सावन : चार कुंडलियाँ
त्रिलोक सिंह ठकुरेलासावन बरसा ज़ोर से, प्रमुदित हुआ किसान।
लगा रोपने खेत में, आशाओं के धान॥
आशाओं के धान, मधुर स्वर कोयल बोले।
लिए प्रेम-सन्देश, मेघ सावन के डोले।
'ठकुरेला' कविराय, लगा सबको मनभावन।
मन में भरे उमंग, झूमता गाता सावन॥
सावन का रुख देखकर, दादुर ने ली तान।
धरती दुल्हन सी सजी, पहन हरित परिधान॥
पहन हरित परिधान, मोर ने नृत्य दिखाया।
गूँजे सुमधुर गीत, ख़ुशी का मौसम आया।
'ठकुरेला' कविराय, मास है यह अति पावन।
कितने व्रत, त्यौहार, साथ में लाया सावन॥
जल की बूँदों ने दिया, सुखदायक संगीत।
विरही चातक गा उठा, विरह भरे कुछ गीत॥
विरह भरे कुछ गीत, नायिका को सुधि आई।
चला गया परदेश, हाय,प्रियतम हरजाई।
'ठकुरेला' कविराय, आस है मन में कल की।
सिहर उठे जलजात, पड़ीं जब बूँदें जल की॥
छाई सावन की घटा, रिमझिम पड़ें फुहार।
गाँव गाँव झूला पड़े, गूँजे मंगलचार॥
गूँजे मंगलचार, ख़ुशी तन-मन में छाई।
गरजे ख़ुश हो मेघ, बही मादक पुरवाई।
'ठकुरेला' कविराय, ख़ुशी की वर्षा आई ।
हरित खेत, वन-बाग़, हर तरफ़ सुषमा छाई॥