थी। इसलिए उसका अनुमान था कि उसे दूरदर्शन, आकाशवाणी और ऑर्केस्ट्रा आदि में कहीं भी काम मिल सकता है। लखनऊ के चारबाग़ रेलवे स्टेशन पर जुगनी कढ़ाईदार सलवार-सूट पहने उतरती है। वहीं पास बने मंदिर के परिसर में जागरण चल रहा होता है जिसमें फ़िल्मी गीतों पर आधारित भजनों पर जुगनी रातभर जमकर नाचती है और थककर चूर हो जाती है। सुबह के समय भी जुगनी पुनः जमकर नृत्य करती है और वहाँ उपस्थित लोग अचंभित होकर उसकी प्रशंसा करते हैं। 

जुगनी के जीवन का फिर से एक नया मोड़ उसके सामने आता है। संयोग से वहीं पास खड़ी मारुति वैन के अंदर से तीन किन्नर जुगनी को बहुत देर से देख रहे थे। तीनों किन्नर जुगनी को घेर लेते हैं और समझाते हैं, “देख री . . . हमारे साथ रहेगी तो मज़े करेगी . . . हम हिजड़ों का कोई नहीं होता। घर-परिवार वाले तक हमसे कन्नी काटते हैं। हमसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। चल हमारे साथ चल।”11 तीनों किन्नर जुगनी को जोर-जबरदस्ती से अपने डेरे पर ले जाते हैं। यहाँ दो दर्जन से अधिक किन्नर गुरुमाई के संरक्षण में रहते हैं। गुरुमाई के पूछने पर जुगनी अपना नाम ‘पायल’ बताती है। गुरुमाई पायल को वहीं डेरे पर रुकने और किन्नरों के रीति-रिवाज़ सीखने का आदेश दे देती है। कई दिनों तक भी जब पायल जानबूझकर किन्नरों के रीति-रिवाज़, नाचना-बधाई गाना आदि नहीं सीखती, तो एक दिन गुरुमाई ग़ुस्से में आकर एक ज़ोरदार झापड़ पायल के बाएँ गाल पर रसीद कर देती है। तीन दिनों तक पायल को भूखा-प्यासा रखा जाता है। एक छोटे कमरे में क़ैद कर दी गई पायल सोचती है, “एक व्यक्ति इस जीवन में अपने अनुसार स्वतंत्र जी नहीं सकता क्या? मुझे मालूम है कि मैं एक किन्नर हूँ तो क्या किन्नर होना अपराध है, जो उसे उसके स्वभाव के विपरीत कार्य करने के लिए विवश किया जा रहा है। क्या किन्नर को बधाई टोली के अलावा अन्य कार्य-दायित्व नहीं सौंपे जा सकते। मैं टॉकीज में प्रोजेक्टर चलाती हूँ। उसके पहले अन्य छोटे-मोटे कार्य भी मैंने किए हैं। फिर मुझे क्यों बाध्य किया जा रहा है कि मैं इनकी तरह ताली पीटूँ, ढोलक बजाऊँ, नाचूँ और बधाई गाऊँ।”12 

अंत में भूख-प्यास से हारकर पायल किन्नर डेरे के रीति-रिवाज़़ के अनुसार जीवनयापन करना स्वीकार कर लेती है। पहले दिन की बधाई लाने पर गुरु माँ ख़ुश होकर पायल का माथा चूमती हैं और उसे सौ रुपए का नोट शगुन के तौर पर भी देती है। पायल पहले से ही हुनरमंद होने के कारण कई सारे कामों का अनुभव रखती थी। किन्नरों की यह दशा देखकर वह अक़्सर व्यथित हो जाती थी और स्वयं के साथ-साथ अन्य किन्नरों के भी उद्धार की बात अक़्सर सोचा करती थी। उसके विचार बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी कर देते हैं, “मुझे बधाई टोली के साथ जाना रास नहीं आ रहा था पर मन मसोसकर जाना पड़ता था। बधाई गाने-बजाने के समय अक़्सर मिलने वाली दुत्कार-परिहास मुझे व्यथित कर देती थी। मैं सोचती हूँ कि किन्नरों द्वारा दी जाने वाली बधाई भी तो एक विधा है, फिर इसे लोग हास-परिहास व अश्लीलता के चश्मे से क्यों देखते-परखते हैं। इसे लोक-संस्कृति के अन्तर्गत अन्य गायन विधाओं की तरह मान्यता क्यों नहीं मिलती? समाज पंडित को दक्षिणा और धोबी, नाई, कुम्हार, ढीमर, बसोर तक को नेग-लोकाचार में, संस्कारों में ख़ुशी-ख़ुशी देता है; तो समाज हम किन्नरों को नेग ख़ुशी-ख़ुशी क्यों नहीं देता?”13

पायल ने गुरुमाई के डेरे में नशे, कदाचार और व्यभिचार का साम्राज्य देखा। स्वयं गुरुमाई शराब का सेवन करती थी और उसके नशे में धुत्त हो जाने के बाद डेरे के अधिकांश किन्नर अपने-अपने यौन सम्बंधों और अन्य ग़लत आदतों में लिप्त हो जाया करते। इसी कारण पायल ख़ुद को इन परिस्थितियों से दूर रखना चाहती थी और डेरा छोड़ना चाहती थी। डेरे में तबस्सुम किन्नर की दोस्ती पप्पू नाम के व्यक्ति के साथ थी। एक बार जब इन सबकी टोली रिक्शे पर बैठकर बधाई गाकर डेरे की ओर वापस आ रही थी, पप्पू ने उन्हें चाय के लिए रोका। तभी अचानक पप्पू ने पायल की कमर पर मज़ाक के तौर पर हाथ रखकर ज़ोर से चिकोटी काट ली। ग़ुस्से में आकर पायल ने भी पप्पू के बाएँ गाल पर एक ज़ोरदार झापड़ लगा दिया। पप्पू लड़खड़ाकर वहीं गिर पड़ा। यह देखकर साथ के किन्नर भी हँसने लगे। मज़बूत कद-काठी का पप्पू बुरी-बुरी गालियाँ बकते हुए पायल को पीटने लगा परन्तु अन्य सभी तमाशबीन बने पायल को पिटते देखते रहे। कोई भी बढ़कर उसे बचाने नहीं आया। जगह-जगह पायल के शरीर में चोटें लग चुकी थीं, ख़ून बह रहा था। पप्पू की पिटाई से पायल बेहोशी की हालत में आ जाती है और पप्पू उसे लगभग निर्वस्त्र कर देता है। वहीं कहीं आँधी से झूल रहे कपड़े के बैनर को खींचकर पायल अपनी नग्न देह को ढाँप लेती है। इसी हालत में पास स्थित विधायक निवास ‘दारुलशफा’ में वह चली जाती है और बेहोश हो जाती है। होश आने पर पायल ख़ुद को हज़रतगंज स्थित सिविल अस्पताल (झलकारी बाई महिला चिकित्सालय) के बेड पर पाती है। उसे वहाँ छह दिन भर्ती रहना पड़ता है। विधायक जी भी एक-दो बार पायल को देखने आते हैं और उनका एक आदमी लगातार पायल की देखभाल के लिए वहीं बना रहता है। शरीर की चोटें तो धीरे-धीरे ठीक होती चली गईं परन्तु पायल को अपनी आत्मा पर लगी चोट उसे पल-प्रतिपल दंश देती थी। सच तो यह है कि पप्पू ने पायल के आत्मसम्मान पर वार किया था। वह पप्पू से किसी भी प्रकार अपने अपमान का बदला लेने का अवसर ढूँढ़ती रहती है। “शरीर के घावों के दर्द की मुझे ज़रा भी परवाह नहीं थी। कोफ़्त हो रही थी उन नामर्दों के ऊपर जिनमें से कोई भी मुझे बचाने नहीं आया। ‘हिजड़ा’ हम लोगों को कहा जाता है जबकि पुरुष समाज के ये तमाशाई ताली बजाने वाले नामर्द ही ‘हिजड़ा’ कहलाने के सच्चे हक़दार हैं।”14 

गुरुमाई भी छठे दिन सोनी, तबस्सुम और रिया किन्नरों के साथ पायल से मिलने आती है। पायल को अच्छा लगता है परन्तु जाते-जाते उनका स्वार्थ पायल के सामने आ जाता है। पायल पुनः कानपुर जाने का निश्चय कर लेती है और वापस आकर गुंडे पप्पू को सबक़ भी सिखाना चाहती है। दुष्ट गुरुमाई को भी वह सबक़ सिखाना चाहती है। पायल कहती हैं, “पता नहीं उस समय मेरे निश्चय पर ईश्वर कृपा थी, जो मेरे मन में यह विचार भी आया कि मैं इसी हजरतगंज की गुरुमाई अर्थात् इस इलाक़े की किन्नर गुरु बनूँगी और इसी गुरुमाई से पानी मँगाकर पिऊँगी। साथ ही किन्नर समाज में फैली बुराइयों को दूर करूँगी। वह दिन है और आज का दिन जबकि मैं आज हजरतगंज इलाक़े की गुरुमाई हूँ और मेरे डेरे में रहने वाली कोई भी किन्नर किसी भी बुराई से बहुत दूर है।”15

पायल कानपुर लौटकर जाजमऊ स्थित अपने किराये के कमरे पर आ जाती है। अम्मा पायल को घायल अवस्था में देखकर बहुत दुखी होती है और घबरा जाती है। “अम्मा ने हल्दी-चूने का लेप मेरे शरीर पर लगाया और गर्म कपड़े से सिकाई की, मेरे बालों व तलवों में तेल मला। अम्मा जब भी ऐसा करती हैं, मुझे बहुत अच्छा लगता है। न केवल शरीर बल्कि आत्मा को भी आराम मिल जाता है, अम्मा का स्पर्श ही ऐसा था। अम्मा का मन न माना और शाम को मुझे डॉक्टर को दिखलाने ले गईं।”16 

इसके बाद पायल पुनः पूनम टॉकीज आकर प्रोजेक्टर चलाने के काम में लग गई। परन्तु अब आत्मिक रूप से पायल सिंह का मन लड़की की तरह रहने और सजने-सँवरने का हो चला था। साथ ही दिन-रात उसका मन पप्पू से बदला लेने के लिए भी तड़पता रहता। पायल ने इसके लिए व्यायाम और दंड बैठक के साथ-साथ अपनी ख़ुराक पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया। लगभग तीन महीने बाद अम्मा को बतलाकर पायल लखनऊ रवाना होती है और सीधे हजरतगंज पहुँच जाती है। वहाँ पप्पू का इंतज़ार करती है लेकिन वह दिखाई नहीं देता। वहीं पर एक जूते-चप्पल की दूकान के मालिक एक प्रौढ़ सज्जन जुगनू के नाम से पायल को पुकारते हैं। वे उसे अप्सरा टॉकीज में देखी हुई फ़िल्मों के समय से पहचानते हैं। पायल उन्हें पूरी आपबीती सुनाती है। अगले दिन वह सज्जन उसे एक ऑर्केस्ट्रा वाले के पास ले जाते हैं जो पायल को आकाशवाणी और फिर दूरदर्शन केन्द्र ले जाता है। यहाँ से पायल को आकाशवाणी, दूरदर्शन और आर्केस्ट्रा के बहुत सारे कार्यक्रम मिलते हैं। वह पर्याप्त नाम और दाम कमाती है। अपने अभिनय, नृत्य और मिमिक्री की कला से सभी को प्रभावित भी करती है। पायल के साथ काम करने वाले कुछ और भरोसे के लोग भी जुड़ जाते हैं। पायल कानपुर छोड़ देती है। बीच-बीच में अम्मा पायल से मिलने लखनऊ आया करती। पायल का मन अपने पैतृक घर जाने के लिए ख़ूब मचलता लेकिन पिताजी की सामाजिक मान-प्रतिष्ठा और बहनों के विवाह आदि के कारण वह कभी अपने घर लौटकर नहीं गई। 

लखनऊ में पायल के दो वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। वहीं ऑर्केस्ट्रा में पायल का प्रशंसक अशोक सोनकर पायल को अपना दिल दे बैठता है। इसी बीच पायल को पता लगता है कि जिस गुरु माँ की वह क़ैद में रही, वह गोमतीनगर इलाक़े की मोना किन्नर थी। अशोक सोनकर टैम्पो चलाता था और ख़ाली समय में पायल को लखनऊ की सैर करवाया करता था। एक दिन अशोक सोनकर के साथ टैम्पो में घूमते समय पायल को मोना किन्नर की पूरी बधाई टोली तीन रिक्शों में सवार दिखाई दे जाती है। इसी बधाई टोली से कुछ आगे साइकिल पर पप्पू भी दिख जाता है। अपने अपमान का बदला लेने का अवसर अब पायल के सामने था, “महीनों से मेरे अंदर जो बदले की आग दबी पड़ी थी, एकाएक भड़क उठी। मैंने अशोक को साइकिल सवार पप्पू को टक्कर मारने के लिए कहा पर वह कुछ समझ नहीं सका। “तब मैंने स्वयं स्टेयरिंग सँभाल ली और टैम्पो की स्पीड बढ़ा दी। टैम्पो सड़क के किनारे पप्पू को टक्कर मारने ही वाला था कि पप्पू की क़िस्मत अच्छी रही। एकाएक टैम्पो बन्द हो गया। अशोक ने ब्रेक लगा दिया था।”17 

पप्पू साइकिल सहित नाली में लड़खड़ाकर गिर जाता है और उठकर अशोक का गिरेबान पकड़कर उसे बाहर खींचने लगता है। अशोक नम्रता के साथ पेश आ रहा था जिससे पप्पू के हौसले बढ़ रहे थे। पुराने अपमान और पीड़ा को यादकर पायल ने एक ज़ोरदार लात पप्पू की दोनों जाँघों के बीच लगाई। इसके बाद अशोक और पायल लात-घूँसों से बुरी तरह पप्पू पर पिल पड़े। मोना गुरु और उसके साथी बीच-बचाव करने दौड़े लेकिन पायल का ग़ुस्सा देखकर सहमकर पीछे हट गए। पायल बदले की भावना के फलस्वरुप पप्पू के शरीर से कपड़े नोच कर उसे नंगा कर देती है और कई बार उसके शरीर पर थूकती और लतियाती है। यह सब देखकर भीड़ से कुछ लोग आते हैं और पायल की पीठ थपथपाते हुए कहते हैं, “शाबाश! पहली बार सेर को सवा सेर मिला है। पीलू दादा का बड़ा आतंक इस क्षेत्र में था। तुमने उसे छठी का दूध याद दिला दिया।”18 

यहाँ पायल स्पष्ट करती है कि पप्पू पीलू दादा के नाम से क्षेत्र में जाना जाता था, तभी वह उसे अब तक पप्पू नाम से ढूँढ़ नहीं पाई थी। पायल को अपनी ज़िन्दगी में अशोक सोनकर के अनावश्यक हस्तक्षेप से परेशानी-सी होने लगती है और इस कारण वह उससे अपना पीछा छुड़ा लेती है। सोनी किन्नर अक़्सर पायल से मिला करती थी और अब वे दोनों साथ ही रहने लगीं। अपने सामाजिक व्यवहार, अनुशासित जीवन और स्पष्टवादी स्वभाव के कारण पायल अपनी धाक अन्य किन्नरों पर भी बहुत जल्दी जमा लेती है, जिस कारण कई सारे किन्नर पायल को अपना गुरु मान लेते हैं। पायल भी अब अपने किन्नर अस्तित्व को तन-मन से स्वीकार कर लेती है, “मुझे किन्नर के रूप में रहना और किन्नर समाज भाने लग गया था। रहना-खाना, पहनना-ओढ़ना; सब में अपनी मर्ज़ी चलती। रुपए-पैसों की कोई कमी नहीं। अपने समाज में अपने लोगों के मध्य मैं इज़्ज़त भी कमा रही थी। बहुत तपी थी मैं भी। बहुत मारी-कूटी भी गई। लानत-मलामत-अपमान सब मैंने झेले थे। मुझे ‘हिजड़ा’,‘ छक्का’ कह देना ही मेरे लिए बहुत बड़ी गाली थी। दूसरे किन्नरों की तरह मैंने स्वयं के लिए दूसरों के द्वारा ‘हिजड़ा’ कहा जाना सुना ही नहीं था, फलस्वरूप जब कभी कोई मुझे या मेरे साथियों को ‘हिजड़ा’ कहकर सम्बोधित करता या चिढ़ाता, तो मेरे कानों में ‘हिजड़ा’ शब्द गाली ही नहीं, पिघला शीशा सा उतरता। मन करता कहने वाले का मुँह नोच लूँ।”19 पायल के किन्नर जीवन की कथा को लेखक महेन्द्र भीष्म ने यहाँ विश्राम दिया है। 

जीवनीपरक उपन्यास में किसी व्यक्ति की जीवनयात्रा और उसका चरित्र तो स्वाभाविक रूप से होता ही है, उसमें इतिहास और कल्पना का भी पर्याप्त संयोग होता है। वास्तविकता, भावनात्मकता और कलात्मकता भी यहाँ आकर अपना निर्धारित स्थान ग्रहण करते हैं। इसमें वास्तविकता होती है, क्योंकि उस चरित्र का अपना एक अतीत (कभी-कभी वर्तमान भी) होता है। भावनात्मकता होती है क्योंकि उस चरित्र के जीवन में कुछ ऐसे अवयव होते हैं जो पहले जीवनीपरक उपन्यास के सर्जक को और उसके पश्चात् उसके भावक अर्थात् पाठक को प्रभावित करते हैं। कलात्मकता होती है क्योंकि कोई भी विधा अपने कलात्मक उत्कर्ष में ही सामने वाले को प्रभावित कर पाती है। इस प्रकार वास्तविकता, भावनात्मकता और कलात्मकता के सहज समन्वय से ‘मैं पायल . . . ’ उपन्यास में किन्नर गुरु पायल के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं को उपन्यासकार महेन्द्र भीष्म ने समग्रता से छूने में निश्चित रूप से सफलता प्राप्त की है। महेन्द्र भीष्म ने पायल के जीवन की अतीत की घटनाओं को जोड़ा है, उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य अर्थात् किन्नर विमर्श के सन्दर्भों में लाकर रखा है। पायल के जीवन के अतीत के अवयवों को सामने रखकर और उन्हें आधुनिक अवसरों के साथ संयोजित कर किन्नर विमर्श के लिए वे नवीन युगबोध की स्थापना करने का स्तुत्य प्रयास करते हैं। नवीन युगबोध इसलिए क्योंकि किसी भी किन्नर की कहानी सामान्यजन के लिए मनोरंजन, मार्मिकता या मनोव्यथा परोसने का माध्यममात्र नहीं हो सकती। आज के समय में किन्नर विमर्श पर क़लम चलाने का एक निर्विवादित उद्देश्य इसकी सामाजिक और साहित्यिक परिवेश में स्थापना करना भी है। समाज केवल पुरुष और स्त्री से ही नहीं बना है अपितु तृतीयलिंगी भी सृष्टि के आदिकाल से जन्म लेते रहे हैं। आज जब चारों ओर विमर्शों का बोलबाला है, सामाजिक मुद्दे अपने नये-नये रूपों में आ रहे हैं, तब तृतीयलिंगी को आज के परिप्रेक्ष्य में देखना और उनके लिए सार्थक युगबोध की स्थापना करना क़लमकार का पहला मन्तव्य होना चाहिए। जुगनी और जुगनू से लेकर पायल और फिर किन्नर गुरु पायल सिंह बनने तक की पायल की यह जीवनयात्रा अनगिनत कष्टों, यातनाओं, शोषण से भरी हुई रही है। निरीहता, हीनभावना और उत्पीड़न उसके साथ-साथ चले। समाज का रूढ़िवादी दृष्टिकोण आज भी उन्हें उनके समानाधिकारों से वंचित रखने का प्रयास करता है। पायल का चरित्र वर्णनात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है जिसमें अपना सर्वाधिक योगदान उपन्यास के सम्वाद प्रदान करते हैं। इस प्रकार ‘मैं पायल . . . ’ उपन्यास में वर्णनात्मक और संवादात्मक शैली के द्वारा किन्नर गुरु पायल का सम्पूर्ण व्यक्तित्व हमारे समक्ष आता है। 

महेन्द्र भीष्म ने किन्नर गुरु पायल के चरित्र को औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत किया है जिसमें कल्पना और यथार्थ का उचित समन्वय दिखाई देता है। पायल का जन्म, उनके जीवन की विभिन्न महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, इन घटनाओं का पायल के आगामी जीवन पर प्रभाव और इन प्रभावों से पायल के जीवन में आने वाले विभिन्न परिवर्तन; ये सब विस्तारपूर्वक दर्शाए गए हैं। यही कारण है कि पायल के जीवन की एक प्रामाणिक छवि हमारे सामने आकर अपना आकार ग्रहण करती है। स्वयं पायल सिंह ने भी अपने अन्तर्मन की पीड़ा को इन मार्मिक शब्दों में दर्शाया है, “हम किन्नर! हम मौसी! हम मँगलमुखी! जाने कितने नामों से हमें पुकारा जाता है, कारण ईश्वर की बनाई इस दुनिया को मनुष्य ने अपनी धरोहर मान हमसे हमारी पहचान छीन ली। दुनिया के इतने बड़े शब्दकोश में हमारे लिए कोई संबोधन नहीं या फिर उनके अनुसार बनाई कोई भी चौखट में हम फ़िट नहीं बैठते मगर क्यों . . .? क्यों नहीं बैठते फ़िट हम, क्या कमी है हममें! अच्छे-ख़ासे इंसान हैं, भावना-संभावना क्या नहीं है हममें। फकत शरीर का एक अविकसित अंग क्या इतना अहमियत रखता है जिससे हमारी पहचान, रिश्ते-नाते समाज सभी कुछ छीन लिया जाए . . .? सदियों से हम गुमनामी के अँधेरे में जी रहे हैं। हमारा जन्म भी परिवार को ख़ामोश कर देता है और उसी ख़ामोशी से हम अपने इस अभिशापित जीवन को जीकर इस संसार को अलविदा कह जाते हैं। आख़िर ऐसा कौन सा गुनाह करते हैं हम? सदियों से हम इस प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं। पिछले कुछ समय में साहित्य के माध्यम से साहित्यकारों ने हमें समाज से रूबरू कराया है। ‘मैं पायल’ भी उन्हीं में से एक है। महेन्द्र भीष्म जी ने इस उपन्यास के माध्यम से मुझे भी समाज में अपनी पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई।”20

उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास के अब तक कुल चार (वर्ष 2019 तक) संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। महेन्द्र भीष्म उपन्यास के प्रथम संस्करण (वर्ष 2016) की भूमिका में लिखते हैं, “प्रत्येक किन्नर का अपना अतीत होता है। उसका स्वयं का झेला संघर्ष होता है। उपन्यास ‘मैं पायल . . . ’ का आधार किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन संघर्ष की गाथा है, जिसमें प्रत्येक किन्नर के अतीत के संघर्ष की झलक परिलक्षित होती है। विस्थापन का दंश कष्टकारी होता है, फिर वह चाहे परिवार, समाज या अपनी मिट्टी से मिला हो। प्रत्येक किन्नर को सर्वप्रथम यह दंश अपने घर-परिवार से भुगतना होता है।”21 

पायल को मानव से महामानव बना देना महेन्द्र भीष्म की दृष्टि में प्रस्तुत उपन्यास के सृजन का उद्देश्य नहीं है। अपितु लेखक ने तो उनके किन्नर रूप में ही मानवीय गुणों की प्रतिस्थापना कर दी है। जो गुण एक सामान्य मानव में नहीं दृष्टिगत होते, उससे कहीं अधिक मानवोचित गुण किन्नर गुरु पायल में दर्शाए गए हैं। किन्नर का मानवीय रूप, उसका सामाजिक रूप और उसके जीवन का आध्यात्मिक रूप; ये तीनों ही उपन्यास से गुज़रने पर सहजता और सरलता से महसूस किए जा सकते हैं। नैतिकता, साहसिकता, निर्भीकता, विश्वसनीयता जैसे नैसर्गिक गुणों को अपने व्यक्तित्व में पायल ने समेट रखा है। इससे भी महत्त्वपूर्ण गुण है उनका ममत्व और पारिवारिक भावना। महेन्द्र भीष्म ने उपन्यास में पायल के केवल गुण ही नहीं दिखाए हैं अपितु व्यक्तित्व के अन्य सभी पहलुओं को भी वह सामने रखकर चले हैं। उपन्यास के प्रथम पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक हम यह बख़ूबी महसूस कर सकते हैं कि पायल जिनके साथ रही हैं, चाहे वे उनके परिवारीजन हों अथवा अन्य व्यक्ति; उन सबसे उनका लगाव-जुड़ाव अत्यधिक गहरा और स्थायी है। अनेक स्थानों पर पायल ने अपनी अम्मा का ख़ुद के प्रति लगाव और ख़ुद का अपनी अम्मा के प्रति लगाव बड़ी ही गहनता से दर्शाया है। पायल अपनी अम्मा के सम्बन्ध में कहती भी है, “जब परिवार से बिछोह होता है, मिट्टी से विस्थापन होता है। यह दारुण दुःख पृथ्वी में मानवमात्र के लिए ही नहीं सारे जीवधारियों के लिए सबसे बड़ा संताप होता है। एक माँ ही वह धागा होती है जो परिवार के सदस्यों को जोड़े रखती है और जोड़े रहती है संवेदना को, प्रेम को, लगाव को, चाहत को, फिर से एक हो जाने की आस को।”22 अन्यत्र भी पायल अम्मा की सम्वेदनशीलता दर्शाती है, “पिताजी इतना पीटते कि बयान नहीं कर सकती और कहीं वो दारू के नशे में हुए तब तो क़यामत ही बरपा देते। अम्मा के सिवा मुझे बचाने कोई नहीं आता। मुझे बचाते अम्मा भी पिट जाती . . . ऐसे मौक़ों में जबकि पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं, अम्मा की चर्चा आते ही मेरी आँखें सजल हो उठती हैं। अम्मा कितनी अच्छी थी मैं बता नहीं सकती। वह संसार की सबसे अच्छी अम्माओं में से एक थीं।”23 अकेलेपन में सुकून की तलाश के पलों में वह अम्मा को ही ढूँढ़ती है, “जब हम अकेले होते हैं, स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहे होते हैं . . . एक अनजाने भय से डर रहे होते हैं तब अपने ज़्यादा याद आते हैं। तब माँ बहुत याद आती है, माँ का आँचल याद आता है, जो छिपा लेता है स्वयं को और दूर कर देता है सारी विपदाएँ . . . चैन मिल जाता है दिल-मन और प्राण को। एक निःशब्द विश्रान्ति की असीम स्थिति, सुकून और आत्मिक तृप्ति से परिपूर्ण जैसे जीवन का ठौर मिल गया हो।”24

रेलवे स्टेशन पर पायल ने जिन भिखारियों के साथ अपने दिन-रात गुज़ारे, उनको भी वह सम्मान देना भूलती नहीं है। उसके शब्दों में उन भिखारियों की स्वाभाविक स्मृतियाँ आज भी बसी हुई हैं, “रात भिखारियों के पास पहुँच जाती। वह जो भी कुछ खा रहे होते, मुझे ज़रूर खिलाते। मैं उनके लिए कुछ न कुछ खाने के लिए ले जाया करती। एक बात यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ उन भिखारियों के बीच मैं जितने भी दिन-रात रही, कभी भूखी नहीं सोई। वे भिखारी ज़रूर थे पर उनके अंदर मानवता थी, दूसरे के लिए दुःख-दर्द था। उनके दिल किसी राजा की तरह थे, जितना कुछ जिसके पास जो भी खाने-पीने को होता, वे परस्पर बाँटकर खाते और अगले दिन की चिन्ता से मुक्त हो जाते।”25

अपनत्व, सौजन्य और पारिवारिक समर्पण की यही उदात्त भावनाएँ उपन्यास में पायल को मानवीय गुणों से परिपूर्ण दर्शाती हैं। मानवतावादी दृष्टिकोण से परिचालित उसका जीवन इसीलिए बार-बार उल्लेखनीय बना है और कथाकार महेन्द्र भीष्म ने उसे अपने प्रखर कथा-शिल्प का आश्रय देकर उसे पठनीय भी बना दिया है। पायल ने अनगिनत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक कष्टों को सहा परन्तु ईश्वरीय सत्ता के प्रति वह सदैव श्रद्धाभाव से नतमस्तक रही। बचपन से ही उसकी कहानी में हम देखते हैं कि एकांत क्षणों में वह ईश्वर को याद किया करती थी। कानपुर के रेलवे स्टेशन पर रहते हुए वह वहाँ परेशान लोगों के दुःख को देखकर स्वयं दुःखी हो जाती है और ईश्वर को याद करती है। लखनऊ के चारबाग़ स्टेशन पर उतरने के बाद रात को जागरण में वह अपनी भक्ति-भावना के वशीभूत होकर ही जाती है और जमकर नाचती है। अपनी शारीरिक विकलांगता और पारिवारिक विस्थापन पर विचार करते हुए वह अक़्सर ईश्वर से पूछती है, “घर-परिवार से विस्थापित जीवन जीने का जो दंश मेरे हृदय में बिंधा था, वह पल-प्रतिपल मेरे आँसुओं के बाँध को भेदता रहता है। मैं हृदय में बहुत कुछ जज़्ब किए मन ही मन रोती रहती थी और ईश्वर से एकांत के क्षणों में अपने अपराध के लिए पूछती रहती थी, हे ईश्वर! ऐसा कौन सा पाप मैंने किया जो तूने मुझे इस जीवन में हिजड़ा रूप दिया।”26

उपन्यास में मनोरंजकता, मार्मिकता, मनःसंताप के साथ-साथ महेन्द्र भीष्म पायल का दृढ़ मनोबल और मनःसंकल्प भी शब्दायित करते हैं। साथ ही साथ एक सामाजिक संदेश भी देते हैं कि दृढ़संकल्प व्यक्ति कभी भी समय के कठोर प्रहारों से हारता नहीं है अपितु अपने कंटकाकीर्ण मार्ग के अवरोधों को दूर कर आगे बढ़ता जाता है। सम्वादों के माध्यम से पात्रों के प्रसंगानुकूल परिवेश और परिस्थितियों का पता लगता है। सहजता, स्पष्टता और स्वाभाविकता सम्वाद योजना के गुण कहे जाते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में माता-पिता, भाई, किन्नर गुरु, अन्य सामान्यजन आदि जितने भी पात्र आए हैं; सभी की सम्वाद योजना उनके व्यक्तित्व के अनुरूप ही रखी गई है। वातावरण का चित्रांकन भी उपन्यास की कथावस्तु को स्पष्ट करने और उसे आगे बढ़ाने में सहायक होता है। जुगनू के पैतृक घर का वर्णन, इसके बाद कानपुर और लखनऊ के रेलवे स्टेशनों का आँखों देखा हाल, पिक्चर हॉल की दैनिक प्रक्रिया, हजरतगंज के बाज़ार और दूकानें; ये सब मिलकर वातावरण सृजन में अपना योगदान देते हैं। किन्नर डेरे का वर्णन, किन्नरों के रहन-सहन की स्थितियाँ और उनके आंतरिक क्रियाकलापों को सटीक रूप से दर्शाया गया है। तत्कालीन कानपुर और लखनऊ का परिवेशगत चित्रण भी सटीक है। पायल के चरित्र को सार्थकता प्रदानकर उनके व्यक्तित्व को सार्थक और प्रामाणिक रूप में अभिव्यक्ति दी गई है। पायल का चरित्र सम्पूर्ण परिवेश के साथ ‘मैं पायल . . . ’ उपन्यास में संयोजित और अनुगुंजित है। किन्नर गुरु पायल सिंह का विशद् जीवन संघर्ष पाठक को उद्वेलित करता है। यही तथ्य समग्र रूप में ‘मैं पायल . . . ’ जीवनीपरक उपन्यास की लेखकीय सफलता को स्थापित करता है। 

डॉ. नितिन सेठी
सी 231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005) 
मो. 9027422306

सन्दर्भ सूची:

  1. महेन्द्र भीष्म, ‘मैं पायल . . .’ (अमन प्रकाशन कानपुर, चतुर्थ सं। 2019), पृ. 13

  2. पृ. 34

  3. पृ. 37

  4. पृ. 39

  5. पृ. 45

  6. पृ. 52

  7. पृ. 73

  8. पृ. 76

  9. पृ. 80

  10. पृ. 91

  11. पृ. 94

  12. पृ. 99

  13. पृ. 102

  14. पृ. 108

  15. पृ. 108

  16. पृ. 109

  17. पृ. 114

  18. पृ. 115

  19. पृ. 121

  20. पायल सिंह, “हमें न्याय दिलाता उपन्यास: मंगलामुखी” (भूमिका से), डॉ. लता अग्रवाल, ‘मंगलामुखी’, (विकास प्रकाशन कानपुर, प्र. सं. 2020), पृ. 7

  21. महेन्द्र भीष्म, प्राक्कथन, पृ. 128

  22. पृ. 53

  23. पृ. 22

  24. पृ. 56

  25. पृ. 63

  26. पृ. 82

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