तुम आओगे न
सन्दीप तोमरवह जानती है वह सब प्रेम तो क़तई नहीं था, लेकिन वह प्रेम से इतर उस सबमें कुछ और चाह कर भी तलाश नहीं पाती। उसका आलिंगन करना, क़ीमती उपहार लाकर देना, लुभावनी बातें करना और बात-बात में सखी-ओ-सखी कहना, कितना शातिर लगता था उसका हर व्यवहार, एकदम बनावटी व्यक्ति, कितने उपक्रम करता था वह मेरा प्रेम पाने के लिए, कितने पुख़्ता तरीक़े से जताता था, ‘सुजाता तुमसे बेइंतहा मोहब्बत है।’
सुजाता ने अपना बासठवाँ साल पूरा किया है। वह, यानी राजशेखर उससे पूरे आठ साल बड़ा था। अरे, आज चौबीस अक्तूबर है यानी राज का जन्मदिन, सत्तर बरस का हो गया आज। ‘ओह उसे रिटायर हुए भी दस साल हो गए,’ वह मन ही मन बुदबुदाई। उसकी आँखें डबडबा आई, राज का चेहरा आँखों के सामने तैरने लगा।
हनीमून पर उदास ही रही थी सुजाता। ओली गए थे वे। राज को ओली ऑफ़िस की तरफ़ से जाना था, पहाड़ों पर पली-बढ़ी सुजाता को पहाड़ बिलकुल भी आकर्षित नहीं करते थे। बर्फ़ गिरते देखना उसके बचपन के खेल सरीके थे। मैदानी लड़के से शादी, वह भी तो तंग आ गयी थी पहाड़ के कठोर जीवन से। बर्फ़ीले इलाक़े में होकर भी पानी की समस्या, दूर-दूर पानी के सोते, सिर पर मटकी रख पानी लेकर आना, घर तक क्या, गाँव में भी पाइप लाइन नहीं आई थी। सोचा था—शादी के बाद केरल के जंगल घुमूँगी या फिर गोवा बीच, और वहीं होगा हनीमून। ओली का नाम सुनते ही उसके दिमाग़ का पारा चढ़ गया था।
जनवरी का दूसरा सप्ताह, जब ओली में ख़ूब बर्फ़ गिरती है। राज ख़ुश था, सुजाता का उखड़ा मूड उसे अजीब लगा था लेकिन वह कारण नहीं समझ पाया था।
होटल में ही राज की सहकर्मी स्वाति मिल गयी। मल्टीनेशनल कम्पनी में जॉब करते हुए राज काफ़ी कुछ आधुनिक था, ऑफ़िस का कल्चर ही था कि लड़का-लड़की का कोई फ़र्क़ उनके दिमाग़ में नहीं था। स्वाति से हाथ मिलाना सुजाता को नागवार गुज़रा लेकिन वह कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी।
राज को नए रिक्रूटमेंट के लिए इंटरव्यू लेने थे। बिज़ी शड्युल के चलते उसने स्वाति को सुजाता के साथ शॉपिंग पर जाने को बोला तो उसकी त्योरियाँ चढ़ गईं—जनाब हनीमून पर आये हैं और अपनी सहेली के साथ शॉपिंग पर जाने को बोल रहे हैं। हालाँकि स्वाति ने तुरंत सहमति जता दी थी। शॉपिंग करते हुए सुजाता ने बार-बार स्वाति को टटोलने की कोशिश की—कहीं दोनों के बीच दोस्ती और नौकरी से ज़्यादा तो कुछ नहीं है, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।
छह दिन उसने छह जन्मों की तरह काटे। उखड़े मूड में ही वापिस लौटने की पैकिंग की। वापसी में राज ने सोचा, ’सुजाता से उसे अभी बहुत सी बातें करनी हैं, हनीमून और ऑफ़िस के काम के बीच सामन्जस्य बैठाकर भी वह सुजाता को अधिक समय नहीं दे पाया। हनीमून का मतलब ही एक–दूसरे को ज़्यादा से ज़्यादा जानना है।’
टूर की थकान की बात कह उसने ऑफ़िस से दो दिन का ऑफ़ ले लिया। ओली से कोटद्वार प्राइवेट टैक्सी लेकर आया। वहाँ से लेंसडाउन के लिए दूसरी टैक्सी हायर की। रास्ते में तिराहे पर रुक थोड़ा आराम करने की ग़रज़ से टैक्सी रुकवाई। टैक्सी ड्राईवर ने अपने अनुभव से पहचान लिया कि यह नव-विवाहित जोड़ा है। गाड़ी रोक उसने सीधा किचन का रुख़ किया। राज और सुजाता बड़े छाते की एक टेबल पर आमने-सामने कुर्सी पर बैठ गए।
बैरा चाय टेबल पर रख गया। राज ने कुछ स्नैक्स लाने का बोल बैरे को भेज दिया था।
राज ने कमीज़ की जेब से मार्लबोरो सिगरेट का पैकेट निकाला। एक सिगरेट निकाल होठों में दबाई। लाईटर निकाला ज़रूर था लेकिन बिना सुलगाये सिगरेट एक हाथ में पकड़ दूसरे हाथ की अंगुलियाँ उस पर फिराता रहा। ऐसा वह तब करता है जब तनाव उस पर ज़्यादा हावी हो जाता है। वेटर चाय रख गया था, उसने सिगरेट को वापिस पैकेट में रख चाय का कप बायें हाथ में पकड़ा।
“क्या-क्या बातें हुई स्वाति से?” सिप लेते हुए राज ने पूछा।
“क्या बातें करती, हम क्या एक-दूसरे को जानते हैं?” उसने माथे पर गिर गई लट को सम्भालते हुए जवाब दिया।
“तुम्हारी ड्रेस सेन्स को लेकर, तुम्हारी क्रिस्टियन घड़ी, तुम्हारी इम्पोर्टेड ज्वेलरी को लेकर तो कुछ बातें हुई ही होगी, आफ़्टर आल शी इज़ माय कुलीग।”
“कुछ ख़ास नहीं, बस वही सब कॉमन बातें जो एक न्यूली मैरिड से कोई भी जान-पहचान वाला या वाली करता है,” सुजाता बात को टालना चाहती थी।
“तुम इतना नपा-तुला जवाब क्यों देती हो हर बात का? पता है घर में इकलौता होने और बचपन में ही पिताजी के चल बसने के चलते मैं घर में बात करने को तरसता था। तुम भी यूँ चुप्पी साधोगी या इतना कम बोलोगी तो कैसे चलेगा?”
“सिर्फ़ चलाना है?” सुजाता तुनक गयी।
“मेरा मतलब वो नहीं था, देखो हम नयी गृहस्थी शुरू कर रहे हैं, बस मुझे तुम्हारा साथ चाहिए और कुछ भी नहीं। मैं घण्टों तुम्हारे साथ बतियाना चाहता हूँ। हम साथ बैठकर बिना किसी टॉपिक के बेवजह भी बातें कर सकते हैं। हमेंं एक-दूसरे से ज़रा भी कोफ़्त नहीं होनी चाहिए।”
चाय ख़त्म करते हुए कप को सामने की मेज़ पर रखते हुए सुजाता उसी मिज़ाज में बोली, “तभी काम के साथ हनीमून ट्रिप बनाया, वो भी इन पहाड़ियों में?”
“पहाड़ियों में तुम्हारा बचपन बीता, तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिए, प्राकृतिक छटाओं को देखकर।”
“बचपन से इन्हीं छटाओं को ही तो देख रही हूँ, क्या मेरे जीवन में कुछ भी नया नहीं होना? और अब ये लेंसडाउन?”
“ओह, तो उखड़े मिज़ाज की ये कहानी है, पहले बोल देते तो कुछ और कार्यक्रम बना लेते, अच्छा सुनो, पता है कल मेरा जन्मदिन है, 24 अक्टूबर, यहाँ लेंसडाउन की फ़िज़ाओं में जन्मदिन मनाएँगे, ख़ूब मस्ती करेंगे।”
चालीस साल पुरानी यादों से बाहर आ सुजाता के चेहरे पर एक हल्की ग़म की मुस्कान उभर आई। मानो वह ख़ुद से बतियाने लगी थी, “बहुत प्यार जताता था वह मुझ पर। दिखाता कि बहुत ख़्याल रखता है मेरा। बहुत घुमाया उसने, लगभग हर ऑफ़िशियल टूर पर साथ ले जाता, एक ऐसा प्यार हम दोनों के बीच था जो मानसिक दूरी बनाता गया, मगर वह सब प्यार ही नहीं था, शादी के बाद कभी बैठकर तसल्ली से बातें नहीं की।”
वह कच्चा-पक्का सा कॉटेज था, तक़रीबन पन्द्रह सालों से सुजाता इसी कॉटेज में रहती है—टिहरी डैम, झील और हाल ही में बने लम्बे पुल का आनन्द उठाने आये सैलानियों को कॉटेज का एक हिस्सा बतौर पेइंग गेस्ट देकर वह अपनी गुज़र-बसर कर रही है। अँधेरा हो चला था, सुजाता ने खाना बनाने की सोच अन्दर का रुख़ किया, तभी कॉटेज के गेट पर आहट हुई। ’इस वक़्त कौन हो सकता है?’ सुजाता ने मन ही मन सोचा। उसने कभी किसी रिश्ते-नाते वाले को यहाँ का पता नहीं दिया। माँ कब की चल बसी है, परिवार में चचेरे भाइयों ने उसका गाँव में रहना स्वीकार नहीं किया। डूब-क्षेत्र से उसके पिता की जो ज़मीन बची—उसमें उसने कॉटेज बनवाया और गुज़र करने लगी। आहट सुन वह बाहर आई। उसी का हमउम्र कोई सैलानी है। रहने की शर्तें तय होने के बाद वह सैलानी को अन्दर ले आई। हल्के अँधेरे के चलते उसने सैलानी का चेहरा ठीक से नहीं देखा। चाय का पानी चढ़ा वह साथ-साथ खाना बनाने की तैयारी में भी जुट गयी।
चाय तैयार हुई तो कप ट्रे में रख वह आगंतुक के कमरे की ओर बढ़ी, बाहर से आवाज़ दी, “साहब, जब तक खाना तैयार होता है आप चाय पी लीजिये।”
जलते इलेक्ट्रिक लैंप से कमरा जगमगा रहा था। आगंतुक आराम-कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था। चेहरे से वह भी पहाड़ी लगता था, हालाँकि शहरीकरण के चलते अब किसी को वेशभूषा से तो नहीं पहचाना जा सकता लेकिन चेहरे से काफ़ी कुछ अंदाज़ा हो ही जाता है। उसने तिपाई मेज़ पर चाय का कप रखा, अचानक आगन्तुक बोल उठा, “सु . . . जा . . . ता . . .?”
“आ. . . प . . .?” ‘अजनबी तुम मुझे जाने-पहचाने से लगते हो. . . ’ उसके मस्तिष्क में अचानक ये पक्तियाँ गूँज उठीं।
“सुजाता, तुमने मुझे नहीं पहचाना, मैं . . . दिवाकर भण्डारी . . . याद है हम बारहवीं कक्षा में साथ पढ़ते थे। तुम दुबली-पतली सी . . . बीच में माँग निकाल बालों को एकदम माथे पर दोनों तरफ़ करके कसकर चोटी बाँधती थी . . . लेकिन भाला फेंकने में तुमसे किसी का मुक़ाबला न था। तुम वही सुजाता हो न . . .?”
“ओह, हाँ दिवाकर . . . तुम तो बारहवीं करते ही दुबई चले गए थे?”
“बारहवीं भी कहाँ की थी, फ़ेल हो गया था मैं,” कहकर दिवाकर ने एक ठहाका लगाया।
“लेकिन दिवाकर तुमने मुझे ख़ूब पहचाना,” सुजाता ने उत्सुकता से कहा।
“हाँ, सुजाता! कुछ ख़ास लोग होते हैं जो भुलाये नहीं भूलते,” दिवाकर ने सामने लगे आदमक़द शीशे में अपने बालों की सफ़ेदी को देखते हुए हौले से कहा और एक लम्बी साँस छोड़ी, जिसकी आवाज़ सुनसान जगह बने कॉटेज के उस कमरे में गूँज गयी। जहाँ वह आरामकुर्सी पर बैठा था और सुजाता पास की तिपाई के क़रीब खड़ी थी। दिवाकर ने उसे बैठने का इशारा किया—मानो वह बहुत से रहस्य जानने को उत्सुक हो।
“दिवाकर तुम हाथ-मुँह धोकर तैयार हो जाओ मैं खाना बनाती हूँ,” कहकर सुजाता चलने को हुई।
“जानती हो सुजाता, दुबई में बरसों कुक का काम किया, खाना बनाना मैं अच्छे से जानता हूँ। किचन का रास्ता दिखाओ, खाना मैं बनाता हूँ।”
“नहीं, आज तुम मेरे मेहमान हो, आज भर मुझे ही बनाने दो, फिर जितने दिन इधर रहना है रोज़ मेरा, अपना और सैलानियों का तुम ही बनाना। मैं भी पंद्रह बरस खाना बनाते हुए थक गयी हूँ।”
सुजाता खाना बनाने चली गयी, दिवाकर तैयार होकर छोटे से डायनिंग हॉल में आया तो वह खाना टेबल पर लगा चुकी थी।
साज-सजावट देख दिवाकर ने कहा, “बहुत अच्छे से सजाया है तुमने पूरा कॉटेज।”
“ये न हो तो सैलानी यहाँ रहना पसन्द नहीं करेंगे,” खाने की दो थाली लगाते हुए उसने कहा।
“अच्छा, आज कोई सैलानी नहीं है?”
“दशहरा और दीवाली के बीच के समय सैलानी कम हो जाते हैं, उसके बाद झील का आनन्द लेने वालों की भीड़ बढ़ती है तो कॉटेज में भी ठहरने वाले आते हैं।”
खाना खाते हुए दोनों कभी हालात पर तो कभी पुराने दिनों की बातें कर रहे थे। खाने का आख़िरी कौर खाते हुए दिवाकर ने पूछा, “बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ?”
“दिवाकर एक तुम ही तो थे जो स्कूल में मेरे सबसे क़रीबी दोस्त थे, जिससे बिना कुछ कहे भी आँखों में सब कुछ कह जाती थी, शायद तुम यही पूछना चाहते हो कि मैं यहाँ इस हाल में कैसे?” सुजाता ने धारा-प्रवाह में वह सब भी कह दिया जो वह बरसों पहले न कह पायी। दिवाकर उसकी आँखों की नमी में दूर तैरते सपनों को तलाशने की कोशिश करने लगा।
सुजाता का मन कहता था कि राज ज़रूर आएगा। उसकी आँखें झील देखने आये सैलानियों में उसे तलाशती थी। लेकिन ये क्या संयोग था कि राज की बजाय आज इतने अरसे बाद दिवाकर उसके पास था, वही दिवाकर जिसके लिए उसने कितने ही सपने सजाये थे, जिसे वह अपने जीवनसाथी के रूप में अपने यौवन के दिनों में ही देखने लगी थी और दिवाकर एक दिन चुपचाप दुबई चला गया था।
दिवाकर हौले से बुदबुदाया, “कहाँ यादों के भँवर में खो गयी?” संशय और आश्चर्य का मिश्रित भाव उसके चेहरे पर उभर आया।
सुजाता ने गहरी निःश्वास छोड़ते हुए कहा, “कहाँ खोना दिवाकर, अब तो यह कॉटेज ही मेरी दुनिया है और इंतज़ार ही मेरी मंज़िल।”
“इंतज़ार! किसका इंतज़ार?” वह और अधिक विस्मित हो गया।
अक्टूबर की मध्यम रात्रि में सर्द मौसम में भी उसे इतनी तपिश महसूस हुई कि वह असहज हो गयी। एक फीकी हँसी हँसते हुए उसने कहा, “मेरी कहानी जानना चाहते हो, सुनो! ये एक लम्बी कहानी है।”
दिवाकर सामने टँगी हुई सुजाता की मुस्कुराती तस्वीर देखी जिसमें एक अजीब सा तेज लिए पुरुष का चेहरा भी था, उसे लगा कि हो न हो यही वह व्यक्ति है जिसके साथ सुजाता ने शादी की होगी, उसे वह तस्वीर और वे दोनों बहुत ही मोहक लगे, मानो वे एक-दूसरे के पूरक हों।
गुज़री ज़िन्दगी के पन्ने दिवाकर की स्मृतियों में आकर फड़फड़ाने लगे। सुजाता उसके बचपन के उन दिनों की दोस्त थी जब वह हँसने और लतीफ़े सुनाने को ही ज़िन्दगी समझता था। दोनों एक-दूसरे के संग गाँव से स्कूल तक का सफ़र रोज़ तय किया करते थे, यह साथ इतना ख़ुशनुमा था कि कभी दोनों को अहसास ही नहीं हुआ कि कैसे बिछुड़कर अकेला रहा जा सकता है? अपने पढ़ाई के दिनों को आनन्द से गुज़ारते रहे। बारहवीं की परीक्षा से चन्द दिनों पहले ही उसके पिताजी का देहांत हुआ तो परीक्षा ख़त्म होते ही परिवार के ख़र्च के बोझ के चलते वह दुबई चला गया, दुबई से वह पैसे ज़रूर भेजता रहा लेकिन वक़्त और अधिक कमाने की चाहत ने उसे वापिस न आने दिया।
सुजाता ने देखा—उसकी कहानी जानने की इच्छा जताने वाला दिवाकर ख़ुद एक अबूझ कहानी है, जो कहीं खो गया है, उसने कहा, “जनाब, अगर विचारों से बाहर आओ तो मैं सुनाऊँ अपनी दास्ताँ?”
दिवाकर को अपनी ग़लती का अहसास हुआ, वह सुजाता को कुछ अन्यमनस्क होकर देखने लगा।
सुजाता ने कहना शुरू किया, “मेरी कहानी तुम से शुरू होती है दिवाकर और अब ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर तुम्हारा मिलना ये कहता है कि इसे ख़त्म भी तुम पर ही हो जाना है, जब तुम अचानक मेरी दुनिया से ग़ायब हो गए तो मुझे लगा—चाहतों को ज़ाहिर होने के पलों से पहले ही मेरी दुनिया वीरान हो गयी। मेरी दुनिया बसने से पहले ही उजड़ गयी। ज़िन्दगी को सपनों की दुनिया से बाहर निकलकर वास्तविकता के समतल पर बसर करना था।
“इधर पिताजी के शिकार खेलने के शौक़ के चलते बंदूक के झाड़ियों में फँसने से उनके गले में गोली धँसी तो उन्हें बचाने में घर की सब सम्पत्ति स्वाह हो गयी। पिताजी अब एक तरह से अपाहिज हो चुके थे। माँ ने मेरी जन्मपत्री को शादी के लिए भेजना शुरू कर दिया, मैं तो ये कहने तक की स्थिति में भी नहीं थी कि मुझे दिवाकर का इन्तज़ार करना है। प्रेम के अहसास को मैंने मन में सहेज लिया। समय अपनी मंथर गति से निरंतर चलता रहा। जहाँ भी मेरी कुण्डली भेजी जाती वहीं से वापिस लौटा दी जाती। दोष था मेरी कुण्डली में, फिर मेरा साँवला रंग भी कुण्डली के साथ-साथ पहुँच जाता जो शादी ठीक न हो पाने की वजह बनता। एक वजह घर में भाई का न होना भी था। जहाँ भी रिश्ते की बात होती, वहाँ ये बात भी पहुँच जाती, किसी ने कहा—वहाँ रिश्तेदारी कैसे बनेगी, भाई तो है नहीं लड़की का, किसी ने कहा कि उनके पास तो लड़की के अलावा कुछ है नहीं देने को। एक जगह बात पक्की हुई भी लेकिन हमारी तरफ़ से ही मना कर दिया गया, सिर्फ़ कुण्डली ही भेजी थी, लड़का देखने आया, हमने मना कर दिया तो उन्होंने मेरे ऊपर देवता लगा दिया।”
“अरे, इस ज़माने में ये क्या देवता लगाने की बात कर रही हो?”
“मैं सच कह रही हूँ फिर ये आज के ज़माने कि नहीं तब की बात है, और ये सब मैं न भी मानती अगर मेरे साथ न हुआ होता।”
“मैं नहीं मानता ये सब।”
“तुम ख़ुद गढ़वाली होकर कह रहे हो कि मैं नहीं मानता, फिर किसी के मानने न मानने से सच तो नहीं बदल जाता। अच्छा सुनो, फिर मेरा रिश्ता कौसल हुआ, तब तक हमें भी नहीं पता था कि पहले रिश्ते वालों ने हम पर देवता लगा दिया है। मैं काफ़ी बीमार हुई, देवता का पता चला तो वह रिश्ता भी टूट गया; कौसल वालों ने भी मना कर दिया।”
“कौसल और जौनपुर गाँव के लोगों में इस तरह के अंधविश्वास अधिक हैं।”
“लेकिन वह लड़का तो कुमरादा का था जिन्होंने देवता लगाया, सालों ने मेरी ज़िन्दगी को कैसा मोड़ दिया, कैसा रंग दिया?”
“तुम किसी को गाली कैसे दे सकती हो?”
“मतलब जिन्होंने ये सब किया, उन्हें गाली भी न दूँ?”
“हाँ, शायद ज़िन्दगी सिखाने के लिए ही बनती है।”
“टीखोन भी जुड़ गयी थी कुण्डली, पिताजी देखने गए, वहाँ भी किसी ने देवता लगने की बात पहुँचा दी।”
“क्यों याद कर रही हो ये सब?”
“भूलने की भी तो कोई वजह नहीं है, आज सब कुछ फिर याद हो आया। कहाँ-कहाँ से वापिस नहीं आयी मेरी जन्मपत्री।”
“लेकिन मैंने तो सुना था कि दिल्ली में किसी लड़के से तुम्हारी शादी हुई और लड़का भी बहुत आदर्शवादी था, जिसने दहेज़ और बारात दोनों के लिए ख़ुद से मना किया था?” दिवाकर मानो किसी अवसाद से बाहर आना चाहता हो।
“हाँ, ये सही बात है कि राज बहुत ही आदर्शवादी थे, मुझे भी सुनकर अच्छा लगा था—पिताजी को तो सब समस्याओं से मुक्ति ही मिल गयी थी ये सब सुनकर कि लड़का बहुत ही सामान्य तरीक़े से शादी करना चाहता है। सभी तो ख़ुश थे, बस एक मैं ही थी जिसके मन की थाह लेने की किसी ने नहीं सोची।”
“तुम्हें इस सब से दिक़्क़त थी?” दिवाकर ने जानना चाहा।
“मुझे पछतावा सिर्फ़ इस चीज़ का है कि हम बड़े तो हो जाते हैं पर उस समय कितना बचपना रहता है। अपने ख़ुद के फ़ैसले नहीं ले पाते हम, जबकि हमेंं पूरा हक़ होता है अपने जीवन के फ़ैसले लेने का। जब हम बड़े होते हैं तब तक ये सब बातें बहुत पीछे चली जाती हैं।”
“हाँ, पर कभी-कभी उल्टा भी होता है।”
“दिवाकर, मैं सिर्फ़ अपनी ही बात नहीं कर रही हूँ, उस समय की सभी लड़कियों की बात कर रही हूँ। हम शादी जैसे बड़े फ़ैसलों को घर वालों पर छोड़ देते हैं, अपने आप कुछ नहीं बोलते हैं जबकि आज के समय को देखो लड़कियाँ कितना आगे तक निकल गयी हैं।”
“बात तो ठीक है लेकिन इन सब बातों से तुम्हारी शादी का क्या ताल्लुक़ है, ये बात मेरी समझ से बाहर है।”
“वहाँ देखने में यूँ तो सब कुछ व्यवस्थित और सामान्य था, पर कहीं न कहीं जीवन से वो उमंग अनुपस्थित थी जो एक नए परिवार के वर्तमान को मादक और भविष्य को आशावान बनाये रखती है। कोई अदृश्य सा कुहासा था जो छँट नहीं रहा था। राज की आदर्शवादी बातें और उसका अपने साथ जॉब करने वाली लड़कियों के साथ इतना दोस्ताना व्यवहार; मुझे क्या किसी भी नवविवाहिता को गवारा नहीं होता। ख़ैर छोड़ो ये सब, रात बहुत गहरा गयी है। तुम अब आराम करो, मैं भी जाकर सोती हूँ, बाक़ी बातें सुबह नाश्ते की टेबल पर होंगी,” कहकर सुजाता उठकर अपने कमरे को ओर मुड़ गयी।
नींद आज उसकी आँखों से कोसों दूर थी। सुजाता सोच रही थी—जब कभी वह मायके जाती, उसके स्वभाव में एक अलग उल्लास और रौनक़ आ जाती थी। जबकि राज के साथ रहते हुए वह घुटन महसूस करती। उन दिनों कभी जब वह मायके होती राज न ही कोई सम्पर्क करता, न ही उसे लेने ही आता। शादी के बाद से कभी राज ससुराल गया हो ऐसा कोई दिन उसे याद नहीं आया। इस बात पर सोचकर उसे बड़ा आश्चर्य होता। एक अलग तरह की खीज लिए उसका चेहरा ख़ुद के लिए भी नितान्त अजनबी सा होता। जब भी उसने इस बारे में बात करने की कोशिश की तो राज से सहयोग नहीं मिला। उसका उदासीन व्यवहार देखकर वह भी धीरे-धीरे अभ्यस्त सी होती गयी। उसे ये एहसास हो चला था कि रिश्तों की डोरी अब इतनी उलझ चुकी है कि सुलझाने के फेर में और उलझती जाएगी। कहते हैं—बहुत सी गाँठें सिर्फ़ समय ही सुलझाता है, लेकिन वह जानती थी कि वह समय अब शायद ही उसकी ज़िन्दगी में आए।
सुजाता के जीवनसाथी के रूप में राज सरल स्नेहिल स्वभाव के बावजूद कोई छाप न छोड़ सका। उनकी परस्पर बातचीत हमेशा ही झगड़े में बदल जाती, और सुख-दुःख में भी दोनों के व्यवहार में तनाव झलकने लगा। राज का दर्शन इतना समृद्ध था कि हर व्यक्ति उसका क़ायल हो जाता, किसी भी व्यक्ति को वह आसानी से नसीहतें दे दिया करता। किसी भी कठिन से कठिन परिस्थिति में अथवा किसी समस्या का समाधान उपलब्ध न होने पर, सामने वाले को दिलासा देने के लिए उसके पास बहुत कुछ होता। उसने न जाने कितनी ही बार सुजाता को भी समझाना चाहा लेकिन हर बार वह समझने को तैयार ही नहीं होती।
वे जब कभी घूमने भी जाते तो पुरानी बातों को याद करके उलझ जाते, आज इतने वर्षों बाद पुरानी बातों को नई टीस के साथ याद करके वह पुनः व्यथित हो गयी। आँखों में ही रात कटी, वहीं दिवाकर ख़ुद को तरोताज़ा महसूस कर रहा है। सुजाता ने चूल्हे पर चाय चढ़ा दी, दिवाकर भी सीधे रसोई में ही चला आया। भाव यह था कि सदियों से सुनसान रास्ते पर चलता रहा दिवाकर सुजाता के मन के अँधेरे को प्रकाश देने का सोच प्रफुल्लित था। उसे सोते समय लगा कि इस अँधेरे को दोनों उजाले से ख़त्म कर सकते हैं। पर उसे इस बात का भी इल्म था कि जिस हँसती-खिलखिलाती लड़की के कलेजे में सदियों पुराना दर्द समाया हुआ है, उसे इतनी आसानी से दूर भी नहीं किया जा सकता।
“सुजाता, अब तो पूरी ज़िन्दगी तकलीफ़ दूँगा तुमको,” अचानक दिवाकर ने कहा। सुनकर सुजाता अचकचा गयी।
“मैं तुम्हारा आशय नहीं समझी?” सुजाता की आवाज़ कुछ धीमी थी, मानो वह कहीं खोई हुई है और अचानक दिवाकर ने कुछ कहकर उसे अवचेतन से अपनी दुनिया में खींचना चाहा हो।
“तुमको तकलीफ़ नहीं दूँगा . . . बस इन वादियों में अब फिर से जीने की तमन्ना है, दुबई की ज़िन्दगी से थक जो गया हूँ,” वह उत्साहित था।
सुजाता ने कोई जवाब नहीं दिया। बस वह मौन हो गयी।
“ज़रा भी तकलीफ़ नहीं सुजाता, जो भी तुम बनाओगी, बस खा लूँगा, अब इच्छाएँ भी तो हमारी तरह ही बूढ़ी हो चली हैं।”
सुजाता कुछ असहज अवश्य हुई, पर कुछ ख़ास नाराज़ नहीं लग रही थी इस बचपन के साथी से। चाय छान, दो कप में डाल वह रसोई से बाहर आ गयी। दिवाकर भी पीछे-पीछे चला आया। दोनों के हाथों में चाय के कप थे।
कुछ देर दोनों के बीच मौन रहा, दिवाकर ने ही चुप्पी को तोड़ा, “अच्छा सुजाता, रात की अधूरी कहानी पूरी करो, जानना चाहता हूँ कि क्या कुछ गुज़रा तुम्हारी तन्हा ज़िन्दगी में?”
“दिवाकर, आज मैं जहाँ खड़ी हूँ वहाँ से मेरे मन में जो ख़्याल आते हैं उनसे मुझे लगता है कि मैंने जीवन भर बस खोया ही खोया है पाया कुछ भी नहीं। आज मुझे एक अपराध-बोध होता है, बहुत ग्लानि होती है, आज मैं ख़ुद से कनफ़ेस करना चाहती हूँ, अपने सब गुनाहों को क़ुबूल कर लेना चाहती हूँ, लेकिन अफ़सोस! ये सब सुनने के लिए राज यहाँ नहीं है। काश एक बार राज से मुलाक़ात हो तो मैं अपने सब गुनाह क़ुबूल कर उससे माफ़ी माँग लूँ।”
दिवाकर सुनकर आश्चर्यचकित हुआ, उसने कल्पना भी नहीं की होगी कि जीवन की कहानी सुनाते-सुनाते वह गुनाह, माफ़ी जैसी बातें करने लगेगी, उसे लगा कि सुजाता की मानसिक स्थिति सही नहीं है।
उसने सुजाता से कहा, “सुजी, अगर तुम्हें लगता है कि वाक़ई तुम्हें ग्लानि है और तुम राज से माफ़ी माँगना चाहती हो तो या तो तुम्हें राज के पास लौट जाना चाहिए या फिर चिट्ठी लिख उसे यहाँ बुला लेना चाहिए। लेकिन मेरे सवाल का जवाब तुमने अभी भी नहीं दिया।”
“दिवाकर! मैंने अपने जीवन में जो भूलें की हैं, तुम्हें सब बताती हूँ। आज याद आता है कि कितनी स्वार्थी हो चली थी मैं। उसके हर काम, हर व्यवहार को मैंने शक की निगाह से देखा,” सुजाता ने स्वर में अप्रसन्नता घोलने का भरसक प्रयास किया।
सुजाता ने दिवाकर को बताया, “दिवाकर तुम्हें याद होगा, हमारे साथ मेरे ही पड़ोस का लड़का राजेंद्र पढ़ता था, तुम्हारे जाने के बाद जब मैं बहुत टूट गयी, तब राजेंद्र ने मुझे सहारा दिया। शाम को छत पर आ जाता और मैं घण्टों उसके कंधे पर सिर रखकर बैठ जाती, हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगे। शादी के कुछ ही दिन हुए थे कि राजेंद्र ने मिलने की ज़िद की, मैं वहाँ के रास्तों और जगहों के बारे में ज़्यादा नहीं जानती थी। राज घर पर नहीं थे तो मैंने उसे घर पर ही बुला लिया। राज ऐन वक़्त पर टूर से आ गए थे, राज को देख मैं और राजेंद्र दोनों घबरा गए। राज बिना कुछ कहे टॉयलेट रूम चले गए। राजेंद्र चुपचाप वहाँ से चला गया लेकिन न जाने राज ने इस बात को कैसे लिया? मैं कई दिनों तक इस बात से असहज रही, मैंने ग़लती ये की कि राज से उसका परिचय नहीं कराया। राज के अधिकांश टूर पर रहने के चलते मैं सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने लगी थी। तभी एक फ़ौजी से मेरा संपर्क हुआ, इत्तेफ़ाकन उसकी पत्नी की मौत हो चुकी थी। बातचीत के बाद पता चला कि वह हमारी ही कॉलोनी में रहता है। पता ही नहीं चला कि कब बातचीत प्रेम में बदल गयी। हाँ, दिवाकर! उस फ़ौजी से हुआ स्नेह प्रेम में परिणत हो चुका था। उसने कई बार राज को छोड़ उसके पास चले आने का आग्रह किया। मैं कई बार उसके फ़्लैट पर भी गयी। लेकिन जल्दी ही अपनी ग़लती का अहसास हुआ, लेकिन शायद तब तक देर हो चुकी थी। एक दिन फ़ौजी के फ़्लैट से निकलते हुए राज मुझे टकरा गया था। राज ने कभी कुछ नहीं कहा लेकिन अब हमारे बीच अबोला बढ़ गया।”
अपने और राज के बीच घटे लगभग हर प्रसंग को सुनाकर सुजाता ने कहा, “राज की सरलता या अपनापन, पता नहीं क्यों मुझे अरुचिकर लगता। वह क्या था जिससे वह मुझे पराया सा लगने लगा। जब तक मैं उस घर में रही, एक अव्यक्त झुँझलाहट हम महसूस करते रहे। यह झुँझलाहट गर्मी की रातों में अलाव तापने जैसी लगती। राज को छोड़ आने के बाद फिर सम्पर्क नहीं किया। मैंने अपनी ओर से कभी कोई पहल भी नहीं की राज से संपर्क करने की; लेकिन उसने भी तो कभी मेरी सुध नहीं ली,” सुजाता अनायास ही स्मृतियों के जाले साफ़ करने की चेष्टा करने लगी।
“अब पुरानी बातों को याद करने से कोई लाभ नहीं है, सुजाता,” दिवाकर ने आगे कहा, “समय से काफ़ी पहले ही तुम उसका साथ छोड़ चुकी हो। ऐसे देवतुल्य जीवनसाथी का मिलना एक संयोग से कम नहीं होता। एक बात सुखद है—आज तुमने ख़ुद से अपनी ग़लतियों को न सिर्फ़ माना बल्कि तुम्हें आत्मग्लानि भी हुई, मैं दुआ करूँगा कि राज एक दिन तुम्हें खोजते हुए यहाँ तक ज़रूर पहुँचें।”
दिन बोझिल हो रहा था और वे दोनों आशा भरी नज़रों से एक-दूसरे को देख रहे थे। दोनों ही चुप हो गए थे, परन्तु नज़रों में एक अव्यक्त तलाश हर क्षण दोबाला होती जा रही थी। दिवाकर अपने चेहरे पर फीकी हँसी लाने का प्रयास कर रहा है। सुजाता का चेहरा नम हो गया था, वह दिवाकर से परे शून्य में देख रही थी।
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