क़िस्सा ज़िन्दगी का
ललित मोहन जोशी
ज़िन्दगी को देखा है इतने क़रीब से
ये सारे चेहरे लगने लगे हैं अजीब से
थमी सी ज़िन्दगी का कब तक उठाएँ भार
बात ये कि बीमार उलझने लगे हैं तबीब से
कुछ ऐसे साथ दिए जा रही है ज़िन्दगी मेरा
जैसे कोई साथ निबाह रहा हो ग़रीब से
ऐ हँसी जाग कहाँ सो रही है तू
आवाज़ दिए जा रहे हैं इतने क़रीब से
अब तो ये आँसू भी आते नहीं हैं
ना जाने ये आँखें पत्थर हुईं नसीब से
मैं ये सब कुछ देख हैरान हुए जा रहा हूँ
ज़माने के बदले हैं अंदाज़ मेरे कसीब से
तबीब= वैद्य; कसीब= क़िस्मत
3 टिप्पणियाँ
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बहुत खूब
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“जैसे साथ निबाह रहा हो गरीब से” यथार्थ पर निर्धारित ज़िन्दगी का छोटा सा फसाना या यूं कह ले ज़िन्दगी को नज़्म में उतार दिया जैसे हर शाम सपने उतर आते हैं। बहुत ही शानदार लेखनी का परिचय दिया ललित जी आपने।
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आपने हमे जिंदगी की हकीकत को बयां करती एक सुंदर रचना से अवगत कराया है उम्मीद है आगे भी आप ऐसे ही सुंदर रचनाओं के माध्यम से सभी को फिर जिंदगी के पहलुओं से अवगत कराएंगे। बेहतरीन रचना