बदनुमा दाग़

01-02-2024

बदनुमा दाग़

सन्दीप तोमर (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

वह एक लाइब्रेरीनुमा कमरा था। मैंने कमरे को हैरत भरी निगाह से देखा। इतनी सारी किताबें किसी के घर पर पहली बार देख रही थी। इतनी किताबें तो पढ़ते हुए कॉलेज की लाइब्रेरी में ही देखी थीं। 

मैंने एक सोफ़े की कुर्सी पर क़ब्ज़ा जमा लिया। तभी एक छोटी-सी बच्ची कमरे में दाख़िल हुई। “गुड इवनिंग मैडम।” उसने बड़ी दबी सी आवाज़ में कहा। 

कॉपी, किताब उसके हाथ में थी। मैंने उसे बैठने का इशारा किया। 

निखिल के गुज़र जाने के बाद घर का ख़र्च चलाने के लिए ट्यूशन करना मेरी मजबूरी थी। ट्यूशन के साथ ही बच्चों की परवरिश कर सकती थी। एक 8 साल की बेटी और दूसरी तीन साल की, उनकी परवरिश करना कितना कठिन है, ये निखिल के जाने के बाद ही पता चला। 

उस छोटी लड़की से मैंने नाम पूछा था। लड़की ने जवाब में कहा, “आई एम यशिता।”

ट्यूशन मेरी मजबूरी थी लेकिन इतनी छोटी बच्ची को ट्यूशन? जिन्होंने मुझे यहाँ भेजा था, उनसे क्लास और फ़ीस की बात ही नहीं हुई थी। इस कमरे में बैठे मैं कुछ असहज महसूस करने लगी थी। अनमने से ही सही लेकिन यशिता को पढ़ाने के लिए मैंने कॉपी खोल उस पर कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच दी। कुछ निर्देश दिए तो यशिका अपने काम में मग्न हो गयी और मैं . . . मैं . . . कहीं खो सी गयी। इतनी किताबें रखने वाला इंसान और बेटी के लिए लेडी ट्यूटर? मैं स्वयं कोई जवाब खोजती तभी एक आहट ने मेरा ध्यान भंग किया। 

“हेलो, मिस . . .”

“कनिका। माय नेम इज़ कनिका,” मैंने स्वयं से कहा। 

“यस आई नो।”

“ . . .?” 

“शायद आपको याद नहीं, हम पहले भी मिल चुके हैं।”

मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डाला। चेहरा वाक़ई कुछ जाना पहचाना था। अनायास ही मेरे मुँह से निकला, “मिस्टर सहाय . . .”

“यस कनिका, आई एम मिस्टर सहाय। आप मुझे सुकुमार भी कह सकती हैं,” मिस्टर सहाय ने कहा। 

“ओके मिस्टर सहाय, आई मीन सुकुमार। आपका बड़ा नाम है, लेखन की दुनिया से बहुत परिचित तो नहीं लेकिन आपके चर्चे अख़बारों और कुछ पत्रिकाओं में पढ़े ज़रूर हैं,” मैंने उनसे कहा। 

“ओह! तो आप साहित्य में रुचि रखती हैं?” 

“ज़्यादा तो नहीं लेकिन थोड़ा बहुत पढ़ लेती हूँ, बस समय मिलना चाहिए।”

अभी एक शान्ति सी कमरे में पसर गयी है। मैं यशिका की कॉपी पर निगाहें गड़ा लेती हूँ। 

मिस्टर सहाय ने आराम कुर्सी को पकड़ा है। उसी के बराबर में एक छोटा सा फ्रीज़र है। मिस्टर सहाय एक बीयर और दो काँच के मग निकालते हैं। 

मग में बीयर डलने की आवाज़ से मेरी निगाह ऊपर उठती है। एक आदमी और दो मग? मैं कुछ बोलती इससे पहले ही मिस्टर सहाय एक मग उठाकर मेरी तरफ़ बढ़ाते हैं “मिस कनिका, लीजिये कुछ ठंडा हो जाये।”

“जी लेकिन ये तो बीयर है, और . . .”

मैं आगे कुछ बोल पाती उससे पहले ही मिस्टर सहाय बोल पड़ते है, “मिस कनिका, बी बोल्ड यार, आप नए ज़माने की महिला हैं, निखिल के साथ एक ज़माने में हमारे बिज़नेस रिलेशन थे। आज वे यहाँ नहीं है। वक़्त ने उन्हें इस दुनिया से जुदा कर दिया। लेकिन आपके जज़्बे को मैं सलाम करता हूँ। कितने सलीक़े से आपने गृहस्थी को सँभाला है।”

“सब वक़्त का फ़ैसला है सुकुमार,” मग को हाथ में लेते हुए मैंने कहा। 

यशिका वहाँ से दूसरे कमरे में जा चुकी थी। मुझे महसूस हुआ, ‘कितनी समझदार बच्ची है, उसे मालूम है कि पापा अगर अपनी लाइब्रेरी में हैं तो उसे वहाँ से चला जाना चाहिए। मुझे याद आया कि मिस्टर सहाय की पत्नी को गुज़रे हुए दो साल से ज़्यादा समय हो चुका है, याशिका तब मात्र डेढ़-दो साल की रही होगी, कितना मुश्किल होता है एक पिता के लिए माँ हो जाना? उतना ही मुश्किल है एक माँ के लिए पिता हो जाना।’ 

निखिल से मेरी मुलाक़ात एक शादी में हुई थी, इतना हैंडसम लड़का देख मेरे दिल में कितने ही ख़्वाबों ने एक साथ दस्तक दी, काश ये लड़का मेरी ज़िन्दगी में आये। मैं ये सब सोच ही रही थी कि निखिल मेरे पास आया और उसने कहा था, “मिस बहुत ख़ूबसूरत हैं आप, क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?” 

“जी, कनिका शर्मा।” 

“मिस कनिका, मुझे निखिल कहते हैं, छोटा सा कारोबार है, ‘चोपड़ा सर्जीकल’ के नाम से, जिसका प्रोपरायटर मैं ही हूँ। हैंडीकैप लोगों के उपकरण बनाता हूँ, ये एक समाजसेवा भी है और बिज़नेस भी।” निखिल ने एक ही पल में अपना पूरा बायोडाटा मेरे सामने रख दिया था। 

इस एक मुलाक़ात ने हमने बहुत क़रीब का खड़ा किया। दो-चार मुलाक़ातों के बाद ही बात शादी तक पहुँच गयी थी। मेरे पापा डॉक्टर थे, इसलिए मेरे लिए अपनी ही लाइन के लड़के की खोज में थे। कितना लड़ी थी मैं निखिल के लिए। आख़िर पापा को मेरी ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा था, पापा की लाड़ली जो थी। पापा को जितना भी मेरी शादी में ख़र्च करना था वह सब पापा ने कैश के रूप में निखिल को देते हुए कहा था, “बेटा, इस राशि को अपने बिज़नेस को बढ़ाने में इस्तेमाल करना। नाज़ों से पाली है मैंने अपनी बेटी, जीवन भर साथ निभाना।” 

साथ निभाने पर याद आया, वह एक मनहूस रात थी। निखिल अभी घर वापस आये ही थे, उन्होंने कहा था, “कनिका, बहुत ज़ोरों की भूख लगी है, जल्दी से खाना लगाओ, मैं बाथरूम से फ्रेश होकर आता हूँ।” 

मैं खाना लगा ही रही थी कि निखिल के मोबाइल पर कोई कॉल आया, पता नहीं क्या बात हुई, निखिल बाथरूम से निकले तो बोले, “कनिका, जल्दी से हॉस्पिटल पहुँचना है, मेरे दोस्त का रोड एक्सीडेंट हुआ है, सीरियस हालत है, उसे इमिडियेट ब्लड की सख़्त ज़रूरत है। कितना मुश्किल होता है छोटे शहरों में ब्लड का इंतज़ाम करना।” 

मैंने निखिल को कहा था, “निखिल इफ़ यू डोंट माइंड, मैं भी साथ चलूँ?” 

कुछ सोचते हुए निखिल ने कहा, “ठीक है, चलो लेकिन तैयार होने में ज़्यादा समय मत लगाना, बस एक चुटकी सिन्दूर लगा तुम बहुत ख़ूबसूरत लगने लगती हो।” 

बिना समय गँवाए दुपट्टा उठा, चप्पल पहन मैं दो मिनट में निखिल के सामने थी, खाना डाइनिंग टेबल पर ढककर रख दिया था, तभी मैंने निखिल को कहा, “सुनो, ख़ाली पेट डॉक्टर, ब्लड नहीं लेते, एक रोटी खा लो।” 

निखिल ने मुझे एक पल निहारा और खड़े-खड़े ही एक रोटी के ग्रास बना खाते हुए कहा था, “माय लवली स्टुपिड वाइफ़, कितना ख़्याल रखती हो मेरा।” 

हम दोनों बाइक पर बैठ हॉस्पिटल पहुँचे, ब्लड दिया और डॉक्टर से बातचीत करके हॉस्पिटल से निकल पड़े। अभी कुछ दूर ही चले थे, सामने से आते ट्रक से बाइक टकरा गयी। जब होश आया तो बस कुछ शब्द मेरे कानों में पड़े थे, निखिल इज़ नो मोर . . .

मिस्टर सहाय की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी, “मिस कनिका, कहाँ खो गयी? बियर का गिलास गरम हो जायेगा।” 

“कुछ नहीं, सुकुमार, बस वह मनहूस रात याद हो आई थी, जब निखिल . . .” 

“हाँ कनिका, शहर की सबसे दर्दनाक रात थी वह, हमारे शहर में तब मातम का माहौल था। होनी बलवान है।” 

मैंने मिस्टर सहाय से कहा, “सुकुमार, आज मूड नहीं, आप बियर एन्जॉय कीजिये, फिर कभी कंपनी दूँगी,” कहकर मैं हाथ में लिया गिलास मेज़ पर रख उठ खड़ी हुई थी। 

यशिका को पढ़ाना शुरू कर दिया था। यशिका की रोज़मर्रा की ज़रूरतें यूँ तो सुकुमार पूरी करते लेकिन मुझे महसूस हुआ-एक माँ के काम करने का जो तरीक़ा होता है वह एक पिता का कभी नहीं हो सकता। धीरे-धीरे मैंने यशिका के बहुत से छोटे-मोटे काम करने/देखने शुरू कर दिए। मिस्टर सुकुमार बेटी का बहुत ख़्याल रखते, उसके कपड़ों से लेकर उसकी अलमारी, उसके खिलौने, उसकी किताबें सब क़रीने से लगी होतीं, किचन में नुडल्स से लेकर अन्य ज़रूरत की चीज़ें भी रखी होतीं, जब मैं पढ़ाने जाती तो यशिका का दूध तैयार करके मग उसके हाथ में रखती और कहती, “हमारी बिटिया रानी जितनी जल्दी पीयेगी, उतनी जल्दी बड़ी होगी।” उसका जवाब होता, “ओके मिस।” और एक बार में मग का दूध ख़त्म करके रख देती। मुझे यशिका के लिए काम करना अच्छा लगता। 

इधर मैंने महसूस किया कि सुकुमार मुझे ख़ूब बातें करते, अपने निजी जीवन की, अपने लेखन की, अपने अकलेपन की। मुझे महसूस होता कि सुकुमार मुझसे कुछ कहना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पाते। यशिका से स्नेह बढ़ता जा रहा था। मुझे लगने लगा-जैसे ज़िन्दगी की और ज़रूरतें है वैसे ही यशिका भी मेरी ज़रूरत में शुमार हो गयी है। 

एक शाम मैं निर्धारित समय पर यशिका को पढ़ाने गयी। मैं अक़्सर उसे सुकुमार की लाइब्रेरी में ही पढ़ाती थी। उस समय सुकुमार वहाँ नहीं आते थे। अभी एक घंटा ही बीता होगा, मैं लगभग सारा होमवर्क उसे करा चुकी थी, तभी सुकुमार लाइब्रेरी आये, मैंने कहा, “सर, याशिका को होमवर्क करा दिया है, वह दूध भी पी चुकी है, सब्ज़ियाँ बनी हुई है बस रोटियाँ सेक लेना। मैं अब निकलती हूँ।” 

“रुकिए न मिस कनिका, हमसे तो बात किये अरसा हो गया। एक उधार भी बाक़ी है, इजाज़त हो तो चिल्ड बियर का एक-एक मग हो जाये।” 

“सुकुमार, यूँ तो मूड नहीं लेकिन आपका आग्रह बार-बार टालने का मलतब आपको नाराज़ करना होगा, और आपको हम नाराज़ करना नहीं चाहते।” मैंने आगे कहा, “लाइए, आज ड्रिंक्स हम बनाते हैं।” मैंने दो गिलास उठाये और बियर की बजाय वोडका की बोतल उठा दो पैग बनाये, एक में सिक्सटी एमएल और दूसरे में थर्टी एमएल, सोडा डाल कर एक गिलास में पानी डाला। गिलास मेज़ पर रख मैंने कहा, “लीजिये सुकुमार, हैव अ चियर्स।” 

दोनों ने अपना अपना गिलास उठाया और आपस में टकराकर होंठों से लगा लिया। सुकुमार ने कहा, “मिस कनिका, इतना कम पानी आपके गिलास में?” 

“मैंने पानी डाला ही कब? सिर्फ़ सोडा है, मैं ड्रिंक में पानी नहीं लेती और थर्टी एमएल के दो पैग से ज़्यादा कभी नहीं।” 

बातें हो रही थी, सुकुमार ने चौथा पैग ख़त्म कर लिया था, मेरा अभी दूसरा यानी लास्ट हाथ में था। गिलास रख नट्स उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया ही था कि सुकुमार ने मेरी कलाई को अपने हाथ में लेते हुए कहा, “मिस कनिका, यशिका की कितनी ज़रूरतों में तुम हाथ बँटाने लगी हो, बहुत ख़ुश रहती है वह तुम्हारा साथ पाकर।” 

“जी,” मेरे मुँह से निकला, मैंने अपनी कलाई छुड़ाने का कोई उपक्रम नहीं किया, बरसों बाद मुझे निखिल की छुवन जैसा ही का अहसास हुआ। मुझे लगा मानो सुकुमार के भेष में निखिल मेरे सामने बैठा कह रहा हो, ‘निकिता! बच्चे तुममें इतने खोये रहते हैं कि मेरी याद ही नहीं आती’, मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे। सुकुमार का हाथ मेरे गालों पर था, मेरे आँसू पोंछ उन्होंने कहा, “मिस कनिका, लगता है कुछ पुराना याद आ गया। कहीं निखिल की यादें . . .?”

“जी, कभी-कभी निखिल की यादें बहुत पीछा करती हैं।” 

मैं थोड़ा नर्वस फ़ील कर रही थी लेकिन सुकुमार की बातों में, उनके हाथों में एक अजीब आकर्षण था। कब मेरा हाथ पकड़ उन्होंने अपने होंठों से लगाकर चूमा, मुझे पता ही नहीं चला। जैसे एक इंद्रजाल मेरे चहुँ ओर  है और मैं उनके नियंत्रण में हूँ। कुर्सियों के बीच की दूरी घट गयी थी और दो जिस्मों के बीच की भी। सुकुमार का हाथ पीठ से होता हुआ दायें हिस्से की गोलाई को छूने लगा। एक झटका मुझे लगा, मैंने कहा, “सॉरी, सुकुमार हम कुछ ज़्यादा आगे बढ़ रहे हैं और हाँ, बच्चे भी घर पर मेरा इन्तज़ार कर रहे होंगे।” मैं एक झटके में उठी और बाय बोल घर के लिए चल दी। 

रास्ते भर मैं विचारों के अंधड़ में घिरी रही। घर पहुँची तो बेटी को किचन में पाया, मन किया सारा प्यार जो सुकुमार से बचाकर, छुपाकर लायी सब मेरी बेटी पर लुटा दूँ। बेटी ने कहा, “ममा, छोटी खाने की ज़िद कर रही थी, मैंने सोचा एक पराँठा बनाकर उसे खिला दूँ, लेकिन वह मैगी की ज़िद कर रही थी फिर पेस्ट्री की डिमांड करते-करते सो गयी।” 

मेरा हाथ मैगी के डिब्बे की ओर बढ़ा, देखा डिब्बे में कोई पैकेट शेष नहीं था, राशन के डिब्बे भी मेरी क़िस्मत की तरह ख़ाली थे। मेरी आँखों के सामने सुकुमार का चेहरा घूमा, एक मुस्कान मेरे चेहरे पर फैल गयी। रात में सोते वक़्त दोनों बेटी मेरे दायें-बायें थी। घंटों मैं उनका सिर सहलाती रही, अश्रुधारा मेरा चेहरा गीला किये थी। 

अगले दो दिन मैं यशिका को पढ़ाने नहीं गयी लेकिन ज़्यादा दिन ख़ुद को जाने से रोक नहीं पायी। मैं याशिका की ज़रूरत थी, मुझे वहाँ होना चाहिए। जैसे ही मैं वहाँ पहुँची तो देखा—सुकुमार किचन में थे, यशिका के लिए उपमा बना रहे थे, मैंने कहा, “लाइए, मैं बना देती हूँ, आप आराम कीजिये; और हाँ, चाय लेंगे या कॉफ़ी?” 

“कॉफ़ी,” सुकुमार ने कहा तो मैंने पूछा, “लेकिन आप तो हमेशा चाय ही परेफ़र करते हैं, फिर आज . . .?”

“मिस निकिता, आप चाय पीती नहीं हैं, कॉफ़ी पियूँगा तो आप साथ देंगी ही।” 

मैंने यशिका के लिए उपमा बनाते हुए ही दूसरे स्टोव पर कॉफ़ी बननी रख दी। समय बचाना भी ज़रूरी था ताकि यशिका का पिछले दो दिन का पढ़ाई का हर्जाना भी पूरा हो सके। 

यशिका ने जल्दी ही उपमा ख़त्म किया और लाइब्रेरी में किताबें लेकर पहुँच गयी। मैंने कॉफ़ी के दो मग हाथ में लिए और सुकुमार से पूछा कि आप लिविंग रूम में कॉफ़ी पियेंगे या फिर लाइब्रेरी? उन्होंने लाइब्रेरी आने का बोला तो मैं मग ले लाइब्रेरी की ओर बढ़ गयी। 

यशिका को पाठ समझा मैंने कॉफ़ी का कप हाथ में लिया और सिप लेने लगी। मिस्टर सुकुमार भी आ चुके थे, आराम कुर्सी पर बैठ वह अपना कॉफ़ी का मग लिए बैठे रहे। मैं यशिका को पढ़ाने में व्यस्त हुई तो कुछ और देखने-समझने का दिमाग़ में नहीं आया। 

याशिका ने अपना काम निपटाया और अपने रूम की ओर बढ़ गयी, मैंने कहा, “सुकुमार, मैं जा रही हूँ, खाना खा लीजियेगा, यशिका को भी खिला दीजिये।” 

जैसे ही मैं आगे बढ़ी, सुकुमार ने मेरी कलाई को पकड़ लिया। मेरी निगाह उनके चेहरे पर पड़ी, आँखों से निकले आँसू सूख चुके थे लेकिन निशान अभी तक बाक़ी थे, कॉफ़ी के मग में कॉफ़ी ठंडी हो चुकी थी। सुकुमार ने कहा, “मिस निकिता कुछ पल बैठो। आपसे कुछ बात करनी है।” 

“जी, कहिये,” कहकर मैं कुर्सी खीँच उनके पास बैठ गयी, “बेटियाँ इन्तज़ार कर रहीं होंगी, छोटी कितनी ही बार इंतज़ार करके भूखे ही सो जाती है,” मैंने कहा। 

“मिस कनिका, यही तो मैं कहना चाहता हूँ, यशिका को भी आपकी ज़रूरत है और उन दोनों बच्चियों को भी, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तीनों बच्चियाँ साथ ही रहें ताकि तुम्हारी दो जगह की चिंता भी ख़त्म हो और मैं भी यशिका की बड़ी चिन्ताओं से मुक्त।” 

मैं कुछ भी जवाब दे पाने की स्थिति में नहीं थी, मुझे लगा कि दो बच्चों की विधवा माँ को क्या ये अधिकार है कि वह किसी का दामन थाम समाज में किसी की लिवइन पार्टनर होने का बदनुमा दाग़ अपने माथे पर ले? क्या ये दाग़ लेकर वह लेकर कहीं आ जा सकेगी? मैं चुप बैठी रही। 

मिस्टर सुकुमार आराम कुर्सी से उठ कमरे में चहलक़दमी करने लगे। फिर आकर बैठ गए, एक छोटी-सी डिब्बी उनके हाथ में थी। उन्होंने मेरी कलाई को हाथ में थाम मेरी अंगुली में डिब्बी से अँगूठी निकाल पहना दी। एक चीख मेरे अंदर से निकली, “नहीं सुकुमार, ये नहीं हो सकता . . . कैसे मैं निखिल को भुला सकती हूँ . . .?” 

“मिस निकिता मैं कब कह रहा हूँ, कि तुम निखिल की यादों को भुला दो, बस मैं इतना चाहता हूँ कि आज से तुम मिसेज निकिता सहाय कहलाओ। इजाज़त दो तो कल ही कोर्ट जाकर शादी की फोरमेलिटी पूरी करता हूँ, किसी के साथ लिवइन में रहने का मैंने कभी ख़्वाब नहीं पाला।” 

यशिका का चेहरा मेरी आँखों के सामने तैरने लगा, मेरे कान मानों उसके मुँह से माँ सुनने को लालायित हों, अगले ही पल निखिल का चेहरा मेरे ज़ेहन में आया, वह मुस्कुराता कह रहा था, “निकिता, मैं तो बीता हुआ कल हूँ, पूरा जीवन तुम्हारे सामने है।” 

एक अश्रुधारा मेरी आँखों से बह निकली। 

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