एक लेखक की मौत
सन्दीप तोमर
(पत्रात्मक शैली में लिखी कहानी)
प्रिय अंकिता,
(तारीख: 3 जुलाई)
कभी लगता है कि अब जीने लायक़ कुछ भी नहीं बचा।
कल फिर एक पत्रिका से रचना लौट आई—बिना किसी टिप्पणी के।
घर में सब कहते हैं, “कुछ काम-धंधा किया करो, ये लिखना-पढ़ना कब तक चलेगा?”
मैं क्या करूँ? शब्द अब साथ नहीं देते।
ख़ुद से भी डर लगता है।
—राघव
प्रिय राघव जी,
आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं?
ये सिर्फ़ एक ठहरा हुआ वक़्त है। शब्द कभी मरते नहीं, कभी-कभी बस भीतर छिप जाते हैं।
थोड़ा धैर्य रखिए . . . शायद वे फिर लौट आएँ।
और हाँ, आप अकेले नहीं हैं। मैं सुन रही हूँ।
—अंकिता
प्रिय अंकिता,
(तारीख: 10 जुलाई)
आप सुन रही हैं, यह जानकर थोड़ी राहत है।
पर कभी-कभी लगता है जैसे मेरा होना ही बेकार है।
घर में किसी को मेरी ‘लेखकता’ से कोई मतलब नहीं।
बेटियाँ पूछती हैं—“पापा, आप कभी फ़ेमस हो भी पाओगे?”
पत्नी कहती है—“दिन भर बैठकर बस फोन पर कुछ टाइप करते हो।”
संपादकों को भेजा गया मन—वो भी वापस नहीं आता।
मैं थक गया हूँ।
—राघव
प्रिय राघव जी,
आपकी सबसे सुंदर रचना शायद आपने अभी लिखी ही नहीं।
जो अस्वीकार हुआ है, वह भी किसी दिन किसी को भीतर तक छू सकता है।
ये जो थकावट है, ये आपकी संवेदनशीलता की थकान है।
थोड़ा रुकिए, थोड़ा ख़ुद से दूर जाइए . . . फिर लौटिए।
शब्द इंतज़ार करेंगे।
—अंकिता
प्रिय अंकिता,
(तारीख: 21 जुलाई)
आज बहुत अजीब दिन है।
ऐसा लग रहा है जैसे मेरे अंदर एक शून्य ठहरा हुआ है।
कल पत्नी से झगड़ा हुआ। कहती है—“तुम जैसे लोग परिवार पर बोझ होते हैं।”
मैं क्या कहता?
कल रात बेटी ने मुझसे पूछा—“पापा, आप उदास क्यों रहते हो?”
मैं बस चुप रह गया।
फिर आज आपको ये पत्र लिख रहा हूँ— शायद ये मेरा आख़िरी पत्र हो।
—राघव
प्रिय राघव जी,
नहीं . . . ये आख़िरी पत्र नहीं हो सकता।
आप ऐसे नहीं जा सकते।
आपके शब्दों ने अनगिनत बार मुझे रोका है . . . तो क्या मैं आपको रोक भी नहीं सकती?
आपके भीतर जो टूट रहा है, वो किसी दिन किसी और को जोड़ सकता है।
आपकी बेटियाँ जब बड़ी होगी, तब शायद आपकी ये चुप्पियाँ उन्हें सुनाई देंगी।
और आपकी पत्नी . . . वो शायद कभी समझे ना समझे, पर आप ख़ुद को क्यों खोना चाहते हैं?
जीते रहिए, भले ही शब्द न हों।
—अंकिता
प्रिय अंकिता,
(तारीख: 23 जुलाई, देर रात)
शायद आपने आज मुझे बचा लिया।
शायद . . . बस आज के लिए।
धन्यवाद।
—राघव
नोट:
अगले दो महीनों तक राघव का कोई पत्र नहीं आया।
फिर एक दिन, एक बंद लिफ़ाफ़ा मिला—
प्रिय अंकिता,
(तारीख: 1 अक्तूबर)
शब्द लौटे हैं।
धीरे-धीरे . . . काँपते हुए . . . पर लौटे हैं।
शायद मैं अब फिर से जीने की कोशिश कर सकता हूँ।
कभी एक लंबी कहानी लिखनी है—एक लेखक की मौत पर।
पर उसका अंत ऐसा होगा कि लेखक बच जाएगा।
और वो शायद आज लिखी जा रही है।
—राघव
1 टिप्पणियाँ
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बहुत सुन्दर