उदास गलियाँ

01-05-2024

उदास गलियाँ

सन्दीप तोमर (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

मैं गाँव की उदास गलियों से
निकलकर
यहाँ महानगर में
चला
आया हूँ; 
नहीं, नहीं
ये विस्थापन नहीं, 
विस्थापन तो एकदम नहीं है, 
रोज़ी-रोटी, गुज़ारे का सवाल
मुझे ले आया है
महानगर के वीराने में, 
ये वीराना मुझे गुज़ारे का
सब सामान तो देता है
लेकिन रोज़ लील लेता है
मेरे अन्दर के भावों को
और याद आने लगती है मुझे
अपने गाँव की उदास गलियाँ। 

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