अँधेरा

ललित मोहन जोशी (अंक: 235, अगस्त द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

अँधेरे तेरे से क्या डरना है मुझे
बस दीये में लौ को जलाना है मुझे
 
अँधेरे तेरा वक़्त है थोड़ा लम्बा सा
पर एक वक़्त बाद ढलना है तुझे
 
मुझे ख़ुद पर है भरोसा बहुत
इस रात के बाद जगना है मुझे
 
अभी तुझे जो नादानियाँ करनी है
करले ये अँधेरे फिर जाना है तुझे
 
मैं शांत समुद्र सा बैठा हूँ थोड़ा
ख़ुद में ख़ुद को खोजना है मुझे
 
अँधेरा= जीवन की परेशानियाँ

4 टिप्पणियाँ

  • 8 Aug, 2023 10:04 PM

    बहुत खूब

  • 8 Aug, 2023 10:30 AM

    बहुत खूब

  • 7 Aug, 2023 10:53 PM

    बहुत खूब क्योंकि अंधकार के बाद ही तो उजाला आता है इसलिए अंधकार का होना भी जरूरी है आपने अंधकार शब्द से जो कविता शब्दों में पिरोई है काबिले तारीफ है वाह बहुत बढ़िया लिखा है आपने

  • 6 Aug, 2023 09:03 PM

    अँधेरा होना भी जरूरी है, वरना फिर सवेरे की इतनी अहमियत नहीं होती। फिर सायद चाँद न होता और न ही दीपक। बहुत खूब।

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