पहली मुलाक़ात के आख़िरी होने के मायने

01-10-2022

पहली मुलाक़ात के आख़िरी होने के मायने

सन्दीप तोमर (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सन् 1999 में मैं दिल्ली आ गया लेकिन साहित्य से नाता सन् 2001 से हुआ, नाता क्या हुआ लेखन शुरू हुआ। अस्सी के दशक से पहले से ही देश के कोने-कोने से साहित्यकार, पत्रकार और शिक्षक दिल्ली आकर अपनी साधना में रत् थे। दिल्ली एक विशेष सारस्वत दीप्ति से भरी रही है। उस दीप्ति का एक भाग मेरे हिस्से भी यदा-कदा आता रहा है। 

इसी कड़ी में 15 सितम्बर 2020 की शाम सुभाष नीरव का फोन आया। 

“आज शाम को फ़्री (खाली) हो?” 

“जी, बताइये, क्या काम है?” 

“नरेंद्र मोहन राजोरी गार्डन रहते हैं, उनसे मिलने जाने का तय है, मैं चाहता था तुम भी साथ चलो।” 

“. . .” 

“क्या बात है मूड नहीं है चलने का?” 

“नहीं, वह बात नहीं है।”

“तो क्या बात है?”

“बिना पूर्व परिचय के क्या इस प्रकार जाना उचित रहेगा?” 

“अरे भाई, वे अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी हैं। उनसे तुम्हें साथ लाने की अनुमति भी ले ली है और तुम्हारा और तुम्हारे साहित्य का हल्का-फुल्का परिचय भी दे दिया है। उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा हो चुकी है।”

“मुझे ख़ुशी होगी। आप समय बताइये, मैं आपको घर से ले लूँगा, इत्मीनान से अपने स्कूटर से आपको ले चलूँगा।”

मैं बेहद ख़ुश था, ख़ुश इसलिए कि

राजोरी गार्डन के हरे रंग के फ़्लैट्स की सोसाइटी में थोड़ी खोजबीन के बाद उनका मकान खोजने में हम दोनों क़ामयाब हो गए। मकान का पहला कमरा काफ़ी बड़ा और किताबों से भरा हुआ, सुभाष जी ने बताया कि यहाँ नरेंद्र जी की बेटी बैठती है। हम मकान के सबसे अंतिम छोर तक गए जहाँ नरेंद्र जी का अध्ययन कक्ष था। पहली मुलाक़ात के चलते मैं थोड़ा नर्वस और शांत था। औपचारिक अभिवादन के साथ हम सोफ़े पर पसर गए। 

इस बीच नरेन्द्र मोहन जी खाने के काफ़ी समय से सोच रहा था कि उम्रदराज़ साहित्यकारों की सूची बनाकर उनसे भेंटवार्ता करूँगा, उनका एक औपचारिक साक्षात्कार लूँगा। अच्छा था कि सुभाष नीरव की मारफ़त नरेन्द्र मोहन जी से भेंट हो जायेगी। लिए नमकीन-बिस्किट लेकर आ गए। बैठकर बातचीत शुरू हुई। उनका व्यवहार और बातचीत का अंदाज़ देखकर मैं गहरे में प्रभावित हुआ। प्रभावित इसलिए भी हुआ कि एक समीक्षक, नाटककार, कवि से संयुक्त रूप से इस तरह पहली बार मिल रहा था। 

“नरेंद्र जी, आपको बहुत पहले से दैनिक जागरण के माध्यम से जान रहा हूँ, प्रत्यक्ष मुलाक़ात पहली बार हुई है।” 

सुनकर वे असमंजस में मुझे देखने लगे। 

“सर, दैनिक जागरण के रविवारीय पृष्ठ पर आपकी कवितायें छपतीं थीं, जिनकी कटिंग आज भी मेरे पास हैं।” 

अब उन्होंने मामले का ख़ुलासा करते हुए कहा, “संदीप! जिनकी बात तुम कर रहे हो, वे अलग नरेंद्र हैं, भाई तुम्हें अकेले को नहीं बल्कि बहुतों को ये भ्रम होता रहा है, कई बार तो उनकी (उनके व्यक्तित्व की) वजह से मुझे स्पष्टीकरण भी देना पड़ा कि मैं वह नरेंद्र मोहन नहीं हूँ।” 

इस बात पर हम तीनों ख़ूब देर तक हँसते रहे। 

दिल्ली का लॉक-डॉउन, फिर अनलॉक डॉउन और इस कोरोना काल में घर में बन्द रहते-रहते उकताहट, बोरियत और अवसाद के क्षणों के बीच सुभाष जी का स्वास्थ्य का ग्राफ़ ऊपर-नीचे होता रहा था, हालाँकि इस बीच भी वे कभी कुछ अनुवाद, कभी कुछ मौलिक लेखन करते रहे। उनसे बात करते हुए मुझे लगता मानो वे हाथ मिलाकर और गले मिलकर मिलने की कमी को ज़्यादा महसूस कर रहे हैं। फोन पर निरंतर बातचीत के ज़रिये मैं इस कमी को कम करने का प्रयास करता रहा। एक दिन मैंने घरों से कुछ देर बाहर निकल कहीं बैठने की योजना बनाई और हम पहली बार घरों से बाहर निकले, सिर्फ़ अपने लिए, एक-दूजे से मिलने के लिए। 29 अगस्त 2020 को हम जनकपुरी के एक रेस्टोरेंट में ढाई-तीन घण्टे बैठे, उन एतिहातों का पालन करते हुए जो कोरोना काल में बेहद ज़रूरी हैं। 

ऐसा ही अवसर था डॉ. नरेन्द्र मोहन जी से उनके राजौरी गार्डन निवास पर मिलने का। जैसे इस समय सब बेताब थे कि किसी अपने से मुलाक़ात हो, हमें लगा कि वह भी बेताब थे किसी से मिलने को . . . उनके चेहरे पर प्रसन्नता थी, वह ख़ुश दिख रहे थे। उनके निवास पर मेरी उनसे पहली और सुभाष जी की यह दूसरी मुलाक़ात थी। 

यह बेहद ख़ुशनुमा मुलाक़ात थी, ढेर-ढेर बातों भरी मुलाक़ात। इसमें साहित्य, किताबों, नाटकों, प्रकाशनों से जुड़ी बातें शामिल थी। देश-दुनिया की बातें करते हुए हम भूल गए कि कोरोना क्या है। 

एक दिन पहले ही डॉ. साहब की मंटो पर लिखी जीवनी 'मंटो ज़िन्दा है' का तेलुगु संस्करण छपकर आया था। जिसे Chaaya Resources Centre, Hyderabad ने बहुत ख़ूबसूरत छापा है। इसका तेलुगु में अनुवाद डॉ. टी.सी. वसंता ने किया है। उनके निवास-स्थान पर हिन्दी के सुपरिचित कथाकार, कवि एवं अनुवादक श्री सुभाष नीरव के हाथों डॉ. साहब की इस पुस्तक का लोकार्पण हुआ, इस गौरवमयी क्षण का गवाह मैं भी बना। इस मुक़द्दस मौक़े पर तब मैंने कहा था,“गोर्की, चेखव और मोपासाँ जैसे कथाकारों के साथ विश्व के कथा-शीर्ष पर खड़ा मंटो अपने समय का बेहतरीन लेखक है। आज उस लेखक का जन्मदिन है। और आज हम उस महान लेखक से भारत की नयी पीढ़ी को परिचित करने वाले लेखक के साथ उसे याद कर रहे हैं।” 

किताबों का आदान-प्रदान हुआ। सुभाष जी ने अपना सद्यः प्रकाशित कविता संग्रह ‘बिन पानी समंदर’ जो प्रलेक प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया था, की एक प्रति डॉ. नरेन्द्र मोहन जी को भेंट की। सुभाष जी की यह पुस्तक उन्हीं को समर्पित है। उन्होंने 2019 में किताबगंज प्रकाशन से छपे अपने लघुकथा संग्रह ‘बारिश तथा अन्य लघुकथाओं’ की एक प्रति भेंट की, जिसकी मेरे द्वारा लिखी समीक्षा कई जगह प्रकाशित है। मैंने भी अपनी एक संपादित किताब उन्हें भेंट की। ‘महक अभी बाक़ी है’ की कविताओं पर नज़र डालते हुए उन्होंने कहा, “संदीप! इतनी कम आयु में जो साहित्य की समझ तुम्हें है, उसके आधार पर अपने अनुभव से कह रहा हूँ, तुममें साहित्य की असीमित संभावनाएँ हैं। राजनीति इत्यादि पर लेखन से परे कविता की आलोचना पर बिना कोई शोर किए कुछ सार्थक काम करो।” 

“लेकिन मैं तो गद्य लेखन पर ख़ुद को अधिक फ़ोकस रखता हूँ, कविता की आलोचना पर क्या ही काम कर पाऊँगा?” 

डॉ. साहब ने विस्तार से समझाया कि क्या और कैसे करना है और मेरी मदद का पूरा आश्वासन दिया। मन प्रफुल्लित हुआ कि लेखन में प्रथम गुरु मिल गए। वार्तालाप से समझ आया कि उनमें अन्तर्दृष्टि थी, चीज़ों को उनकी केन्द्रीयता में पहचानने की दीप्ति थी और भाषा में समीक्षकीय भाषा की संश्लिष्टता थी और सबसे बड़ी बात यह थी कि मेरी प्रतिभा को निखारने की मंशा को भी तटस्थ भाव से उजागर किया गया था। बातचीत में उन्होंने पूछा, “संदीप, क्या-क्या लिखा है तुमने?” 

“जी, कहानियाँ, उपन्यास, कुछ कवितायें और लघुकथा, वैसे दो भाग आत्मकथा के भी आ चुके हैं।” 

सुनकर वे ख़ुश हुए। मैंने बताया, “सर, अभी एक डायरी के प्रकाशन की भी योजना है, मोहन राकेश की डायरी जो उनकी तीसरी पत्नी अनीता राकेश ने संपादित की, उसे पढ़कर, उससे प्रेरित होकर ही ये डायरी लिखनी शुरू की थी।” 

डॉ. साहब ने अपनी हाल में प्रकाशित डायरी की प्रति दिखाते हुए कहा, “मैं अपने लेखन के शुरूआती समय से डायरी लेखन कर रहा हूँ।” 

डायरी पर चर्चा करते हुए सुभाष जी ने कई सवाल किए जिनके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा, “डायरी कोई रोज़नामचा नहीं होता, डायरी एक अनूठी विधा है, जिसमें लेखक को अधिक सजग होकर घटनाओं का चयन और वर्णन करना होता है।” 

यह उनसे पहली भेंट हुई जिसमें उनका प्रत्यक्ष व्यक्तित्व तो सामने था ही, उनके नरम-नरम स्वभाव का उजास भी उसमें मिला हुआ था। लम्बी-चौड़ी काया, चेहरे पर गहरी निश्छल मुस्कराहट, आँखों में स्वागत का भाव और अपनापन दे देने के लिए उत्सुकता। पहली ही भेंट में भा गये थे, गुरु मान लिया था डॉ. साहब को। 

बातचीत के बीच वे कमरे से उठकर गए और खीर की दो कटोरी ट्रे में रखकर लाये। मैंने उन्हें बताया कि खीर मेरा पसंदीदा व्यंजन है। बातचीत के समय सुभाष जी लगातार फोटो क्लिक करते रहे थे। डॉ. साहब साहित्य पर, अपने पसंदीदा लेखक मंटो पर, मिस्टर जिन्ना नाटक पर चर्चा करते रहे, मैं और सुभाष जी मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे। मन में विचार उठते रहे कि आज से शुरू हुई ये नयी यात्रा अनंत काल तक चलती रहे। न जाने कितनी शामों, कितनी सुबहों, कितने गोष्ठी-प्रसंगों, कितनी यात्राओं के भविष्य के सपने मेरी आँखों के सामने तैरने लगे। एक लंबी मुलाक़ात के बाद मैं और सुभाष जी अपनी झोली में अनुभव, स्मृति का ख़ज़ाना, स्नेह, और भविष्य की योजना लेकर वापिस लौट आए। 

उनके सुझाए गए विषय, कविता पर आलोचनात्मक लेखन का सपना मुझे हर पल याद रहता, मुझे लगता रहा कि दो-चार मुलाक़ातों के बाद कुछ और मार्गदर्शन मिलेगा तो साहित्य में कुछ नया कर पाऊँगा। इस बीच उनके बारे में शोधपरक साहित्य भी पढ़ा। जितना पढ़ता गया उतना ही गहरे साहित्य में उतरता चला गया। 

‘मंटो ज़िन्दा है’ के तेलुगु संस्करण के लोकार्पण की रिपोर्ट लिखकर कुछ अख़बारों में भेजी, छपकर आई तो नरेंद्र जी को उनके मोबाइल पर भेजी, कॉल करके आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने अपनी ख़ुशी प्रकट की, अनुभव हुआ कि रचनाकार को हर कृति की ख़ुशी प्रथम रचना की तरह ही होती है। 

नरेंद्र जी की संवेदनाओं और विचारों की आवाजाही उनके लेखन को पढ़कर होती रही और मैं ख़ुद को उनके क़रीब पाता गया। उनसे पुनः मिलने की रूपरेखा बना ही रहा था कि पता चला-वे अस्पताल में भर्ती हैं, फिर वह समय आया कि नई पीढ़ी को मण्टो से परिचित कराने वाले नरेंन्द्र जी हमारे बीच नहीं रहे। उस दिन नरेन्द्र मोहन जी ने मंटो के ऊपर विस्तृत बातचीत की थी। मन में रुदन चलता रहा, एक अभिभावक मित्र मुझे छोड़ गए थे। अभी उनके साथ बैठकर बहुत कुछ सीखना था। उनके जाने की ख़बर से बहुत विचलित हुआ। उस पहली मुलाक़ात में क़रीब तीन घण्टे हम डॉ. नरेन्द्र मोहन जी के साथ रहे थे। कोरोना काल में यह हमारी एक अविस्मरणीय मुलाक़ात बन गई थी। ख़ाली-ख़ाली से गए थे, लौटे तो भरे-पूरे थे। इस मुलाक़ात की कुछ तस्वीरें मेरे लैपटॉप में उनकी यादों के साथ हैं। 

मैं सदा अनुभव करता रहा हूँ कि मैं जो कुछ बना हूँ, बहुत बड़ी शख़्सियतों के बीच बना हूँ। राजेन्द्र यादव, रामदरश मिश्र, नरेंद्र मोहन उनमें सर्वोपरि हैं। परस्पर वैचारिक और संवेदनात्मक आवाजाही करते हुए हम ख़ुद को बनाने के लिए बहुत कुछ प्राप्त करते हैं। दूसरों के आकलन से हमें ख़ुद को समझने में सहायता मिलती है। मन कहता है, “गुरुजी ऐसी भी क्या जल्दी थी जाने की, अभी तो आपसे लेकर ख़ुद को और समृद्ध करना था, नए सोपान रचने में आपकी जो भूमिका तय थी, उसके लिए क्या उपाय हो?” 

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